शब्द का अर्थ
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क्रिया :
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स्त्री० [सं० कृ+श, रिङ् आदेश] १. कोई कार्य चलते या होते रहने की अवस्था या भाव। २. कोई ऐसा विशिष्ट कार्य जो किया जा रहा हो या किया जाता हो। जैसे—अन्त्येष्टि क्रिया। ३. कोई काम करने का ढंग, तरीका या विधि। जैसे—पारे की शोधन क्रिया (एक्शन, उक्त सभी अर्थों में) ४. वे सब कार्य जो नित्य या नैमित्तिक रूप से किये जाते हों। जैसे—नित्य क्रिया-शौच, स्नान, पूजन आदि। ५. उपचार, चिकित्सा प्रायश्चित, शिक्षा आदि के रूप अथवा इनके संबंध में नियम और विधि के अनुसार होनेवाले कार्य। जैसे—शस्त्र क्रियाव्यवहार क्रिया (मुकदमें की कारवाई आदि) ६. व्याकरण में वे शब्द जो किसी कार्य घटना आदि के होने या किये जाने के वाचक होते हैं। (वर्ब) जैसे—आना, खाना, जलना, पीना, बोलना, हँसना, आदि। |
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क्रिया-कलाप :
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पुं० [ष० त०] १. शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट संस्कार और कर्म। २. किसी व्यक्ति के द्वारा किसी क्षेत्र या समय में होनेवाले कार्य। जैसे—उस ऐँद्रजालिक के क्रियाकलाप देखकर सब लोग दंग रह गए। |
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क्रिया-कांड :
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पुं० [ष० त०] वेदों के वे विभाग अथवा वे शास्त्र जिनमें करम-कांड के विधान बतलाये गये हैं। |
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क्रिया-चतुर :
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पुं० [सं० त०] साहित्य में श्रृंगार रस का आलंबन वह नायक जो अनेक प्रकार के कौशल या छल करके अपना कार्य सिद्ध करने में दक्ष हो। |
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क्रिया-निष्ठ :
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वि० [ब० स०] १. शास्त्रों में बतलाये हुए धर्म धर्म-कार्य आदि ठीक तरह से और नियमित रूप से करनेवाला। २. अपने कर्त्तव्य या काम में ठीक तरह लगा रहने और उसका निर्वाह करनेवाला। |
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क्रिया-पटु :
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वि० [स० त०] कार्यकुशल। |
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क्रिया-पथ :
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पुं० [ष० त०] उपचार-विधि। |
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क्रिया-पद :
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पुं० [मध्य० स०] १. व्याकरण में, क्रिया का वाचक पद या शब्द। २. शब्दों का ऐसा पद या समूह जो क्रिया के रूप में प्रयुक्त होता हो। |
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क्रिया-पाद :
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पुं० [उपमित० स०] १. धर्म-शास्त्र में व्यवहार या मुकदमें के चार पादों (अंगों) में से एक जिसमें प्रतिवादी की ओर से वादी के अभियोग का उत्तर मिल चुकने पर वादी अपने प्रमाण साक्षी आदि उपस्थित करता है। २. शैव-दर्शन में दीक्षा-विधि का अंगों और उपांगों सहित प्रदर्शन। |
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क्रिया-फल :
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पुं० [ष० त०] १. यज्ञ आदि कर्मों से प्राप्त होनेवाले फल जो पुण्य, स्वर्ग-प्राप्ति आदि के रूप में होता है। २. वेदांत में कर्म के चार फल या परिणाम। यथा-उत्पत्ति, आप्ति, विकृति, और संस्कृति। |
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क्रिया-ब्रह्म :
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पुं० [कर्म० स०] द्वैतवादियों के अनुसार ब्रह्म का वह रूप जो सब प्रकार की क्रियाएँ करनेवाला माना जाता है। |
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क्रिया-मातृका-दोष :
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पुं० [ष० त०] बालकों का एक रोग जिसमें उन्हें जन्म से दसवें दिन, मास, या वर्ष ज्वर, कंप और अधिक मलमूत्र होता है। |
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क्रिया-योग :
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पुं० [तृ० त०] १. कार्य या क्रिया के साथ होनेवाला संबंध। २. पुराणों के अनुसार देव-पूजा और मंदिर-निर्माण आदि धार्मिक कार्य। ३. योग के तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान तीन क्रियात्मक रूप। (योग-सूत्र) ४. व्याकरण में शब्दों का क्रिया के साथ होनेवाला योग का संबंध। |
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क्रिया-लक्षण-योग :
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पुं० [ष० त०] जप, ध्यान आदि के द्वारा अपनी आत्मा या ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना। |
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क्रिया-लोप :
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पु० [ष० त०] शास्त्र विहित नित्य-नैमित्तिक कर्मों का अभाव अर्थात् न किया जाना। |
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क्रिया-वाचक :
