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व  : नागरी वर्णमाला का उन्नीसवाँ व्यंजन जो व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अंतस्थ, घोष, अल्प्राण ईषत्प्रष्ट तथा दंत्यौष्ठ्य है।
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व  : पुं० [सं०√वा (गमनादि)+क०] १. वायु। २. वाण। ३. वरूण। ४. बाहु। ५. मंत्रणा। ६. कल्याण। ७. सांत्वना। ८. बस्ती। ९. समुद्र। १॰. शार्दूल। ११. वस्त्र। १२. कोई का कंद। सेरकी। १३. जल में पैदा होनेवाले कंद। शालूक। १४. बंदन। १५. अस्त्र। १६. खड्गधारी पुरुष। १७. मूर्वान्लता। १८. वृक्ष। १९. कलश से उत्पन्न ध्वनि। २॰. मद्य। २१. प्रचेता। अव्य० [फा०] और। जैसे–अमीर व गरीब। सर्व० ‘वह’ का संक्षिप्त रूप।
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वंक  : वि० [सं०√वंक् (टेढ़ा होना)+अच् (कर्तरि)] १. टेढ़ा। वक्र। २. कुटिल। पुं० [√वंक्+घञ्] नदी का मोड़। वंकर।
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वक  : पुं० [सं०√वंक् (टेढ़ा होना)+अच्, पृषो० नलोप] १. बगला नाम का पक्षी। २. अगस्त का पेड़ या फूल। ३. एक प्रकार का यज्ञ। ४. कुबेर। ५. एक प्राचीन जाति। ६. एक राक्षस जिसे भीम ने मारा था। ७. एक असुर या दैत्य जिसे श्रीकृष्ण जी ने मारा था।
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वंक-नाल  : पुं०=वंकनाली।
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वंक-नाली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] सुषुम्ना (नाड़ी)।
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वक-पंचक  : पुं० [सं०ष०त०] कार्तिक शुक्ल एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक की पाँचों तिथियाँ।
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वक-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] अरक, आसव आदि खींचने का एक तरह का भबका।
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वक-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] धोखा देकर काम निकालने की घात में उसी प्रकार लगे रहने की वृत्ति जिस प्रकार बगुला शान्त भाव से खड़ा रहकर मछली पकड़ने की घात में रहता है।
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वक-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० वकव्रती] १. बगले की तरह चुपचाप और सीधे बनकर किसी का अनिष्ट करने की ताक में रहना। २. [ब० स०] उक्त प्रकार से घात में लगा रहनेवाला व्यक्ति।
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वकच्छ  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन जनपद जो नर्मदा नदी के किनारे था।
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वकजित्  : पुं० [सं० वक्र√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] १. श्रीकृष्ण। २. भीमसेन।
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वंकट  : वि० [सं० वंक्] १. टेढ़ा। बाँका। २. कुटिल। ३. दुर्गम। विकट।
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वंकर  : पुं० [सं० वंक्√रा (लेना)+क] नदी का घुमाव या मोड़।
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वकर  : पुं०=वकर (नदी का घुमाव या मोड़)।
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वंका  : स्त्री० [सं० वंक+टाप्] चारजामे (जीन) के अगले हिस्से का ऊँचा उठा हुआ किनारा।
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वंका  : स्त्री०=वंक्रि।
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वका  : स्त्री० [सं० वृंक+टाप्] पाढ़ा (लता)।
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वक़ार  : पुं० [अ०] १. प्रतिष्ठा। मान-मर्यादा। २. बड़प्पन। महत्व।
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वकालत  : स्त्री० [हिं० वकील] १. वकील होने की अवस्था या भाव। २. वकील का काम या पेशा। ३. अन्य व्यक्ति द्वारा किसी के पक्ष का किया जानेवाला मंडन (व्यंग्य)।
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वंकाला  : स्त्री० [सं०] प्राचीन वंग देश की राजधानी का नाम। (बंगाली इसी का अपभंश रूप है।)
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वकिंग-कमिटी  : स्त्री० [अं०] किसी संस्था, सभा आदि की वह समिति जो उसकी व्यवस्था करती है।
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वंकिम  : वि० [सं० वंक+इमनिच्] आकार, रचना आदि के विचार से कुछ झुका हुआ या टेढ़ा। पुं० आवारा आदमी।
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वंकिल  : पुं० [सं०√वंक्+इनच्] कंटक। काँटा।
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वकील  : पुं० [अ० वाकिल] १. वह व्यक्ति जो किसी की ओर से उसका कोई काम करने का भार अपने ऊपर ले। प्रतिनिधि। २. किसी का संदेश कहीं पहुँचानेवाला व्यक्ति। संदेश-वाहक। दूत। ३. राजदूत। एलची। ४. वह जो किसी की ओर से उसके पक्ष का युक्तिपूर्वक मंडन या समर्थन करता हो। ५. आज-कल विधिक क्षेत्र में, एक विशिष्ट परीक्षा पारित और विधिक दृष्टि से अधिकार-प्राप्त वह व्यक्ति जो न्यायालय में किसी पक्ष की ओर से खंडन, मंडन आदि का काम करने के लिए नियुक्त होता है।
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वकुल  : पुं० [सं०√वंक् (टेढ़ा)+कुलच्] १. अगस्त का पेड़ या फूल।
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वकुला  : स्त्री० [सं० वकुल+टाप्] कुटकी नामक ओषधि।
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वकुली  : स्त्री० [सं० वकुल+ङीष्] १. काकोली नाम की ओषधि २. मौलसिरी का फूल।
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वकुश  : पुं० [सं०] जैनियों में वह महापुरुष जिसे भक्तों की चिंता रहती है।
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वकूअ  : पुं० [अ० वकूआ] प्रकटीकरण। क्रि० प्र०–में आना।–होना।
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वकूफ  : पुं० [अ० वकूला] १. जानकारी। ज्ञान। २. बुद्धि। समझ। ३. काम करने का अच्छा ढंग। शऊर। सलीका। मुहावरा–वकूफ पकड़ना=अक्ल सीखना।
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वकूफदार  : वि० [अ०+फा०] [भाव० वकूफदारी] १. समझदार २. अनभवी।
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वक्त  : पुं० [अ० वक्त] १. समय। काल। क्रि० प्र०–काटना।–गँवाना।–बिताना। मुहावरा– किसी पर वक्त पड़ना=कष्ट या विपत्ति के दिन आना। २. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त समय। अवसर। मौका। जैसे–आप भी ठीक वक्त पर आये। ३. वह निश्चित समय जो किसी विशिष्ट काम के लिए नियत हो। जैसे–उन्हें मैंने यही वक्त दिया था, शायद चले गये हों। ४. पंचांग, घड़ी आदि के अनुसार विवक्षित पल घड़ी, दिन आदि। जैसे–खाने का वक्त, सोने का वक्त, स्कूल का वक्त आदि। ५. उतना समय जितना किसी कार्य के सम्पादन में लगा हो। जैसे–इस काज में २ घंटे का वक्त लगेगा। ६. अवकाश। फुरसत। जैसे– अगर वक्त मिले तो आप भी आ जायँ। ७. मृत्यु का समय। जैसे–जब जिसका वक्त आ जायगा तब उसे जाना ही पडे़गा।
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वक्तव्य  : वि० [सं०√वच् (बोलना)+तव्य] [भाव० वक्तव्यता] १. जो कहा जाने को हो। २. जो कहे जाने के योग्य हो। ३. जिसके संबंध में कुछ कहा जा सकता हो। पुं० १. वक्ता का कथन। २. वह कथित या प्रकाशित विवरण जिसमें किसी ने लोगों की जानकारी के लिए वस्तु-स्थिति स्पष्ट की हो अथवा अपना विचार या मंशा प्रकट की हो। (स्टेटमेंट)।
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वक्तव्यता  : स्त्री० [सं० वक्तव्य+तल्-टाप्] किसी बात के संबंध में वक्तव्य या उत्तर देने का भार।
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वक्ता (क्तृ)  : वि० [सं०√वच्+क्त] १. कहने या बोलनेवाला। २. जो अच्छी तरह कोई बात कह या बोलकर बतला सकता हो। अच्छा बोलनेवाला। पुं० वह जो जन-समाज के सामने कोई बात अच्छी तरह और समझाकर कहता हो। जैसे– कथा कहनेवाला, भाषण या व्याख्यान देनेवाला।
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वक्तृक  : पुं० [सं० वक्व+कन्]=वक्ता।
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वक्तृता  : स्त्री० [सं० वक्तृ+तल्-टाप्] १. वक्ता होने की अवस्था गुण या भाव। २. भाषण। व्याख्यान।
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वक्तृत्व  : पुं० [सं० वक्तृ+त्व] १. वक्तृता। वाग्मिता। २. अच्छे वक्ता होने की अवस्था, गुण या भाव। वाग्मिता। ३. वक्तृता। ४. कथन। वक्तव्य।
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वक्तृत्व-कला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वक्तृता अर्थात् प्रभावशाली ढंग से भाषण देने की कला या विद्या। (इलोक्यूशन)।
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वक्तृत्व-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए किस प्रकार की बातें कहनी या वक्तृता होनी चाहिए। (रिहटोरिक)।
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वक्त्र  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+त्र] १. मुँह। मुख। २. जानवरों का थूथन। ३. पक्षियों की चोंच। चंचु। ४. तीर, भाले आदि की नोक। ५. अगला भाग। ६. कार्य का आरम्भ। ७. एक तरह का पुराना पहनावा। ८. एक प्रकार का छंद।
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वक्त्र-ताल  : पुं० [सं० ष० त०] संगीत में वह ताल जो मुँह से कुछ कह या बजाकर दिया जाय। (किसी पर आघात करके दिये जानेवाले ताल से भिन्न।
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वक्त्र-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] गणेश।
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वक्त्र-भेदी (दिन्)  : वि० [सं० वक्त्र√भिद् (=भेदन करना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] बहुत कड़ुआ चटपटा या तीक्ष्ण (खाद्य पदार्थ)।
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वक्त्र-शोधी (धिन्)  : वि० [सं० वक्त्र√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्+णिनि] मुँह साफ करनेवाला। (पदार्थ)। पुं० जँबीरी नीबू।
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वक्त्रज  : पुं० [सं० वक्त्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] ब्राह्मण।
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वक्फ  : पुं० [अ० वक्फ] १. किसी देवता की पूजा आदि धार्मिक कार्यों अथवा लोकोपकारी संस्था को कोई चीज (धन या संपत्ति) अर्पित करने का कार्य। २. उक्त रूप में अर्पित किया हुआ धन या संपत्ति। ३. दान।
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वक्फनामा  : पुं० [अ० वक्फ+फा० नामः] १. वह पत्र जिसके अनुसार किसी के नाम कोई चीज वक्फ की जाय। दानपत्र। २. वह लेख जो वक्फ की हुई संपत्ति या धन का प्रमाण हो।
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वक्फा  : पुं० [अ० वक्फा] १. दो घटनाओं के बीच में पड़नेवाला थोड़ा समय। अवकाश। २. काम से मिलनेवाली छु्टटी या फुरसत। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–मिलना।
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वक्र  : वि० [सं०√वंक् (टेढ़ा होना)+रन्,पृषो० नलोप] [भाव० वक्रता] १. जो आड़े या बेड़े बल में हो। टेढ़ा या तिरछा। ‘ऋजु’ का विपर्याय। २. झुका हुआ। नत। ३. कुटिल और धूर्त। ४. त्रिपुर नामक असुर। ५. दे० ‘वक्र-गति’। पुं० १. नदी का मोड़। बंकर। २. मंगल ग्रह। ३. शनैश्चर ग्रह। ४. रुद्र।
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वक्र-गति  : वि० [सं० ब० स] १. टेढ़ी-मेढ़ी चालवाला। २. कुटिल। ३. उलटी गतिवाला (ग्रह)। पुं० १. ग्रह लाघव के अनुसार वे ग्रह जो सूर्य से पाँचवें, छठें, सातवें और आठवें हों। इस प्रकार मंगल ३६ दिन,बुध २१ दिन बृहस्पति १॰॰. दिन,शुक्र १२ दिन और शनि १८४ दिन वक्री होता है। २. मंगल ग्रह।
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वक्र-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] ऊँट।
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वक्र-चंचु  : पुं० [सं० ब० स०] तोता।
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वक्र-ताल  : पुं० [सं० ब० स०] वक्रनाल (बाजा)।
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वक्र-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] १. गणेश। २. तोता।
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वक्र-दंष्ट्र  : पुं० [सं० ब० स०] सूअर।
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वक्र-दृष्टि  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. टेढ़ी दृष्टि। २. क्रोध आदि से युक्त दृष्टि। ३. मन्द दृष्टि। वि० १. (व्यक्ति) जिसकी दृष्टि पड़ने से कुछ अमंगल होता या हो सकता हो० २. क्रोधपूर्ण दृष्टि।
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वक्र-धर  : पुं० [सं० ष० त०] द्वितीया का वक्र चन्द्रमा धारण करनेवाले शिव।
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वक्र-नक्र  : पुं० [सं० उपमति, स०] १. चुगलखोर। २. तोता।
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वक्र-नाल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का पुराना बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
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वक्र-नासिक  : वि० [सं० ब० स०] टेढ़ी नाकवाला। पुं०=उल्लू।
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वक्र-पुच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] कुत्ता।
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वक्र-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. अगस्त का पेड़। २. पलास।
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वक्रअत  : स्त्री० [अ०] १. शक्ति। बल। ताकत। २. महत्व। ३. मान-मर्यादा।
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वक्रगल  : पुं० [सं० ब० स०] फूँककर बजाया जानेवाला पुरानी चाल का एक बाजा।
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वक्रगामी (मिन्)  : वि० [सं० वक्र√गम् (जाना)+णिनि] १. जिसकी गति वक्र हो। टेढ़ी चालवाला। २. कुटिल और धूर्त।
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वक्रता  : स्त्री० [सं० वक्र+तल्-टाप्] १. वक्र होने की अवस्था, गुण या भाव। टेढ़ापन। २. साहित्य में किसी रचना, वस्तु या विषय के निर्वचन और उसकी वर्णन-शैली में रहनेवाला वह अनोखा बाँकापन या उच्च कोटि का सौन्दर्य जो परम उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचायक होता है। जैसे– वस्तु-वक्रता, वाक्य-वक्रता।
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वक्रांग  : वि० [सं० वक्र-अंग, ब० स०] जिसका कोई अंग टेढ़ा हो। पुं० १. हंस नाम का पक्षी। २. सर्प। साँप।
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वंक्रि  : स्त्री० [सं०√वंक्+क्रिन्] १. पशु विशेषतः मादा पशु की पसली की हड्डी। २. कोड़ा। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा।
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वक्रित  : भू० कृ० [सं० वक्र+इतच्] टेढ़ा किया हुआ।
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वक्रिम  : वि० [सं० वंच (गमनादि)+क्रिमच्] १. टेढ़ा। २. कुटिल।
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वक्रिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० वक्र+इमनिच्]=वक्रता।
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वक्री (त्रिन्)  : वि० [सं० वक्र+इनि, दीर्घ, नलोप] जो अपना सीधा मार्ग छोड़कर इधर-उधर हट गया हो या पीछे की ओर मुड़ने लगा हो। जैसे–अब मंगल ग्रह वक्री होगा।
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वक्रोक्ति  : स्त्री० [सं० वक्र-उक्ति, कर्म० स०] १. किसी प्रकार की वक्रता से युक्त कोई चमत्कारपूर्ण उक्ति। २. काकु अलंकार से युक्त उक्ति। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें एक अभिप्राय से कही हुई बात का काकु या श्लेष के आधार पर कुछ और ही अभिप्राय निकलता या निकाला जाता है। यह अर्थ परिवर्तन शब्दों के आधार पर ही होता है, इसलिए कुछ आचार्य इसे शब्दालंकार मानते हैं।
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वक्रोक्ति-गर्विता  : स्त्री० [सं०]=गर्विता (नायिका)।
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वक्रोष्ठिका  : स्त्री० [सं० वक्र-ओष्ठ, ब० स०+कन्+टाप्,इत्व] मंद हँसी। मुसकान।
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वक्ष (स्)  : पुं० [सं०√वक्ष् (बलिष्ठ होना)+असुन्] १. पेट और गले के बीच में पड़नेवाला वह भाग जिसमें स्त्रियों के स्तन और पुरुषों के स्तन के से चिन्ह होते हैं। उरस्थल। २. बैल।
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वक्ष-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] छाती।
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वंक्षण  : पुं० [सं० वंक्ष् (इकट्ठा होना)+ल्यु-अन] पेड़ और जाँघ के बीच का अंश।
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वक्षश्छद  : पुं० [सं० वक्षस्√छद् (ढकना)+घ] कवच।
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वंक्षु  : स्त्री० [सं०√वंक्+कुन्,नुम्] आधुनिक आक्सन नदी का पुराना नाम।
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वक्षु  : पुं०=वंक्षु (नद)।
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वक्षोज  : पुं० [सं० वक्षस्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] स्त्री का स्तन।
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वक्षोरुह  : पुं० [सं० वक्षस्√रूह् (उगना)] स्त्री का स्तन।
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वक्ष्यमाण  : वि० [सं०√वच् (कहना)+लृट्-शानच्, मुक्, आगम] १. जो कहा जा सके। वाच्य। वक्तव्य। २. जो कहा जा रहा हो।
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वंग  : पुं० [सं०√वंग् (गति)+अच्] १. बंगाल (राज्य) २. राँगा नामक धातु। ३. वैद्यक में उक्त धातु की भस्म। ४. कपास। ५. बैंगन। भंटा। ६. एक चंद्रवंशी राजा। पुं० [?] पहाड़ों की घाटी (राज०)
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वंग-मल  : पुं० [सं० ष० त०] सीसा (धातु)।
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वंगज  : वि० [सं० वंग√जन् (उत्पत्ति)+ड] वंग अर्थात् बंगाल में उत्पन्न। बंगाल में जन्मा या बना हुआ। पुं० १. बंगाल का निवासी। बंगाली। २. सिंदूर। ३. पीतल।
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वगला  : स्त्री० [सं०] बगलामुखी।
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वगलामुखी  : स्त्री० [सं० ब० स०] दस महाविद्यालयों में से एक।
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वंगसेन  : पुं० [सं०] १. अगस्त का वह पेड़ जिसमें लाल फूल लगते हों। २. उक्त में लगनेवाला लाल फूल।
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वंगारि  : पुं० [सं० वंग-अरि, ष० त०] हरताल नामक खनिज।
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वंगाष्टक  : पुं० [सं० वंग-अष्टक, ष० त०] राँगा आदि आठ धातुओं को फूँककर तैयार की जानेवाली ओषधि। (वैद्यक)।
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वगाहना  : स०=अवगाहना। उदाहरण-पूतना को पय पान करै मनु पूतनाते बिसवास वगाहत।–देव।
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वंगीय  : वि० [सं० वंग+छ-ईय] १. वंग अर्थात् बंगाल में होने अथवा उससे संबंध रखनेवावला। २. राँगे का बना हुआ।
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वंगेश्वर  : पुं० [सं० वंग-ईश्वर,ष० त०] वैद्यक में एक रसौषध।
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वगैरह  : अव्य० [अ० वगैरह] और इसी प्रकार शेष या संबंधित भी। आदि। इत्यादि।
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वग्ग  : पुं०=वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वच  : पुं० [सं०√वच्+अच्] १. तोता। २. सूर्य। ३. कारण। ४. वचन। बात। स्त्री०=वाचा।
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वंचः (चस्)  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+असुन्] वचन। बात।
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वंचक  : वि० [सं०√वंच् (ठगना)+णिच्+ण्वुल्-अक] [भाव० वंचकता] छल-कपट से जो दूसरे को ठग लेता हो। पुं० १. ठग। २. गीदड़। ३. पालतू नेवला।
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वंचकता  : स्त्री० [सं० वंचक+तल्-टाप्] १. वंचक होने की अवस्था या भाव। २. वंचक का कोई कृत्य।
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वंचन  : पुं० [सं०√वंच्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वंचित] १. धोखा देना या ठगना। २. धूर्त्तता। ठगी।
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वचन  : पुं० [सं०√वच्+ल्युट-अन] १. मनुष्य के मुँह से निकला हुआ सार्थक शब्द। वाणी। वाक्य। २. किसी की कही हुई बात। उक्ति। कथन। ३. दृढ़तापूर्वक या प्रतिज्ञा के रूप में कही हुई बात। जैसे–वचन-बद्ध। ४. व्याकरण में वह तत्व जिसके द्वारा संज्ञा की संख्या का बोध होता है। (नम्बर)।
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वचन-गुप्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] जैन धर्म के अनुसार वाणी का ऐसा संयम जिससे वह अनुचित या बुरी बातें कहने में प्रवृत्त न हो।
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वचन-चतुर  : पुं० [सं० स० त०] साहित्य में श्रृंगार रस का आलम्बन वह व्यक्ति जिसके वचनों में चतुराई भरी होती है।
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वचन-बद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] जिसने किसी को कोई विशिष्ट काम करने या न करने का वचन दिया हो।
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वचन-बंध  : पुं० [सं० तृ० त०] यह कहना कि हम अमुक काम या बात अवश्य और निश्चित रूप से करेगे।
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वंचन-योग  : पुं० [सं० ष० त०] ठगी का अभ्यास।
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वचन-लक्षिता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में वह नायिका जिसकी बातचीत से उसका उपपति से होनेवाला प्रेम लक्षित होता हो।
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वचन-विदग्धा  : स्त्री० [सं० स० त०] साहित्य में वह परकीया नायिका जो अपने वचन की चतुराई से नायक की प्रीति संपादित करती हो।
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वचनकारी (रिन्)  : वि० [सं० वचन√कृ (करना)+णिनि] आज्ञाकारी।
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वंचना  : स्त्री० [सं०√वंच्+णिच्+युच्-अन,टाप्] छलपूर्वक किसी को ठगने या धोखा देने की क्रिया या भाव। स० १. छलपूर्वक व्यवहार करना। २. ठगना। ३. वास्तविक रूप या बात छिपाकर कुछ और ही बात बनाना या मिथ्या रूप उपस्थित करना (चीटिंग)स०=बाँचना (पढ़ना)।
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वंचनीय  : वि० [सं०√वंच्+अनीयर] १. जो ठगे जाने के योग्य हो। जिसे ठग सकें। २. जो छोड़े या त्यागे जाने के योग्य हो।
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वचनीय  : वि० [सं०√वच्+अनीयर्] १. कहे जाने के योग्य। २. जिसके संबंध में दोष या निंदा की कोई बात कही जा सकती हो। दूषित। बुरा।
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वंचयिता (तृ)  : वि० [सं०√वंच्+णिच्+तृच्]=वंचक।
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वचर  : पुं० [सं० अव√चर् (जाना)+अत्, अकारलोप] १. कुक्कुट। मुरगा। २. शठ। दुष्ट।
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वचसा  : अव्य० [सं० वचस् की तृतीया विभक्ति का रूप] कथन के रूप में। वचन से।
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वचसांपति  : पुं० [सं० ष० त० षष्ठी का अलुक] बृहस्पति।
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वचस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० वचस्+विनि, दीर्घ, नलोप] वाक्पटु।
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वचा  : स्त्री० [सं०] खूरासानी वच।
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वचा  : स्त्री० [सं०] खूरासानी वच।
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वचा  : स्त्री० [सं०√वच्+णिच्+अज्,नि० हृस्व] १. वच (ओषधि)। २. मैना। सारिका।
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वंचित  : वि० [सं०√वंच्+णिच्+क्त] १. धोखे में आया हुआ। जो ठगा गया हो। २. जो किसी काम, चीज या बात से अलग या दूर किया गया हो। जो रहित हुआ हो। ३. जो वांछित पदार्थ न प्राप्त कर सका हो अथवा जिसे प्राप्त करने से रोका गया हो (डिप्राइब्ड, उक्त दोनों अर्थों में)।
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वंचितक  : पुं० [सं० वंचित+कन्०]=व्यंग्य।
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वंचिता  : स्त्री० [सं० वंचित+टाप्] एक प्रकार की पहेली।
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वंचुक  : वि० [सं०√वंच्+उकन्]=वंचक।
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वचोहर  : पुं० [सं० वचस्√हृ (हरण करना)+अच्] संवादवाहक।
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वच्छ  : पुं० [सं० वक्षस्, प्रा० वच्छ] उर। छाती। पुं० बछड़ा।
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वंच्य  : वि० [सं०√वंच्+ण्यत्]=वंचनीय।
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वंछना  : स० [सं० बांछा] वांछा करना चाहना।
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वजन  : पुं० [अ० वजन] १. भार। बोझ। २. भार का परिणाम। तौल। ३. भारीपन। गुरुत्व। जैसे–सोने में वचन होता है। ४. मान-मर्यादा का सूचक महत्व। जैसे–उनकी बात कुछ वजन रखती है। क्रि० प्र०-रखना। ५. वह विशेषता जिसके कारण चित्र का एक अंग दूसरे से न्यून या विषम हो जाय। (चित्र-कला)।
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वजनदार  : वि० [अ०+फा] १. (पदार्थ) जिसमें वजन हो। गुरु। भारी। २. (कथन या बात) जिसमें विशेष तथ्य, प्रभाव बल या महत्व हो।
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वजनी  : वि० [अ० वजनी] १. जिसका बहुत वजन या बोझ हो। भारी। २. जिसका विशेष प्रभाव या महत्व हो।
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वजह  : स्त्री० [अ०] १. कारण। हेतु। २. प्रकृति। तत्त्व।
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वजा  : स्त्री० [अ० वजअ] १. संघटन। बनावट। रचना। २. बनावट का ढंग। ३. बनावट का अच्छा और सुन्दर ढंग या प्रकार। सज-धज। ४. अवस्था। दशा। हालत। ५. ढंग। प्रणाली। रीति। वि० १. जो काट या निकाल कर अलग कर दिया गया हो। घटाया हुआ। २. (धन) बाद या मुजरा किया हुआ।
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वजादार  : वि० [अ० वजा+फा० दार] [भाव० वजादारी] १. जिसकी बनावट या गठन बहुत अच्छी और सुन्दर हो। तरहदार। २. सज-धजवाला। ३. अपनी रीति-नीति न छोड़नेवाला।
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वजादारी  : स्त्री० [अ०+फा०] १. वजादार होने की अवस्था या भाव। २. आचरण-व्यवहार, बनाव-सिंगार, रहन-सहन आदि का अच्छा और सुन्दर ढंग। ३. अच्छी वेष-भूषा। ४. मान, मर्यादा आदि का सुन्दरतापूर्वक होनेवाला निर्वाह।
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वजारत  : स्त्री० [अ० वजारत] वजीर अर्थात् मंत्री का काम, पद या कार्यालय।
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वजिती (तिन्)  : वि० [सं० विजित+इनि, दीर्घ, नलोप] विजयी।
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वजीफा  : पुं० [अ० वजीफा] १. भरण-पोषण आदि के लिए मिलनेवाली आर्थिक सहायता। वृत्ति। २. छात्रवृत्ति। ३. पेंशन। ४. नियम और श्रद्धापूर्वक किया जानेवाला जप या पाठ (मुसलमान)। क्रि० प्र०–पढ़ना।
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वजीफादार  : वि० [अ० वजीफा+फा० दार] जिसे वजीफा मिलता हो।
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वजीर  : पुं० [अ० वजीर] १. वह जो बादशाह या प्रधान शासक का सलाहकार हो। अमात्य। मन्त्री। २. राजदूत। ३. शतरंज का एक मोहरा जो बादशाह से छोटा तथा बाकी सब मोहरों से बड़ा होता है।
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वजीरिस्तान  : पुं० [फा०] वजीरी कबीलों का प्रदेश जो पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर है।
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वजीरी  : स्त्री० [अ०] वजीर का काम, पद या भाव। वजारत। पुं० पशुओं की एक जाति।
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वंजुल  : पुं० [सं०√वज् (गति)+उलच्,नुम्] १. बेंत। २. तिनिश का पेड़। ३. अशोक। ४. स्थल पर का एक प्रकार का पक्षी।
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वंजुला  : स्त्री० [सं०वंजुल+टाप्] १. दुधारी गाय। २. पुराणानुसार सह्याद्रि पर्वत से निकलने वाली एक नदी।
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वजू  : पुं० [अ० वुजू] नमाज पढ़ने से पहले शारीरिक शुद्धि के लिए हाथ-पाँव धोना (मुसलमान)।
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वजूद  : पुं० [अ०] १. सत्ता। अस्तित्व। क्रि० प्र०–में आना। २. देह। शरीर। ३. सृष्टि।
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वजूहात  : स्त्री० [अ०] वजह का बहु० रूप।
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वज्द  : पुं० [अ०] वह स्थिति जिसमें मनुष्य काव्य, संगीत आदि की उच्च कोटि की रसानुभूति के कारण आनन्द से विभोर होकर अपने आपको भूल जाता है। आनन्दातिरेक के कारण होनेवाली आत्मविस्मृति।
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वज्र  : वि० [सं०√वज् (गति)+रन्] १. बहुत अधिक कठोर। बहुत कड़ा या सख्त। २. बहुत अधिक उग्र या तीव्र। जैसे–वज्राग्नि। ३. जिस पर सहसा और किसी प्रकार का प्रभाव न पड़ सकता हो। बहुत बढ़ा-चढ़ा। जैसे–वज्र मूर्ख। वज्र बधिर। पुं० १. पुराणानुसार भाले के फल के समान एक शस्त्र जो इन्द्र का प्रधान अस्त्र कहा गया है,और जो दधीचि ऋषि की हड्डियों से बनाया गया था। कुलिश। २. आकाश से गिरनेवाली बिजली। क्रि० प्र०–गिरना। पड़ना। मुहावरा–वज्र पड़े=ईश्वर के प्रकोप से सर्वनाश हो (स्त्रियों का शाप) ३. बौद्ध साधकों और सिद्धों की परिभाषा में, शून्य अर्थात् परम तत्व की संज्ञा जो उसकी अभेद्यता, दृढ़ता आदि गुणों के आधार पर उसे दी गई थी। ४. उक्त के आधार पर बौद्धों में चक्राकार चिन्ह की संज्ञा। ५. फलित ज्योतिष में २२ व्यतीतपात योगों में से एक व्यतीतपात योग। ६. वास्तु-कला में ऐसा खंभा जिसके बीच का भाग अठकोना हो। ७. पुराणानुसार विष्णु के चरण का एक चिह्र। ८. श्रीकृष्ण के पोते और अनिरूद्ध के पुत्र का नाम। ९. हीरा। १॰. फौलाद नाम का लोहा। ११. बरछा। भाला। १२. अबरक। १३. कोकिलाक्ष वृक्ष। १४. सफेद कुश। १५. काँजी। १६. धात्री। धौ। १७. थूहड़। सेहुँड़। १८. अकलबीर नाम का पौधा। १९. वज्रपुष्प।
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वज्र-कंटक  : पुं० [सं० ब० स०] १. थूहड़-सेहुंड़। २. कोकिलाक्ष वृक्ष।
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वज्र-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] १. जंगली सूरन। २. शकर कंद। ३. ताड़ के पेड़ का फूल।
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वज्र-कांति  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वज्र-कालिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] बुद्ध की माता माया देवी का एक नाम।
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वज्र-कीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की कीड़ा जो पत्थर को काटकर उसमें छेद कर देता है। बनरोहू।
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वज्र-कूट  : पुं० [सं० ष० त०] हिमालय की एक चोटी।
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वज्र-केतु  : पुं० [सं० ब० स०] मार्कडेय पुराण के अनुसार एक राक्षस जो नरक का राजा था।
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वज्र-क्षार  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में एक रसौषध जिसका व्यवहार गुल्म, शूल, अजीर्ण, शोध तथा मंदाग्नि आदि उदर रोगों से होता है।
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वज्र-गोप  : पुं० [सं०] वीर बहूटी नाम की कीड़ा। इंद्रगोप।
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वज्र-ज्वाला  : स्त्री० [सं०] कुंभकर्ण की पत्नी का नाम।
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वज्र-डाकिनी  : स्त्री० [सं०] महायान शाखा के तांत्रिक बौद्धों की उपास्य डाकिनियों का एक वर्ग, जिसके अन्तर्गत ये आठ डाकिनियाँ कही गई है-लास्या, माला, गीता, नृत्या, पुष्पा, धूपा, दीपा और गंधा। इसकी पूजा तिब्बत में होती है।
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वज्र-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] १. गणेश। २. गरूड। ३. गिद्ध। ४. मच्छड़। थूहड़। सेहुँड़।
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वज्र-दंत  : पुं० [सं० ब० स०] १. चूहा। २. सूअर।
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वज्र-दंती  : स्त्री० [सं० वज्र+दंत] एक प्रकार का पेड़ या पौधा।
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वज्र-दंष्ट्र  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्रगोप नाम का कीड़ा। वीरबहूटी।
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वज्र-द्रुम  : पुं० [सं० उपमित० स०] थूहड़ का वृक्ष। सेहुंड़।
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वज्र-धर  : वि० [सं० ष० त०] वज्र धारण करनेवाला। पुं० १. इंद्र। वज्रयान के अनुसार गौतम बुद्ध का एक रूप जिसमें वे अपनी प्रबल शक्ति से साधनों में लगे रहते हैं। ३. वह बौद्ध सिद्ध जो वज्र धारण करनेवाला अर्थात् कमल-कुलिश साधना में पारंगत होता था। ४. उल्लू।
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वज्र-धारक  : वि० [सं० ष० त०] वज्र धारण करनेवाला। पुं० ऊँची इमारतों पर लगाया जानेवाला एक विशेष प्रकार का यंत्र या धातु का टुकड़ा जो लोहे के तार से जमीन से जुड़ा होता है और जो आकाश से गिरनेवाली बिजली को जमीन के अन्दर ले जाता है और इस प्रकार बिजली के कुप्रभाव से इमारत को बचाता है। तड़ित-संवाहक (लाइटनिंग एरेस्टर)।
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वज्र-धारक  : पुं० [सं० ष० त०] १. जैमिनी, सुमंत, वैशंपायन, पुलस्त्य और पुलह इन पाँचों ऋषियों का स्मरण जो वज्रपात के निवारण के लिए किया जाता है। २. दे० ‘वज्रधारक’।
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वज्र-नख  : पुं० [सं० ब० स०] नृसिंह।
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वज्र-पतन  : पुं० [सं० ष० त०] वज्रपात।
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वज्र-पाणि  : पुं० [सं० ब० स०] १. इन्द्र। २. ब्राह्मण। ३. एक बोधिसत्व।
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वज्र-पात  : पुं० [सं० ष० त०] १. आकाश से बिजली गिरना। २. उक्त बिजली के गिरने से होनेवाला क्षय या नाश। ३. किसी प्रकार का भीषण अनिष्ट या नाश।
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वज्र-बाहु  : पुं० [सं० ब० स०] १. इन्द्र। २. रुद्र। ३. अग्नि।
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वज्र-भृत्  : पुं० [सं० वज्र√भृ (धारण)+क्पि, तुक्, आगम] इंद्र।
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वज्र-भैरव  : पुं० [सं० उपमित० स० या मध्य० स०] बौद्धों की महायान शाखा के एक देवता जिन्हें भूटान में ‘यमांतक शिव’ कहते हैं। इनके अनेक मुख और हाथ कहे गये हैं।
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वज्र-मणि  : पुं० [सं० मयू० स०] हीरा।
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वज्र-मुष्टि  : पुं० [सं० ब० स०] १. इंद्र। २. जंगली सूरन। ३. बाण चलाने के समय की एक विशेष हस्तमुद्रा।
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वज्र-यान  : पुं० [सं० उपमित० स०] बौद्ध धर्म का वह रूप जिसमें देवता, मंत्र, गुह्य साधना, अभिचार आदि तांत्रिक प्रवृत्तियों की प्रधानता है। विशेष—आरंभिक बौद्ध साधक शून्य को ही परमतत्व मानकर उसकी उपासना करते थे, और इसीलिए उसे वज्र (देखें) कहते थे क्योंकि उसमें भी वज्र की सी अभेद्यता और कठोरता थी इसी आधार पर इस साधना मार्ग का यह नाम पड़ा था।
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वज्र-यानी (निन्)  : वि० [सं० वज्रयान+इनि] वज्रयान सम्बन्धी। वज्रयान का। पुं० बौद्धों के वज्रयान पन्थ का अनुयायी।
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वज्र-रद  : पुं० [सं० ब० स०] सूअर।
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वज्र-राग  : पुं० [सं० उपमित० स०] वज्रयानी साधना में, करुणा के कारण उत्पन्न होनेवाला सांसारिक राग (यही राग जब आगे बढ़कर महामुद्रा के प्रति अनुरक्त होता है,तब महाराग कहलाता है)।
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वज्र-लेप  : पुं० [सं० उपमित० स०] लेप के काम आनेवाला ऐसा मसाला जिसका लेप करने से दीवार, मूर्ति आदि बहुत मजबूत हो जाती है।
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वज्र-वाराही  : स्त्री० [सं०] १. बुद्ध की माता माया देवी का एक नाम। २. बौद्धों की एक देवी।
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वज्र-व्यूह  : पुं० [सं० उपमित० स०] एक प्रकार की सैनिक व्यूह रचना जो दुधारी खड्ग के आकार की होती है।
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वज्र-शल्य  : पुं० [सं० ब० स०] साही (जंतु)।
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वज्र-शाखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] जैन मत के अन्तर्गत एक सम्प्रदाय जिसका प्रवर्तन वज्रस्वामी ने किया था।
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वज्र-श्रृंखला  : स्त्री० [सं० ब० स०] सोलह महाविद्यालयों में से एक (जैन)।
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वज्र-संघात  : पुं० [सं० ष० त०] १. भीमसेन। २. वास्तु-रचना में, पत्थर जोड़ने का एक मसाला जिसमें आठ भाग सीसा, दो भाग काँसा और एक भाग पीतल होता था।
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वज्र-समाधि  : स्त्री० [सं० उपमित० स०] बौद्ध धर्म के अनुसार एक प्रकार की समाधि।
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वज्र-सार  : वि० [सं० ष० त०] अत्यन्त कठोर। पुं० हीरा।
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वज्र-हस्त  : पुं० [सं० ष० त०] इंद्र। वि० जिसके हाथ में वज्र या बहुत ही भीषण अस्त्र हो।
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वज्र-हृदय  : वि० [सं० ब० स०] १. (व्यक्ति) जिसका हृदय अत्यन्त कठोर हो। २. बेरहम।
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वज्रक  : पुं० [सं० वज्र+कन्] १. हीरा। २. वज्रक्षार। ३. सूर्य का एक उपग्रह। ४. वैद्यक में चर्मरोग के लिए विशेष प्रकार से तैयार किया जानेवाला तेल।
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वज्रजित्  : पुं० [सं० वज्रिन√जि (जीतना)+क्विप्स, तुक्, आगम] गरुड़।
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वज्रा  : स्त्री० [सं०√वज्र (गति)+रक्-टाप्] १. दुर्गा। २. स्नही। थूहर। ३. गुड़च।
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वज्राख्य  : पुं० [सं० वज्र-आख्या, ब० स०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर।
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वज्रांग  : पुं० [सं० वज्र-अंग, ब० स०] १. हनुमान। २. साँप।
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वज्रांगी  : स्त्री० [सं० वज्रांग+ङीष्] १. कौडिल्ला (पक्षी) २. हड़जोड़ी नामक लता जिसकी पत्तियाँ बाँधने पर दरद दूर हो जाता है (वैद्यक)।
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वज्राघात  : पुं० [सं० वज्र-आघात, ष० त०] १. आकाश से गिरनेवाली बिजली का आघात। २. बहुत ही कठोर तथा बड़ा आघात। ३. बिजली के तार आदि का स्पर्श होने पर लगनेवाला आघात।
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वज्राचार्य  : पुं० [सं० वज्र-आचार्य, ष० त०] नैपाली बौद्धों के अनुसार तान्त्रिक बौद्ध आचार्य जिसे तिब्बत में लामा कहते हैं। यह गृहस्थ होता है और अपनी स्त्री आदि के साथ बिहार में रह सकता है।
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वज्राभ  : पुं० [सं० वज्र-आभा, ब० स०] एक कीमती पत्थर।
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वज्राभ  : पुं० [सं०] काला अभ्रक।
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वज्रायुध  : पुं० [सं० वज्र-आयुध, ब० स०] इंद्र।
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वज्रासन  : पुं० [सं० वज्र-आसन, मध्य० स०] १. हठयोग के चौरासी आसनों में से एक जिसमें गुदा और लिंग के मध्य के स्थान को बाएँ पैर की एड़ी से दबाकर उसके ऊपर दाहिना पैर रखकर पलथी लगाकर बैठते हैं। २. गया में बोधिद्रुम के नीचेवाली वह शिला जिस पर बैठकर बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त किया था।
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वज्री (ज्रिन्)  : पुं० [सं० वज्र+इनि०] १. इंद्र। २. उल्लू। ३. बौद्ध। संन्यासी।
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वज्रेश्वरी  : स्त्री० [सं० वज्र-ईश्वरी, ष० त०] १. एक देवी। (बौद्ध)। २. एक प्रकार का तान्त्रिक अनुष्ठान जिसे वज्रवाहनिका भी कहते हैं। इसमें वज्र बनाकर मन्त्रों द्वारा अभिषेक पूजन और हवन करते हैं। कहते है कि इसमें शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।
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वज्रोली  : स्त्री० [सं०] उंगलियों की एक विशिष्ट मुद्रा (हठयोग)
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वंट  : वि० [सं०√वंट्+घञ्,करणे] १. कटी दुमवाला। २. कुँआरा। पुं० १. अंश। भाग। २. हँसुए की मुठिया। ३. अविवाहित पुरुष।
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वट  : पुं० [सं०√वट् (लपेटना)+अच्] १. बरगद का पेड़। २. कौड़ी। ३. गोली। ४. वटिका। ५. छोटा गेंद। ६. शून्य। ७. एक प्रकार की रोटी। ८. रस्सी। ९. एकरूपता। १॰. एक पक्षी।
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वट-गमनी  : स्त्री० [हिं० वाट=मार्ग+गमन, चलना] एक प्रकार का मैथिली लोक गीत जो उत्सवों, मेलों आदि में तथा वर्षा-ऋतु में स्त्रियाँ गाती हैं। इसके प्रत्येक चरण के अन्त में ‘सजनी’ शब्द आता है इसीलिए इसे ‘सजनी’ भी कहते हैं।
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वट-पत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] एक तरह की चमेली।
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वट-पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] पथरफोड़ नामक वनस्पति।
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वट-सावित्री-व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] सौभाग्यवती स्त्रियों का एक त्यौहार जो जेठ वदी अमावस को होता है। इसमें सौभाग्य स्थिर रखने की कामना से वट और सावित्री का पूजन किया जाता है।
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वंटक  : वि० [√वंट् (बाँटना)+णिच्+ण्वुल्-अक] बाँटनेवाला। पुं० [वंट+कन्] १. बाँट। २. बाँट में मिलनेवाला हिस्सा। ३. बाँटने वाला व्यक्ति।
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वटक  : पुं० [सं० वट+कन्] १. बड़ी टिकिया या गोला। बट्टा। २. पकौड़ी आदि पकवान। आठ मासे की एक पुरानी तौल।
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वंटन  : पुं० [सं०√वंट्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वंटित] १. कोई चीज कुछ व्यक्तियों आदि में बाँटना। २. किसी चीज के अनेक हिस्से करना।
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वंटनीय  : वि० [सं०√वट्+अनीयर्] जो बाँटा जाय या बाँटा जा सके। बाँटने के योग्य।
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वटर  : पुं० [सं० वट+अरन्] १. चोर। २. बटेर पक्षी। ३. बिस्तर। बिछौना। ४. उष्णीष। पगड़ी। ५. मथानी।
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वँटाल  : पुं० [सं०√वट्+आलच्] १. शूरों का युद्ध। २. नौका। ३. कुदाल जिससे जमीन खोदते हैं।
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वटिक  : पुं० [सं०√वट्+इन्+कन्] शतरंज का मोहरा।
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वटिका  : स्त्री० [सं०√वटिक+टाप्] गोली, टिकिया या बटी।
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वटु  : पुं० [सं०√वट्+उ०] १. बालक। २. ब्रह्मचारी।
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वटुक  : पुं० [सं० वटु+कन्] १. बालक। २. ब्रह्मचारी का एक विशिष्ट रूप।
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वटोदका  : स्त्री० [सं० वट-उदक, ब० स०+टाप्] एक पवित्र नदी। (भागवत)।
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वंठ  : वि० [सं०√वंठ् (अकेले जाना)+अच्] १. कुँआरा। २. बौना। ३. अपाहिज। पंगु। ४. किसी अंग से विहीन। हीनांग। पुं० १. अविवाहित पुरुष। २. दास। ३. बौना व्यक्ति। ४. सेवक। ५. भाला।
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वंठर  : पुं० [सं०√वंठ्+अरन्] १. ताड़ के वृक्ष का कल्ला। २. बाँस के कल्ले का वह कड़ा और मोटा पत्ता जो उसे छिपाये रहता है। यह पत्ता हर गाँठ पर होता है। ३. कुत्ता। ४. कुत्ते की दुम। ५. पशुओं के गले में बाँधने की रस्सी। ६. छाती। स्तन। ७. बादल। मेघ।
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वठर  : पुं० [सं०√वठ् (दृढ़ होना)+अरन्] १. अंबष्ट नामक जाति। २. शब्द गढ़ने या बनानेवाला पंडित। ३. चिकित्सक। वि० १. मूर्ख। २. शरारती। शठ। ३. धीमा। मन्द्।।
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वंड  : वि० [सं०√वन् (आघात करना)+ड] १. वह जिसकी लिगेंद्रिय के अग्रभाग पर का वह चमड़ा न हो, जो सुपारी को ढँके रहता है। २. जिसका खतना हुआ हो। ३. जिसका कोई अंग कट या निकल गया हो। हीनांग। पुं० ध्वज-भंग नामक रोग।
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वंडर  : पुं० [सं०√वंड्+अरन्] १. कंजूस। सूम। २. अन्तःपुर का रक्षक नपुंसक। खोजा। स्त्री० पुंश्चली स्त्री।
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वडिश  : पुं० [सं० वडिश=बलिन्√शो (नष्ट करना)+क, लस्य, डः] १. बंसी, जिससे मछली फँसाई जाती है। कटिया। २. वैद्यक में एक प्रकार का नश्तर।
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वण  : पुं०=वन (जंगल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वणिक (ज्)  : पुं० [सं०√पण् (व्यवहार करना)+इजि, पस्य, वः] १. वाणिज्य या व्यवसाय से जीविका उपार्जित करनेवाला। २. वैश्य।
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वणिक-सार्थ  : पुं० [सं० ष० त०] व्यापारियों का जत्था जो व्यवसाय के उद्देश्य से कही जा रहा हो।
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वणिकवाद  : पुं० दे० ‘वाणिज्यवाद’।
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वणिज्य  : पुं० [सं० वणिज्+यत्] वाणिज्य।
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वत  : अव्य० [सं०√वन् (सम्यक्,भक्ति करना)+क्त,नलोप] १. खेद। २. अनुकम्पा। ३. संतोष। ४. विस्मय आदि का बोधक शब्द।
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वतन  : पुं० [अ०] १. जन्मभूमि। मूल वासस्थान। ३. स्वदेश।
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वतनी  : वि० [अ०] १. वतन संबंधी। २. एक ही वतन में होनेवाला। ३. स्वदेशी। पुं० किसी की दृष्टि से उसी देश का दूसरा निवासी।
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वतंस  : पुं० [सं० अव√तंस् (अलंकृत करना)+घञ्,अव के आकार का लोप]=अवतंस।
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वतीतना  : अ० [सं०व्यतीत+हिं०ना (प्रत्यय)] बीतना। गुजरना। उदाहरण–अवधि वतीती अजूँ न आये।–मीराँ। स०बिताना। गुजारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वतीरा  : पुं० [अ० वतीरः] १. ढंग। रीति। प्रथा। २. चाल-ढाल। ३. टेव। लत।
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वतोका  : स्त्री० [सं० अव-तोक, ब० स० अव के अकार का लोप, टाप्] जिसका गर्भ नष्ट हो गया हो। स्त्री० बाँझ स्त्री।
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वत्  : अव्य० [सं० व्याकरण का एक प्रत्यय] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) तुल्य समान। जैसे–चंद्रवत्। (ख) के अनुसार। जैसे– विधिवत्।
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वत्तिस्थ  : वि० [सं० वृत्ति√स्था+क] १. जो अपनी वृत्ति पर स्थित हो। २. जो अपनी वृत्ति से जीविका उपार्जित करता हो।
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वत्स  : पुं० [सं०√वद् (बोलना)+स] १. गाय का बच्चा। बछड़ा। २. छोटा बच्चा। शिशु। ३. कंस का एक अनुचर। ४. इन्द्र जौ। ५. छाती। उर। ६. एक प्राचीन देश।
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वत्सक  : पुं० [सं० वत्स+कन्] [स्त्री० अल्पा० वत्सिका] १. पुष्प कसीस २. इन्द्र जौ। ३. कुटज। निर्गुंडी।
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वत्सतर  : पुं० [सं० वत्स+तरप्] [स्त्री० वत्सतरी] ऐसा जवान बछड़ा जो जोता न गया हो। दोहान।
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वत्सतरी  : स्त्री० [सं० वत्सतर+ङीष्] ऐसी बछिया जो तीन वर्ष या उससे कम की हो।
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वत्सनाभ  : पुं० [सं० वत्य√नभ् (हिंसा)+अण्] एक प्रकार का जहरीला पौधा। बछनाग।
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वत्सर  : पुं० [सं०√वस् (निवास करना)+सरन्, सस्य, तः०] बारह महीनों का समय। वर्ष। साल।
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वत्सल  : वि० [सं० वत्स+लच्] बच्चों विशेषतः अपने बच्चे से अनुराग रखनेवाला। बच्चों से स्नेह करनेवाला। पुं० वात्सल्य रस।
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वत्सासुर  : पुं० [सं० वत्स-असुर, मध्य० स०] एक असुर जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था।
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वत्सिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० वत्स+इमनिच्] बचपन। बाल्यावस्था।
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वत्सी (त्सिन्)  : वि० [सं० वत्स+इनि] जिसके बहुत से बच्चे हों। पुं० विष्णु।
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वत्सीय  : वि० [सं० वत्स+छ-ईय] वत्स संबंधी। पुं० अहीर। ग्वाला।
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वथ्य  : स्त्री०=वस्तु (चीज)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वंद  : प्रत्यय० [सं० वत् में फा०] एक फारसी प्रत्यय जो संज्ञाओं के अन्त में लगकर ‘वाला’,‘स्वामी’ आदि का अर्थ देता है। जैसे–खुदावन्द।
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वद  : वि० [सं० पूर्वपद के साथ आने पर] बोलनेवाला। (समासांत) जैसे–प्रियंवद।
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वद-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवता, महापुरुष आदि के द्वारा दिया हुआ वर जिससे अनेक प्रकार के सुख-सुभीते प्राप्त होते हैं और कष्टों संकटों आदि का निवारण होता है। २. किसी की कृपा या प्रसन्नता से होनेवाली फल-सिद्धि। ३. वह वस्तु जो शुभ फलदायिनी हो। जैसे–उनका शाप मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ।
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वंदक  : वि० [सं०√वंद् (स्तुति या प्रणाम करना)+ण्वुल्-अक] वंदना करनेवाला। पुं० १. चारण। २. भिक्षु। ३. बाँदा नामक परोपजीवी वनस्पति।
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वदंती  : स्त्री० [सं०√वद् (कहना)+झि-अन्त,+ङीष्] कही हुई बात। कथन।
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वदतोव्याघात  : पुं० [सं० अलुक] तर्क में कथन संबंधी एक दोष जो वहाँ माना जाता है जहाँ पहले कोई बात कह कर फिर ऐसी बात कही जाती है जो उस पहली बात के विरुद्ध होती है।
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वंदन  : पुं० [सं०√वंद्+ल्युट-अन] १. नम्रतापूर्वक की जानेवाली वंदना या स्तुति। २. शरीर पर बनाए जानेवाले तिलक आदि चिन्ह। ३. एक प्रकार का विष। ४. वंदाक या बाँदा नामक वनस्पति। सिंदूर।
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वदन  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+ल्युट-अन] कोई बात कहने की क्रिया या भाव। कहना। बोलना। २. मुँह। मुख। ३. किसी चीज के आगे या सामने का भाग।
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वंदन-धूरि  : स्त्री० [सं० वंदन=सिंदूर+हिं० धूरि=धूल] अबीर, गुलाल आदि। उदाहरण–रसिकलाल पर मेलति कामिनि वंदनधूरि।–हितहरिवंश।
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वंदनक  : पुं० [सं० वंदन+कन्०]=वंदन या वंदना।
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वंदनता  : स्त्री०=वंदनीयता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वंदनमाल  : स्त्री०=वंदनवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वंदना  : स्त्री० [सं०√वंद्+युच्-अन,टाप्] [भू० कृ० वंदित,वि० वंदनीय] १. आदर और नम्रतापूर्वक की जानेवाली स्तुति। वंदन। २. बौद्धों की एक पूजा। ३. होम हो चुकने पर उसकी भस्म से लगाया जानेवाला तिलक।
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वंदनी  : स्त्री० [सं० वंदन+ङीष्०] १. स्तुति। वंदना। २. जीवातु नामक ओषधि। ३. गोरोचन। ४. शरीर पर लगाए जानेवाले तिलक आदि चिह्न। ५. माँगने की क्रिया। याचना। ६. वटी।
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वंदनीय  : वि० [सं०√वंद+अनीयर्] [भाव० वंदनीयता] जिसकी वंदना की जानी चाहिए अथवा की जाने को हो।
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वदर  : पुं०=बदर (बेर)।
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वंदा  : पुं० [सं०√वंद्+अच्-टाप्] बाँदा नामक परोपजीवी वनस्पति। वंदाक, वंदार, वंदारू। पुं० [सं०] वंदा या बाँदा नामक परोपजीवी वनस्पति।
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वदान्य  : वि० [सं०] १. वाग्मी। २. बात से सन्तुष्ट करनेवाला।
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वदाल  : पुं० [सं०√वद्+क, घञर्थ=वद√अल (पूर्ण होना)+अच्] १. पाठीन मत्स्य। पहिना मछली। २. आवर्त। भँवर।
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वंदि  : पुं० [√वंद्+इन्]=वंदी (कैदी)।
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वदि  : अव्य० [सं०√वद्+इन्] चांद्र मास के कृष्ण पक्ष में। बदी में। पुं० कृष्ण पक्ष।
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वंदिग्राह  : पुं० [सं० वंद्√ग्रह (ग्रहण)+अण्] डाकू।
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वंदित  : भू० कृ० [सं०√वंद्+क्त] [स्त्री० वंदिता] जिसकी वंदना हुई हो या की गई हो।
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वंदितव्य  : वि० [सं०√वंद्+तव्य] वंदनीय।
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वदितव्य  : वि० [सं०√वद् (कहना)+तव्य] कहे जाने के योग्य। जो कहा जा सके।
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वंदिता (तृ)  : वि० [सं०√वंद्+तृच्०] वंदना करनेवाला। वि० सं० ‘वंदित’ का स्त्री०।
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वदी  : पुं० दे० ‘वदि’ (कृष्ण पक्ष)।
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वंदी (दिन्)  : पुं० [सं०√वंद्+णिनि] १. वह जिसे बंधन में रखा गया हो। २. वह अपराधी जिसे दंड-स्वरुप कारागार में रखा गया हो।
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वंदीगृह  : पुं० [सं० ष० त०] कैदखाना। कारागार।
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वंदीजन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. राजाओं आदि का यश वर्णन करनेवाली एक प्राचीन जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति या चारण।
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वदीतना  : अ० स०=वतीतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वदुसना  : स० [सं० विदूषण] १. दोष मढ़ना। २. आरोप करना। ३. भला बुरा कहना। खरी-खोटी सुनाना।
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वंद्य  : वि० [सं०√वंद्=ण्यत्]=वंदनीय।
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वद्य  : वि० [सं०√वद्+यत्] १. कहने योग्य। २. अनिंद्य। पुं० १. कथन। बात। २. कृष्णपक्ष। बदी।
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वंद्या  : स्त्री० [सं० वंद्य+टाप्] १. बाँदा नामक वनस्पति। २. रोगोचन।
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वध  : पुं० [सं०√हन् (हिंसा)+अप्, बधादेश] १. अस्त्र-शस्त्र से की जानेवाली हत्या। २. पशुओं की हत्या करना। ३. जान-बूझकर तथा किसी उद्देश्य से की जानेवाली किसी की हत्या।
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वध-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ मनुष्यों, पशुओं आदि का वध किया जाता हो।
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वधक  : पुं० [सं०√हन्+क्वुन्-अक, वधादेश] १. घातक। हिसंक। २. व्याध। ३. मृत्यु। ४. दे० ‘बधक’। वि० वध करनेवाला।
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वधजीवी (विन्)  : पुं० [सं० वध√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो औंरों का वध करके जीविका निर्वाह करता हो।
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वधत्र  : पुं० [सं० हन्+अत्रन्, वधादेश] वध करने का उपकरण। अस्त्र-शस्त्र।
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वधना  : अ० [सं० वर्द्धन] बढ़ना। उन्नति करना। स० [सं० वध०] अस्त्र आदि की सहायता से किसी को जान से मार डालना।
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वधामण  : पुं०=बधावा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वधालय  : पुं० [सं० वध-आलय,ष० त०] वह स्थान जहाँ पर मांस प्राप्त करने के उद्देश्य से पशुओं का वध किया जाता है। बूचड़खाना। स्लाटर हाउस।
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वधिक  : वि०=बधिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वधित्र  : पुं० [सं०√हन्+इत्र, वधादेश] १. कामदेव। २. कामासक्ति।
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वधिर  : वि० [सं० बधिर] बहरा।
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वधु  : स्त्री०=वधू।
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वधुका  : स्त्री० [सं० वधू+कन्+टाप्,हृस्व] वधू।
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वंधुर  : पुं० [सं० बंधुर] १. रथ या गाड़ी का आश्रय जिसमें दोनों हरसे और धुरा प्रधान होते हैं। २. गाड़ी में का वह स्थान जहाँ सारथी या गाड़ीवान बैठकर उसे चलाता है।
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वधू  : स्त्री० [सं०√वह् (पहुँचाना)+ऊ, हस्य,धः] १. ऐसी कन्या जिसका विवाह हो रहा हो अथवा हाल में हुआ हो। दुलहन। २. पत्नी।
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वधूटी  : स्त्री० [सं० वधू+टि+ङीष्] १. पुत्रवधू। २. नवयुवती।
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वधूत  : पुं०=अवधूत (संन्यासी)।
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वंध्य  : वि० [सं० बंध्य] १. जिसमें कोई परिणाम या फल उत्पन्न करने की शक्ति न हो। अनुत्पादक। २. जिसमें बीज या संतान उत्पन्न करने की शक्ति न हो। बाँझ। (स्टराइल)। ३. जिसका कोई परिणाम या फल न हो। निष्फल।
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वध्य  : वि० [सं० वध्+यत्०] जिसका वध होने को हो अथवा किया जाना उचित या शास्त्र-सम्मत हो। पुं० वह जिसका वध किया जाना चाहिए।
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वंध्यकरण  : पुं० [सं०] अनर्वरीकरण। (स्टर्लाइजेशन)।
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वंध्या  : स्त्री० [सं० वंध्या] वह स्त्री० या मादा पशु जो गर्भ धारण करने में फलतः प्रसव करने में असमर्थ हो। बाँझ।
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वंध्या-कर्कटिका  : स्त्री० [सं० बंध्या कर्कटिका] बाँझ ककोड़ा।
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वंध्या-पुत्र  : पुं० [सं० बंध्यापुत्र] बाँझ स्त्री के पुत्र की तरह होनेवाला असंभव पदार्थ।
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वन  : पुं० [सं०√वन् (सेवा)+घ] १. ऐसा स्थान जहाँ बहुत दूर तक हर जगह पेड़ ही पेड़ हों। जंगल। वन। २. बगीचा। वाटिका। ३. फूलों का गुच्छा। ४. जल। पानी। ५. घर। मकान। ६. किरण। रश्मि। ७. चमसा नामक यज्ञपात्र। ८. दशनामी संन्यासियों का एक वर्ग।
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वन-कटाई  : स्त्री० [सं०+हिं०] किसी क्षेत्र को जंगल से रहित कर देना। (डिफ़ारेस्टेशन)।
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वन-काम  : वि० [सं० वन√कम् (चाहना)+णिङ्+अण्०] जंगल में रहनेवाला।
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वन-कुंडल  : पुं० [सं० ष० त०] अच्छी जाति का सूरन या जिमीकंद।
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वन-गमन  : पुं० [सं० स० त०] १. वन की ओर जाना। २. संन्यास ग्रहण करना।
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वन-गोचर  : वि० [ब० स०] १. प्रायः वन में जानेवाला। २. जल में रहनेवाला। पुं० १. व्याध। २. वनवासी। ३. जंगल।
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वन-चंदन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. अगरु। अगर। २. देवदार।
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वन-चंद्रिका  : स्त्री० [सं० स० त०] मल्लिका।
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वन-ज्योत्स्ना  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार की चमेली।
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वन-देव  : पुं० [ष० त०] वन का अधिष्ठाता देवता।
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वन-देवी  : स्त्री० [ष० त०] वन की अधिष्ठात्री देवी।
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वन-नाश  : पुं० [ष० त०] वनाच्छादित प्रदेशों के वृक्ष काटकर उसे साफ करना।
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वन-नाशक  : पुं० [ष० त०] दे० ‘वनकटाई’।
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वन-पाल  : पुं० [सं० वन√पाल् (रक्षाकरना)+णिच्+अच्] वह अधिकारी जो वनों की रक्षा और वृद्धि के लिए नियुक्त रहता है। राजिक। (फाँरेस्ट रेंजर)।
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वन-पिप्पली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] छोटी पीपल।
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वन-प्रिय  : पुं० [ब० स०] १. कोकिल। २. साँभर हिरन। ३. कपूर कचरी। ४. बहेड़े का पेड़।
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वन-मल्लिका  : स्त्री० [ष० त०] सेवती का पौधा या फूल।
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वन-महोत्सव  : पुं० [ष० त०] स्वतन्त्र भारत में वर्षा ऋतु में वनों का विस्तार करने के उद्देश्य से होनेवाला कार्यक्रम जिसमें वृक्ष लगाये जाते हैं।
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वन-माला  : स्त्री० [मध्य० स०] १. जंगली फूलों की माला। २. विशेषतः कुंद, कमल, मदार और तुलसी की बनी हुई तथा पैरों तक लटकनेवाली लंबी माला।
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वन-रक्षक  : पुं० [ष० त०] वन की देख-भाल करनेवाला अधिकारी।
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वन-राजि,वन-राजी  : स्त्री० [ष० त०] १. वन की श्रेणी। वनसमूह। वृक्ष-समूह। २. जंगल में की पगडंडी।
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वन-रोपण  : पुं० [सं० ष० त०] खुले मैदान में अर्थात् जहाँ पहले से पेड़-पौधे न हों, वहाँ नये सिरे से पेड़-पौधे लगाकर वन या उपवन तैयार करने की क्रिया। वनाच्छादन (एफ़ारेस्टेशन)।
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वन-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वन की शोभा। २. केला।
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वन-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] १. जंगल में जाकर जीविका उपार्जित करना। २. वन्य फल खाकर अथवा वन्य वस्तुएँ बेचकर जीविका चलाना।
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वन-शूकर  : पुं० [सं० ष० त०] जंगली सूअर जो बहुत ही बलवान भीषण तथा हिंसक होता है।
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वन-संस्कृति  : स्त्री० [सं०] आदि काल की वह संस्कृति जिसका विकास उस समय हुआ था जब लोग वन में ही रहते थे, फल-मूल खाकर अथवा पशुओं का शिकार करके और खालें, छालें आदि ओढ़-पहनकर रहते थे (फ़ॉरेस्ट कल्चर)।
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वनग  : पुं० [वन√गम् (जाना)+ड] बनगामी। वि० वन की ओर जानेवाला।
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वनचर  : पुं० [सं० वन√चर् (चलना)+ट] १. वन में भ्रमण करनेवाला या रहनेवाला। २. जंगली जीव या प्राणी। ३. शरभ नामक जंतु।
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वनज  : वि० [सं० वन√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो वन (जंगल या पानी) में उत्पन्न हो। पुं० १. कमल। २. मोथा। ३. तुंबुरू का फल। ४. बनकुलथी। ५. जंगली बिजौरा नीबू।
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वनजा  : स्त्री० [सं० वनज+टाप्] १. मुदगपर्णी। २. निर्गुडी। ३. सफेद कँटियारी। ४. बन-तुलसी। ५. असगंध। ६. बन-कपास।
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वनजीवी (विन्)  : पुं० [सं० वन√जीव् (जीना)+णिनि] १. लकड़हारा। २. बहेलिया।
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वनद  : पुं० [सं० वन√दा (देना)+क] मेघ। बादल।
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वनमाली (लिन्)  : वि० [सं० वनमाला+इनि] वनमाला धारण करनेवाला। पुं० श्रीकृष्ण का एक नाम।
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वनराज  : पुं० [ष० त० समासान्त टच् प्रत्यय] १. सिंह। २. अश्मंतक नामक वृक्ष।
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वनवास  : पुं० [सं० स० त०] वन का निवास। जंगल में रहना। मुहावरा– (किसी को) वनवास देना=बस्ती छोड़कर जंगल में जाकर रहने की आज्ञा देना।
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वनवासक  : पुं० [सं० ष० त०] १. शाल्मली कंद। २. एक प्राचीन नगर।