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वि० [ष० त०] क्रिया का अर्थ देने वाला। (पद या शब्द)। |
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क्रिया-विशेषण :
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पुं० [ष० त०] व्याकरण में ऐसा शब्द जिसमें किसी क्रिया अथवा विशेषण के संबंध में कोई विशिष्ट बात सूचित होती हो अथवा उसके काल, प्रकार, रूप स्थान आदि का बोध होता हो। जैसे—‘बहुत बड़ा’ में का ‘बहुत’ कब चलना है में का ‘कब’ अथवा ‘वे अचानक आ पहुँचे’ में का ‘अचानक’ क्रिया विशेषण है। |
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क्रिया-शक्ति :
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स्त्री० [ष० त०] १. कोई कार्य कर सकने की शक्ति या समर्थता। २. [कर्म० स०] वेदांत में, ईश्वर से उत्पन्न वह शक्ति जिसमें ब्रह्मांड की सृष्टि का होना माना जाता है। |
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क्रिया-शील :
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वि० [ब० स०] १. क्रिया या कार्यों में लगा रहने वाला। २. दे० ‘कर्म-निष्ठ’। |
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क्रिया-संक्रांति :
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स्त्री० [ष० त०] शिक्षण। विद्यादान। |
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क्रिया-स्नान :
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पुं० [मध्य० स०] धर्मशास्त्र की विधि से किया जानेवाला ऐसा स्नान जिससे तीर्थ स्नान का फल मिलता हो। |
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क्रियाकार :
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पुं० [सं० क्रिया√कृ+अण्] क्रिया या काम करनेवाला। |
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क्रियातिपत्ति :
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पुं० [सं० क्रिया-अतिपत्ति, ष० त०] साहित्य में एक काव्यालंकार जिसमें प्रकृत से भिन्न कल्पना करके किसी विषय का वर्णन किया जाता है। |
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क्रियात्मक :
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वि० [सं० क्रिया-आत्मन्, ब० स० कप्] १. क्रिया या कार्य के रूप में आया या किया हुआ। २. जिसका क्रिया या कार्य के रूप में उपयोग या व्यवहार हो सकता हो। (प्रैक्टिकल) |
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क्रियाद्वेषी (षिन्) :
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पुं० [सं० क्रिया√द्विष् (द्वेष करना)+णिनि] धर्मशास्त्र में वह प्रतिवादी जो प्रमाण, साक्षी आदि को बिलकुल न मानता हो। |
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क्रियापंथ :
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पुं० =कर्मकांड। |
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क्रियापवर्ग :
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पुं० [सं० क्रिया-अपवर्ग, ष० त०] कार्य का अन्त। समाप्ति। |
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क्रियाभ्युपगम :
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पुं० [सं० क्रिया-अभ्युपगम, ष० त०] खेत के मालिक तथा किसान में होनेवाला वह समझौता जिसके अनुसार किसान को फसल का आधा भाग खेत के स्वामी को देना होता है। अधिया। (मनुस्मृति)। |
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क्रियार्थ :
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पुं० [सं० क्रिया-अर्थ, ब० स०] यज्ञ आदि क्रियाओं और आचरण आदि कर्त्तव्यों के संबंध में प्रमाण या विधि के रूप में माने जानेवाले वाक्य। |
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क्रियार्थक-संज्ञा :
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स्त्री० [क्रिया-अर्थक, ब० स० क्रियार्थक-संज्ञा, कर्म० स०] व्याकरण में वह संज्ञा जो किसी कार्य या क्रिया का भी अर्थ देती हो। जैसे—कहना, खाना, सोना आदि। (बर्बल नाउन) |
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क्रियावसन्न :
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पुं० [क्रिया-अवसन्न, तृ० त०] साक्षी या प्रमाण के अभाव में हार जानेवाला वादी। |
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क्रियावाची (चिन्) :
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वि० [सं० क्रिया√वच् (बोलना)+णिनि]=क्रियावाचक। |
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क्रियावादी (दिन) :
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पुं० [सं० क्रिया√वद् (बोलना)+णिनि] न्यायालय में अभियोग लेकर आनेवाला व्यक्ति। अभियोग (मुकदमा) चलानेवाला व्यक्ति। |
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क्रियावान् :
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वि० [सं० क्रिया+मतुप्, वत्व] १. सक्रिय। २. कर्मनिष्ठ। |
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क्रियाविदग्धा :
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स्त्री० [स० त०] साहित्य में वह नायिका जो कुछ विशिष्ट क्रियाओं या कार्यों के द्वारा नायक पर अपना अभिप्राय या भाव प्रकट करे। |
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