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वनवासी (सिन्)  : वि० [सं० वन√वस् (बसना)+णिनि] [स्त्री० वनवासिनी] १. वन में रहनेवाला। २. बस्ती छोड़कर जंगल में जाकर वास करनेवाला। पुं० १. ऋषभ नामक ओषधि। २. वराही कंद। ३. नील महिष नामक कंद। ४. डोम कौआ। ५. दक्षिण भारत का एक प्राचीन नगर जहाँ कादम्ब राजाओं की राजधानी थी।
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वनस्थ  : वि० [सं० वन√स्था (ठहरना)+क०] १. वन में रहनेवाला। २. वह जिसने वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर लिया हो। ३. जंगली जानवर।
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वनस्थली  : स्त्री० [सं० ष० त०] वनों से घिरा हुआ प्रदेश।
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वनस्था  : स्त्री० [सं० वनस्थ+टाप्] अश्वत्थ। पीपल।
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वनस्पति  : स्त्री० [सं० वन-पति, ष० त० सुट्, आगम] जमीन से उगनेवाले पेड़, पौधे लताएँ आदि।
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वनस्पति-घी  : पुं० [सं०+हिं०] आज-कल घी की तरह का वह चिकना पदार्थ जो नारियल, मूँगफली आदि के तेल साफ करके बनाया जाता है और प्रायः तरकारियाँ, पकवान आदि बनाने के लिए घी के स्थान पर काम में लाया जाता है।
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वनस्पति-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें वनस्पतियों, के उद्भव, रचना, आकार-प्रकार, विकार आदि का विवेचन होता है। (बोटैनी)।
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वनहास  : पुं० [सं० ष० त०] १. काश। काँस। २. कुंद का पौधा और फूल।
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वनाग्नि  : स्त्री० [सं० वन-अग्नि, ष० त०] वन में लगनेवाली आग। दावानल।
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वनाच्छादन  : पुं० [सं० वन-आच्छादन, ष० त०] वन-रोपण।
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वनांत  : पुं० [सं० वन-अंत, ष० त०] जंगली भूमि या मैदान।
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वनायु  : पुं० [सं०√वन्+आयुच्] १. अच्छे घोड़ों के लिए प्रसिद्ध एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. पुरुरवा का एक पुत्र।
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वनायुज  : पुं० [सं० वनायु√जन् (उत्पन्न करना)+ड] वनायु देश का घोड़ा।
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वनाश  : वि० [सं० वन√अश् (खाना)+अण्०] १. जल पीनेवाला। २. केवल जल पीकर रहनेवाला। पुं० एक तरह का छोटा जौ।
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वनि  : पुं० [सं०√वन्+इ०] १. अग्नि। २. ढेर। ३. याचना। ४. इच्छा।
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वनिका  : स्त्री० [सं०√वनी+कन्+टाप्, हृस्व] छोटा वन। उपवन।
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वनित  : भू० कृ० [सं० वन् (माँगना)+क्त] १. याचित। २. अभिलषित। ३. पूजित।
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वनिता  : स्त्री० [सं० वनित+टाप्] १. अनुरक्त स्त्री। प्रिया। प्रियतमा। २. औरत। स्त्री। ३. छः वर्णों की एक वृत्ति जिसे ‘तिलका’ और ‘डिल्ला’ भी कहते हैं। इसमें दो सगण होते हैं।
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वनिता-मुख  : पुं० [सं० ब० स०] मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मनुष्यों की एक जाति।
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वनी  : स्त्री० [सं० वन+ङीष्] छोटा वन। वनस्थली।
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वनीकृत  : भू० कृ० [सं० वन+च्वि, ईत्व√कृ+क्त] (स्थान) जिसमें बहुत से पेड़ लगाये गये हों। जो जंगल के रूप में लाया गया हो।
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वने-किंशुक  : पुं० [सं० स० त०] ऐसी चीज जो वैसे ही बिना माँगे मिले, जैसे वन में किशुंक बिना माँगे या बिना प्रयास किए मिलता है।
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वनेचर  : वि० [सं० वने√चर् (गति)+ट, अलुक, स०]=वनचर। पुं० १. जंगली आदमी। २. संन्यासी। ३. वन्य पशु।
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वनेज्य  : पुं० [सं० वन-जन्य, स० त०] १. आम। २. पर्पट। पापड़ा।
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वनोत्सर्ग  : पुं० [सं० वन-उत्सर्ग, ष० त०] १. देवमंदिर, वापी, कूप, उपवन आदि का शास्त्रविधि से किया जानेवाला उत्सर्ग। मंदिर, कूआँ आदि बनवाकर सर्वसाधारण के लिए दान करना। २. उक्त प्रकार के उत्सर्ग की शास्त्रीय विधि।
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वनौकस्  : वि० [सं० वन-ओकस्, ब० स०] जिसका घर वन में हो। वनवासी। पुं० १. तपस्वी। २. जंगली जानवर।
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वनौषधि  : स्त्री० [सं० वन-ओषधि, मध्य० स०] जंगल में पैदा होनेवाली जड़ी-बूटी।
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वन्नरवाल  : स्त्री० [सं० वंदन+माला]वंदनवार। उदाहरण-वन्नरवाल बंधाणी वल्ली।–प्रिथीराज।
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वन्य  : वि० [सं० वन+यत्] १. वन में उत्पन्न होनेवाला। वनोद्भव। २. जंगल में रहनेवाला। जंगली। जैसे–वन्य जातियाँ। ३. जो सभ्य या शिष्ट न हो, बल्कि जिसकी प्रवृत्तियाँ बर्बर हों। पुं० १. जंगली सूरन। २. क्षीरविदारी। ३. वाराही कन्द। ४. राख।
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वन्या  : स्त्री० [सं० वन+य, टाप्] १. मुद्गुपर्णी। २. गोपाल ककड़ी। ३. गुंजा। घुँघची। ४. असगंध।
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वपन  : पुं० [सं०√वप् (बोना, काटना)+ल्युट-अन] [वि० वपनीय, भू० कृ० वपित] १. बीज बोना। २. सिर मुँड़ना। ३. नाई की दूकान। ४. कपड़ा बुनना। ५. करघा। ६. शुक्र।
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वपनी  : स्त्री० [सं० वपन+ङीष्] १. वह स्थान जहाँ नाई क्षौर कार्य करते हैं। २. हजामत बनाने या बनवाने का स्थान। ३. जुलाहों के कपड़ा बुनने का स्थान।
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वपनीय  : वि० [सं०√वप्+अनीयर्] [भू० कृ० वपित] १. जो अपने के योग्य हो। २. बोये जाने के योग्य।
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वपा  : स्त्री० [सं०√वप्+अङ्+टाप्] १. चरखी। भेद। २. वाल्मीक। बाँबी।
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वपु (स्)  : पुं० [सं०√वय्+उस्] १. शरीर। देह। २. रूप।
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वपुमान  : वि० [सं० वपुष्मान्] १. सुन्दर और पुष्ट देहवाला। २. सुन्दर। ३. मूर्त्त। साकार।
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वपोदर  : वि० [सं० वपा-उदर, ब० स०] बड़ी तोंदवाला।
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वप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं०√वप्+तृच्] १. पिता। जनक। २. नाई। नापित। ३. बीज बोनेवाला। ४. रवि।
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वप्र  : पुं० [सं०√वप्+रन्] १. मि्टटी का वह ऊँचा धुस्सा जो गढ़ या नगर की खाई से निकली हुई मिट्टी के ढेर के चारों ओर उठाया जाता है और जिसके ऊपर प्राकार या दीवार होती है। २. वह ढालुई वास्तुरचना जो मकान की कुरसी की रक्षा के लिए छोटी दीवार के रूप में बनाई जाती है। ३. नदी का किनारा। ४. खेत। ५. धूल। रेणु। ६. पहाड़ की चोटी या पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि। ७. टीला। भीटा। ८. प्रजापति। ९. द्वापर युग के एक व्यास।
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वप्र-क्रिया  : स्त्री० [सं० ब० स०] वप्र-कीड़ा।
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वप्र-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० ष० त०] पशुओं का अपने दाँतों, नाखूनों, सीगों आदि से जमीन या टीले की मिट्टी कुरेदना।
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वप्रक  : पुं० [सं० वप्र+कन्] १. वृत्त की परिधि। गोलाई का घेरा। २. चक्कर।
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वप्रा  : स्त्री०[सं० वप्र+टाप्] १. जैनों के इक्कीसवें जिन नेमिनाथ की माता का नाम। २. मंजीठ।
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वप्रि  : पुं० [सं० वप्+क्रिन्] १. क्षेत्र। २. समुद्र। ३. स्थान की दुर्गमता।
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वफ़ा  : स्त्री० [अ०] १. कही हुई बात या दिये हुए वचन को पालना। निर्वाह। २. मेल-जोल, साथ-संग, सदव्यवहार आदि का किया जानेवाला निर्वाह। ३. निष्ठा।
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वफ़ात  : स्त्री० [अ०] मृत्यु। मौत। क्रि० प्र०–पाना।
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वफ़ादार  : वि० [अ+फा०] कर्त्तव्य, वचन सम्बन्ध आदि का सज्जनता और सत्यतापूर्वक पालन करनेवाला। निष्ठ।
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वबा  : स्त्री० [अ०] १. महामारी। मरी। २. छूतवाला या संक्रामक रोग।
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वबाल  : पुं० [अ०] १. बोझ। भार। २. बहुत बड़ी विपत्ती या संकट। ३. झगड़े-बखेड़े की बात। झंझट। ४. दैवी प्रकोप। ५. पाप का फल। मुहावरा– (किसी का) बवाल पड़ना=दुखिया की आह पड़ना।
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वभ्रु  : पुं० [सं०√वभ्र (गति)+उ०] १. एक प्रकार का सर्प। (सुश्रुत)। २. दे० ‘बभ्रु’।
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वमन  : पुं० [सं०√वम् (उलटी करना)+ल्युट-अन] १. कै करना। उलटी करना। छर्दन। ३. कै किया हुआ पदार्थ। ३. पीड़ा। कष्ट। ४. आहुति।
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वमरथ  : पुं० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि जिनके गोत्रवाले वाम-रथ्य कहलाते थे।
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वमा  : पुं० [अ०] १. नील का पत्ता। २. खिजाब। ३. उबटन। ४. पुरानी चाल का एक प्रकार का छापे का कपड़ा जो चाँदी के बरक लगाकर छापा जाता था।
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वमि  : स्त्री० [सं०√वम्+इन्] १. एक रोग जिसमें मनुष्य का जी मिचलाता है और जो कुछ खाया-पीया होता है, वह मुँह के रास्ते निकलकर बाहर आ जाता है। २. अग्नि।
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वमित  : भू० कृ० [सं०√वम्+क्त] वमन किया हुआ।
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वमी (मिन्)  : वि० [सं० वम्+इनि] वमि रोग से ग्रस्त। स्त्री० [वमि+ङीष्०]=वमि।
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वम्य  : वि० [सं० वम्+यत्] (ओषधि) जिससे वमन कराया जा सके।
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वम्री  : स्त्री० [सं०√वम्+र+ङीष्] दीमक।
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वम्री-कूट  : पुं० [सं० ष० त०] वल्मीक। बाँबी।
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वयं  : सर्व० [सं० अस्मद शब्द का प्रथमा बहु०] हम।
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वय  : स्त्री० [सं० वयस्] १. बीता हुआ जीवनकाल। अवस्था। उम्र। २. बल। शक्ति। ३. चिड़िया। पक्षी। ४. बया पक्षी। ५. जुलाहा। स्त्री०=बै (जुलाहों की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वय-स्थान  : पुं० [सं० ष० त० विसर्गलोप] यौवन। जवानी।
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वयःक्रम  : पुं० [सं० ष० त०] अवस्था। उम्र।
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वयण  : पुं०=वचन। (राज०) पुं०=वचन।
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वयःप्रमाण  : पुं० [सं० ष० त०] जीवन-काल।
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वयःसन्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] बाल्यावस्था और यौवनावस्था के बीच की स्थिति। लड़कपन और जवानी के बीच का समय।
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वयस्  : पुं० [सं०√अज् (गति)+असुन्, वीआदेश०] १. आयु का बीता हुआ भाग। उम्र। वय। ३. चिडि़या। पक्षी।
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वयस्क  : वि० [सं० समस्त पद के अन्त में] शारीरिक दृष्टि से जिसका विकास पूर्णता पर पहुँच चुका हो अथवा यशेष्ट हो चुका हो। पुं० १. विवाह के योग्य युवक और युवती। विशेष—आज-कल विधिक दृष्टि से युवक १८ वर्षों का और युवती १६ वर्षों की होने पर वयस्क मानी जाती है। २. २॰ या २॰ से अधिक वर्ष की अवस्थावाला व्यक्ति जिसे विधितः निर्वाचन आदि में मत देने और अपनी सम्पति की व्यवस्था आदि करने का अधिकार प्राप्त होता है।
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वयस्क-मताधिकार  : पुं० [सं०] प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को राजकीय चुनाव आदि में मत देने का विधि द्वारा प्राप्त अधिकार।
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वयस्कृत्  : वि० [सं० वयस्√कृ (करना)+क्विप्, तुक्, आगम] जीवन अथवा आयु बढ़ानेवाला।
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वयस्था  : स्त्री० [सं० वयस्√स्था (ठहरना)+क+टाप्, विसर्गलोप] १. युवती स्त्री। २. आमलकी। आँवला। ३. हर्रे। ४. गुरूच। ५. छोटी इलायची। ६. काकोली। ७. शाल्मली। सेमल।
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वयस्य  : वि० [सं० वयस्+यत्] जिनका वय या अवस्था समान हो। सम वय वाले। बराबर की उमर के। पुं० मित्र।
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वयस्यक  : पुं० [सं० वयस्क+कन्] [स्त्री० वयस्यिका] १. सम सामयिक व्यक्ति। २. सखा। मित्र।
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वयस्या  : स्त्री० [सं० वयस्य+टाप्०] १. सखी। २. ईंट।
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वयुष्टमा  : स्त्री० [सं० वपुष+तमप्+टाप्] १. पद्यचारिणी लता। २. पुराणानुसार काशीराज की एक कन्या जो परीक्षित के पुत्र जनमेजय को ब्याही थी।
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वयोगत  : वि० [सं० वय-गत, च० त०]=वयस्क।
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वयोवृद्ध  : वि० [सं० वयस्-वृद्ध, तृ० त०] वह जो वय के विचार से बहुत बड़ा हो। अधिक उमरवाला। वृद्ध।
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वर  : वि० [सं० वृ (चुनना आदि)+अप्, कर्मणि] १. (समस्त शब्दों के अन्त में) सबसे बढ़कर उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे–पूज्यवर, मान्यवर। २. किसी की तुलना में अच्छा या बढ़कर। ३. चुने जाने पसन्द किये जाने के योग्य। पुं० १. बहुत सी चीजों में से अच्छी या काम की चीज पसंद करके चुनना। चयन। वरण। २. कोई ऐसी अच्छी चीज या बात जो देवता से प्रसाद के रूप में मांगी जाय। ३. देवता की कृपा से उक्त प्रकार की इच्छा या याचना की होनेवाली पूर्ति। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–माँगना।–मिलना। ४. वह जो किसी कन्या के विवाह के लिए उपयुक्त पात्र माना या समझा गया हो। ५. नव-विवाहिता स्त्री का पति। ६. कन्या के विवाह के समय दिया जानेवाला दहेज। ७. जामाता। दामाद। ८. बालक। लड़का। ९. दारचीनी। १॰. अदरक। ११. सुगन्ध। तृण। १२. सेंधा नमक। १३. मौलसिरी। १४. हल्दी। १५. गौरा पक्षी। प्रत्य० [फा०] एक प्रत्यय जो संज्ञाओं के अंत में लगकर ‘वाला’ या से ‘युक्त’ का अर्थ देता है। जैसे–किस्मतवर, नामवर।
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वर-क्रतु  : पुं० [सं० ब० स०] इन्द्र।
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वर-चंदन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. काला चंदन। २. देवदार।
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वर-तिक्त  : पुं० [सं० ब० स०] १. कुटज। कोरैया। २. नीम। ३. रोहितक। रोहेड़ा। ४. पापड़ा।
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वर-त्वच  : पुं० [सं० ब० स०] नीम का पेड़।
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वर-दक्षिणा  : स्त्री० [सं० ष० त० या मध्य० स०] वह धन जो वर को विवाह के समय कन्या के पिता से मिलता है। दहेज। दायज।
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वर-दल  : पुं० [सं० ष० त०] वर के साथ विवाह के लिए जानेवाले लोगों का समूह। बरात।
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वर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का अगर जिसका वृक्ष बहुत बड़ा होता है।
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वर-प्रद  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० वरप्रदा] वर देने वाला। वरद।
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वर-प्रदान  : पुं० [सं० ष० त०] मनोरथ पूर्ण करना। कोई फल या सिद्धि देना। वर देना। किसी को प्रसन्न होकर उसका मनोरथ पूरा करने के लिए उसे वर देना। वर-दान।
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वर-फल  : पुं० [सं० ब० स०] नारिकेल। नारियल।
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वर-मेल्हा  : पुं० [पुर्त] एक प्रकार का लाल चन्दन।
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वर-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वर का विवाह के लिए वधू के यहाँ जाना। २. वर के साथ वर-पक्ष के लोगों का कन्या पक्ष के यहाँ विवाह के अवसर पर धूम-धाम से जाना। बरात।
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वरक  : पुं० [सं० वर√कन्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. नाव के ऊपर की छाजन। ३. बन-मूँग। ४. जंगली बेर। ५. झड़बेरी। ५. प्रियंगा कँगनी। पुं० [अ०] १. पृष्ठ। पन्ना। २. धातु विशेषतः सोने या चाँदी का पतला पत्तर जो मिठाइयों, मुरब्बों आदि पर लगाकर खाया जाता है।
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वरक-सजा  : पुं० [अ+फा०] सोने-चाँदी के पत्तर अर्थात् वरक बनानेवाला।
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वरका  : पुं० [अ० वरक] पुस्तक आदि का पृष्ठ। पन्ना।
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वरकी  : वि० [अ०] जिसमें कई या बहुत से वरक हो। परतदार।
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वरंच  : अव्य० [सं० परंच] १. उपस्थित, उक्त वर्णित आदि से भिन्न या विपरीत स्थिति में। ऐसा नहीं बल्कि ऐसा। २. परन्तु। लेकिन।
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वरज  : वि० [सं० वर√जन् (उत्पत्ति)+ड] उमर या कद में बड़ा। ज्येष्ठ।
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वरजिश  : स्त्री० [फा०] १. कसरत। व्यायाम। २. ऐसा काम जिसमें शारीरिक श्रम अधिक करना पड़ता हो।
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वरज़िशी  : वि० [फा०] (शरीर) जो व्यायाम से हृष्ट-पुष्ट हुआ हो।
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वरट  : पुं० [सं०√वृ+अटन्] [स्त्री० वरटा] १. हंस। २. कुन्द का फूल।
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वरटा  : स्त्री० [सं० वरट+टाप्] १. मादा हंस। हंसी। २. बर्रे नाम का फतिंगा। ३. गँधिया कीड़ी।
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वरंड  : पुं० [सं०√वृ (आच्छादन)+अण्डन्] १. बंसी की डोर। २. समूह। ३. मुहाँसा। ४. घास का गट्ठर। ४. फीलखाने की वह दीवार जो दो लड़ाके हाथियों को लड़ने से रोकने के लिए उनके बीच में दीवार खड़ी की जाती है।
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वरंडक  : पुं० [सं० वरंड+कन्] १. मिट्टी का भीटा। ढूह। २. हाथी का हौदा।
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वरंडा  : स्त्री० [सं० वरंड+टाप्०] १. कटारी। कत्ती। २. बत्ती। पुं० दे० ‘बरामदा’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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वरण  : पुं० [सं०√वृ+ल्युट-अन] १. अपनी इच्छा या रुचि से किया जानेवाला चयन। चुनाव। जैसे–उन्होंने न जाने क्यों कंटकित पथ का वरण किया।–महादेवी वर्मा। २. प्राचीन भारत में यज्ञ आदि के लिए उपयुक्त ब्राह्मण चुनना और कार्य सौपने से पहले उसका पूजन तथा सत्कार करना। ३. उक्त अवसर पर पुरोहित, ब्राह्मण आदि को दिया जानेवाला दान। ४. कन्या के विवाह के समय का चुनाव करके विवाह-संबंध निश्चित करने की क्रिया या कृत्य। ५. अर्चन। पूजन। ६. सत्कार। ७. ढकने-लपेटने आदि की क्रिया। ८. घेरा। ९. पुल। सेतु। १॰. वरुण वृक्ष। ११. ऊँट। १२. प्राकार।
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वरण-माला  : स्त्री० [सं० च० त०] जयमाल।
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वरणा  : स्त्री० [सं०] १. वरुणा नदी। २. सिन्धु नदी में मिलनेवाली एक छोटी नदी।
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वरणीय  : वि० [सं०√वृ+अनीयर्] [भाव० वरणीयता, स्त्री० वरणीया] १. वरण किये जाने के योग्य (वर, पात्र आदि) २. चुनने या संग्रह करने के योग्य। उत्तम। बढ़िया। ३. पूजनीय। पूज्य।
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वरत्रा  : स्त्री० [सं०√वृ+अत्रन्+टाप्] १. बरेत। बरेता। २. चपड़े का तमसा। ३. हाथी को बाँधकर खींचने का रस्सा।
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वरद  : वि० [सं० वर√दा (देना)+क] [स्त्री० वरदा] १. वर देनेवाला। २. अभीष्ट सिद्ध करनेवाला।
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वरद-मुद्रा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दूसरों को यह जतानेवाली शारीरिक मुद्रा कि हम तुम्हें मनचाहा वर देने या तुम्हारी सब कामनाएँ पूरी करने को प्रस्तुत हैं। (इसमें देने का भाव सूचित करने के लिए हथेली ऊपर या सामने रखकर कुछ नीचे झुकाई जाती है)।
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वरदा  : स्त्री० [सं० वरद+टाप्] १. कन्या। लड़की। २. असगंध। ३. अड़हुल।
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वरदा चतुर्थी  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद अथवा, मध्य० स०] माघ शुक्ल चतुर्थी। वरदा चौथ।
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वरदाता (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० वरदात्री] वर देनेवाला। व़रद।
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वरदानी (निन्)  : वि० [सं० वरदान+इनि] १. वरदान करनेवाला। २. मनोरथ पूर्ण करनेवाला।
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वरदी  : स्त्री० [अ० वर्दी] किसी विशिष्ट कार्यकर्ता वर्ग का पहनावा। जैसे–खेलाड़ियों, चपरासियों, फौजियों या सिपाहियों की वरदी।
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वरना  : स० [सं० वरण] १. वरण करना। चुनना। २. अविवाहिता स्त्री का किसी को अपने पति के रूप में चुनना। वरण करना। पुं० ऊँट। अव्य० [फा० वर्ना] यदि ऐसा न हुआ तो। नहीं तो।
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वरन्  : अव्य० [सं० परम्] १. ऐसा नहीं। २. इसके विपरीत। बल्कि।
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वरम  : पुं०=वर्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वरयिता (तृ)  : वि० [सं०√वर् (चुनना)+णिच्+तृच्०] वरण करनेवाला। पुं०स्त्री का पति। स्वामी।
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वररुचि  : पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध प्राचीन वैयाकरण और कवि।
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वरला  : स्त्री० [सं०√वृ (विभक्त करना)+अलच्+टाप्] हंसिनी। वि० परला (उस पार का)।
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वरवराह  : पुं० [सं० कर्म० स० व्यंग्य प्रयोग]=बर्बर।
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वरवर्णिनी  : स्त्री० [सं० वर-वर्ण,कर्म० स०+इत्० शुद्ध रूप वरवर्णी] १. लक्ष्मी। २. सरस्वती। ३. उत्तम स्त्री। ४. लाक्षा। लाख। ५. हलदी। ६. गोरोचन ७. कंगनी नामक गहना।
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वरही  : पुं० [हिं० वर] सोने की एक लंबी पट्टी जो विवाह के समय वधू को पहनाई जाती है। टीका। पुं०=वहीं (मोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=वरही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वरा  : स्त्री० [सं०√वृ (चुनना आदि)+अच्-टाप्] १. चित्रकला। २. हलदी। ३. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य। ४. गुड़च। ५. मेदा। ६. ब्राह्मी बूटी। ७. बिडंग। ८. सोमराजी। ९. पाठा। १॰. अड़हुल। जापा। ११. बैगंन। भंटा। १२ . सफेद अपराजिता। १३. शतमूली। १४. मदिरा। शराब।
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वराक  : पुं० [सं० वृ (अलग करना)+षाकन्] १. शिव। २. युद्ध। वि० १. शोचनीय। २. नीच। ३. अभाग्य। दीन-हीन। बेचारा।
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वरांग  : पुं० [सं० वर-अंग, कर्म० स०] १. शरीर का श्रेष्ठ अंग अर्थात् सिर। २. [ब० स०] विष्णु जिनके सभी अंग श्रेष्ठ है। ३. एक प्रकार का नक्षत्र वत्सर जो ३२४ दिनों का होता है। ४. [कर्म० स०] गुदा। ५. भग० योनि। ६. वृक्ष की शाखा। टहनी। ७. [ब० स०] दारचीनी। ८. हाथी। वि० सुंदर अंगोंवाला।
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वरांगना  : स्त्री० [सं० वरा-अंगना, कर्म० स०]सुडौल अंगोंवाली सुन्दरी। सुन्दर स्त्री। स्त्री०=वारांगना।
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वरांगी (गिन्)  : वि० [सं० वरागं+इनि, शुद्धरूप वरांग] [स्त्री० वरांगिनी] सुन्दर अंगों और शरीर वाला। पुं० १. हाथी। २. अमलबेत। स्त्री० [सं० वरांग+ङीष्] १. हल्दी। २. नागदंती। ३. मंजीठ।
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वराट  : पुं० [सं० वर√अट् (जाना)+अण्] १. कौड़ी। २. रस्सी। ३. कमलगट्टे का बीज।
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वराटक  : पुं० [सं० वराट+कन्] १. कौड़ी। २. रस्सी। ३. पद्यबीज।
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वराटिका  : स्त्री० [सं० वराट+कन्, टाप्स, इत्व०] १. कौड़ी। २. तुच्छ। वस्तु। ३. नागकेसर।
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वरानन  : वि० [सं० वर-आनन, ब० स०] [स्त्री० वरानगा] सुन्दर मुखवाला। पुं० सुन्दर मुख।
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वरान्न  : पुं० [सं० वर-अन्न, कर्म० स०] दला हुआ उत्तम अन्न।
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वरायन  : पुं० [सं० वर+आयन] १. विवाह से पहले होनेवाली एक रीति। २. वह गीत जो विवाह के समय वर-पक्ष की स्त्रियाँ गाती हैं।
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वरारोह  : पुं० [सं० वर-आरोह, ब० स०] १. विष्णु। २. एक पक्षी। वि० श्रेष्ठ सवारीवाला।
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वरार्ह  : वि० [सं० वर√अर्ह (योग्य होना)+अच्] १. जिसके संबंध में वर मिल सके। २. जो वर पाने के लिए उपयुक्त हो। ३. बहुमूल्य।
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वराल (क)  : पुं० [सं०वर√अल् (भूषण)+अण्,वराल+कन्=वरालक] लवंग। लौंग।
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वरालिका  : स्त्री० [सं० वरा-आलिका, ब० स०] दुर्गा।
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वरासत  : स्त्री० [अ० विरासत] १. वारिस होने की अवस्था या भाव। २. वारिस को उत्तराधिकार के रूप में मिलनेवाली सम्पत्ति।
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वरासन  : पुं० [सं० वर-आसन, कर्म० स०] १. श्रेष्ठ आसन। २. विशेषतः वह आसन जिस पर विवाह के समय वर बैठता है। ३. अड़हुल। ४. नपुंसक। ५. दरबान।
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वराह  : पुं० [सं० वर (=अभीष्ट)आ√हन् (खोदना)+ड] १. शूकर। सूअर। २. विष्णु के दस अवतारों में से एक जो शूकर के रूप में हुआ था। ३. एक प्राचीन पर्वत। ४. शिशुमार या सूस नामक जल-जंतु। ५. वाराही कन्द।
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वराह-कर्णी  : स्त्री० [सं० ष० त० ङीष्] अश्वगंधा लता।
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वराह-कल्प  : पुं० [मध्य० स०] वह काल या कल्प जिसमें विष्णु ने वराह का अवतार लिया था। वाराहकल्प।
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वराह-क्रांता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. वाराह कल्प। २. लजालू।
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वराह-पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] अश्वगंधा।
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वराह-मिहिर  : पुं० [सं०] ज्योतिष के एक प्रसिद्ध आचार्य जो बृहत्संहिता पंचसिद्धांतिका और बृहज्जातक नामक ग्रन्थों के रचयिता थे।
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वराह-मुक्ता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कल्पित मोती जिसके संबंध में यह माना जाता है कि यह वराह या सूअर के सिर में रहता है।
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वराह-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स० या उपमि० स०] एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना जिसमें अगला भाग पतला और बीच का भाग चौड़ा रखा जाता था।
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वराह-शिला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक विचित्र और पवित्र शिल्प जो हिमालय की एक चोटी पर है।
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वराह-संहिता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वराहमिहिर रचित ज्योति का बृहत्संहिता नाम का ग्रन्थ।
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वराहक  : पुं० [सं० वराह+कन्] १. हीरा। २. सूँस।
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वराहिका  : स्त्री० [सं० वराह+कन्-टाप्,इत्व] कपिकच्छु। केवाँच। कौंच।
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वराही  : स्त्री० [सं० वराह+ङीष्] १. वराह की मादा। शूकरी। सूअरी। २. [वराह+अच्+ङीष्] वाराही कंद। ३. नागर मोथा। ४. असगंध। ५. गौरैया की तरह का काले रंग का एक पक्षी। ६. दे्० ‘वाराही’।
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वरि  : स्त्री० [सं० वर=पति] पत्नी। (राज०) उदाहरण–वर मंदा सइ वद वरि।–प्रिथीराज। अव्य,० [सं० उपरि] १. ऊपर। (राज०) उदाहरण–वले बाढ़ दे सिली वरि।–प्रिथीराज। २. भाँति। तरह। उदाहरण–वेस संधि सुहिणा सुवरि।–प्रिथीराज।
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वरियाम  : वि० [सं० वरीयस्] उत्तम। श्रेष्ठ। उदाहरण-पतो माल गद्ध पुरुषरा, वणिया भुज वरियाम।–बाँकीदास।
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वरिशी  : स्त्री० [सं० वडिश] छली फँसानेवाली कँटिया बंसी।
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वरिष्ठ  : वि० [सं० वर+इष्ठन्] १. श्रेष्ठ तथा पूज्य। २. सबसे बड़ा तथा बढ़कर। कनिष्ठ का विपर्याय। (सुपीरियर)। पुं० [सं०] १. धर्म सावर्णि मन्वतर के सप्त ऋषियों में से एक। २. उरुतमस ऋषि का एक नाम। ३. ताँबा ४. मिर्च। ५. तीतर। पक्षी।
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वरिष्ठा  : स्त्री० [सं० वरिष्ठ+टाप्] १. हलदी। २. अड़हुल। जवा।
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वरी  : स्त्री० [सं०√नृ (वरण करना)+अच्-ङीष्] १. शातावरी। सतावर। २. सूर्य की पत्नी। स्त्री० [सं० वर] विवाह हो चुकने पर वर वक्ष से कन्या को देने के लिए भजे जानेवाले कपड़े, गहने आदि। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वरीय  : वि० [सं० वरीयस्०] [भाव० वरीयता] १. सब से अच्छा या बढ़िया। २. बहुतों में अच्छा होने के कारण चुने या ग्रहण किया जाने के योग्य। अधिमान्य। (प्रिफरेबुल)। वि० [सं० वर+ईय (प्रत्यय)०] वर-संबंधी। वर का।
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वरीयता  : स्त्री० [सं० वरीयस्ता०] १. चयन, चुनाव आदि के समय किसी को औरों की अपेक्षा दिया जानेवाला महत्व। २. वह गुण जिसके फलस्वरूप किसी को चयन आदि के समय औरों से अधिक प्रमुखता मिलती है।
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वरीयान् (यस्)  : वि० [सं० वर+ईयसुन्] १. बड़ा। २. श्रेष्ठ। ३. पूरा जवान। पूर्ण युवा। पुं० १. फलित ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों में से अठारहवाँ योग, जिसमें जन्म लेनेवाला मनुष्य दयालु, दाता सत्कर्म करनेवाला और मधुर स्वभाव का समझा जाता है। २. पुलह ऋषि का एक पुत्र।
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वरु  : अव्य०=वरु (बल्कि)।
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वरुट  : पुं० [सं०] एक प्राचीन म्लेच्छ जाति।
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वरुण  : पुं० [सं०√वृ+उनन्] १. एक वैदिक देवता जो जल का अधिपति, दस्युओं का नाशक और देवताओं का रक्षक कहा गया है। पुराणों में वरुण की गिनती दिकपालों में की गई है और वह पश्चिम दिशा का अधिपति माना गया है। वरूण का अस्त्र पाश है। २. जल। पानी। ३. सूर्य। ४. हमारे यहाँ सौर जगत् का सबसे दूरस्थग्रह। (नेपचून)। ५. वरुन का वृक्ष।
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वरुण-ग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] घोड़ों का घातक रोग जो अचानक हो जाता है। इस रोग में घोड़े का तालू, जीभ, आँखें और लिगेंन्द्रिय आदि अंग काले हो जाते हैं।
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वरुण-दैवत  : पुं० [सं० ब० स०] शतभिषा नक्षत्र।
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वरुण-पाश  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण का अस्त्र० पाश या फंदा। २. नक्र या नाक नामक जल जंतु। ३. ऐसा जाल या फंदा जिससे बचना बहुत कठिन हो।
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वरुण-प्रस्थ  : पुं० [सं०] कुरुक्षेत्र के पश्चिम का एक प्राचीन नगर।
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वरुण-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] नक्षत्रों का एक मंडल जिसमें रेवती, पूर्वाषाढ़ आर्द्रा आश्लेषा मूल, उत्तरभाद्रपद और शतभिषा है।
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वरुणक  : पुं० [सं० वरुण+कन्] वरुण या बरुन का वृक्ष।
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वरुणात्मजा  : स्त्री० [सं० वरुण-आत्मजा, ष० त०] वारुणी। मदिरा। शराब।
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वरुणादिगण  : पुं० [सं० वरुण-आदि, ब० स० वरुणादि, ष० त०] पेड़ों और पौधों का एक वर्ग जिसके अन्तर्गत बरुन, नील झिटी सहिंजन जयति, मेढ़ासिंगी, पूतिका, नाटकरंज, अग्निमंथ (अगेंथू) चीता, शतमूली, बेल, अजश्रृंगी, डाभ, बृहती और कटंकारी है (सुश्रुत)।
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वरुणालय  : पुं० [सं० वरुण-आलय, ष० त०] समुद्र।
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वरूथ  : पुं० [सं०√वृ (वरण करना)+ऊथन्] १. तनुत्राण। बकतर। २. ढाल। ३. लोहे का वह जाल जो युद्ध के समय रथ की रक्षा के लिए उस पर डाला जाता था। ४. फौज। सेना।
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वरूथिनी  : स्त्री० [सं० वरूथ+इनि-ङीष्] सेना।
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वरूथी (थिन्)  : पुं० [सं० वरूथ+इनि] हाथी की पीठ पर रखी जानेवाली काठी।
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वरे  : अव्य० [?] १. परे। दूर। २. उस ओर। उधर। ३. उस पार।
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वरेण्य  : वि० [सं०√वृ+एण्य] १. जो वरण किये जाने के योग्य हो। २. चाहा हुआ। इच्छित। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. प्रधान। मुख्य। पुं० केसर।
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वरेंद्र  : पुं० [सं० वर+इंद्र, कर्म० स०] १. राजा। २. इन्द्र। ३. बंगाल का एक प्रदेश या विभाग।
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वरेश्वर  : पुं० [सं० वर-ईश्वर, कर्म० स०] शिव।
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वर्क  : पुं०=वरक (पृष्ठ)।
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वर्कर  : पुं० [सं०√वृक् (स्वीकार)+अर०] १. जवान पशु। २. बकरा। पुं० [अ०] १. काम करनेवाला व्यक्ति। २. विशेषतः किसी सभा, समिति आदि का कार्यकर्ता।
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वर्कराट  : पुं० [सं० वर्कर√अट् (जाना)+अच्] १. कटाक्ष। २. दोपहर के सूर्य की प्रभा। ३. स्त्री के कुच पर का नख-क्षत।
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वर्ग  : पुं० [सं०√वुज् (त्याग देना आदि)+घञ्] १. एक ही प्रकार की अथवा बहुत कुछ मिलती-जुलती या सामान्य धर्मवाली वस्तुओं का समूह। श्रेणी। जैसे– ओषधि वर्ग, साहित्यिक वर्ग विद्यार्थीवर्ग, आदि। २. कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए बना हुआ कुछ लोगों का समूह। ३. देवनागरी वर्णमाला में एक स्थान से उच्चरित होनेवाले स्पर्श व्यंजन वर्णों का समूह। जैसे– कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग आदि। ४. ग्रन्थ का अध्याय, परिच्छेद या प्रकरण। ५. कक्षा। जमात। ६. ज्यामिति में वह समकोण चतुर्भुज जिसकी लम्बाई-चौड़ाई बराबर हो। ७. गणित में समान अंकों का घात।
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वर्ग-पहेली  : स्त्री० [सं० हिं] पहेलियाँ बुझाने के लिए ऐसी वर्गाकार रेखाकृति जिसमें छोटे-छोटे घर बने होते हैं तथा जिनमें कुछ संकेतों के आधार पर वर्ण भरे जाते हैं। (क्रासवर्ड)।
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वर्ग-फल  : पुं० [सं० ष० त०] गणित में दो समान राशियों के घात से प्राप्त होनेवाला गुणनफल।
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वर्ग-मूल  : पुं० [सं० ष० त०] वह राशि जिससे वर्गफल को भाग देकर वर्गांक निकाला जाता है।
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वर्ग-संघर्ष  : पुं० [सं० ष० त०] किसी समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में होनेवाला ऐसा पारस्परिक संघर्ष जिसमें एक-दूसरे को दबाने या नष्ट करने का प्रयत्न होता है। (क्लास स्ट्रगल)।
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वर्गण  : पुं० [सं० वर्ग+णिच्+युच्-अन] गुणन। घात। (गणित)।
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वर्गपद  : पुं०=वर्गमूल।
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वर्गयुद्ध  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘गृह युद्ध’।
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वर्गलाना  : स० [फा० वर्गलानीदन] छल-फरेब से किसी को किसी ओर प्रवृत्त करना। बहकाना।
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वर्गित  : भू० कृ,० [सं० वर्ग+णिच्+क्त] अनेक वर्गों में बँटा या बाँटा हुआ। वर्गीकृत। (क्लैसिफायड)।
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वर्गी (र्गिन)  : वि० [सं० वर्ग+इनि, दीर्घ, नलोप] वर्ग-संबंधी। वर्ग का।
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वर्गीकरण  : पुं० [सं० वर्ग+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट-अन०] [भू० कृ० वर्गीकृत] गुण-धर्म, रंग-रूप, आकार-प्रकार आदि के आधार पर वस्तुओं आदि के भिन्न-भिन्न वर्ग बनाना (क्लैसिफ़िकेशन)।
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वर्गीकृत  : भू० कृ० [सं० वर्ग+च्वि, ईत्व√कृ+क्त०] वर्गित। अनेक या विभिन्न वर्गों में बँटा या बाँटा हुआ। (क्लैसिफायड)।
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वर्गीय  : वि० [सं० वर्ग+छ-ईय] १. किसी विशिष्ट वर्ग से संबंध रखनेवाला या उसमें होनेवाला। वर्ग का। २. जो किसी विशिष्ट वर्ग के अन्तर्गत हो। जैसे– क वर्गीय अक्षर। ३. एक ही वर्ग या कक्षा का। जैसे–वर्गीय मित्र। पुं० सहपाठी।
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वर्गोत्तम  : पुं० [सं० वर्ग-उत्तम, स० त०] फलित ज्योतिष में राशियों के वे श्रेष्ठ अंश जिनमें स्थित ग्रह शुभ होते हैं।
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वर्ग्य  : वि० [सं० वर्ग+यत्०] १. जिसके वर्ग बनाए जा सकें या बनाये जाने को हों २. वर्गीय।
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वर्चस्  : पुं० [सं०√वर्च (तेज)+असुन्] [वि० वर्चस्वान्, वर्चस्वी] १. रूप। २. तेज। प्रताप। ३. कांति। दीप्ति। ४. श्रेष्ठता। ५. अन्न। अनाज। ६. मल। विष्ठा।
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वर्चस्क  : पुं० [सं० वर्चस्+कन्] १. दीप्ति। तेज। २. विष्ठा।
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वर्चस्य  : वि० [सं० वर्चसू+यत्] तेजवर्द्धक।
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वर्चस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० वर्चस्+मतुप्] [स्त्री० वर्चस्वती] १. तेजवान्। २. दीप्तियुक्त।
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वर्चस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० वर्चस्+विनि] [स्त्री० वर्चस्विनी] १. तेज स्त्री। २. दीप्तियुक्त। पुं० चंद्रमा।
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वर्जक  : वि० [सं०√वृज् (निषेध करना)+णिच्+ण्वुल-अक] वर्जन करनेवाला।
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वर्जन  : पुं० [सं०√वृज्+णिच्+ल्युट-अन] [वर्जनीय,वर्ज्य] १. त्याग। छोड़ना। २. किसी प्रकार के आचरण, व्यवहार आदि के संबंघ में होनेवाला निषेध। मनाही। ३. हिंसा। ४. दे० ‘अपवर्जन’।
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वर्जना  : स्त्री० [सं०√वृज्+णिच्+युच्-अन,टाप्] १. वर्जन करने की क्रिया या भाव। मनाही। वर्जन। २. बहुत ही उग्र, कठोर या विकट रूप से अथवा बहुत भयभीत करते हुए कोई बात निषिद्ध ठहराने ०या वर्जित करने की क्रिया या भाव। (टैबू)। विशेष—अनेक असभ्य और आदिम जन-जातियों में इस प्रकार की अनेक परम्परा गत वर्जनाएँ चली आती हैं कि अमुक काम आदि नहीं करने चाहिएँ, अमुक पदार्थ कभी नहीं छूने चाहिए, अथवा अमुक प्रकार के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखना चाहिए, नहीं तो बहुत घातक या भीषण परिणाम भोगना पड़ेगा। सभ्य जातियों में नैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में भी इसी प्रकार की अनेक वर्जनाएँ प्रचलित हैं। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि जहाँ मन में बहुत ही स्वाभाविक, अदमनीय और प्रबल प्रवृ्तियाँ तथा वासनाएँ होती हैं,वहाँ प्राकृतिक वर्जनाओं का रूप धारण या नियन्त्रण की भी प्रवृत्तियाँ होती हैं जो वर्जनाओं का रूप धारण कर लेती हैं। स० वर्जन या निषेध करना। मना करना।
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वर्जनीय  : वि० [सं०√वृज्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका वर्जन होना उचित हो। वर्जन किये जाने के योग्य। २. त्यागे जाने के योग्य। ३. खराब।
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वर्जयिता (तृ)  : वि० [सं०√वृज्+णिच्+तृच्] वर्जक।
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वर्जित  : भू० कृ० [सं०√वृज्+णिच्+क्त] १. जिसके संबंध में वर्जन या निषेध हुआ हो। मना किया हुआ। २. (पदार्थ) जिसका आयात-निर्यात या व्यापार राज्य के द्वारा विधिक रूप से बन्द किया या रोका गया हो। (कान्ट्राबैंड) ३. त्यागा हुआ। परित्यक्त। ४. दे० ‘निषिद्ध’।
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वर्जित  : स्त्री० [फा०]=वरजिश (व्यायाम)।
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वर्ज्य  : वि० [सं०√वृज्+णिच्+यत्] =वर्जनीय।
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वर्ज्य-सूची  : स्त्री० [सं०] अर्थशास्त्र में ऐसी वस्तुओं की सूची जिनके संबंध में किसी प्रकार का वर्जन या निषेध किया गया हो। (ब्लैक लिस्ट)।
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वर्ण  : पुं० [सं०√वर्ण) रंगना आदि)+ण्यत्+घञ्] १. पदार्थों के लाल, पीले हरे आदि भेदों का वाचक शब्द। रंग। (देखें)। २. वह पदार्थ जिसमें चीजें रंगी जाती हों। रंग। ३. शरीर के रंग के आधार पर किया जानेवाला जातियों, मनुष्यों आदि का विभाग। जैसे–मनुष्यों की कृष्णवर्ण, गौरवर्ण, पीतवर्ण आदि कई जातियाँ है। ४. भारतीय हिन्दुओं में स्मृतियों में कही हुई दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्थाओं में वह जिसके अनुसार गुण, कर्म और स्वभाव के विचार से सारा समाज, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चार वर्गों में विभक्त है। दूसरी व्यवस्था ‘आश्रम व्यवस्था’ कहलाती है। ५. पदार्थों के निश्चित किए हुए भेद, वर्ण या विभाग। जैसे–स-वर्ण अक्षरों की योजना। ६. भाषाविज्ञान तथा व्याकरण में लघुतम ध्वनि इकाई। ६. उक्त का सूचक चिन्ह। अक्षर। ७. संगीत में मृदंग का एक प्रकार का ताल जिसके ये चार भेद कहे गये हैं। पाट, विधिपाट, कूटपाट और खंडपाट। ९. आकृति या रूप। १॰. चित्र। तसवीर। ११. प्रकार। भेद। १२. गुण। १३. कीर्ति। यश। १४. बड़ाई। स्तुति। १५. सोना स्वर्ण। १६. अंगराग। १७. केसर।
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वर्ण-क्रम  : पुं० [सं०] १. वर्णमाला के अक्षरों का क्रम। जैसे– वर्णक्रम से सूची बनाना। २. किसी वस्तु की वह आकृति जो उसे देखने के बाद आँख बन्द कर लेने पर भी कुछ देर तक दिखाई देती है। ३. प्रकाश में के रंग जो विशिष्ट प्रक्रिया से विश्लेषित किये जाते हैं। (स्पेक्ट्रम)।
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वर्ण-खंड-मेरु  : पुं० [ष० त०] छंद शास्त्र में वह क्रिया जिससे बिना मेरु बनाए ही वृत्त का काम निकल जाता है, यह पता चल जाता है कि इतने वर्णों के कितने वृत्त हो सकते हैं और प्रत्येक वृत्त में कितने गुरु और कितने लघु होते हैं।
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वर्ण-चारक  : पुं० [सं० ष० त०] १. चित्रकार। २. रंगसाज।
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वर्ण-ज्येष्ठ  : पुं० [सं० स० त०] हिन्दुओं के सब वर्णों में बड़ा अर्थात् ब्राह्मण।
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वर्ण-तूलिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह कूँची जिससे चित्रकार चित्र बनाते हैं। कलम।
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वर्ण-दूत  : पुं० [सं० ब० स०] लिपि।
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वर्ण-दूषक  : पुं० [सं० ष० त०] १. अपने संसर्ग से दूसरों को भी जातिभ्रष्ट करनेवाला। २. जाति से निकाला हुआ पतित मनुष्य।
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वर्ण-नष्ट  : पुं० [सं० ब० स०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि प्रस्तार के अनुसार इतने वर्णों के वृत्तों के अमुक संख्यक भेद का लघु-गुरु के विचार से क्या रूप होगा।
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वर्ण-नाश  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में उच्चारण की कठिनता या किसी और कारण से किसी शब्द में का कोई अक्षर या वर्ण लुप्त हो जाना० जैसे–‘पृष्ठतोपर’ में के ‘त’ का वर्ण-नाश होने पर पृष्ठों पर शब्द बनता है।
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वर्ण-पताका  : स्त्री० [सं० ष० त०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वर्णवृत्तों के भेदों में से कौन सा (पहला, दूसरा तीसरा आदि) ऐसा है जिसमें इतने लघु और इतने गुरु होगें।
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वर्ण-पात  : पुं० [सं० ष० त०] किसी अक्षर का शब्द में से लुप्त हो जाना। वर्ण-नाश।
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वर्ण-पाताल  : पुं० [ष० त०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि अमुक संख्या के वर्णों के कुल कितने वृत्त हो सकते हैं और उन वृत्तों में से कितने लध्वादि और कितने लध्वंत कितने गुर्वादि और कितने गुर्वन्त तथा कितने सर्वलघु होंगे।
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वर्ण-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. रंग या रंगों का डिब्बा। २. वह डिब्बा जिसमें बने हुए छोटे-छोटे घरों में रंगों के जमे हुए टुकड़े रखे जाते हैं। (चित्रकला)।
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वर्ण-पुष्प (क)  : पुं० [ब० स० कप्०] पारिजात।
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वर्ण-प्रत्यय  : पुं० [ष० त०] छंदशास्त्र में वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि कितने वर्णों के योग से कितने प्रकार के वर्णवृत्त बनते हैं।
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वर्ण-प्रस्तार  : पुं० [ष० त०] छंद-शास्त्र में वह क्रिया जिससे यह जाना जाता कि अमुक संख्यक वर्णों के इतने वृत्त भेद हो सकते है और उन भेदों के स्वरूप इस प्रकार होगे।
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वर्ण-भेद  : पुं० [ष० त०] १. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र इन चार प्रकार के वर्णों के लोगों में माना जानेवाला भेद। २. काले, गोरे, पीले, लाल आदि रंगों के आधार पर विभिन्न जातियों में किया जानेवाला पक्षपातमूलक भेद (रेशियल डिस्क्रमिनेशन)।
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वर्ण-मर्कटी  : स्त्री० [ष० त०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि इतने वर्णों के इतने वृत्त हो सकते हैं जिनमें इतने गुर्वादि, गुर्वत, और इतने लध्वादि, लध्वंत होंगे तथा इन सब वृत्तों में कुल मिलाकर इतने वर्ण इतने गुरु-लघु, इतनी कलाएँ और इतने पिण्ड (=दो कल) होगे।
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वर्ण-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] लेखनी।
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वर्ण-मातृका  : स्त्री० [ष० त०] सरस्वती।
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वर्ण-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी लिपि के वर्णों लघुतम ध्वनि इकाइयों की सूची। २. उक्त ध्वनियों के सूचक चिन्हो की सूची।
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वर्ण-राशि  : स्त्री०=वर्णमाला।
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वर्ण-वर्तिका  : स्त्री० [ष० त०] १. चित्रकला में अलग-अलग तरह के रंगों से बनी हुई बत्ती या पेसिल की तरह का एक प्राचीन उपकरण। २. पेंसिल। ३. तूलिका।
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वर्ण-विकार  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान में वह स्थिति जब किसी शब्द में का वर्णविशेष निकल जाता है और उसके स्थान पर कोई और वर्ण आ जाता है।
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वर्ण-विचार  : पुं० [ष० त०] आधुनिक व्याकरण का वह अंश जिसमें वर्णों के आकार, उच्चारण और सन्धियों आदि के नियमों का वर्णन हो। प्राचीन वेदांग में यह विषय शिक्षा कहलाता था।
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वर्ण-विपर्यय  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान में वह अवस्था जब किसी शब्द के वर्ण आगे-पीछे हो जाते हैं और एक दूसरे का स्थान ग्रहण कर लेते हैं।
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वर्ण-वृत्त  : पुं० [मध्य० स०] वह पद्य जिसके चरणों में वर्णों की संख्या और लघु गुरु का क्रम निर्धारित हो।
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वर्ण-व्यवस्था  : स्त्री० [ष० त०] हिन्दुओं की वह सामाजिक व्यवस्था जिसके अनुसार वे ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन चार विभागों या मुख्य जातियों में बँटे हुए हैं।
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वर्ण-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] ब्राह्मण।
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वर्ण-संकर  : पुं० [ब० स०] [भाव वर्ण-संकरता] १. व्यक्ति जिसका जन्म विभिन्न वर्णों के माता-पिता से हुआ हो। २. व्यभिचार से उत्पन्न व्यक्ति।
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वर्ण-संहार  : पुं० [ब० स०] नाटकों में प्रतिमुख संधि का एक अंग।
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वर्ण-सूची  : स्त्री० [ष० त०] छंदशास्त्र में एक क्रिया जिससे वर्णवृत्तों की संख्या की शुद्धता उनके भेदों में आदि, अन्त, लघु और आदि अन्त गुरु की संख्या जानी जाती है।
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वर्ण-हीन  : वि० [तृ० त०] १. जो चारों वर्णों (क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि) में से किसी में न हो। २. जातिच्युत।
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वर्णक  : पुं० [सं०√वर्ण+णिच्+ण्वुल-अक] १. वह तत्व या पदार्थ जिससे रँगाई के काम के लिए रंग बनते हों। रंग (पिगमेन्ट) २. अंगराग। ३. देवताओं को चढ़ाने के लिए पिसी हुई हल्दी आदि ऐपन। ४. अभिनय करनेवालों के पहनने के कपड़े का परिधान। ५. दाढ़ी-मूँछ या सिर के बाल रंगने की दवा या मसाला। ६. चित्रकार। ७. चन्दन। ८. चरण। पैर। ९. मंडल। १॰. हरताल।
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वर्णच्छटा  : स्त्री० [सं० ष० त०] दे० ‘वर्णक्रम’।
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वर्णद  : पुं० [सं० वर्ण√दा (देना+क] एक प्रकार की सुगन्धित लकड़ी। रतन-जोत। दंती। वि० वर्ण या रंग देनेवाला।
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वर्णन  : पुं० [सं०√वर्ण (वर्णन करना, रँगना आदि)+णिच्+ल्युट-अन] १. वर्णों अर्थात् रंगों का प्रयोग करना। रँगना। २. किसी विशिष्ट अनुभूति, घटना, दृश्य, वस्तु, व्यक्ति आदि के संबंध में होनेवाला विस्तारपूर्ण कथन जो उसका ठीक-ठीक बोध दूसरों को कराने के लिए किया जाता है। ३. गुण-कथन। प्रशंसा। स्तुति।
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वर्णना  : स्त्री० [सं०√वर्ण+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. वर्णन। २. गुण-कीर्तन।
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वर्णनातीत  : वि० [सं० वर्णन+अतीति, द्वि० त०] जिसका वर्णन करना असंभव हो।
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वर्णनात्मक  : वि० [सं० वर्णन-आत्मन्, ब० स० कप्] (कथन लेख आदि) जिसमें किसी अनुभव, अनुभूति दृश्य आदि का वर्णन हो या किया जाय।
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वर्णागम  : पुं० [सं० वर्ण-आगम, ष० त०] भाषा विज्ञान में वह स्थिति जब किसी शब्द के वर्ण में एक वर्ण और आकर मिलता है।
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वर्णाट  : पुं० [सं० वर्ण√अट् (गति)+अच्] १. चित्रकार। २. गायक। ३. प्रेमिका। ४. पत्नी द्वारा अर्जित धन से निर्वाह करनेवाला।
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वर्णांध  : वि० [सं० वर्ण-अंध, सुप्सुपा स०] [भाव० वर्णान्धता] जिसकी आँखों में ऐसा दोष हो कि वह रंगों की पहचान न कर सके। वर्णान्धता रोग का रोगी। (कलर ब्लाइंड)।
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वर्णांधता  : पुं० [सं० वर्णान्ध+तल्-टाप्] नेत्रों का एक प्रकार का रोग या विकार जिसमें मनुष्य को लाल, काले, पीले आदि रंगों की पहचान नहीं रह जाती (कलर ब्लाइन्डनेस)
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वर्णाधिप  : पुं० [सं० वर्ण-अधिप, ष० त०] फलित ज्योतिष में ब्राह्मणादि वर्णों के अधिपति ग्रह। (ब्राह्मण के अधिपति बृहस्पति और शुक्र, क्षत्रिय के भौम और रवि, वैश्य के चंद्र, शूद्र के बुध और अन्त्यज के शनि कहे गये हैं)।
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वर्णानुक्रम  : पुं० [सं० वर्ण-अनुक्रम, ष० त०] वर्णों का नियत क्रम।
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वर्णानुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० वर्ण-अनुक्रमणिका, ष० त०] वर्णों के अर्थात् वर्णमाला के अक्षरों के क्रम से तैयार की हुई अनुक्रमणिका या सूची।
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वर्णानुप्रास  : पुं० [सं०वर्ण-अनुप्रास,ष०त०] सनातनी हिन्दुओं में माने-जाने वाले (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र) चारों वर्ण और चारों आश्रम (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और सन्यास)
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वर्णाश्रमी (मिन्)  : वि०[सं०वर्णाश्रम+इनि] १, वर्णाश्रम-सम्बन्धी जो वर्णाश्रम के नियम, सिद्धान्त आदि मानता और उनके अनुसार चलता हो।
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वर्णिक  : पुं० [सं० वर्ण+ठन्-इक] लेखक। वि० १. वर्ण-सम्बन्धी। २. (छन्द) जिसमें वर्णों की गणना या विचार मुख्य हो।
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वर्णिक-गण  : पुं० [कर्म०स०] छन्दशास्त्र में के ये आठों गण-यगण,मगण,तगण,रगण,जगण, भगण,नगण और सगण।
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वर्णिक-छंद (स्)  : पुं० [कर्म० स०] संस्कृत छन्द शास्त्र में वे छन्द जिनके चरणों की रचना वर्णों की संख्या के विचार से होती है।
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वर्णिक-वृत्त  : पुं० [कर्म० स०] वर्णिक छंद।
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वर्णिका  : स्त्री० [सं० वर्णिक+टाप्०] १. स्याही। रोशनाई। २. सुनहला या सोने का पानी। ३. चन्द्रमा। ४. लेप लगाना। लेपन।
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वर्णित  : भू० कृ० [सं०√वर्ण (व्याख्यान या स्तुति)+णिच्+क्त] १. जिसका वर्णन हो चुका हो। २. वर्णन के रूप में आया या लाया हुआ।
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वर्णिनी  : स्त्री० [सं० वर्ण+इनि-ङीष्०] १. किसी वर्ण की स्त्री। २. हल्दी।
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वर्णी (र्णिन्)  : वि० [सं० वर्ण+इनि] वर्णयुक्त। रंगदार। पुं० १. चित्रकार। २. लेखक। ३. ब्रह्मचारी। ४. चारों वर्णों में से किसी एक वर्ग का व्यक्ति।
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वर्णु  : पुं० [सं०√वृ (अलग करना)+णु] १. आधुनिक बन्नू नदी। २. बन्नू नामक नगर और इसके आसपास का प्रदेश।
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वर्णोदिष्ट  : पुं० [सं० वर्ण-उद्दिष्ट, ब० स०] छंदशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि अमुक संख्यक वर्णवृत्त का कोई रूप कौन सा भेद है।
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वर्ण्य  : वि० [सं० वर्ण+यत्०] १. वर्ण या रंग संबंधी। [√वर्ण+ण्यत्] वर्णन किये जाने के योग्य। पुं० १. केसर। २. वन-तुलसी। ३. प्रस्तुत विषय। ४. गंधक।
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वर्तक  : पुं० [सं०√वृत्त (वर्तमान रहना)+ण्वुल्-अक] १. बटुआ। २. नर बटेर। ३. घोड़े का खुर। वि० वर्तन करने या बनानेवाला।
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वर्तन  : पुं० [सं०√वृत्त+ल्युट-अन] १. इधर-उधर या चारों ओर घूमना। २. चलना-फिरना। गति। ३. जीवित या वर्तमान रहना। स्थिति। ४. कोई चीज उपयोग या व्यवहार में लाना। बरतना। ५. लोगों के साथ आचरण या व्यवहार करना। बरतना। बरताव। ६. जीविका। रोजी। ७. उलट-फेर। परिवर्तन। ८. कोई चीज कहीं रखना या लगाना। स्थापन। ९. पीसना। पेषण। १॰. पात्र। बरतन। ११. घाव में सलाई डालकर हिलाना-डुलाना जिससे घाव या नासूर की गहराई और फैलाव आदि का पता लगता है। शल्य-कार्य। १२. चरखे की वह लक़ड़ी जिसमें तकला लगा रहता है। १३. विष्णु का एक नाम।
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वर्तना  : स्त्री०[सं०√वृत्त+णिच्+युच्-अन,टाप्]१. वर्तन। २. चित्रकला में,चित्रों में छाया या अंध-कार दिखाने के लिए काला या इसी प्रकार का और कोई रंग भरना। अ० स०=बरतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वर्तनी  : स्त्री० [सं०√वृत्त+अनि,-ङीष्] १. बटने की क्रिया। पेषणा। सिलाई। २. रास्ता। बाट। ३. किसी शब्द के वर्ण,उनका क्रम तथा उच्चारण विधि। (स्पेलिंग)।
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वर्तमान  : वि० [सं०√वृत्त+शानच्,मुक्,आगम०] १. (जीव या प्राणी) जो इस समय अस्तित्व या सत्ता में हो। २. नियम या विधान जो लागू हो या चल रहा हो। ३. जो उपस्थित, प्रस्तुत या समक्ष हो। विद्यमान। पुं० वर्तमान काल।
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वर्तमान-काल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. व्याकरण में क्रिया के तीन कालों में से एक जिससे यह सूचित होता है कि क्रिया अभी चली चलती है। २. वृत्तान्त। समाचार। हाल।
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वर्ति  : स्त्री० [सं०√वृत्त+इन्०] १. बत्ती। २. अंजन। ३. घाव में भरी जानेवाली कपड़े आदि की बत्ती। ४. औषध बनाने के काम या क्रिया। ५. उबटन। ६. गोली। बटी।
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वर्तिक  : वि० [सं०√वृत्त+तिकन्०] १. बत्ती से सम्बन्ध रखनेवाली। बत्ती का। बत्ती से युक्त। जिसमें बत्तियाँ हों। उदाहरण-बन सहस्र वर्तिका नीराजन।–दिनकर। अ०बटेर नामक पक्षी।
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वर्तिक  : पुं० [सं०√वृत्त+इतच्] बटेर।
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वर्तिका  : स्त्री० [अ०वर्तिक+टाप्] १. बत्ती। २. बटेर पक्षी। ३. मेढ़ासिंगी। ३. सलाई। ४. पेंसिल की तरह का एक उपकरण जो रेखाचित्र बनाने के काम आता था।
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वर्तित  : भू०कृ० [सं०√वृत्त+णिच्+क्त] १. घुमाया या चलाया हुआ। २. संपादित किया हुआ। ३. बिताया हुआ। ४. ठीक या दुरुस्त किया हुआ।
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वर्तिलेख  : पुं० [सं०] बहुत लंबे और मुट्ठे की तरह लपेटे जानेवाले कागज पर लिखा हुआ लेख। खर्रा। (स्क्रोल)
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वर्ती (र्त्तिन्)  : वि० [सं० पूर्वपद के रहने पर] [स्त्री० वर्तिनी] १.वर्तन करनेवाला। २. स्थित रहने या होनेवाला। जैसे–तीरवर्ती, दूरवर्ती। स्त्री० १. बत्ती। २. सलाई।
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वर्तुल  : वि० [स०√वृत्+उलच्] गोल। वृत्ताकार। पुं० १. गाजर। २. मटल। ३. गुंड तृण। ४. सुहागा।
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वर्त्म (न्)  : पुं० [सं०√वृत्त+मनिन्, नलोप] १. मार्ग। पथ रास्ता। २. छकों आदि के चलने से जमीन पर बननेवाली रेखा या लकीर। ३. किनारा। ४. आँख की पलक। ५. आधार। आश्रय। ६० पलकों में होनेवाला एक प्रकार का रोग या विकार।
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वर्त्म-कर्दम  : पुं० [सं० ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पित्त और रक्त के प्रकोप से आँखों में कीचड़ भरा रहता है।
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वर्त्म-बंध  : पुं० [सं० ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पलक में सूजन हो जाती है, खुजली तथा पीड़ा होती है और आँख नहीं खुलती।
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वर्त्मार्बुद  : पुं० [सं० वर्त्मन्-अर्बुद, ब० स०] आँखों का एक रोग जिसमें पलक के अन्दर एक गाँठ उत्पन्न हो जाती है।
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वर्दी  : स्त्री०=वरदी।
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वर्द्ध  : पुं० [सं० √वर्ध (काटना, पूरा करना आदि)+णिच्+अच्] १. काटने, चीरने या तराशने की क्रिया। २. पूरा करना। पूर्ति। ३. भारंगी। ४. सीसा नामक धातु।
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वर्द्ध  : पुं० [सं०√वृध+रन्] चमड़ा। चमड़े का तसमा।
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वर्द्धक  : वि० [सं०√वृध् (बढ़ाना)+णिच्+प्वुल्–अक] १. वृद्धि करनेवाला। २. [√वर्ध्+ण्वुल]–अक] काटने, छीलने या तराश करनेवाला। पुं० [सं०√वर्ध् (काटना)+अच, वर्ध√कष् (हिंसा)+डि] दे० ‘वर्द्धकी’।
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वर्द्धकी (किन्)  : पुं० [सं०√वर्ध्+अच्+कन्+इनि] बढ़ई।
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वर्द्धन  : वि० [सं० √वृध्+णिच्+ल्यु–अन] वृद्धि करनेवाला। जैसे—आनंदवर्धन। पुं० [√वृध्+णिच्+ल्युट—अन] १. वृद्धि करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वृद्धि। बढ़ती।
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वर्द्धनी  : स्त्री० [सं० वर्द्धन+ङीप] १. झाड़ू। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वर्द्धमान्  : वि० [सं० √वृध्+शानच्, मुक आगम] १. जो बढ़ रहा हो या बढ़ता जा रहा हो। बढ़ता हुआ। २. जिसकी या जिसमें बढ़ने की प्रवृत्ति हो। वर्द्धनशील। पुं० १. महावीर स्वामी। जैनियों के २४वें तीर्थंकर। २. बंगाल का आधुनिक बर्दवान नगर। ३. मिट्टी का प्याला या कसोरा। ४. एक वृत्त जिसके पहले चरण में १४. दूसरे में १३. तीसरे में १८ और चौथे में १५ वर्ण होते हैं।
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वर्द्धयिता  : वि० [सं०√वृध् (बढ़ना)+णिच्+तृच्] [स्त्री० वर्द्धयित्री] बढ़ानेवाला। वर्द्धक।
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वर्द्धापन  : पुं० [सं०√वर्ध् (काटना)+णिच्, आपुक्+ल्युट्–अन] १. जनमे हुए शिशु की नाल काटना। २. उन्नति। ३. वृद्धि आदि की कामना से किया जानेवाला धार्मिक कृत्य। ४. महाराष्ट्र में प्रचलित अभ्यंग आदि कृत्य जो किसी की जन्मतिथि पर उसकी उन्नति, दीर्घायु आदि के उद्देश्य से किये जाते हैं।
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वर्द्धिका  : स्त्री० [सं० वर्द्धी+कन्–टाप् ह्रस्व] दे० ‘वर्द्धी’।
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वर्द्धित  : भू० कृ० [सं०√वृध्+णिच्+क्त] १. जिसका वर्द्धन या वृद्धि हुई हो। २. कटा या काटा हुआ।
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वर्द्धिष्णु  : वि० [सं०√वृध्+इष्णुच्] बढ़ता रहनेवाला। वृद्धिशील।
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वर्द्धीका  : स्त्री० [सं० वर्द्ध+ङीष्] १. चमड़े की पेटी। वर्द्धी। २. गले में और छाती पर पहनने का बद्धी नाम का गहना।
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वर्धरोध  : पुं० [सं०] जीवों, वनस्पतियों आदि की वह स्थिति जिसमें उनका वर्धन या विकास रुक जाता या वैज्ञानिक क्रियाओं से रोक दिया जाता है। (एबोर्शन)
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वर्ध्म  : पुं० [सं०√वृध् (बढ़ना)+मनिन् वर्ध्मन्] १. प्रायः आतशंक या गरमी से रोगी को होनेवाला वह फोड़ा जो जाँघ के मूल में संधिस्थान में निकल आता है। बद। २ आँत उतरने का रोग।
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वर्म (न्)  : पुं० [सं०√वृ (बढ़ना)+मनिन्] १. कवच। वक्तर। २. घर। मकान। ३. पित्तपापड़ा। पुं० [फा०] शरीर के किसी अंग में होनेवाली सूजन। शोथ। जैसे—जिगर का वर्म।
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वर्म-धर  : वि० [सं० ष० त०] कवचधारी।
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वर्मक  : पुं० [सं० वर्मन्+कन्] आधुनिक बरमा या ब्रह्मा देश का पुराना नाम।
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वर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं०] एक उपाधि जो कायस्थ, खत्री आदि जातियों के लोग अपने नाम के अंत में लगाते हैं।
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वर्मिक  : वि० [सं० वर्मन्+ठन–इक] वर्म अर्थात् कवच ये युक्त।
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वर्मित  : भू० कृ० [ सं० वर्मन+णिच् (नामधातु)+क्त] वर्म से युक्त किया हुआ। कवचधारी।
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वर्मी  : वि० =वर्मिक।
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वर्य  : वि० [सं०√ वर् (इच्छा करना)+यत्] १. श्रेष्ठ। २. प्रधान। पुं० कामदेव।
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वर्या  : वि० स्त्री० [√वृ (वरण)+यत्+टाप्] (कन्या) जिसका वरण होने को हो अथवा जो वरण किये जाने को हो।
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वर्वर  : पुं० [सं०√वृ+ष्वरच्]=बर्बर।
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वर्ष  : पुं० [सं०√वृष् (सींचना)+अच्] १. वर्षा। वृष्टि। २. बादल। मेघ। ३. काल का एक प्रसिद्ध मान जिसमें दो अयन और बारह महीने होते हैं। उतना समय जितने में सब ऋतुओं की एक आवृत्ति हो जाती है। संवत्सर। साल। बरस। ४. काल गणना में उतना समय जितने में कोई विशिष्ट चक्र पूरा होता हो। जैसे—चांद्र वर्ष, नाक्षत्र वर्ष, वित्त वर्ष। ५. पुराणानुसार पृथ्वी का ऐसा विभाग जिसमें सात द्वीप हो। ६. किसी द्वीर का कोई प्रधान भाग या विभाग। जैसे—इलावर्ष, भारतवर्ष। ७. किसी मास की निश्चित तिथि से लेकर पुनः उसी मास की आनेवाली तिथि के बीच का समय। जैसे—एक वर्ष उन्हें यहाँ आये आज हुआ है।
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वर्ष-कोष  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दैवज्ञ। ज्योतिषी। २. उड़द। माष।
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वर्ष-धर  : पुं० [सं० ष० त०] १. बादल। २. पहाड़। ३. वर्ष का शासक। ४. अन्तःपुर का रक्षक। खोजा। ५. पृथ्वी को वर्षों से विभक्त करने वाले पर्वत।
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वर्ष-पुस्तिका  : स्त्री० [सं०] दे० ‘वर्ष-बोध’।
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वर्ष-फल  : पुं० [सं० ष० त०] १. फलित ज्योतिष में जातक के अनुसार वह कुंडली जिससे किसी के वर्ष भर के ग्रहों के शुभाशुभ फलों का विवरण जाना जाता है। क्रि० प्र०—निकालना। २. उक्त के आधार पर साल भर के शुभाशुभ फलों का लिखित विचार। क्रि० प्र०—बनाना।
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वर्ष-बोध  : पुं० [सं० ष० त०] प्रति वर्ष पुस्तक के रूप में प्रकाशित होनेवाला कोई ऐसा विवरण जिसमें किसी देश, वर्ष, समाज आदि से संबंध रखनेवाले कार्यों, घटनाओं आदि की सभी मुख्य और जानने योग्य बातों का संग्रह रहता है। अब्द-कोश (ईयर-बुक)
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वर्षक  : वि० [सं०√ वृर्ष+ण्वुल्–अक] १. वर्षा करनेवाला। २. ऊपर से फेंकने या गिरानेवाला। जैसे—वम-वर्षक।
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वर्षकर  : पुं० [सं० वर्ष√कृ (करना)+ट] मेघ। बादल।
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वर्षकरी  : स्त्री० [सं० वर्षकर+ङीष्] झिल्ली। झींगुर।
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वर्षकाम  : वि० [सं० वर्ष√कम् (चाहना)+णिड़्+अच्] जिसे वर्षा की कामना हो।
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वर्षकामेष्टि  : पुं० [सं० ष० त०] एक यज्ञ जो वर्षा कराने के उद्देश्य से किया जाता था।
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वर्षगाँठ  : स्त्री०=बरस-गाँठ।
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वर्षघ्न  : पुं० [सं० वर्ष√हन् (मारना)+टक्, कुत्व] १. पवन। वायु। २. अन्तःपुर का नपुंसक रक्षक। खोजा।
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वर्षण  : पुं० [सं०√वृष (बरसना)+ल्युट्–अन] १. बरसना। २. वर्षा। ३. वर्षोपल।
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वर्षप, वर्ष-पति  : पुं० [सं० वर्ष√पा (रक्षा)+क; वर्ष-पति, ष० त०] वर्ष अर्थात् साल का अधिपति ग्रह।
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वर्षा  : स्त्री० [सं०√वर्ष+अ+टाप्] १. आकाश के मेघों से पानी बरसना। वृष्टि। २. किसी चीज का बहुत अधिक मात्रा में ऊपर से आना या गिरना। जैसे—गोलियों या फूलों की वर्षा। ३. किसी बात का लगातार चलता रहनेवाला क्रम। जैसे—गोलियों की वर्षा। ४. [वर्ष+अच्+टाप्] वह ऋतु जिसमें प्रायः बरसता रहता है। बरसात।
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वर्षा-प्रभंजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसी आँधी जिसके साथ पानी भी बरसे।
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वर्षा-बीज  : पुं० [सं० ष० त०] १. मेघ। बादल। औला।
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वर्षा-मंगल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वर्षा का अभाव होने या सूखा पड़ने पर मेघों का वरुण से वर्षा के लिए प्रार्थना करना। २. इस प्रार्थना से संबंध रखनेवाला उत्सव।
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वर्षा-मापक  : पुं० [सं० ष० त०] वह बोतल अथवा नल जिसमें वर्षा का पानी आप से आप भरता रहता है, और जिसपर लगे चिह्नों से जाना जाता है कि कितना पानी बरसा। (रेन-गेज)
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वर्षांक  : पुं० [सं० वर्ष-अंक, ष० त०] संख्या क्रम से किसी संवत् या सन् के निश्चित किये हुए नाम जो अंकों के रूप में होते हैं। दिनांक की तरह। जैसे—वर्षांक १९६१, १९६२।
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वर्षागम  : पुं० [सं० वर्षा-आगम, ष० त०] १. वर्षा ऋतु का आगमन। २. नये वर्ष का आगमन।
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वर्षाधिय  : पुं० [सं० वर्ष-अधिप, ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार वह ग्रह जो संवत्सर या वर्ष का अधिपति हो। वर्षपति।
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वर्षानुवर्षी (षिन्)  : वि० [सं० वर्ष-अनुवर्ष, ष० त०+इनि] १. प्रति वर्ष होनेवाला। २. जो बराबर कई वर्षों तक निरंतर चलता रहे या बना रहे। ३. (वनस्पति या वृक्ष) जो एक बार उग आने पर अनके वर्षों तक बराबर बना रहे। बहुवर्षी। (पेरीनियल)
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वर्षांबु  : पुं० [सं० वर्षा-अंबु, ष० त०] वर्षा का जल।
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वर्षाभू  : पुं० [सं० वर्षा√भू (होना)+क्विप्] १. भेक। दादुर। मेढ़क। २. इन्द्रगोप या ग्वालिन नाम का कीड़ा। ३. रक्त पुनर्नवा। ४. कीड़े-मकोड़े। वि० वर्षा में या वर्षा से उत्पन्न होनेवाला।
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वर्षांश  : पुं० [सं० वर्ष-अंश, ष० त०] महीना।
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वर्षाशन  : पुं० [सं० वर्ष-अशन, मध्य० स०] वर्ष भर के लिए दिया जानेवाला अन्न।
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वर्षाहिक  : पुं० [सं० वर्षा-आहक, मध्य० स०] एक प्रकार का बरसाती साँप जिसमें विष नहीं होता।
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वर्षित  : भू० कृ० [सं०√वृष्+णिच्+क्त] १. बरसाया हुआ। २. ऊपर से गिराया या फेंका हुआ। पुं० वर्षा। वृष्टि।
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वर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० (पूर्वपद के रहने पर)√वृष+णिनि] [स्त्री० वर्षिणी] वर्षा करनेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—अमृत-वर्षी। स्त्री०=बरसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वर्षीय  : वि० [सं० वर्ष+छ–ईय] [स्त्री० वर्षीया] १. वर्ष या साल से संबंध रखनेवाला। २. गिनती के विचार से, वर्षों का। जैसे—पंच-वर्षीय। दसवर्षीय बालक।
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वर्षुक  : वि० [सं०√वृष्+उकञ्] वर्षा करनेवाला।
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वर्षेश  : पुं० [सं० वर्ष+ईश, ष० त०] वर्षाधिप। (दे०)
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वर्षोपल  : पुं० [सं० वर्ष-उपल, ष० त०] ओला।
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वर्ष्म (र्ष्मन्)  : पुं० [सं०√वृष्+मनिन्] १. शरीर। २. प्रमाण। ३. चरम सीमा। इयत्ता। ४. नदियों आदि का बाँध।
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वर्ह  : पुं० [सं० √वर्ह् (दीप्ति करना)+अच्] १. मोर का पंख। ग्रंथिपर्णी। गणिवन। ३. वृक्ष का पत्ता।
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वर्हण  : पुं० [सं०√वृह् (बढ़ना) अथवा√वर्ह्+ल्युट्-अन] पत्र। पत्ता।
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वर्हि (स्)  : पुं० [सं०√वृहं+इसुन्,निं०न-लोप] १. अग्नि। २. चमक। दीप्ति। ३. यज्ञ। ४. कुश। ५. चीते का पेड़।
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वर्हि-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] स्कंद। कार्तिकेय।
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वर्हिमुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. अग्नि। २. एक देवता।
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वर्हिषद्  : पुं० [सं० वर्हिस्√अद् (खाना)+क्विप्] पितरों का एक गण।
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वर्ही (र्हिन्)  : पुं० [सं० वर्ह+इनि] १. मयूर। मोर। २. कश्यप के एक पुत्र। ३. तगर।
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वल  : पुं० [सं०√वल् (घूमना-फिरना)+अच्] १. मेघ। बादल। २. एक असुर जो देवताओं की गौएँ, चुराकर एक गुहा में जा छिपा था। इन्द्र ने जब इससे गौएँ छुड़ा ली,तब यह बैल बनकर बृहस्पति के हाथों मारा गया था।
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वलन  : पुं० [सं०√वल्+ल्युट-अन] १. किसी ओर घूमना या मुड़ना। २. चारों ओर घूमना। चक्कर लगाना। ३. ज्योतिष में,किसी ग्रह का अयंनाश से हटकर कुछ इधर या उधर होना।
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वलना  : स० [सं० वलय] १. घेरना। २. लपेटना। ३. पहनना। (राज०) उदाहरण-वले वलै निधि विधि वलित।–प्रिथीराज।
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वलना  : अ० [सं०वलन] १. किसी ओर घूमना या मुड़ना। २. वापस आना। लौटना। स०१. घुमाया फिराना। २. लपेटना।
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वलनिक  : वि० [सं०वलय] १. जिसका वलय किया जा सके। २. जो तह करके या मोड़कर छोटा किया जा सके (फोल्डिंग)।
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वलनी  : स्त्री० [सं० वलन] १. वह स्थान जहाँ से कोई चीज किसी ओर घूमती या मुड़ती हो। २. कोई ऐसी चीज जो घूमे या मुड़े हुए रूप में हो (बेंड)।
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वलंब  : पुं०=अवलंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वलभी  : स्त्री० [सं०√वल् (आच्छादित होना)+अभि+ङीष्] १. वह छोटा मंडप जो घर के ऊपर शिखर पर बना हो। गुमटी। निगोल। २. घर का ऊपरी भाग ३. छप्पर। ४. छत। ५. काठियावाड़ की एक प्राचीन नगरी।
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वलय  : पुं० [सं०√वल+कयन्] १. गोलाकार घेरा। मंडल। २. घेरने, लपेटने आदि वाली चीज। वेष्टन। ३. हाथ में पहनने का कंगन। ४. वृत्त की परिधि। ५. एक प्रकार की व्यूह रचना जिसमें सैनिक मंडल बनाकर खड़े होते हैं। ६. एक प्रकार का गल-गंड रोग। ७. शाखा।
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वलयित  : भू० कृ० [सं० वलय+णिच्+क्त] १. घेरा या लपेटा हुआ। परिवृत्त। वेष्टित।
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वलवला  : पुं० [अ० वल्वलः] १. शोर-गुल। २. मन की उमंग। आवेश। क्रि० प्र०–उठना।
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वलसूदन  : पुं० [सं० वल√सूद् (मारना)+ल्यु-अन] इंद्र।
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वलाक  : पुं० [स्त्री० वलाका]=बलाक (बगला)।
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वलायत  : स्त्री०=विलायत।
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वलाहक  : पुं० [सं० वारि-वाहक, ष० त० पृषो० सिद्धि] १. मेघ। बादल। २. मुस्तक। ३. पर्वत। पहाड़। ४. कुश द्वीप का एक पर्वत। श्रीकृष्ण के एक रथ का एक घोड़ा। ५. एक प्राचीन नद। ६. साँपों की एक जाति जो दर्व्वीकर के अन्तर्गत मानी गई है।
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वलि  : पुं० [सं०√वल्+इन्] १. रेखा। लकीर। २. चंदन आदि से बनाये जानेवाले चिन्ह या रेखाएँ। ३. देवताओं आदि को चढ़ाई जानेवाली वस्तु। ४. देवताओं के उद्देश्य से मारे जाने वाले पशु। ५. झुर्री। बल। सिकुड़न। ६. पंक्ति। श्रेणी। कतार। ७. एक दैत्य जो प्रह्लाद का पौत्र था और जिसे विष्णु ने वामन अवतार लेकर छला था। ८. पेट के दोनों ओर पेटी के सिकुड़ने के कारण पड़ी हुई रेखा। वल। जैसे– त्रिवली। ९. राजकर। १॰. बवासीर का मसा। ११. छाजन की ओलती। १२. गंधक। १३. पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।
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वलि-मुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. बानर। बंदर। २. गरम दूध में मठा मिलाने से उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का विकार।
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वलिक  : पुं० [सं० वलि+कन्] ओलती।
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वलित  : भू० कृ० [सं०√वल्+क्त] १. घूमा, मुड़ा या बल खाया हुआ। २. झुका या झुकाया हुआ। ३. घिरा या घेरा हुआ। परिवृत्त। ४. जिसमें झुर्रिया या सिकुड़ने पड़ी हों। ५. किसी के चारों ओर लिपटा हुआ। आच्छादित। ६. मिला हुआ। युक्त। सहित। पुं० १. काली मिर्च। २. हाथ की एक मुद्रा।
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वली  : स्त्री० [सं० वलि+ङीष्] १. झुर्री। शिकन। २. अवली। पंक्ति। श्रेणी। ३. रेखा। लकीर। ४. चंदन आदि के बनाए हुए चिन्ह या रेखाएँ। ५. पेट पर पड़नेवाली रेखा। जैसे–त्रिवली। पुं० [अ०] १. वह धर्मात्मा और महात्मा जो ईश्वर की दृष्टि में प्रिय और मान्य हो। २. वह व्यक्ति जो किसी नाबालिग या स्त्री की संपत्ति का कर्ता-धर्ता तथा रक्षक हो। अभिवाहक। ३. स्वामी।
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वली-अल्लाह  : पुं० [अ०] एक प्रकार के सिद्ध मुसलमान फकीर।
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वली-अहद  : पुं० [अ०] युवराज।
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वलीक  : पुं० [सं०√वल्+कीकन्] १. ओलती। २. सरकंडा।
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वलीमुख  : पुं०=वलिमुख (बंदर)।
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वलूक  : पुं० [सं०√वल्+अक] १. कमल की जड़। २. एक प्रकार का पक्षी।
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वले  : अव्य, [फा०] १. लेकिन। मगर। २. पुनः।
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वलेकिन  : अव्य०=लेकिन।
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वलै  : पुं०=वलय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वल्क  : पुं० [सं०√वल्+क, नि०] १. पेड़ की छाल। वल्कल। २. मछली के ऊपर का चमकीला छिल्का। मछली की चोई।
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वल्क-द्रुम  : पुं० [सं० मध्य० स०] भोज पत्र का वृक्ष।
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वल्कल  : पुं० [सं०√वल्+कलन्] १. पेड़ों के धड़ और काण्ड पर का आवरण। छाल। २. प्राचीन काल में वह छाल जो जंगली लोग, तपस्वी आदि कपड़े की तरह ओढ़ते-पहनते थे। ३. एक दैत्य। ४. ऋग्वेद की वाष्कल नामक शाखा।
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वल्कला  : स्त्री० [सं० वल्कल+टाप्] १. एक प्रकार का सफेद पत्थर जिसका गुण शीतल और शान्तिकारक माना जाता है। शिला वल्का। २. तेजबल नामक वनस्पति।
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वल्कली (लिन्)  : वि० [सं० वल्कल+इनि] (पेड़) जिसकी छाल ओढ़ने पहनने के काम आती है।
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वल्गन  : पुं० [सं०√वल्ग् (उछलना)+ल्युट-अन] १. उछलने, कूदने या फाँदने की क्रिया या भाव। २. दुलकी। ३. व्यर्थ की उछल-कूद और बकवाद।
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वल्गा  : स्त्री० [सं०√वलग्+अच्+टाप्] बाग। रास। लगाम।
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वल्गु  : वि० [सं०√वल्+ड,गुक्-आगम] १. रूपवान्। सुंदर। २. प्रिय। मधुर। ३. बहुमूल्य। पुं० [सं०] १. बौद्धों के बोधि द्रुम के चार अधिकृत देवताओं में से एक। २. बकरा।
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वल्गुक  : पुं० [सं० वल्गु+कन्] १. चंदन। २. जंगल। वन। ३. पण। बाजी। ४. क्रय-विक्रय। सौदा। ५. मूल्य। दाम। वि० वल्गु।
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वल्गुल  : पुं० [सं०√वल्गु+उल्] १. एक प्रकार का चमगादड़। २. गीदड़। श्रृंगाल।
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वल्गुला  : स्त्री० [सं० वल्गु√ला (लेना)+क+टाप्] १. बकुची। २. चमगादड़।
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वल्गुलिका  : स्त्री० [सं० वल्गुल+कन्+टाप्, इत्व] १. कत्थई रंग का पतंग जाति का कीड़ा जिसे ‘तेलपायी’ भी कहते हैं। चपड़ा। २. पिटारी। मंजूषा।
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वल्गुली  : स्त्री० [सं० वल्गुल+ङीष्] १. चमगादड़। गेदुर। २. पिटारी। मंजूषा।
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वल्द  : पुं० [अ०] पुत्र। बेटा।
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वल्दियत  : स्त्री० [अ०] पुत्र होने की अवस्था या भाव। पद—वल्दियत लिखाना=यह लिखना कि हम किसके पुत्र है। पिता का नाम बतलाना।
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वल्मीक  : पुं० [सं०√वल्+कीकन्, नुम्-आगम] १. दीमकों का लगाया हुआ मिट्टी का ढेर। बाँघी। विमौट। २. ऐसा मेघ जिस पर सूर्य की किरणें पड़ रही हों। ३. एक प्रकार का रोग जिसमें संधि-स्थलों में सूजन आ जाती है। ५. वाल्मीकि ऋषि।
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वल्ल  : पुं० [सं०√वल्ल (ढकना)+अच्] १. घुंघची। २. एक पुरानी तौल जो किसी के मत से तीन और किसी के मत से छः रत्ती की होती थी। ३. आवरण। ४. निषेध। ५. अनाज ओसाना या बरसाना। ६. शल्लकी। सलई।
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वल्लकी  : स्त्री० [सं०√वल्ल+क्वुन्+ङीष्] १. वीणा। २. नारद की वीणा का नाम। ३. सलई का पेड़।
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वल्लभ  : वि० [सं०√वल्ल+अभच्] [स्त्री० वल्लभा] अत्यन्त प्रिय। प्रियतम। प्यारा। पुं० १. अत्यन्त प्रिय व्यक्ति। २. स्त्री का पति। ३. मालिक। स्वामी। ४. अच्छे लक्षणोंवाला घोड़ा। ५. एक प्रकार का सेम। ६. दे० ‘वल्लभाचार्य’।
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वल्लभ-मत  : पुं०=वल्लभ संप्रदाय।
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वल्लभ-संप्रदाय  : पुं० [सं० ष० त०] महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित पुष्टिमार्ग संप्रदाय का दूसरा नाम। दे० ‘पुष्टि-मार्ग’।
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वल्लभा  : वि० स्त्री० [सं० वल्लभ+टाप्] सं० ‘वल्लभ’ का स्त्री।
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वल्लभी  : पुं०=वलभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वल्लर  : पुं० [सं०√वल्ल+अरन्] १. निकुंज। २. वन। ३. लता। ४. मंजरी। ५. अगर।
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वल्लरी  : स्त्री० [सं० वल्लर+ङीष्] १. वल्ली। लता। २. मंजरी। ३. मेघी। ४. वचा। बच। ५. पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।
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वल्लव  : पुं० [सं० वल्ल√वा (गति)+क] [स्त्री० वल्लवी] १. गोप। ग्वाला। २. रसोइया।
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वल्लव  : पुं० [सं०] एक दैत्य जिसे बलराम जी ने मारा था। इल्लव।
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वल्लाह  : अव्य० [अ०] १. ईश्वर की शपथ लेते हुए। २. सचमुच।
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वल्लि  : स्त्री० [सं०√वल्लि+इन्] १. लता। २. पृथिवी।
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वल्लि-दूर्वा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] सफेद दूब।
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वल्लिका  : स्त्री० [सं० वल्लि+कन्+टाप्] १. लता। वल्ली। २. बेला। ३. पोई नामक साग।
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वल्लिज  : पुं० [सं० वल्लि√जन् (उत्पत्ति)+ड] मिर्च।
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वल्ली  : स्त्री० [सं० वल्ली+ङीष्] १. लता। २. काली अपराजिता। ३. केवटी मोथा। ४. अग्नि दमयन्ती। ५. शाल का वृक्ष।
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वल्लुर  : पुं० [सं०√वल्ल+उरच्] १. कुंज। २. मंजरी। ३. क्षेत्र। ४. निर्जल स्थान।
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वल्लूर  : पुं० [सं० वल्ल+ऊरच्] १. धूप में सुखाया हुआ मांस विशेषता मछली का मांस। २. सूअर का मांस। ३. ऊसर जमीन। ४. जंगल। वन। ५. उजाड़ जगह। वीरान।
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वव  : पुं० [सं०] एक करण। (ज्यो०)।
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वंश  : पुं० [सं०√वम् (उगलना)+वा√वन् (शब्द)+श] १. बाँस। २. बाँस की बनी हुई बाँसुरी। ३. छाजन की बँडेर जो बाँस की होती है। ४. एक प्रकार की ईख। ५. पीठ के बीच में हड्डियों की गुरियों की लंबी माला या श्रृंखला जो गरदन से कमर तक होती है। रीढ़। ६. नाक के बीच की लंबी हड्डी। बांसा। ७. खड्ग के बीच का पीछे की ओर उठा हुआ या ऊँचा भाग। ८. बारह हाथ की एक पुरानी नाप। ९. हाथ या पैर की लंबी हड्डी। नली। १॰. युद्ध की सामग्री। ११. पुष्प। फूल। १२. विष्णु का एक नाम। १३. जीव या प्राणी की संतान-परम्परा। एक ही जीव, प्राणी या व्यक्ति से उत्पन्न होनेवाले जीवों, प्राणियो या व्यक्तियों की परम्परा या श्रृंखला। कुल। खानदान। १४. दे० ‘वंशलोचन’।
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वंश  : स्त्री० [सं० वंश+अच्-ङीष्] १. मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा जो बाँस में सुर निकालने के लिए छेद करके बनाया जाता है। बाँसुरी। मुरली। २. वंशलोचन। बंसलोचन। ३. चार कर्ष या आठ तोले की एक पुरानी तौल। वि० [सं० वंसिन्] किसी विशिष्ट वंश में उत्पन्न होने या उससे संबंध रखनेवाला। जैसे– चंद्रवंशी, सूर्यवंशी।
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वश  : पुं० [सं०√वश् (चाहना आदि)+अप्] १. अधिकार, नियंत्रण या प्रभाव क्षेत्र में लाने या रखने की शक्ति या समर्थता। काबू। वि० १. काब में आया हुआ। अधीन। २. आज्ञानुवर्ती। ३. नीचा दिखलाया हुआ। ४. जादू-टोने से मुग्ध किया हुआ। पद—वश का=जिस पर वश चलता हो। जो संभव हो। जैसे–यह काम हमारे वश का नहीं है। मुहा०-वश चलना=ऐसी स्थिति होना कि अधिकार या शक्ति अपना पूरा काम कर सके। जैसे– तुम्हारा वश चले तो तुम उसे घर से निकाल दो। वश में होना=पूर्ण नियन्त्रण में होना। ५. इच्छा। ६. जन्म। ७. कसबियों के रहने का स्थान। चकला।
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वंश-तिलक  : पुं० [सं०] पिंगल में एक प्रकार का छंद।
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वंश-धर  : पुं० [सं० ष० त०] १. बाँस धारण करनेवाला। २. वह जो किसी के वंश में उत्पन्न हुआ हो। वंशज। ३. वह जिसने अपने वंश या कुल की मर्यादा की रक्षा की हो।
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वंश-धरा  : स्त्री० [सं० वंशधर+टाप्] मध्यप्रदेश की एक नदी, जो पुराणानुसार महेन्द्र पर्वत से निकली है। आज-कल इसे ‘वंशधारा’ कहते हैं।
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वंश-धान्य  : पुं० [सं० ष० त०] बाँस का चावल। (वि० दे० ‘बाँस’)।
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वंश-नाश  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जो शनि, राहु और सूर्य के एक साथ किसी लग्न में, विशेषत पंचम लग्न में पड़ने पर होता है, और जिसके फलस्वरूप सारे वंश या परिवार का नष्ट होना माना जाता है।
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वंश-नेत्र  : पुं० [सं० ब० स०] ऊख की जड़ या पोर जिसमें से अँखुआ निकलता है।
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वंश-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] हरताल (खनिज)।
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वंश-पत्र-पतित  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का छन्द।
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वंश-पत्रक  : पुं० [सं० वंशपत्र+कन्] १. एक प्रकार की ईख जो सफेद होती है। २. एक तरह की मछली। ३. हरताल।
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वंश-रोचना  : स्त्री० [सं० ष० त०] बंसलोचन।
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वंश-वज्रा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अर्द्ध-सम वर्णिक वृत्त जो इधर हाल में इंद्रवज्रा और इन्द्रवंशा के योग से बनाया गया है। इसके पहले और तीसरे चरणों में तगण, तगण, जगण और दो गुरु होते हैं।
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वंश-वृक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] वृक्ष की आकृति का वह रेखा-चित्र जिसमें किसी वंश के मूल पुरुष से लेकर उसके परवर्ती वंशजों (पुरुषों) का क्रमात् नाम एक विशिष्ट क्रम से लिखा होता है।
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वंश-शर्कंरा  : स्त्री० [सं० ष० त०] बंसलोचन।
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वंश-शलाका  : स्त्री० [सं० ष० त०] बीन, सितार, आदि बाजों का डंडा।
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वंश-हीन  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसके वंश में कोई न हो। निर्वश। २. जिसके पुत्र न हो।
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वंशक  : पुं० [सं० वंश+कन्] १. छोटी जाति का बाँस। छोटा बाँस। २. अगर नामक गंध-द्रव्य। अगरू। ३. एक प्रकार की ईख। ४. एक प्रकार की मछली।
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वशक  : वि० [सं० वशकर] [स्त्री० वशका] १. वश में करनेवाला। २. वश में किया हुआ।
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वंशकपूर  : पुं० [सं० वंशकर्पूर] वंशलोचन।
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वंशकर  : पुं० [सं० वंश√कृ (करना)+अच्] वह पुरुष जिससे किसी वंश का आरंभ हुआ हो। मूलपुरुष।
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वशंकर  : वि० [सं० वशकर] वशीभूत करनेवाला।
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वंशकरा  : स्त्री० [सं० वंशकर+टाप्] वंशधरा नदी।
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वशका  : स्त्री० [सं० वश√कै (शोभा)+क+टाप्] आज्ञा और वश में रहनेवाली पत्नी।
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वंशकार  : पुं० [सं० वंश√कृ+अण्] गंधक।
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वशग  : वि० [सं० वश√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० वशगा] आज्ञाकारी।
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वंशज  : पुं० [सं० वंश√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. वह जो किसी वंश में उत्पन्न हुआ हो। २. किसी विशिष्ट व्यक्ति के विचार से उसकी संतान। जैसे–ये लोग टोडरमल के वंशज है (डिसेन्डेन्ट, उक्त दोनों अर्थों से)।
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वंशजा  : स्त्री० [सं० वंशज+टाप्] वंशलोचन।
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वंशनर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० वंश√नृत् (नाचना)+णिनि] भाँड़।
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वंशपत्री  : स्त्री० [सं० वंशपत्र+ङीष्] १. एक प्रकार की हींग। २. बाँसा नाम की घास।
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वंशय  : वि० [सं० वंश+यत्] १. वंश-सम्बन्धी। वंश का। २. किसी वंश या कुल में उत्पन्न। वंशज। पुं० १. छत की छाजन में की बँडेर। २. पीठ की रीढ़।
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वंशलोचन  : पुं० [सं० वंशरोचना] बंसलोचन (देखें)।
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वशंवद  : वि० [सं० वश√वद् (बोलना)+खच्, मुम्] १. जो किसी के वश या प्रभाव में हो। २. कही हुई बात या आज्ञा माननेवाला। आज्ञाकारी।
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वंशस्थ  : पुं० [सं० वंश्√स्था (ठहरना)+क] बारह वर्णों का एक वर्ण-वृत्त जिसका व्यवहार संस्कृत काव्यों में अधिक मिलता है। इसमें जगण, तगण, जगण, और रगण आते हैं। इसे ‘वंशस्थविल’ भी कहते हैं।
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वशा  : स्त्री० [सं०√वश्+अच्+टाप्] १. वंध्या स्त्री० बाँझ। २. जोरू। पत्नी। ३. गौ। ४. हथनी। ५. स्त्री के पति की बहन। ननद।
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वंशागत  : वि० [सं० वंश-आगत,पं० त०] १. वंश-परम्परा से प्राप्त। २. उत्तराधिकार में प्राप्त।
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वंशानुक्रम  : पुं० [सं० वंश-अनुक्रम, ष० त०] [वि० वंशानुक्रमिक] किसी वंश में बराबर चलता रहनेवाला क्रम या परम्परा।
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वंशानुक्रमण  : पुं० [सं० वंश-अनुक्रमण, ष० त०] वंश-परम्परा।
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वंशानुक्रमिक  : वि० [सं० वंशानुक्रम+ठक्-इक] वंश में परम्परा के रूप में चलनेवाला। आनुवंशिक। (हेरीडेटरी)।
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वशानुग  : वि० [सं० वश-अनुग, ष० त०] १. वश में रहनेवाला। २. वश में किया हुआ। ३. दे० ‘वशग’।
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वंशावली  : स्त्री० [सं० वंश-आवली, ष० त०] किसी वंश में उत्पन्न पुरुषों की पूर्वोत्तर क्रम-सूची। (जीनिएलाँजी)।
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वंशिक  : पुं० [सं० वंश+ठक्-इक] १. अगर की लकड़ी। २. काला गन्ना
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वंशिका  : स्त्री० [सं० वंशिक+टाप्] १. अगर की लकड़ी। २. बंसी। मुरली। ३. पिप्पली।
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वशित  : स्त्री०=वशित्व।
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वशित्व  : पुं० [सं० वशिन्+त्व] १. वश में होने की अवस्था या भाव। वश चलना। २. योग में अणिमा आदि आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि जिससे साधक सबको वश में कर सकता है। ३. सम्मोहन।
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वशिमा  : स्त्री० [सं० वश+इमानिच्] योग की वशित्व नामक सिद्धि।
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वशिर  : पुं० [सं०√वश्+किरच्] १. समुद्री लवण। समुद्री नमक। २. एक प्रकार की लाल मिर्च।
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वशिष्ठ  : पुं०=वसिष्ठ।
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वशी (शिन्)  : वि० [सं० वश+इनि] १. जो किसी के वश में हो। २. जिसने अपनी इच्छाशक्ति और इन्द्रियों को वश में कर रखा हो।
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वंशी-वट  : पुं० [सं० मध्य० स०] वृन्दावन वन में स्थित बरगद का एक पेड़ जिसके नीचे श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे।
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वशीकर  : वि० [सं० व+च्वि√कृ+ट] १. वश में करनेवाला। जैसे–वशीकर मंत्र। २. सम्मोहक। पुं० वशीकरण।
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वशीकरण  : पुं० [सं० वश+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट-अन] [वि० वशीकृत] १. दूसरों को अपने वश में करने, रखने अथवा लाने की क्रिया या भाव। वश में करना। २. तंत्र में एक प्रकार का प्रयोग जिसमें मंत्र-बल से किसी को अपने वश में किया या लगाया जाता है। ३. ऐसा साधन जिससे किसी को वशीभूत किया जा सके या किया जाता हो।
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वशीकृत  : भू० कृ० [सं० वश+च्वि, ईत्व√कृ+क्त] १. वश में किया हुआ। २. मोहित मुग्ध।
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वंशीधर  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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वशीभूत  : भू० कृ० [सं० वश+च्वि, ईत्व√भू (होना)+क्त०] वश में आया या किया हुआ। अधीन। ताबे।
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वंशीय  : वि० [सं० वंश+छ-ईय] किसी वंश या कुल से संबंध रखने या उसमें होनेवाला।
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वंशोद्भव  : वि० [सं० वंश-उद्भव, ब० स०] किसी विशिष्ट अंश या कुल में उत्पन्न।
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वंशोद्भवा  : स्त्री० [सं० वंशोद्भव+टाप्] बंसलोचन।
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वश्य  : वि० [सं० वश+यत्] [भाव० वश्यता] १. जो वश में किया गया हो। २. जो वश में किया जा सकता हो। ३. अधीनस्थ। पुं० १. दास। नौकर। सेवक। २. अधीनस्थ कर्मचारी या व्यक्ति।
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वश्यता  : स्त्री० [सं० वश्य+तल्+टाप्] वश में होने की अवस्था या भाव। अधीनता।
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वश्या  : स्त्री० [सं० वश्य+टाप्०] १. लगाम। २. गोरोचन। ३. नीली अपराजिता।
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वषट्  : अव्य० [सं०√वह (पहुँचाना)+डषटि] एक शब्द जिसका उच्चारण यज्ञ के समय अग्नि में आहुति देते समय किया जाता है।
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वषट्-कार  : पुं० [सं० ब० स०] १. देवताओं के उद्देश्य से किया हुआ यज्ञ। होम। होत्र। २. तैतीस वैदिक देवताओं में से एक देवता। ३. वषट् (शब्द) का उच्चारण करनेवाला व्यक्ति।
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वषट्-कृत  : भू० कृ० [सं० सुप्सुपा० स०] देवताओं के निमित्त अग्नि में डाला हुआ। होम किया हुआ। हुत।
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वषट्-कृत्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] होम।
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वष्कयणी  : स्त्री० [सं०√वष्क् (गति)+अयन्=वष्कय (एक साल का बछड़ा)√नी (ले जाना)+ क्विप्+ङीष्, णत्व] बकेना गाय।
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वष्टिभू  : पुं० [सं०] मेढ़क।
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वसअत  : पुं० [अ०] १. विस्तार। फैलाव। २. चौड़ाई। ३. अँटने या समाने की जगह। गुंजाइश। समाई। ४. शक्ति। सामर्थ्य।
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वसंत  : पुं० [सं०√वस्+झच्] १. वर्ष की छः ऋतुओं में से एक ऋतु। हेमंत और ग्रीष्म के बीच की ऋतु। २. माघ सुदी पंचमी को मनाया जानेवाला एक पर्व जो उक्त ऋतु के आगमन का सूचक होता है। ३. संगीत में छः मुख्य रागों में से एक जो विशेष रूप से वसंत ऋतु में गाया जाता है। ४. एक ताल। ५. चेचक। ६. अतिसार। ७. फूलों का गुच्छा।
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वसत  : स्त्री० १. वस्ती। २. वसऊत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=वस्त्र। (कपड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वसंत-घोषी (षिन्)  : पुं० [सं०] कोकिल।
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वसंत-तिलका  : स्त्री० [सं० वसंततिलक+टाप्]=वसंततिलक (वर्णवृत्त)।
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वसंत-दूती  : स्त्री० [सं० वसंतदूत+ङीष्] १. कोयल। २. पाडर वृक्ष। ३. माधवी लता।
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वसंत-नारायणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वसंत-पंचमी  : स्त्री० [सं० ष० त०] माघ महीने की शुक्ल पंचमी। पहले इस दिन वसंत और रति सहित कामदेव की पूजा होती थी, पर आजकल यह सरस्वती पूजन का दिन माना जाता है। इसे श्री-पंचमी भी कहते हैं।
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वसंत-पूजा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का धार्मिक समारोह जिसमें वेदों के कुछ विशिष्ट मंत्रों का सस्वर पाठ होता है।
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वसंत-बंधु  : पुं० [सं० ष० त०] कामदेव।
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वसंत-भूपाल  : पुं० [सं० मध्य० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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वसंत-भैरवी  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसी भैरवी जो वसंत राग में गाई जाती हो।
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वसंत-महोत्सव  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक उत्सव जो प्राचीन काल में वसंत पंचमी के दूसरे दिन कामदेव और वसंत की पूजा के उपलक्ष्य में मनाया जाता था। २. होली का उत्सव।
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वसंत-मारू  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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वसंत-यात्रा  : स्त्री० [सं०] वसंतोत्सव।
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वसंत-व्रत  : पुं० [सं० ब० स०] कोकिल।
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वसंत-सखा  : पुं० [सं०] कामदेव।
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वसंतक  : पुं० [सं० वसंत+कन्] श्योनाक सोनापाढ़ा।
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वसंतगीर्वाणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वसंतजा  : स्त्री० [सं० वसंत√जन् (उत्पन्न करना)+ड+टाप्] १. वासंती लता। २. सफेद जूही। ३. वसंतोत्सव।
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वसंततिलक  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरु-इस प्रकार कुल चौदह वर्ण होते हैं। २. एक प्रकार का पौधा और उसके फूल।
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वसंतदूत  : पुं० [सं० ष० त०] १. आम (वृक्ष)। २. कोयल। ३. पंचराग। ४. चैत्रमास।
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वसति  : स्त्री० [सं०√वस् (निवास करना)+अति] १. वास। रहना। २. घर। ३. आबादी। बस्ती। ४. जैन साधुओं का मठ। ५. रात।
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वसंती  : वि० [सं० वसंत] १. वसंत ऋतु संबंधी। वसंत का। जैसे–वसंती मौसम। २. वसंत ऋतु में फूलनेवाली सरसों के फूलों की तरह हलके पीले रंग का। बसंती। जैसे–वसंती चोली, वसंती साड़ी। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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वसती  : स्त्री० [सं० वसति-ङीष्] १. वास। रहना। २. रात। ३. घर। ४. बसती।
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वसंतोत्सव  : पुं० [सं०] १. वसंत पंचमी के दिन मनाया जानेवाला उत्सव। (पश्चिम)। ०२. प्राचीन काल में माघ सुदी छठ (वसंत पंचमी के दूसरे दिन) को मनाया जानेवाला उत्सव जिसमें कामदेव की पूजा की जाती थी। ३. होली का उत्सव।
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वसन  : पुं० [सं०√वस् (आच्छादन करना)+ल्युट-यु-अन] १. वस्त्र। कपड़ा। २. ढकने का कपड़ा। आच्छादन। आवरण। ३. किसी स्थान पर बसना। निवास। ४. कमर में पहनने का गहना। ५. तेजपत्ता।
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वसना  : स्त्री० [सं०] स्त्रियों की कमर का एक गहना। अ०=बसना। अ० [सं० वश] वश में होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वसनार्णवा  : स्त्री० [सं० ब० स०] भूमि। पृथ्वी।
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वसल  : पुं०=वस्ल (संयोग)।
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वसली  : स्त्री० [अ० वस्ली] चित्रकला में कई कागजों को चिपकाकर बनाया हुआ गत्ता या दफ्ती।
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वसलीगर  : पुं० [अ+फा०] १. वसली या गत्ता बनानेवाला। २. हाथ के अंकित चित्रों को वसली या गत्ते पर चिपका कर उसमें गोट आदि लगानेवाला।
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वसवास  : पुं० [अ० वस्वास मि० सं० विश्वास] १. अविश्वास। २. संदेह। संशय। ३. आगा पीछा। दुबिधा। पुं० [हिं० बसना+वास] निवास। वास।
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वसवासी  : वि० [अ० वसवास] १. विश्वास न करनेवाला। संशयात्मा। शक्की। २. धोखा देनेवाला। धूर्त्त। वि०=निवासी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वसह  : पुं० [सं० वृषभ, प्रा० वसह] बैल।
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वसा  : स्त्री० [सं०] [वि० वसीय] १. पीले अथवा सफेद रंग का एक प्रसिद्ध चिकना या तैलावत पदार्थ जो पशुओं, मछलियों और मनुष्यों के शरीर में पाया जाता है और जिसकी अधिकता होने पर उसमें मोटाई आती है। चरबी। (फैट) २. उक्त प्रकार का कोई सेंद्रिय तत्त्व या पदार्थ। (जैसे–पौधों या फलों में का)। ३. मज्जा।
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वसा प्रमेह  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का मेहरोग जिसमें पेशाब के साथ चरबी निकलती है।
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वसाकेतु  : पुं० [सं०] एक प्रकार का तरह का धूमकेतु या तारक पुंज।
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वसातत  : स्त्री० [अ० वस्त (मध्य) का भाव०] १. मध्यस्थता। २. जरिया। द्वार।
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वसामेह  : पुं० [सं० ष० त०]=वसाप्रमेह।
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वसार  : पुं० [सं० वसा+रक्] १. इच्छा। २. वश। ३. अभिप्राय।
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वसाल  : पुं० [?] भेंड़। (राज०) उदाहरण–ढोला करह निवासियउ देखे बीस वसाल।–ढो० मा० दू०।
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वसित  : वि० [सं०] १. वसा हुआ। २. पहना हुआ। ३. एकत्र या संगृहीत किया हुआ। पुं० १. निवास स्थान। २. बस्ती। ३. वस्त्र।
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वसितव्य  : वि० [सं०√वस् (आच्छादन करना)+तव्य,इत्व] धारण करने या पहने जाने के योग्य।
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वसिर  : पुं० [सं०√वस्+किरच्]१. समुद्री लवण। २. गज पिप्पली। ३. लाल चिचड़ा। ४. जलनीम।
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वसिष्ठ  : पुं० [सं० वस+इष्ठन्] १. वैदिककालीन सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित एक प्राचीन ऋषि जो ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते तथा ऋग्वेद के सातवें मण्डल के रचयिता कहे गये हैं। २. सप्तर्षि मंडल का एक तारा जिसके पास का छोटा तारा अरुंधती कहलाता है।
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वसिष्ठ प्राची  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन जनपद।
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वसिष्ठ-पुराण  : पुं० [सं० मध्य० स] एक उप-पुराण जो कुछ लोगों के मत से लिंग पुराण ही है।
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वसी (मिन्)  : पुं० [सं० वस्+इनि] ऊदबिलाव। पुं० [अ०] वसीयत लिखकर जिसे वारिस बनाया गया हो। जिसके नाम वसीयत लिखी गई हो।
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वसीअ  : वि० [अ०] १. चौड़ा। २. फैला हुआ। विस्तृत।
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वसीक़ा  : पुं० [अं० वसीका] १. ऋण-पत्र। २. दस्तावेज। ३. इकरार-नामा ४. वह धन जो सरकारी खजाने में इसलिए जमा किया गया हो कि उसका सूद जमा करनेवाले के संबंधियों को मिला करेगा अथवा किसी धर्म-कार्य आदि में लगाया जायगा। ५. उक्त प्रकार की मद में से अथवा सहायता के रूप में भरण-पोषण आदि के नियमित रूप से मिलनेवाला धन। वृत्ति।
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वसीय  : वि० [सं०] १. वसा संबंधी। २. जिसमें वसा या चरबी का नाम अधिक हो। (फैटी)। पुं०=वसी (जिसके नाम वसीयत हो)। वि०=वसीअ (विस्तृत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वसीयत  : स्त्री० [अ०] १. यह लिखित आदेश कि मेरी अनुपस्थिति में या मृत्यु के उपरान्त मेरी सम्पत्ति का वारिस अमुक व्यक्ति या अमुक संस्था होगी। २. उक्त आशय का लिखा हुआ आदेश पत्र। वसीयतनामा।
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वसीयतनामा  : पुं० [अ+फा] वह पत्र जिस पर कोई वसीयत लिखा हो। इच्छापत्र।
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वसीला  : पुं० [अ० वसीलः] १. लगाव। संबंध। २. कोई काम करने का द्वार या साधन। जरिया।
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वसु  : वि० [सं०] १. जो सबमें निवास करता हो। २. जिसमें सबका निवास हो। पुं० १. सूर्य। २. विष्णु। ३. शिव। ४. कुबेर। ५. धन-सम्पत्ति। जैसे– सोना-चाँदी, रत्न आदि। ६. किरण। रश्मि। ७. साधु-पुरुष। सज्जन। ८. जल। पानी। ९. तालाब। सरोवर। १॰. अग्नि। ११. पेड़। वृक्ष। १२. पीली मूँग। १३. मौलसिरी। १४. अगस्त का पेड़। १५. जोते जानेवाले घोड़े,बैल आदि की जोत। १६. देवताओं का एक गुण जिसके अन्तर्गत आठ देवता है। १७. उक्त के आधार पर आठ की संख्या का वाचक शब्द। १८. छप्पय के हो सकनेवाले भेदों में से ६९वाँ भेद। स्त्री० [सं०] १. दीप्ति। चमक। २. वृद्धि नामक ओषधि ३. दक्ष प्रजापति की एक कन्या जो धर्म को ब्याही थी, और जिसके द्रोण आदि आठ वसुओं का जन्म हुआ था। ४. अमरावती।
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वसुक  : पुं० [सं०√वसु+क या वसु+कन्] १. साँभर नमक। २. पांशु लवण। ३. बथुआ नाम का साग। ४. काला अगर। ५. आक। मदार। ६. मौलसिरी।
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वसुकरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वसुकर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] एक मंत्र-द्रष्टा ऋषि।
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वसुकला  : स्त्री० [सं०] एक मंत्र द्रष्टा ऋषि।
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वसुकला  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसे ‘तारक’ भी कहते हैं। दे० ‘तारक’।
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वसुद  : पुं० [सं० वसु√दा (देना)+क] १. कुबेर। २. विष्णु।
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वसुदा  : स्त्री० [सं० वसुद+टाप्] स्कंद की एक मातृका।
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वसुदेव  : पुं० [सं०] मथुरा के राजा कंस के बहनोई जो श्रीकृष्ण के पिता थे।
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वसुदेवत  : पुं० [सं० ब० स०] धनिष्ठा नक्षत्र।
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वसुदेव्या  : स्त्री० [सं० वसुदेव+यत्+टाप्] धनिष्ठा नक्षत्र।
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वसुद्रुम  : पुं० [सं० मध्यम स०] गूलर।
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वसुंधरा  : स्त्री० [सं० वसु√धा (धारण करना)+खच्,मुम्] पृथ्वी।
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वसुधर्मिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. स्फटिक। बिल्लोर। २. संगमरमर।
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वसुधा  : स्त्री० [सं० वसु√धा (धारण करना)+क+टाप्] पृथ्वी। वि० धन देनेवाला।
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वसुधाधर  : पुं० [सं०] १. पर्वत। २. विष्णु।
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वसुधान  : पुं० [सं० वसु√धा (धारण करना)+ल्युट-अन] पृथ्वी।
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वसुधारा  : स्त्री० [सं० वसुधार+टाप्] १. एक शक्ति (जैन) २. बौद्धों की एक देवी। ३. अलका पुरी। ४. एक प्राचीन नदी। ५. नांदीसुख श्राद्ध के अन्तर्गत एक कृत्य जिसमें घी की सात धारें दी जाती हैं।
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वसुन  : पुं० [सं० वसु√नी (ढोना)+ड०] यज्ञ।
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वसुनीत  : पुं० [सं० तृ० त०] ब्रह्मा।
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वसुनीथ  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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वसुनेत्र  : पुं० [सं० ब० स] बौद्धों के अनुसार ब्रह्मा का एक नाम।
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वसुपति  : पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
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वसुपाल  : पुं० [सं० वसु√पाल् (पालन करना)+अच्] राजा।
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वसुप्रद  : पुं० [सं०] १. शिव। २. कुबेर। २. स्कंद का एक अनुचर। वि० धन देनेवाला।
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वसुप्रभा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. अग्नि की एक जिह्वा। २. कुबेर का राजनगर।
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वसुभ  : पुं० [सं०] धनिष्ठा नक्षत्र।
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वसुमती  : स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. एक प्रकार का वर्ण, वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण और रगण होते हैं।
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वसुमना  : पुं० [सं० ब० स०] १. अग्नि। २. शिव। ३. पुराणानुसार एक मंत्र-द्रष्टा ऋषि।
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वसुमान  : पुं० [सं०] पुराणानुसार उत्तर दिशा का एक पर्वत।
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वसुमित्र  : पुं० [सं० ब० स०] महायानी शाखा के एक बौद्ध आचार्य जो काश्मीर के पश्चिम अश्मापरांत देश के निवासी कहे गये है।
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वसुरुचि  : पुं० [सं० वसु√रुच् (प्रकाश करना)+क्विप्] एक प्रकार का देवता।
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वसुरूप  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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वसुल  : पुं० [सं० वसु√ला (लेना)+क] देवता।
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वसुवंध  : पुं० [सं०] महायानी शाखा के एक बौद्ध जिनकी रचनाओं के चीनी अनुवाद अब भी प्राप्य है।
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वसुवन  : पुं० [सं० ष० त०] ईशान कोण में स्थित एक प्राचीन देश। (बृहत्संहिता)।
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वसुविद्  : पुं० [सं० वसु√विद् (प्राप्त होना)+क्विप्] अग्नि।
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वसुश्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] स्कंद की अनुचरी एक मातृका।
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वसुश्रेष्ठ  : पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
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वसुषेण  : पुं० [सं० ब० स०] १. कर्ण २. विष्णु।
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वसुसारा  : स्त्री० [सं० ष० त०] अलका (नगरी)।
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वसुस्थली  : स्त्री० [सं० ब० स०] अलका (नगरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वसुह  : स्त्री० [सं० वसुधा] १. पृथ्वी। २. जगह। स्थान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वसूल  : वि० [अ०] १. जो मिला या प्राप्त हुआ हो। २. (प्राप्त धन या पदार्थ) जो दूसरे से ले लिया गया हो। उगाहा हुआ। ३. जितना व्यय या परिश्रम हुआ हो उसका मिला हुआ प्रतिफल। पुं० उगाही या प्राप्त की हुई रकम। प्राप्ति।
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वसूली  : स्त्री० [अ० वसूल] १. वसूल करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। प्राप्य धन की प्राप्ति। उगाही। २. लोगों से धन आदि लेकर इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। वि० जो वसूल किये जाने को हो।
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वस्त  : पुं० [सं०] बकरा। पुं० [अ०] बीच का भाग। मध्य। स्त्री०=वस्तु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वस्तक  : पुं० [सं० वस्त+कन्] बनाया हुआ नमक। (प्राकृतिक नमक से भिन्न)।
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वस्तव्य  : वि० [सं०√वस् (निवास करना)+तव्य] (स्थान) जिसमें निवास किया जा सके। रहने या बसने के योग्य।
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वस्ताद  : पुं०=उस्ताद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वस्ति  : स्त्री० [सं०] १. नाभि के नीचे का भाग। पेडू। २. मूत्राशय। (यूरिनरी ब्लैडर)। ३. पिचकारी। ४. दे० ‘वस्ति कर्म’।
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वस्तिकर्म  : पुं० [सं०] १. लिगेंद्रिय, गुदेंन्द्रिय आदि मार्गों में पिचकारी देने की क्रिया। (वैद्यक) २. आज-कल आँते साफ करने के लिए या रेचन के उद्देश्य से गुदा-मार्ग से जल ऊपर चढ़ाने की क्रिया (एनिमा)।
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वस्तिकुंडलिका  : स्त्री० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें मूत्राशय में गाँठ सी पड़ जाती है, उसमें पीड़ा तथा जलन होती है और पेशाब कठिनता से उतरती है।
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वस्तिवात  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मूत्र रोग जिसमें वायु बिगड़कर वस्ति (पेड़) में मूत्र को रोक देती है।
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वस्तिशोधन  : पुं० [सं०] १. मदन वृक्ष। मैनफल का पेड़। २. मैनफल।
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वस्ती  : वि० [सं०] वस्त अर्थात् मध्य भाग में होनेवाला। बीच का। स्त्री० १. बस्ती। २. =वस्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वस्तु  : स्त्री० [सं०√वसु+तुन्] १. वह जो कुछ अस्तित्व में हो। वह जिसकी वास्तविकता हो। गोचर पदार्थ। २. श्रम द्वारा निर्मित चीज। ३. वह जो किसी वाद-विवाद आलोचना या विचार का विषय हो। विषय। ४. कथावस्तु।
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वस्तु-जगत  : पुं० [सं० कर्म० स०] यह दृश्यमान् जगत्। संसार।
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वस्तु-ज्ञान  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु की पहचान। २. मूल तथ्य या वास्तविकता का ज्ञान। तत्त्वज्ञान।
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वस्तु-निर्देश  : पुं० [सं० ब० स०] मंगलाचरण का एक भेद जिसमें कथा का कुछ आभास दे दिया जाता है (नाटक)।
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वस्तु-निष्ठा  : वि० [सं०] १. अध्यात्म और दर्शन में जो ब्रह्मा तत्त्वों या भौतिक पदार्थों से संबंध रखता हो, स्वयं कर्ता के आत्म या चेतना से जिसका कोई संबंध न हो,। ‘आत्म-निष्ठ’ का विपर्याय। २. कला और साहित्य में जो बाह्मा तत्त्वों या भौतिक पदार्थों पर ही आश्रित हो,स्वयं कर्त्ता या कृती के आत्म या चेतना से जिसका कोई संबंध न हो। ‘आत्मनिष्ठ’ का विपर्याय। (आब्जेक्टिव उक्त दोनों अर्थों के लिए)।
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वस्तु-बल  : पुं० [सं० ष० त०] वस्तु का गुण।
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वस्तु-रूपक  : पु० दे० ‘आलेख रूपक’।
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वस्तु-वक्रता  : स्त्री० [सं०] साहित्यिक रचनाओं में होनेवाला एक प्रकार का सौन्दर्यसूचक त्तत्व जो कवि की शब्दावली से भिन्न उन वस्तुओं या विषयों पर आश्रित होता है जिन्हें वह अपने वर्णन के लिए चुनता है। वाक्य-वक्रता (देखें) की तरह यह भी कवि की श्रेष्ठतम प्रतिभा से उदभूव होता और काव्य के समस्त सौन्दर्य का उदगम होता है। वर्ण्य वस्तु या विषय की रमणीयता, सुकुमारता और कौशलपूर्ण प्रदर्शन ही इसके प्रमुख लक्षण है।
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वस्तु-स्थिति  : स्त्री० [सं० ष० त०] किसी चीज या वस्तु की वास्तविक स्थिति।
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वस्तुक  : पुं० [सं० वस्तु+कन्] १. सार भाग। २. बथुआ का साग।
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वस्तुतः  : अव्य० [सं० वस्तु+तसिल्] वास्तविक रूप या स्थिति में। वास्तव में। (डी फ़ैक्टो)।
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वस्तुत्प्रेक्षा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में उत्प्रेक्षा अलंकार का एक भेद जिसमें किसी उपमेय में उपमान के कार्य, गुण आदि की कल्पना की जाती है।
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वस्तूपमा  : स्त्री० [सं० ब० स०] उपमा अलंकार का एक भेद।
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वस्तूवाद  : पुं० [सं०] [स्त्री० वस्तुवादी] वह दार्शनिक सिद्धान्त कि जगत् जिस रूप में हमें दिखाई देता है, उसी रूप में वह वास्तविक और सत्य है। विशेष—न्याय और वैशेषिक का यही सिद्धान्त है जो अद्वैतवाद के सिद्धान्त के बिलकुल विपरीत है।
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वस्त्य  : पुं० [सं० वस्तु+यत्] बसने की जगह। बसती।
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वस्त्र  : पुं० [सं०√वस् (आच्छादन करना)+त्रण्] ऊन, रूई रेशम आदि के तागों से बुना या जमाकर तैयार किया हुआ वह प्रसिद्ध पदार्थ जो पहनने, ओढ़ने आदि के काम आता है। कपड़ा।
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वस्त्र-पट  : पुं० [सं०] कपड़ों पर हाथ से अंकित किया हुआ चित्र (प्राचीन)।
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वस्त्र-पुत्रिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] गुड़िया।
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वस्त्र-पूत  : वि० [सं०] कपड़े से छाना हुआ।
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वस्त्र-बंध  : पुं० [सं०] नीवी। इजारबंद।
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वस्त्र-भवन  : पुं० [सं० ष० त०] खेमा। तंबू।
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वस्त्र-रंजन  : पुं० [सं०] कुसुंभ का पेड़।
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वस्त्र-रंजनी  : पुं० [सं०] मजीठ।
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वस्त्रग्रंथि  : स्त्री० [सं० ष० त०] नीवी। नाड़ा। इजारबंद।
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वस्त्रय  : पुं० [सं०] आधुनिक गिरनार पर्वत और तीर्थ का पुराना नाम।
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वस्त्रागार  : पुं० [सं० वस्त्र+आगार] १. वह स्थान जहाँ सब प्रकार के या बहुत से कपड़े हों। २. घर में वह कमरा जिसमें पहनने के कपड़े रखे जाते हों तथा उतारे और पहने जाते हों (ड्रेसिंग रूम)।
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वस्त्रासव  : पुं० [सं० वस्त्र-आसव, ष० त०] लाला। थूक।
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वस्न  : पुं० [सं०√वस् (आच्छादन करना)+न] १. वेतन। २. दाम। मूल्य। ३. कपड़ा। ४. द्रव्य। वस्तु। ५. धौ का पेड़। ६. छाल। त्वक्।
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वस्नक  : पुं० [सं० वस्न+कन्] करधनी।
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वस्फ़  : पुं० [अ०] १. प्रशंसा। स्तुति। २. विशेषता सूचक गुण। सिफत।
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वस्ल  : पुं० [अ०] १. एक दूसरे का आपस में मिलना। मिलन। २. स्त्री और पुरुष या प्रेमी और प्रेमिका का मिलाप। संयोग। ३. मनुष्य की आत्मा का परमात्मा में लीन होना। मृत्यु। ४. प्रेमी और प्रेमिका का संभोग।
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वस्ली  : स्त्री०=दे० ‘वसली’।
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वस्वौकसारा  : स्त्री० [सं० स० त०] १. इंद्रपुरी। २. कुबेर की अलका पुरी। ३. गंगा।
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वह  : सर्व० [सं०√वह् (ढोना)+अच्०] १. एक सर्वनाम जो किसी स्थिति या संदर्भ से अनुमानित किया जाता अथवा ज्ञात या सूचित हो। २. पति के लिए प्रयुक्त सर्वनाम। जैसे–वह मुझसे कुछ भी नहीं कह गये थे। पुं० [सं०] १. बैल का कंधा। २. घोड़ा। ३. वायु। हवा। मार्ग। रास्ता। ५. नद। वि० वहन करने अर्थात् उठा या ढोकर ले जानेवाला (यौ० के अन्त में) जैसे–भारवह।
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वहंत  : पुं० [सं०√वह् (ढोना)+झ-अन्त] १. वायु। २. बालक।
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वहत  : पुं० [सं०] १. बैल। २. पथिक। यात्री।
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वहति  : पुं० [सं०] १. बैल। २. वायु। ३. परामर्शदाता।
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वहती  : स्त्री० [सं०] नदी।
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वहदत  : स्त्री० [अ०] १. ‘वहिद’ अर्थात् एक होने की अवस्था या भाव। २. अद्वैतवाद। ३. एकान्तता।
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वहदानी  : वि० [अ०] [भाव० वहदानियत] १. वहिद अर्थात् एक संबंध रखनेवाला। २. अद्वैतवाद संबंधी।
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वहन  : पुं० [सं०√वह् (ढोना)+ल्युट-अन] १. कहीं से ले जाने के लिए कोई चीज उठाना या लादना। भार ढोना। २. लाक्षणिक अर्थ में कर्त्तव्य आदि के रूप में लिए हुए भार का निर्वाह करना। ३. एक स्थान से दूसरे स्थान पर चीजें ले जाने का साधन। जैसे–नाव आदि। ४. वास्तुकला में खंभे के नौ भागों में से सबसे नीचेवाला भाग।
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वहन-पत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह पत्र जिसमें वहन की जानेवाली अर्थात् ढोकर कहीं ले जाई जानेवाली चीजों का विवरण या सूची रहती है। (बिल आफ लेंडिंग)।
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वहनक  : पुं० [सं०] गाड़ी, ठेला नाव आदि जिस पर भार आदि लादकर कहीं ले जाया जाता है। संवाहक।
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वहना  : स० [सं० वहन] १. वहन करना। ढोना। २. कर्तव्य आदि ऊपर लेना अथवा उसका निर्वाह करना।
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वहनीय  : वि० [सं०√वह् (ढोना)+अनीयर्] १. वहन करने के योग्य। २. जो वहन किया जाने को हो।
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वहम  : पुं० [अ०] मन में प्रायः बनी रहनेवाली कोई ऐसी असंगत या निराधार धारणा जिसके फलस्वरूप अपने अनिष्ट या हानि की संभावना जान पड़ती हो। झूठा शक। मिथ्या संदेह।
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वहमी  : वि० [अ०] १. जिसके मन में प्रायः कोई वहम बना रहता हो २. शक्की।
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वहला  : स्त्री० [सं० वहल+टाप्] १. शतपुष्पा। २. बड़ी इलायची। ३. दीपक राग की एक रागिनी।
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वहशत  : स्त्री० [अ०] १. वहशी अर्थात् जंगली होने की अवस्था या भाव। जंगलीपन। बर्वरता। २. उजड्डपन। ३. पागलपन। बावलापन। ४. अधीरता और विफलता के कारण होनेवाला मानसिक विक्षेप। पागलों का सा आचार-व्यवहार। मुहावरा–वहशत सवार होना=किसी प्रबल मनोवेग के कारण सहसा पागलपन का सा काम करने को उतारू होना। ५. किसी स्थान के उजाड़ या सुनसान होने के कारण छाई रहनेवाली उदासी। खिन्न करनेवाला सन्नाटा। ६. आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि का डरावनापन। क्रि० प्र०–छाना।–बरसना।
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वहशियाना  : वि० [अ०] वहशियों की तरह का।
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वहशी  : वि० [अ०] १. जंगल में रहनेवाला। जंगली। वन्ध। २. (पशु) जो जंगल में घूमता-फिरता और रहता हो। ‘पालतू’ का विपर्याय। ३. (व्यक्ति) जो परम असभ्य तथा असंस्कृत हो। बर्बर।
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वहाँ  : अव्य० [हिं० वह] १. उस स्थान में। उस जगह। २. उस अवसर, बिंदु या स्थिति पर। जैसे–उसे इतना बढ़कर रूक जाना चाहिए था, पर वह वहाँ रुका नहीं, बल्कि आगे बढ़ता चला गया।
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वहा  : स्त्री० [सं० वह+टाप्] १. नदी। २. पानी की धारा या बहाव।
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वहा-मापक  : पुं० [सं०] दे० ‘धारावेगमापी’।
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वहाबी  : पुं० [अ०] १. मौलवी अब्दुलवहाव का चलाया हुआ एक मुस्लिम सम्प्रदाय जो कुरान को मानता है पर हदीसों को नहीं मानता। २. उक्त सम्प्रदाय का अनुयायी।
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वहि  : अव्य० [सं०√वह्+इसुन्] जो अन्दर न हो। बाहर। (इसके यौ० के लिए दे० ‘बहि’ के यौ०)
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वहित  : भू० कृ० [सं० अव√हा (त्याग करना)+क्त, अलोप] १. बहन किया हुआ या ढोया हुआ। २. ज्ञात। ३. विख्यात। ४. प्राप्त।
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वहित्र  : पुं० [सं०] वहन करने का उपकरण। जैसे–गाड़ी जहाज, नाव रथ आदि।
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वहिनी  : स्त्री० [सं० वह+इनि+ङीष्] नौका। नाव।
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वहिरंग  : वि० पुं०=वहिरंग।
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वहिर्गत  : वि०=बहिर्गत।
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वहिर्द्वार  : पुं०=बहिर्द्वार।
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वहिर्भूत  : वि०=बहिर्भूत (बहिर्गत)।
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वहिष्करण  : पुं०=बहिष्करण।
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वहिष्कार  : पुं०=बहिष्कार।
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वहिष्ठ  : वि० [सं० वह+इष्ठन्] अधिक भार वहन करनेवाला।
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वहीं  : अव्य० [हिं० वहाँ+ही] १. उसी स्थान पर। उसी जगह। २. उसी बिंदु समय या स्थिति पर।
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वही  : सर्व० [हिं० वह+ही] उस वस्तु या तृतीय व्यक्ति की ओर निश्चित रूप से संकेत करनेवाला सर्वनाम,जिसके संबंध में कुछ कहा जा चुका हो। निश्चित रूप से पूर्वोक्त। जैसे– यह वही किताब है जो तुम ले गये थे। स्त्री० [अ०] ईश्वर की कही हुई बात। देव-वाणी।
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वहीरु  : पुं० [सं०] १. रक्तवाहिनी नाड़ियों का एक वर्ग। शिरा। २. स्नायु ३. माँसपेशी। पट्ठा।
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वहूदक  : पुं० [सं०ब०स०] चार प्रकार के संन्यासियों में से एक।
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वह्य  : पुं० [सं०√वह् (ढोना)+मक्] १. वाहन। यान। २. गाड़ी। शकट। वि० वहनीय।
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वह्यक  : वि० [सं० वह्य+कन्]=वाहक।
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वह्रि  : पुं० [सं०√वह (धारण करना)+नि] 1,०अग्नि। २. तीन प्रकार की अग्नियों के आधार पर तीन की संख्या का सूचक शब्द। ३. चित्रक। चीता। ४. भिलावाँ। ५. मित्रविंदा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
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वह्रि-दैवत  : वि० [सं० ब० स०] अग्निपूजक।
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वह्रिकर  : पुं० [सं० वह्रि√कृ+अच्] १. विद्युत। बिजली। २. जठ राग्नि। ३. चकमक पत्थर।
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वह्रिकुमार  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार के देवगण।
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वह्रिनी  : स्त्री० [सं०] जटामासी।
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वह्रिभूतिक  : पुं० [सं० ब० स०] चाँदी।
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वह्रिभोग  : पुं० [सं० ष० त०] घी।
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वह्रिमंथ  : पुं० [सं०]=अग्निमंथ वृक्ष।
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वह्रिमित्र  : पुं० [सं०] वायु। हवा।
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वह्रिमुख  : पुं० [सं०] देवता।
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वह्रिरेता (तस्)  : पुं० [सं०] शिव।
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वह्रिलोह  : पुं० [सं०] ताभ्र। ताँबा।
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वह्रिलोहक  : पुं० [सं०] काँसा।
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वह्रिवीज  : पुं० [सं०] १. स्वर्ण। सोना। २. बिजौरा नीबू।
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वह्रिशिखा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. कलिहारी या कलियारी नाम का विष। २. घी। ३. प्रियवंद। ४. गजपीपल।
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वह्रिश्वरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] लक्ष्मी।
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वाँ  : प्रत्य० [स्त्री० वीं] एक प्रत्यय जो १, २, 3, ४, और ६ को छोड़कर शेष संख्या वाचक शब्दों के अन्त में लगकर उनके क्रमिक स्थान का सूचक होता है। जैसे– पाँचवाँ, सातवाँ, आठवाँ आदि। अव्य०–वहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वा  : अव्य० [सं०√वा+क्विप्] विकल्प या संदेहवाचक शब्द। अथवा या। जैसे–मनुष्य वा पशु। सर्व० [हिं० वह] १. वह। २. उस। (ब्रज)।
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वाइ  : सर्व०=वही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाइ  : स्त्री०=वायु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाइज़  : पुं० [अ०] १. वाज अर्थात् नसीहत करनेवाला। २. धर्म या नीति का उपदेश करनेवाला।
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वाइदा  : पुं०=वादा।
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वाइसराय  : पुं० [अं०] अंगरेजी शासन में भारत का वह सर्वप्रधान शासक अधिकारी जो सम्राट के प्रतिनिधि स्वरूप यहाँ रहता था। बड़ा लाट।
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वाउचर  : पुं० [सं०] आधार पत्र। (देखें)।
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वाउला  : वि०=बावला।
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वाउव  : वि०=वातुल।
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वांक  : पुं० [सं० वक=अण्] समुद्र।
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वाक  : पुं० [सं० वक+अण्] १. वकों अर्थात् बगलों का समूह। २. वेदों का एक विशिष्ट अंश या भाग। ३. खेत की वह कूत जो बिना खेत नापे की जाती है। ४. वाक्य। वि० वक या बगले से सम्बन्ध रखनेवाला।
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वाक़ई  : अव्य० [अ०] यथार्थ में। वास्तव में। वस्तुतः। जैसे–क्या आप वाकई वहाँ गये थे।
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वाँकड़  : वि०=बाँका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाकपटु  : वि० [सं०] बात-चीत करने में चतुर।
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वाकपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. विष्णु।
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वाकपारुष्य  : पुं० [सं० तृ० त० या मध्य० स०] १. बात-चीत में होनेवाली कठोरता या परुषता। कड़वी बात कहना। २. धर्मशास्त्रानुसार किसी की जाति, कुल इत्यादि के दोषों को इस प्रकार ऊँचे स्वर से कहना कि उससे उद्वेग या क्रोध उत्पन्न हो।
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वाकफ़ीयत  : स्त्री० [अ०] जान-पहचान परिचय।
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वाक़या  : पुं० [अ० वाकिअ] १. घटना, विशेषता दुर्घटना। २. वृत्तांत। हाल।
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वाकयाती  : वि० [अ०] विशिष्ट घटना से संबंध रखनेवाला। जो घटित हुआ हो।
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वाका  : वि० [अ० वाकया] १. जो घटना के रूप में घटित हुआ हो। २. किसी स्थान पर स्थित। पं० वाकया (घटना)।
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वाकारना  : स० [?] ललकारना। (राज०) उदाहरण–बिलकुलियौ वदन जेम वाकारयौ।–प्रिथीराज।
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वाकिनी  : स्त्री० [सं० वाक+इनि+ङीष्] तांत्रिकों की एक देवी।
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वाक़िफ़  : वि० [अ०] १. परिचित। २. जानकार।
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वाकिफकार  : वि० [अ० वाकिफ+फा० कार] [भाव० वाकिफदारी] किसी काम या बात की अच्छी ठीक या पूरी जानकारी रखनेवाला।
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वाकुची  : स्त्री० [सं० वा√कुच् (संकुचित करना)+क+ङीष्]=वकुची।
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वाकुल  : वि० [सं० वकुल+अण्] वकुल संबंधी। वकुल का। पुं० वकुल। मौलसिरी।
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वाकोपवाक  : पुं० [सं० द्व० स०] कथोपकथन। बात-चीत।
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वाकोवाक  : पुं० [सं० द्व० स०] कथोपकथन। बात-चीत।
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वाकोवाक्य  : पुं० [सं०] १. कथोपकथन। बात-चीत। २. तर्क-वितर्क।
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वाक्  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+घञ्] १. वाणी। वाक्य। २. शब्द। ३. कथन। ४. वाद। ५. बोलने की इन्द्रिय। ६. सरस्वती।
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वाक्-चपल  : वि० [सं० तृ० त०] १. जो बातें करने में चतुर हो। बकवादी।
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वाक्-छल  : पुं० [सं० तृ० त०] १. न्याय शास्त्र के अनुसार छल के तीन भेदों में से एक। ऐसी बात कहना जिसका और भी अर्थ निकल सके तथा इसीलिए दूसरा धोखे में रहे। २. टाल-मटोल की बात। बहाना (क्विब्लिंग)।
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वाक्-संयम  : पुं० [सं० ष० त०] वाणी का संयम। व्यर्थ की बातें न करना।
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वाक्-सिद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] तंत्र-मंत्र योग आदि के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली ऐसी सिद्धि जिसमें कही हुई बात पूरी होकर रहती है। जो बात मुँह से निकल जाय, वह ठीक सिद्ध होना।
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वाक्कलह  : पुं० [सं० तृ० त०] कहा-सुनी।
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वाक्य  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+ण्यत्] शब्द या शब्दों का ऐसा समूह जो एक विचार से पूरी तरह से व्यक्त करे। जुमला। (सेन्टेन्स)।
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वाक्य-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] मुँह का पक्षाघात से ग्रस्त होना।
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वाक्य-भेद  : पुं० [सं० स० त०] मीमांसा में एक ही वाक्य का एक ही काल में परस्पर विरुद्ध अर्थ करना।
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वाक्य-वक्रता  : स्त्री० [सं०] साहित्यिक रचनाओं का एक प्रकार का सौन्दर्य सूचक तत्त्व जो वाक्य रचना के अनोखे और उत्कृष्ट बांकपन के रूप में रहता है। यह तत्त्व कवि की बहुत ही उच्च कोटि की प्रतिभा से उदभूत होता है और सारे प्रसाद गुणों, सभी रसों की निष्पति तथा अलंकारों का उदगम या मूल स्रोत होता है। उदाहरण– (क) कहाँ लौं वरनौं सुन्दरताई खेलत कुँवर कनक आँगन में, नैन निरखि छवि छाई। कुलहि लसत सिर स्याम सुभग अति, बहुविधि सुरँग बनाई। मानो नव धन ऊपर राजत मधवा धनुष चढ़ाई। अति सुदेस मृदु चिकुर हरत मनमोहन मुख बगराई। मानो प्रकट कंज पर मंजुल अलि अवली घिरि आई।–सूर। (ख) रुधिर के है जगती के प्रात, चितनल के ये सांयकाल। शून्य निश्वासों के आकाश, आँसुओं के ये सिंधु विशाल। यहाँ सुख सरसों शोक, सुमेरु, अरे जग है जग का कंकाल।–पंत।
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वाक्य-विन्यास  : पुं० [सं० ष० त०] वाक्यों, शब्दों या पदों को यथास्थान रखना। वाक्य बनाना।
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वाक्य-विश्लेषण  : पुं० [सं०] व्याकरण का वह अंग या क्रिया जिसमें किसी वाक्य में आए हुए शब्दों के प्रकार, भेद० रूप पारस्परिक संबंध आदि का विचार होता है।
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वाक्यकर  : वि० [सं०] झूठी या तरह-तरह की बातें बनानेवाला। पुं० सन्देशवाहक।
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वाक्याडंबर  : पुं० [सं० ष० त०] केवल वाक्यों या बातों में दिखाया जानेवाला आडम्बर।
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वागना  : अ० [?] आचरण या व्यवहार करना। (पश्चिमी हिन्दी और मराठी) उदाहरण–कलपत कोटि जनम जुग बागै दर्शन कतहुँ न पाये।–कबीर।
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वागर  : पुं० [सं० वाक्√ऋ (प्राप्त होना आदि)+अच्] १. वारक। २. शाण। सान। ३. निर्णय। ४. भेड़िया। ५. पंडित। ६. मुमुक्षु। ७. नि़डर। निर्भय। पुं०=बाँगड़ा (प्रदेश)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वागा  : स्त्री० [सं० वल्गा] लगाम।
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वागारु  : वि० [सं० स० त०] विश्वासघाती झूठी आशा देने या दिलानेवाला।
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वागीश  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. वाग्मी। ४. कवि। वि० अच्छा बोलनेवाला। वक्ता।
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वागीशा  : स्त्री० [सं० वागीश+टाप्] सरस्वती
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वागीश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. कवि। ४. मंजुकोष। ५. बोधि सत्व। वि० बहुत अच्छा वक्ता।
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वागीश्वरी  : स्त्री० [सं० वागीश्वर+ङीष्] १. सरस्वती। २. नवदुर्गाओं में से एक।
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वागुज़ाश्त  : स्त्री० [फा०] १. छोड़ देना। २. दे० देना। ३. मुक्त करना।
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वागुजी  : स्त्री० [सं० वा√गुज् (संकोच करना)+क+ङीष्] बकुची।
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वागुण  : पुं० [सं० ष० त०] १. कमरख। २. बैगन। भंटा।
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वागुरा  : स्त्री० [सं० वा√गृ+उरव्+टाप्] वह जाल जिसमें हिरन आदि फँसाये जाते हैं।
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वागुरि  : स्त्री० [सं० वागुरा] जाल। पाश। उदाहरण–बागुरि जणे विसतरण।।–प्रिथीराज।
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वागुरिक  : पुं० [सं० जा वगुरा+ठक्-इक] हिरन फँसानेवाला शिकारी। मृग व्याध।
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वागुलि  : पुं० [सं० वा√गुड् (सुरक्षित रखना)+इनि, ड-ल] १. डिब्बा। २. पानदान।
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वागुलिक  : पुं० [सं० वागुलि+कन्] राजाओं का वह सेवक जिसका काम उनको पान खिलाना होता था। प्राचीनकाल में वह भृत्य जो राजाओं को पान लगाकर खिलाता था।
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वागेसरी  : स्त्री० [सं० वागीश्वरी]=वागीश्वरी।
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वाग्गुलि  : पुं० [सं०] वागुलिक।
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वाग्जाल  : पुं० [सं० वाक्+जाल] ऐसी घुमाव-फिराव की बातें जिन का मूल उद्देश्य दूसरों को धोखा देने या फँसाना होता है।
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वाग्दंड  : पुं० [सं० कर्म० स०] दंड के रूप में कही जानेवाली कठोर बातें झिड़की। भर्त्सना।
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वाग्दत्त  : भू० कृ० [तृ० त०] [स्त्री० वाग्दत्ता] (पदार्थ) जिसे किसी को देने का वचन दिया गया हो।
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वाग्दत्ता  : स्त्री० [सं०] ऐसी कन्या जिसके विवाह की बात पक्की हो चुकी हो।
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वाग्दल  : पुं० [सं० ष० त०] ओष्ठाधर। ओठ।
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वाग्दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी को कोई वचन देना। किसी से वादा करना। २. कन्या के विवाह की बात किसी से पक्की करना और उसे कन्यादान का वचन देना।
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वाग्दुष्ट  : वि० [सं० तृ० त] १. कटुभाषी। २. जिसे किसी ने कोसा या शाप दिया हो।
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वाग्देवता  : पुं० [सं० ष० त०] (सं० में स्त्री) वाणी। सरस्वती।
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वाग्देवी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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वाग्दोष  : पुं० [सं० ष० त०] १. बोलने की त्रुटि। जैसे–वर्णों का ठीक उच्चारण न करना। २. व्याकरण संबंधी दोष या भूल। ३. निन्दा। ४. गाली।
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वाग्बद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] १. मौन। २. वचन-बद्ध।
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वाग्भट  : पुं० [सं०] १. अष्टांग हृदय संहिता नामक वैद्यक ग्रन्थ के रचयिता जिनके पिता का नाम सिंहगुप्त था। २. पदार्थ चंद्रिका, भाव, प्रकाश, रसरत्न, समुच्चय शास्त्र-दर्पण आदि के रचयिता। ३. एक जैन पंडित जिनके पिता का नाम नेमिकुमार था। इनके रचे हुए अलंकार तिलक, वाग्भटालंकार और छंदानुशासन प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।
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वाग्मिता  : स्त्री० [सं०] वाग्मी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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वाग्मित्त्व  : पुं०=वाग्मिता।
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वाग्मी  : पुं० [सं० वाच्+ग्मिनि] १. वह जो बहुत अच्छी तरह बोलना जानता हो। अच्छा वक्ता। २. पंडित। विद्वान। ३. बृहस्पति का एक नाम।
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वाग्य  : वि० [सं० वाक्√या (प्राप्त होना)+क०] १. बहुत कम बोलनेवाला। २. तौल या सोच-समझकर बोलनेवाला। ३. सत्य बोलनेवाला। पुं०१. नम्रता। २. निर्वेद।
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वाग्यमन  : पुं० [सं०] वाणी का संयम। बोलने में संयम।
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वाग्युद्ध  : पुं० [सं० ष० त०] बात-चीत के रूप में होनेवाला झगड़ा या लड़ाई। बहुत अधिक कहा-सुनी।
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वाग्रोघ  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक रोग जिसमें स्मृति नष्ट हो जाने के कारण आदमी कुछ पढ़ या सुनकर भी उसका अर्थ नहीं समझ सकता (एफेशिया)।
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वाग्लोप  : पुं० [सं०] दे० ‘वाग्रोध’।
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वाग्वज्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बहुत अधिक कठोर वचन। २. शाप।
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वाग्वादिनी  : स्त्री० [सं० वाक्√वद् (बोलना)+णिनि+ङीष्] सरस्वती।
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वाग्विदग्ध  : वि० [सं० तृ० त०] वाकचतुर।
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वाग्विलास  : पुं० [सं० ष० त०] २. प्रसन्नतापूर्वक होनेवाला पारस्परिक सम्भाषण। आनन्दपूर्वक बातचीत करना। २. प्रेम और सुख से की जानेवाली बातें।
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वाग्वीर  : वि० [सं० तृ० त०] १. बहुत अधिक तथा बड़ी-बड़ी बातें करनेवाला। २. खाली बातें बनानेवाला।
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वाग्वैदग्ध  : पुं० [सं० ष० त०] १. वाग्विदग्ध होने की अवस्था या भाव। २. कथन, लेख, वक्तव्य आदि में होनेवाला चमत्कारपूर्ण तत्त्व।
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वाङनिष्ठा  : स्त्री० [सं० ष० त०] अपनी कही हुई बात पर दृढ़ रहना।
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वाङमती  : स्त्री० [सं० वाक्+मतुप+ङीष्] नेपाल की एक नदी जो आजकल ‘वागमती’ कहलाती है।
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वाङमय  : वि० [सं० वाक्+मयट्] १. वाक्यात्मक। २. वचन संबंधी। ३. जो वाक् या वचन के रुप में हो। ४. वचन द्वारा किया हुआ। जैसे–वाङमय पाप। ५. जिसका पठन-पाठन हो सके। पुं० गद्य-पद्यात्मक वाक्य आदि जो पठन-पाठन का विषय हो। लिपिबद्ध विचारों का समस्त संग्रह या समूह। साहित्य। विशेष—वाङमय और साहित्य का मुख्य अन्तर जानने के लिए दे० ‘साहित्य’ का विशेष।
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वाङमुख  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रंथ की भूमिका या प्रस्तावना।
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वाङमूर्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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वाच  : स्त्री० [सं०√वच् (बोलना)+र्णिच्+अच्] एक प्रकार की मछली। स्त्री० [अ० वाँच] कलाई पर पहनने या जेब में रखने की छोटी घड़ी।
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वाचक  : वि० [सं०√वच्+ण्वुल-अक] १. कहने या बोलनेवाला। २. बताने या बोध करानेवाला। जैसे–सम्बन्ध-वाचक। ३. वाचन करने अर्थात् पढ़कर सुनानेवाला। जैसे–कथा-वाचक। पुं० १. वह जिससे किसी वस्तु का अर्थ बोध हो। नाम। संज्ञा। संकेत। २. व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान में तीन प्रकार के शब्दो में एक जो प्रसिद्ध या साक्षात्-अर्थ का बोधक होता है।, अर्थात् अर्थ के साथ जिसका वाच्य-वाचकवाला सम्बन्ध होता है।
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वाचकधर्म लुप्ता  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] साहित्य में लुप्तोपमा अलंकार का एक प्रकार या भेद जिसमें वाचक और धर्म दोनों का कथन् नहीं होता। उदाहरण–दोनों भैया मुख शशि हमें लौट आकर दिखाओ–प्रियप्रवास।
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वाचक्नवी  : स्त्री० [सं० वचक्नु+इञ्+ङीष्] गार्गी। वाचकूटी। पुं० वचक्रु ऋषि की अपत्य या गोत्रज।
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वाचन  : पुं० [सं०√वच्+णिच्+ल्युट-अन] १. लिखी हुई चीज पढ़ना या उच्चारण करना। पठन। बाँधना जैसे–कथा-वाचक। २. कहना या कहकर बताना। ३. किसी मत, विचार या विषय का प्रतिपादन। ४. विधायिका सभा में किसी विधेयक का पढ़ा जाना (रीडिंग) जैसे– यह विधेयक का प्रथम वाचन था।
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वाचनक  : पुं० [सं० वाचन√कै+क०] पहेली।
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वाचना  : स्त्री०=वाचन। स०=बाँचना। (पढ़ना)।
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वाचनालय  : पुं० [सं०] वह सार्वजनिक (या निजी) स्थान जहाँ बैठकर पठन या अध्ययन किया जाता हो (रीडिंग रूम)।
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वाचनिक  : वि० [सं० वचन+ठक्-इक] वचन के द्वारा अथवा कथन के रूप में होनेवाला।
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वाचयिता (तृ)  : वि० [सं०√वच्+णिच्+तृच्]=वाचक।
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वाचस्पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति २. प्रजापति। ३. ब्रह्मा। ४. सोम। ५. बहुत बड़ा विद्वान।
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वाचा  : स्त्री० [सं० वाच्+टाप्] १. वाणी। २. वचन, शब्द या वाक्य। ३. शपथ। ४. सरस्वती। अव्य० [सं०] वचन द्वारा। वचन से।
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वाचा-बद्ध  : वि० [सं०] किसी को वचन देने के कारण बँधा हुआ। प्रतिज्ञाबद्ध।
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वाचा-बंधन  : पुं० [सं०] प्रतिज्ञा करके उसमें बँधना।
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वाचापत्र  : पुं० [सं०] प्रतिज्ञा-पत्र।
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वाचाबंध  : वि०=वाचाबद्ध। पुं०=वाचा-बंधन।
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वाचाल  : वि० [सं० वाच्+आलच्] [भाव० वाचालता] १. बोलने में तेज। वाकपटु। २. बकवादी। व्यर्थ बोलनेवाला। ३. उद्दंडतापूर्वक या बहुत बढ़-बढ़कर बातें करनेवाला।
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वाचालता  : स्त्री० [सं० वाचाल+तल्+टाप्] वाचाल होने की अवस्था या भाव।
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वाचिक  : वि० [सं०√वच्+ठक्-इक] १. वाचा या वाणी-संबंधी। २. वाचा या वाणी से निकला हुआ। मुँह से कहा हुआ। ३. संकेत के रूप में कहा या बतलाया हुआ। पुं० १. सन्देश आदि के रूप में कहलाई जानेवाली बात या भेजा जानेवाला पत्र। २. अभिनय का एक प्रकार का भेद जिसमें केवल वाक्य-विन्यास द्वारा अभिनय का कार्य सम्पन्न होता है।
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वाची  : वि० [सं० वाच्+इनि, वाचिन] १. वाचक। वाचा-सम्बन्धी। २. वाचा के रूप में होनेवाला। ३. परिचय या बोध करानेवाला जैसे–पक्षी-वाची शब्द। ४. वाचन करनेवाला।
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वाच्  : स्त्री० [सं०√वच् (बोलना)+क्विप्] वाचा। वाणी। वाक्य।
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वाच्य  : वि० [सं०√वच्+ण्यत्] १. जो वाचा के रूप में आता हो या आ सकता हो। जो कहा जा सके या कहे जाने के योग्य हो। २. शब्द की अभिधा शक्ति के द्वारा जिसका बोध होता हो या हो सकता हो। अभिधेय। ३. जिसे लोग बुरा कहते हों। कुत्सित। निन्दनीय। बुरा। पुं० वाचक शब्द का अर्थ। वाच्यार्थ।
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वाच्यता  : स्त्री० [सं० वाच्य+तल्+टाप्] १. ‘वाच्य’ होने की अवस्था या भाव। २ निंदा। ३. बदनामी।
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वाच्यत्व  : पुं० [सं० वाच्य+त्व]=वाच्यता।
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वाच्यार्थ  : पुं० [सं०] वाचक का अर्थ। अभिधेयार्थ।
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वाच्यावाच्य  : पुं० [सं०] १. कही जाने के योग्य बात और न कही जाने के योग्य बात। २. किसी अवसर पर अथवा किसी व्यक्ति से कहने और न कहने योग्य बातें।
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वांछक  : वि० [सं०√वाञ्छ् (इच्छा करना)+ण्वुल-अन०] इच्छुक।
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वांछन  : पुं० [सं०√वाञ्छ्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वांछित] वांछा या इच्छा करना।
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वांछनीय  : वि० [सं०√वाञ्छ्+अनीयर्] जिसकी वांछा या कामना की गई हो या की जाने को हो।
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वांछा  : स्त्री० [सं०√वाञ्छ्+अप्+टाप्] [भू० कृ० वांछित, वि० वांछनीय] इच्छा। अभिलाषा। चाह।
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वांछित  : भू० कृ० [सं०√वाञ्छ्+क्त०] जिसकी वांछा की गई हो। चाहा हुआ। इच्छित।
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वांछितव्य  : वि० [सं०] वांछनीय।
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वांछिनी  : स्त्री० [सं० वाञ्छा+इनि+ङीष्] पुंश्चली स्त्री।
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वांछी (छिन्)  : वि० [सं० वाञ्छा+इनि] वांछा करने या चाहनेवाला।
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वाज  : पुं० [सं०√वच्+घञ्] १. घृत। घी। २. यज्ञ। ३. अन्न। ४. जल। ५. संग्राम। ६. बल। ७. बाण के पीछे का पंजा। ८. पलक। ९. वेग। १॰. मुनि। ११. आवाज। शब्द।
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वाज  : पुं० [अ० व्ज] १. उपदेश। २. विशेषतः धार्मिक उपदेश।
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वाजपति  : पुं० [सं०] अग्नि।
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वाजपेई  : पुं०=वाजपेयी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाजपेय  : पुं० [सं०] सात श्रौत यज्ञों में से पाँचवाँ यज्ञ जो बहुत श्रेष्ठ माना जाता है।
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वाजपेयक  : वि० [सं० वाजपेय+कन्] वाजपेय-सम्बन्धी।
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वाजपेयी  : पुं० [सं० वाजपेय+इनि] वह पुरुष जिसने वाजपेय यज्ञ किया हो। २. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक प्रतिष्ठित वर्ग की उपाधि। ३. उक्त के आधार पर बहुत बड़ा कुलीन या धर्म-निष्ठ व्यक्ति। उदाहरण–कौन धौ सोमजाजी, अजामिल, कौन गजराज धौ बाजपेई।–तुलसी।
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वाजप्य  : पुं० [सं०] एकगोत्रकार ऋषि। इनके गोत्र के लोग वाजप्यायन कहलाते हैं।
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वाजप्यापन  : पुं० [सं०] वाजप्य ऋषि के गोत्र का व्यक्ति।
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वाजबी  : वि०=वाजिबी।
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वाजभोजी (जिन्)  : पुं० [वाज्√भुज् (खाना)+णिनि] बाजपेय यज्ञ।
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वाजश्रव  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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वाजश्रवा (वस्)  : पुं० [सं०] १. अग्नि। २. एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि ३. एक ऋषि जिनके पुत्र का नाम ‘नचिकेता’ था और जो अपने पिता के क्रुद्ध होने पर यमराज के पास ज्ञान प्राप्त करने गये थे।
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वाजसनेय  : पुं० [सं० वाजसनि+ठक्-एय] १. यजुर्वेद की एक शाखा जिसे याज्ञवल्क्य ने अपने गुरु वैशपायन पर क्रुद्ध होकर उनकी पढ़ाई हुई विद्या उगलने पर सूर्य के तप से प्राप्त की थी। २. याज्ञवल्क्य ऋषि।
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वाजसनेयक  : वि० [सं० वाजसनेय+कन्] १. याज्ञवल्क्य से संबद्ध। २. वाजसनेय।
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वाजा  : वि० [अ० वाजऽ] ज्ञात। विदित। जैसे–आपको यह बात वाजा रहे।
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वाजित  : वि० [सं० वाज+इतच्] १. पंखवाला। २. (तीर या वाण) जिसमें पंख लगे हों।
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वाजिन  : पुं० [सं० वाज+इनि-अण] १. शक्ति। २. होड़। ३. संघर्ष।
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वाजिनी  : स्त्री० [सं० वाजिन√ङीष्] १. घोड़ी। २. असगंध।
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वाजिब  : वि० [अ०] १. उचित। २. संगत।
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वाजिबी  : वि०=वाजिब।
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वाजिभ  : पुं० [सं०] अश्विनी नक्षत्र।
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वाजिमेध  : पुं० [सं० ष० त०] अश्वमेघ।
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वाजिराज  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. उच्चैश्रवा।
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वाजिशिरा  : पुं० [सं० वाजिशिरस्+ब० स०] विष्णु का एक अवतार।
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वाजी (जिन्)  : पुं० [सं० वाज+इनि] १. घोड़ा। २. वासक। अड़ूसा। ३. हवि। ४. फटे हुए दूध का पानी।
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वाजीकर  : वि० [सं० वाजी√कृ (करना)+अच्] (औषध) जिससे स्त्री-संभोग की शक्ति बढ़ती हो।
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वाजीकरण  : पुं० [सं० वाज+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] एक प्रक्रिया जिससे पुरुष में घोड़े की शक्ति आ जाती है।
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वाट  : पुं० [सं०√वट् (घेरना)+घञ्] १. मार्ग। रास्ता। २. इमारत। वास्तु। ३. मंडप।
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वाटधान  : पुं० [सं० ब० स] १. कश्मीर के नैऋंतकोण का एक प्राचीन जनपद। २. एक संकर जाति।
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वाटली  : स्त्री० [सं० वर्तुली] १. छोटी कमोरी। २. अँगूठी।
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वाटिका  : स्त्री० [सं०√वट् (घेरना)+ण्वुल्-अक,+टाप्, इत्व] १. वास्तु। इमारत। २. बगीचा। ३. हिंगुपत्री।
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वाटी  : स्त्री० [सं०√वट् (घेरना)+घञ्,+ङीष्] इमारत। वास्तु।
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वाट्टक  : पुं० [सं०] भुना हुआ जौ। बहुरी।
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वाट्य  : पुं० [सं० वाट+यत्] १. बरियारा। (पौधा २. भुना हुआ जौ।
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वाडव  : पुं० [सं० वाड√वा (प्राप्त होना)+क] वड़वाग्नि। बड़वानल।
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वाडवाग्नि  : स्त्री० [सं०]=बड़वानल।
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वाण  : पुं० [सं] वाण (दे०)
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वाणिज  : पुं० [सं० वणिज+अण्] १. व्यापारी। २. वड़वाग्नि।
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वाणिज्य  : पुं० [सं० वणिज+ष्यञ्] १. बहुत बड़े पैमाने पर होनेवाला व्यापार (कामर्स)।
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वाणिज्य-चिन्ह  : पुं० [सं० ष० त०] वह विशिष्ट चिन्ह जो कारखानेदार या व्यापारी अपने बनाये और बेचे जानेवाले सब तरह के माल या सामान पर इसलिए अंकित करते हैं कि औरों से उनका पार्थक्य और विशिष्टता सूचित हो। (मर्कन्टाइल मार्क)।
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वाणिज्य-दूत  : पुं० [ष० त०] किसी देश का वह राजकीय दूत जो किसी दूसरे देश में रहकर इस बात का ध्यान रखता है कि हमारे पारस्परिक वाणिज्य में कोई व्याघात न होने पावे। (कॉन्सल)।
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वाणिज्यवाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० वाणिज्यवादी] पाश्चात्य देशों में मध्य युग में प्रचलित वह मत या सिद्धान्त जिसके अनुसार यह माना जाता था कि साधारण जन-समाज की तुलना में वणिकों या व्यापारियों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाना चाहिए जिसमें आयात कम और निर्यात अधिक हो। (मर्केन्टाइलिज्म)।
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वाणिता  : स्त्री० [सं० वाण+इतच्+टाप्] एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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वाणिनी  : स्त्री० [सं०√वण् (बोलना)+णिनि+ङीष्] १. नर्तकी। २. मत्त स्त्री। ३. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १६. वर्ण अर्थात् क्रमानुसार नगण, जगण, भगण, फिर जगण और अन्त में रगण और गुरु होता है।
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वाणी  : स्त्री० [सं०√वण्+णिच्+इन्+ङीष्] १. सरस्वती। २. मुँह से निकलनेवाली सार्थक बात । वचन। मुहावरा–वाणी फुरना=मुँह से बात निकलना (व्यंग्य)। ३. बोलने या बातचीत करने की शक्ति। ४. जिह्वा जीभ। ५. स्वर। ६. एक छंद।
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वांत  : पुं० [सं०√वम् (वमन करना)+क्त] उलटी। कै। वमन।
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वात  : पुं० [सं०√वा (जाना आदि)+क्त] १. वायु। हवा। २. वैद्यक के अनुसार शरीर में होनेवाला वायु का प्रकोप।
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वात-गुल्म  : पुं० [सं० तृ० त] वात के प्रकोप से होनेवाला गुल्म रोग।
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वात-चक्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. ज्योतिष में एक योग। २. [ष० त०] बवंडर। चक्रवात।
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वात-तूल  : पुं० [सं० तृ० त०] बहुत ही महीन तागों के रूप में हवा में इधर-उधर उड़ती हुई दिखाई देनेवाली चीज।
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वात-नीड़ा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें वायु के प्रकोप से दाँत की जड़ में नासूर हो जाता है। (पायोरिया)।
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वात-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. हनुमान। २. भीम। ३. नेवला।
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वात-प्रकृति  : वि० [सं० ष० त०] १. (व्यक्ति) जिसकी प्रकृति में वात की प्रधानता हो। २. (पदार्थ) जो खाने पर शरीर में वात का प्रकोप बढ़ानेवाला हो।
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वात-प्रकोप  : पुं० [सं० ष० त०] शरीर में वात या वायु का इस प्रकार बढ़ना या बिगड़ना कि कोई रोग उत्पन्न होने लगे।
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वात-मृग  : पुं० [सं० मध्य० स०] वायु की विपरीत दिशा में दौड़नेवाला एक प्रकार का मृग।
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वात-रक्त  : पुं० [सं० ब० स०] रक्त में रहनेवाला वात के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला एक रोग जिसमें पैरों के तलवे से घुटने तक छोटी-छोटी फुँसियाँ हो जाती है, जठराग्नि मंद पड़ जाती है और शरीर दुर्बल होता जाता है।
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वात-सारथि  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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वात-स्कंध  : पुं० [सं० ष० त०] आकाश का वह भाग जिसमें वायु चलती है।
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वात-स्वप्न  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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वातकंटक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बात रोग जिसमें पैरों की गाँठों या जोड़ों में बहुत पीड़ा होती है।
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वातकी (किन्)  : वि० [सं० वात+इनि, कुकच्] बात रोग से ग्रस्त।
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वातकुंभ  : पुं० [ष० त०] नख-क्षत।
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वातकेतु  : पुं० [सं० ष० त०] धूल। गर्द।
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वातकेलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सुन्दर। आलाप। २. स्त्री के उपपति का दंत-क्षत।
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वातगंड  : पुं० [सं० ष० त०] बात के प्रकोप के कारण होनेवाला एक तरह का गलगंड रोग।
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वातघ्नी  : स्त्री० [सं० वात√हन् (मारना)+टक्+ङीष्] १. शालपर्णी। २. अश्वगंधा।
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वातज  : वि० [सं० वात√जन् (उत्पन्न करना)+ड] वात या वायु के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला। जैसे–वातज रोग।
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वातंड  : पुं० [सं० वतंड+अण्] एक गोत्रकार ऋषि जिनके गोत्रवाले वातंड्य कहलाते हैं।
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वातंड्य  : पुं० [सं० वातंड+ष्यञ्] [स्त्री० वातंड्यायिनी] वातंड ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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वातध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] मेघ। बादल।
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वातपट  : पुं० [सं० ष० त०] पताका। ध्वजा।
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वातर  : वि० [सं० वात√रा (लेना)+क] १. वात-सम्बन्धी। २. अन्धड या तूफान से सम्बन्ध रखनेवाला। ३. हवा की तरह तेज।
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वातरंग  : पुं० [सं० ब० स०] पीपल।
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वातरथ  : पुं० [सं० ब० स०] मेघ। बादल।
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वातरायण  : पुं० [सं० वात√रै (शब्द करना)+ल्युट-अन] १. निष्प्रयोजन पुरुष। निकम्मा आदमी। ३. बौखलाया हुआ आदमी। ३. लोटा। ४. कुट नामक ओषधि।
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वातल  : पुं० [सं० वात√वला (लेना)+क०] चना। वि० वात का प्रकोप उत्पन्न करनेवाला।
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वातव  : वि० [सं०] १. वात से संबंध रखनेवाला। वात का। २. वात के कारण उत्पन्न होनेवाला (रोग या विकार) जैसे–वातव लासक।
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वातवलासक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का घातक बात रोग जिसमें रोगी को ज्वर के साथ कलेजें की धड़कन अंगों की सूजन और नेत्र-कष्ट होता है। (बेरी-बेरी)।
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वातव्याधि  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. वात के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला रोग। २. गठिया नामक रोग।
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वाताट  : पुं० [सं० वात√अट् (चलना)+अच्] १. सूर्य का घोड़ा। २. हिरन।
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वातांड  : पुं० [सं० ब० स०] अंडकोश-संबंधी एक प्रकार का वायु रोग जिसमें एक अंड चलता रहता है।
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वातात्मज  : पुं० [सं० ष० त०] हनुमान।
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वाताद  : पुं० [सं० वात√अद् (खाना)+घञ्] बादाम।
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वातानुकूलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० वातानुकूलित] यांत्रिक या वैज्ञानिक प्रक्रिया से ऐसी व्यवस्था करना कि किसी घिरे हुए स्थान के तापमान पर उसके बाहर के ताप-मान का प्रभाव न पड़ने पावे, अर्थात् उस स्थान के अंदर की गरमी या सरदी नियंत्रित और नियमित रहे। (एयर-कन्डिशनिंग)।
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वातानूकूलित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जिसका तापमान वातानुकूलन वाली प्रक्रिया से नियंत्रित और नियमित किया गया हो। (एयर-कन्डिशन्ड)।
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वातापी  : पुं० [सं०] एक राक्षस जो आतापि का भाई था (इन दोनों भाइयों को अगस्त्य ऋषि ने खा लिया था)।
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वाताप्य  : पुं० [सं० वातापि-यत्] १. जल। २. सोम।
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वाताम  : पुं० [सं० पृषो० सिद्धि] बादाम।
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वातायन  : पुं० [सं० ब० स०] १. झरोखा जो घरों आदि में इसलिए बनाया जाता है कि बाहर से प्रकाश और वायु अन्दर आवे। २. मंत्र-द्रष्टा ऋषि। ३. एक प्राचीन जनपद। ४. घोड़ा।
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वातायनी  : स्त्री० [सं० वातायन-ङीष्] लकड़ी लोहे सीमेन्ट आदि की वह रचना जो छत के नीचे दीवार में इसलिए बनाई जाती है कि कमरे में प्रकाश और वायु आ सके। (वेन्टिलेटर)।
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वातारि  : पुं० [सं० ष० त०] १. एरंड। रेंड। २. शतमूली। ३. वायन। ४. बायबिडंग। ५. जमीकन्द। सूरन। ६. भिलावाँ। ७. थूहड़। सेंहुड़। ८. शतावर। ९. नील का पौधा। तिलक।
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वाताली  : स्त्री० [सं० वाताल-ङीष्,ष० त०] १. तूफान। २. बवंडर।
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वातावरण  : पुं० [कर्म० स०] [वि० वातावरणिक] १. वायु की वह राशि जो पृथ्वी, ग्रह आदि पिडों को चारों ओर से घेरे रहती है। शरीर स्वास्थ्य आदि के विचार से वायु का उतना अंश जो किसी प्रदेश स्थान आदि में होता है। जैसे–बिहार का वातावरण, कमरे का वातावरण। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के आसपास की वह परिस्थिति या बात जिसका उस वस्तु या व्यक्ति के अस्तित्व जीवन-निर्वाह विकास आदि पर प्रभाव पड़ता है। ४. किसी कलात्मक या साहित्यिक कृति के वे गुण या विशेषताएँ जो दर्शक या पाठक के मन में उस कृति के रचनाकाल,रचना-स्थान आदि की कल्पना या मनोभाव उत्पन्न करती है। जैसे– इस मूर्ति का वातावरण बतलाता है कि यह शुंग काल की है,अथवा गांधार की बनी है (एडमाँस्फियर)।
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वातावरणिक  : वि० [सं०] १. वातावरण संबंधी। २. वातावरण का या वातावरण में होनेवाला।
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वांताशी  : वि० [सं० वात√अश् (खाना)+णिनि] वमन की हुई चीज खानेवाला। पुं० १. कुत्ता। २. वह ब्राह्मण जो केवल पेट के लिए अपने कुल की मर्यादा नष्ट करे।
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वाताष्ठीला  : स्त्री० [सं० तृ० त०] एक रोग जिसमें वात के प्रकोप के कारण पेट में गाँठ सी पड़ जाती है। (वैद्यक)।
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वातास  : स्त्री० [सं० वात] वायु। हवा। उदाहरण–जो उठती हो बिना प्रयास। ज्वाला सी पाकर वातास।–पंत।
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वांति  : स्त्री० [सं०√वम्+क्तिन्] कै। वमन।
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वाति  : पुं० [सं०√वा (जाना)+अति] १. वायु। हवा। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा।
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वातिक  : वि० [सं० वात+ठञ्-इक] १. वात संबंधी। वात का। २. जिसे वात का कोई रोग हो। वात-ग्रस्त। ३. तूफान या बवंडर से सम्बन्ध रखनेवाला। ४. बकवादी। पुं० १. पागल। विक्षिप्त। २. एक प्रकार का ज्वर। ३. चातक। पपीहा।
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वातुल  : वि० [सं० वात+उलच्] [भाव० वातुलता] १. वात-संबंधी। २. वात के प्रकोप के कारण होनेवाला। जैसे–गठिया (रोग) पुं० पागल बावला।
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वातोदर  : पुं० [सं० तृ० त] एक रोग जिसमें हाथ, पाँव, नाभि, काँख, पसली, पेट, कमर और पीठ में पीड़ा होती है, इसके साथ कब्ज और खांसी भी होती है। (वैद्यक)।
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वातोन्माद  : पुं० [सं० वात+उन्माद, ब० स०]अपतंत्रक नामक रोग। (हिस्टीरिया) देखें ‘अपतंत्रक’।
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वातोर्मी  : पुं० [सं० ब० स०] ग्यारह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें मगण भगण तगण और अन्त में दो गुरु होते हैं।
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वात्य  : वि० [सं०वात+यत्] वात या वायु-सम्बन्धी। जैसे– वात्य भार।
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वात्या  : स्त्री० [सं०वात+य+टाप्] १. बहुत तेज चलनेवाली हवा। २. विशेषतः ४॰ से ७५ मील प्रति घंटे चलनेवाली तेज आँधी (गेल)।
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वात्स  : पुं० [सं० वत्स+अण्] [स्त्री० वात्सी] १. एक गोत्रकार ऋषि का नाम। २. ब्राह्मण द्वारा शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न व्यक्ति।
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वात्सरिक  : पुं० [सं० वत्सर+ठक्–इक] ज्योतिषी। वि०१. वत्सर या वर्ष संबंधी। जैसे– वात्सरिक श्राद्ध। २. प्रतिवर्ष होनेवाला। वार्षिक।
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वात्सल्य  : पुं० [सं०] १. प्रेम। २. विशेषतः माता-पिता के ह्रदय में होनेवाला अपने बच्चों के प्रति नैसर्गिक प्रेम।
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वात्सल्य भाजन  : पुं० [सं०] वह जिसके प्रति वत्स का सा प्रेम हो। वत्स के समान प्रिय।
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वात्स्य  : पुं० [सं० वत्स+यञ्] १. एक प्राचीन ऋषि। २. एक गोत्र जिसमें ओर्व, च्यवन, भार्गव, जामदग्न्य और आप्नुवान नामक पाँच प्रवर होते हैं।
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वात्स्यायन  : पुं० [सं० वात्स्य+फक्-आयन] १. कामसूत्र के रचियता एक प्रसिद्ध ऋषि। २. न्याय शास्त्र के भाष्यकार एक प्रसिद्ध पंडित।
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वाद  : पुं० [सं०√वद्+घञ्] १. कुछ कहना या बोलना। २. वह जो कुछ कहा जाय। उक्ति। कथन। ३. किसी कथन के समर्थन के लिए उपस्थित किया जानेवाला तर्क। दलील। ४. किसी बात विशेषतः सैद्धांतिक बात के संबंध में दोनों ओर से कही जानेवाली बातें। तर्क-वितर्क। विवाद। बहस। ५. अफवाह। किवदन्ती। ६. विचार के लिए न्यायालय में उपस्थित किया जानेवाला अभियोग। मुकदमा। (सूट) ७. कला, विज्ञान या कल्पना मूलक किसी विषय के संबंध में नियमों, सिद्धांतों आदि के आधार पर स्थिर किया हुआ वह व्यवस्थित मत जो कुछ क्षेत्रों में प्रामाणिक और मान्य समझा जाता हो। (थियरी) जैसे– विकासवाद, सापेक्षवाद। ८. कोई ऐसा त्तत्व या सिद्धांत जो तत्त्वज्ञों का विशेषज्ञों द्वारा नियत या निश्चित हुआ हो। (इज़्म)। विशेष–इस अंतिम अर्थ में इसका प्रयोग कुछ संज्ञाओं के अन्त में प्रत्यय के रूप में होता है। जैसे–छायावाद, रहस्यवाद साम्यवाद आदि।
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वाद-ग्रस्त  : वि०=विवादग्रस्त।
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वाद-चंचु  : पुं० [स० त०] शास्त्रार्थ करने में पटु। वाद-विवाद करने में दक्ष।
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वाद-पद  : पुं० [सं०] विधिक क्षेत्र में किसी वाद या दीवानी मुकदमे से संबंध रखनेवाली वे विवादास्पद और विचारणीय बातें जो पहले पक्ष की ओर से दावे के रूप में कही जाती हों, परन्तु दूसरा पक्ष जिनसे इन्कार करता हो। तनकीह। (इश्यू) विशेष—न्यायालय ऐसी ही बातों के सत्यासत्य का विचार करके उनके आधार पर मुकदमे का निर्णय करता है। यह दो प्रकार का होता है–विधि वाद-पद जिमसें केवल कानूनी दृष्टि से विचारणीय बातें आती हैं और तथ्य वाद-पद जिसमें तथ्य अर्थात् वास्तविक घटनाओं से संबंध रखनेवाली बातें आती हैं। इन्हें क्रमात् इश्यू ऑफ लाँ और इश्यू आँफ फ़ैक्ट्स कहते हैं।
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वाद-प्रतिवाद  : पुं० [सं० द्व० स०] दो पक्षों या व्यक्तियों में किसी विषय पर होनेवाला खंडन-मंडन और तर्क-वितर्क।
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वाद-मूल  : पुं० [सं० ष० त०] वह मूल कारण जिसके आधार पर कोई मुकदमा या व्यवहार न्यायालय में विचारार्थ उपस्थित किया जाता है। (कॉज आँफ ऐक्शन)।
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वाद-विवाद  : पुं० [सं० द्व० स०] १. वाद-प्रतिवाद। २. वह विचारपूर्ण बात-चीत जो किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए होती है। (डिस्कशन)।
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वाद-विषय  : पुं० [सं० ष० त०] वाद-मूल। (दे०)
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वाद-व्यय  : पुं० [सं० ष० त०] किसी वाद या मुकदमे में होनेवाला उचित और नियमित व्यय (कास्टस)।
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वाद-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] १. अपकार करना। २. तर्क करना।
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वाद-हेतु  : पुं० [सं० ष० त०]=वाद-मूल।
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वादऋणी  : पुं० [सं० ब० स०] न्यायालय ने जिसे अपने फैसले में ऋणी ठहराया है। (जजमेंट क्रिडेटर)
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वादक  : वि० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+ण्वुल-अक] १. कहने या बोलनेवाला। २. वाद-विवाद करनेवाला। ३. बाजा बजानेवाला।
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वाददंड  : पुं० [ष० त०] सारंगी आदि बाजे बजाने की कमानी।
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वादन  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+ल्युट-अन] १. कहने या बोलने की क्रिया। २. बाजा बजाना। ३. बाजा। वाद्य। ४. वादक।
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वादनक  : पुं० [सं० वादन+कन्] बाजा।
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वादर  : पुं० [सं० वदर+अण्] १. कपास का पौधा। २. सूती कपड़ा। ३. बेर का पेड़। वि० सूती कपड़े का बना हुआ।
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वादरायण  : पुं० [सं० वदर+अयन, ष० त०+अण्] बादरायण (वेदव्यास)।
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वादरायणि  : पुं०=वादरायणि (शुकदेव)।
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वादा  : पुं० [अ० वाइदः] १. किसी काम या बात के लिए नियत किया हुआ समय। २. किसी से दृढ़ता और निश्चयपूर्वक यह कहना कि हम तुम्हारे लिए अमुक काम करेंगे या तुम्हें अमुक चीज देंगे। प्रतिज्ञा। वचन। क्रि० प्र०– पूरा करना। ३. दे० ‘वायदा’।
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वादा-खिलाफी  : स्त्री० [अ०+फा०] वादा पूरा न करना। प्रतिज्ञा का पालन न करना।
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वादानुवाद  : पुं० [सं० द्व० स०]=वाद-प्रतिवाद।
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वादिक  : वि० [सं० वादि+कन्] कहनेवाला। पुं० १. जादूगर। २. भाट। चारण। ३. तार्किक।
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वादित  : भू० कृ० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+क्त] जिसमें से नाद या स्वर उत्पन्न किया गया हो। बजाया हुआ।
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वादित्र  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+इत्र] वाद्य। बाजा।
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वादी  : वि० [सं० वादिन्] १. बोलनेवाला। वक्ता। २. जो किसी वाद से सम्बन्ध रखता हो या उसका अनुयायी हो। जैसे—समाजवादी। पुं० १. वह जो कोई ऐसा विषय उपस्थित करे जिस पर विचार होने को हो या दूसरों को जिसका खंडन अथवा विरोध करना पड़े। २. वह जो न्यायालय में किसी के विरुद्ध कोई अभियोग उपस्थित करे। फरियादी। मुद्दई। २. संगीत में वह स्वर जो किसी राग में सर्वप्रमुख होता है, और जिसका उपयोग और स्वरों की अपेक्षा अधिक होता है। इसी स्वर पर ठहराव भी अपेक्षया अधिक होता है और इसी के प्रयोग से उस राग में जान भी आती है और उसकी शोभा भी होती है। जैसे—यमन राग में गांधार स्वर वादी होता है। स्त्री०=आई (वात की अधिकता या जोर)। (पश्चिम) वि०=वातग्रस्त। जैसे—वादी शरीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वादींद्र  : पुं० [सं० स० त०] मंजुघोष का एक नाम।
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वादीवदि  : क्रि० वि० [सं० वाद से] कह-बदकर। दृढ़तापूर्वक कह कर। उदा०–बहुतै कटकि माहि वादीवदि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वाद्य  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+यत्] १. बाजा बजाना। २. बाजा।
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वाद्य-वृंद  : पुं० [सं०] १. अनेक प्रकार के बहुत से बाजों का समूह। २. उक्त प्रकार के बाजों का वह संगीत जो ताल, लय आदि के विचार से एक साथ बजने पर होता है। (आर्केस्ट्रा)
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वाद्य-संगीत  : पुं० [सं०] ऐसा संगीत जिसमें केवल वाद्य या बाजे ही बजते हों, कंठ संगीत बिलकुल न हो। (इन्स्ट्रूमेंटल म्यूजिक)
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वाद्यक  : पुं० [सं० वाद्य√कन्] बाजा बजानेवाला।
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वाध  : पुं० [सं०√वाध् (रोकना)+घञ्]=बाघ (बाधा)।
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वाधूल  : पुं० [सं० वाधू√ला (गोना)+क] एक गोत्राकार ऋषि। इनके गोत्र के लोग वाधौल कहलाते हैं।
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वान  : पुं० [सं०√वा (गमनादि)+ल्युट्–अन] १. गति। २. सुरंग। ३. सुगंध। ४. पानी में लगनेवाला हवा का झोंका। ५. चटाई। प्रत्य० [सं० वान्] एक प्रत्यय जो कुछ सवारियों के नामों के अंत में लगकर उन्हें चलाने या हाँकनेवाले का सूचक होता है। जैसे—एक्कावान, गाड़ीवान। वि० [सं०] १. वन-संबंधी। जंगल का। २. सूखा या सुखाया हुआ। पुं० १. बड़ा और घना जंगल। २. जल आदि का बहाव या आगे बढ़ना। ३. सूखा फल। (ड्राई फ्रूट)। ४. महक। सुगंधि। ५. यम।
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वान-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] करघे की वह लकड़ी जिसमें बुनने के लिए बाना लपेटा रहता है।
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वान-वासिका  : स्त्री० [सं० वानवास+कन्+टाप्, इत्व] सोलह मात्राओं के छन्दों या चौपाइयों का एक भेद, जिसमें नवीं और बारहवीं मात्राएँ लघु होती हैं।
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वानक  : पुं० [सं० वान+कन्] ब्रह्मचर्यावस्था।
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वानप्रस्थ  : पुं० [सं० वन+प्र√स्था (ठहरना)+कु, वनप्रस्थ+अण्] १. भारतीय आर्यों में जीवन-यापन के चार शास्त्र विहित आश्रमों या विभागों में से एक जो गृहस्थ आश्रम के उपरान्त और संन्यास से पहले आता है और जिसमें मनुष्य ५॰ वर्ष का हो जाने पर पचीस वर्षों तक वनों में घूमता-फिरता रहता है। २. महुए का पेड़। ३. पलास।
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वानर  : पुं० [सं०] १. ऐसा प्राणी जो पूरी तरह से तो नर या मनुष्य न हो, फिर भी उससे बहुत कुछ मिलता-जुलता हो। जैसे—गोरिल्ला, चिम्पांजी आदि। २. बन्दर। ३. दोहे का एक लघु भेद जिसके प्रत्येक चरण में १॰ गुरु और २८ लघु होते हैं।
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वानर-युद्ध  : पुं० [सं०] दे० ‘छापामार लड़ाई’।
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वानर-सेना  : स्त्री० [सं०] छोटे-छोटे बच्चों का दल जो कोई विशिष्ट कार्य करने के लिए नियुक्त हो।
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वानरी  : वि० [सं०] १. वानर-सम्बन्धी। बन्दर का। २. वानर या बन्दर की तरह का। जैसे—वानरी तप। स्त्री० १. बन्दर की मादा। बँदरिया। २. केंवाच। कौंछ।
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वानरी तप  : पुं० [सं०] एक प्रकार का तप या तपस्या जो बन्दरों की तरह बराबर वृक्षों पर ही रहकर और उनके पत्ते, फल आदि खाकर की जाती है।
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वानवासक  : पुं० [सं० वानवास+कन्] वैदेही माता से उत्पन्न वैश्य का पुत्र।
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वानस्पतिक  : वि० [सं०] १. वनस्पति सम्बन्धी। वनस्पति का। २. वनस्पति के द्वारा बनने या होनेवाला । जैसे–वानस्पतिक खाद या तैल।
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वानस्पतिक खाद  : स्त्री० [सं०+हिं] गोबर, मल, पौधों आदि के मिश्रण से बनाई हुई खाद। कूड़े आदि से बनी खाद (कम्पोस्ट)।
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वानस्पत्य  : पुं० [सं० वनस्पति+ण्य] १. वह वृक्ष जिसमें पहले फूल लगकर पीछे फल लगते हैं। जैसे–आम, जामुन आदि। २. वनस्पतियों का वर्ग या समूह। ३. वनस्पतियों के तत्त्वों और उनकी वृद्धि, पोषण आदि से सम्बन्ध रखनेवाला शास्त्र। (आरबोरिकल्चर)। वि०=वानस्पतिक।
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वानाचार  : पुं० [सं०] दे० ‘वाम-मार्ग’।
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वानिक  : वि० [सं० वन+ठक्–इक] १. जंगली। वन्य। २. जंगल में रहनेवाला। वनवासी।
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वानीर  : पुं० [सं० वन+ईरन+अण्] १. बेंत। २. पाकर वृक्ष।
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वानेय  : पुं० [सं० वन+ढञ्-एय] केवड़ी मोथा। वि० १. वन में रहने या होनेवाला। २. जल संबंधी।
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वान्  : प्रत्य० [सं०] [स्त्री० वती] एक संस्कृत प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लग कर युक्त या संपन्न होने का सूचक होता है। जैसे—ऐश्वर्यवान्, धैर्यवान् आदि।
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वान्य  : वि० [सं० वन+ण्य] वन-संबंधी। वन का। जंगली।
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वाप  : पुं० [सं०√वप् (बोना)+घञ्] १. बीज आदि बोना। बपन। २. खेत। ३. मुंडन।
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वापक  : वि० [सं०√वप् (बोना)+णिच्+ण्वुल–अन] बपन करने अर्थात् बीज बोनेवाला।
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वापन  : पुं० [सं०√वप् (बोना)+णिच्-छल्युट–अन] बीज बोना।
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वापस  : वि० [फा०] १. (जीव या यान) जो कहीं न जाकर लौट आया हो। २. (वस्तु) जिसे किसी ने मँगनी माँगकर अथवा खरीदकर फेर दिया हो।
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वापसी  : वि० [फा] १. जो वापस होकर आया हो। जैसे–वापसी जवाब। २. वापस जाने से संबंध रखनेवाला। जैसे–वापसी टिकट। स्त्री० १. वापस होने या लौटने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वापस की या लौटाई हुई चीज देने या लेने की क्रिया या भाव।
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वापसी-टिकट  : पुं० [हिं०] वह टिकट जिससे कहीं जाया और वहाँ से वापस आया जा सकता हो। जैसे–रेल या हवाई जहाज का वापसी टिकट (रिटर्न टिकट)।
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वापिका  : स्त्री० [सं० वप+इञ्+कन्+टाप्]=वापी।
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वापित  : वि० [सं०√वप् (बोना)+णिच्+क्त] १. बोया हुआ। २. मूँड़ा हुआ।
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वापी  : स्त्री० [सं० वापि+ङीष्] एक प्रकार का चौड़ा और बड़ा कूआँ या छोटा तालाब जिमसें जल तक पहुँचने के लिए प्रायः सीढ़ियाँ बनी रहती हैं। बावली।
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वाप्य  : पुं० [सं० वापी+यत्, वा√वप्+ण्यत्] वपन किये या बोए जाने के योग्य (बीज या भूमि)। पुं० १. वापी या बावली का पानी। २. बोया हुआ धान्य। (रोपे हुए से भिन्न) २. कुट नामक औषधि।
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वाम  : वि० [सं० वा+मन्] १. शरीर के उस पक्ष में या उसकी ओर होने वाला जो दूसरे पक्ष की अपेक्षा साधारण प्राणियों में कमजोर या दुर्बल होता है। बायाँ। २. ‘दक्षिण’ का ‘दाहिना’ का विपर्याय। ३ प्रतिकूल। विरुद्ध। ३. कुटिल। टेढ़ा। ४. दुष्ट। बुरा। पुं० १. कामदेव। २. वरुण। ३. धन-संपत्ति। ४. कुच। स्तन। ५. चन्द्रमा के रथ का एक घोड़ा ६. सवैया छंद का आठवाँ भेद, जिसके प्रत्येक चरण में सात जगण, और एक यगण होते हैं। इसे मंजरी, मकरंद और माधवी भी कहते हैं। ७. वामदेव।
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वाम-कक्ष  : पुं० [सं०ब०स०] एक गोत्रकार ऋषि जिनके गोत्र के लोग वामकक्षायन कहलाते हैं।
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वाम-मार्ग  : पुं० [सं०] तांत्रिक साधना में एक पद्धति जिसमें मृत प्राणियों के दाँतों की माला, पहनते, कपाल या खोपड़ी का पात्र रखते, छोटी कच्ची मछलियाँ और माँस खाते तथा सजातीय पर-स्त्रियों से समान रूप से मैथुन करते हैं।
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वाम-मार्गी  : वि० [सं०] वाम-मार्ग सम्बन्धी। वाम-मार्ग का। पुं० वह जो वाम-मार्ग का अनुयायी हो।
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वाम-शील  : वि० [सं०] [सं० वामशीला] प्रायः या सदा वाम अर्थात् प्रतिकूल या विरुद्ध रहनेवाला।
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वामक  : पुं० [सं० वाम+कन्] १. एक प्रकार की अंग-भंगी। २. बौद्धों के अनुसार एक चक्रवर्ती।
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वामता  : स्त्री० [सं०] १. वाम होने की अवस्था या भाव। २. प्रतिकूलता। विरुद्धता।
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वामदेव  : पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. एक वैदिक ऋषि।
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वामदेवी  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. सावित्री।
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वामन  : वि० [सं०] [स्त्री० वामनी] १. छोटे कद या डील का। ठिंगना। २. नाटा। बौना। खर्च। ३. ह्रस्व। पुं० १. विष्णु। २. विष्णु का पाँचवाँ अवतार जो अदिति के गर्भ से हुआ था, और जिसमें उन्होंने बौने का रूप धारण करके राजा बलि को छलकर उससे सारी पृथ्वी दान रूप में ले ली थी। ३. अठारह पुराणों में से एक। ४. शिव। ५. एक दिग्गज का नाम। ६. छोटे डील का या बौना घोड़ा।
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वामन-द्वादशी  : स्त्री० [सं० ष० त] भाद्रपद शुक्ला द्वादशी जिस दिन व्रत करके वामन अवतार की पूजा करने का विधान है।
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वामनिका  : स्त्री० [सं० वामन+कन्+टाप्+इत्व] स्कंद की अनुचरी एक मातृका। २. बौनी या ठिंगनी स्त्री।
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वामनी  : स्त्री० [सं० वामन+ङीष्] एक प्रकार का योनि रोग।
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वामलूर  : पुं० [सं० वाम√लू (काटना)+रक्] दीमक का भीटा। वल्मीक बाँबी।
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वामलोचना  : स्त्री० [सं०] सुन्दरी स्त्री।
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वामा  : स्त्री० [सं०√वम् (निकालना)+अण्+टाप्, अथवा वाम+अ+च्+टाप्] १. स्त्री० २. दुर्गा। ३. पार्श्वनाथ की माता। ४. दस अक्षरों के एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और भगण तथा अंत में एक गुरु होता है।
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वामाक्षी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सुंदरी स्त्री। २. दीर्घ ‘ई’ स्वर या उसकी मात्रा।
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वामांगिनी  : स्त्री० [सं०] विवाहिता पत्नी।
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वामांगी  : स्त्री० [सं०]=वामांगिनी।
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वामाचारी (रिन्)  : पुं० [सं० वामाचार+इनि]=वाममार्गी।
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वामाँदा  : वि० [फा०] [भाव० वामाँदगी] १. पीछे छूटा हुआ। २. थक जाने के कारण रास्ते में पीछे छूटा हुआ। ३. बाकी बचा हुआ। ४. लाचार। विवश।
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वामावर्त  : वि० [सं० वाम-आ√वृत्+अच्] १. (पदार्थ) जिसका मुँह बाई ओर घूमा हुआ हो। जैसे–वामावर्त शंख। २. (क्रिया) जिसका आरंभ बाई ओर से हो। जैसे–वामावर्त प्रदक्षिणा। ‘दक्षिणा-वर्त’ का विपर्याय।
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वामिका  : स्त्री० [सं० वाम+कन्+टाप्+इत्व] चंडिका देवी।
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वामी  : स्त्री० [सं० वाम+ङीष्] १. श्रृंगाली। गीदड़ी। २. घोड़ी। ३. हथनी। ४. गधी।
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वामेक्षणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री।
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वामोरु  : स्त्री० [सं० ब० स०] सुंदर स्त्री।
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वाम्नी  : स्त्री० [सं०] एक गोत्रकार विदुषी जिसके गोत्रवाले वाम्नेय कहलाते थे।
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वाय  : पुं० [सं०√वे (बुनना)+घञ्] १. बुनना। वपन। २. साधन। अव्य० [फा०] दुःख, शोक आदि का सूचक अव्यय। जैसे–वायकिस्मत।
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वाय  : स्त्री० [सं० वायु] १. हवा। २. गंध। महक। (राज०) जैसे—बधवाव (बाघ के शरीर से निकलनेवाली गंध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वायक  : वि० [सं०] बुननेवाला। पुं० जुलाहा। तन्तुवाय।
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वायदंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. करघे का हत्था। २. करघे की ढरकी।
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वायदा  : पुं० [फा० वाइदः] १. वादा। वचन। २. सट्टेवालों की परिभाषा में, भविष्यकाल के सम्बन्ध में किया जानेवाला सौदा। जैसे–दालों के वायदे के बाजारों में इस सप्ताह भी अच्छी तेजी-मंदी आई।
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वायन  : पुं० [सं०√वे (बुनना)+ल्युट-अन] १. मंगल अवसरों, उत्सवों आदि के समय बनाई जानेवाली मिठाई। २. उक्त का वह अंश जो रिश्ते-नाते में भेजा जाय। ३. सौगात।
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वायव  : वि० [सं०] १. वायु संबंधी। वायु का। २. वायु के द्वारा या उसकी सहायता से होनेवाला। (एरियल)। ३. जिसका कुछ भी आधार न हो। हवाई। जैसे–वायव स्वप्न।
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वायव-भट्ठी  : स्त्री० दे० ‘पवन भट्ठी’।
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वायवी  : वि० [वायु+अण्+ङीष्] वायु के समान हृदय के भीतर ही भीतर रहनेवाला। प्रकाश में न आनेवाला। स्त्री० उत्तर पश्चिमी कोण।
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वायवीय  : वि० [सं०] १. वायु संबंधी। २. वायु के बल से चलनेवाला (एरियल) स्त्री वह ताल जिसका एक सिरा तो रेडियो यंत्र से संबद्ध होता है और दूसरा सिरा या तो खुले आकाश में विस्तृत होता है या ऊँचाई पर खड़े हुए बाँस के साथ लगा रहता है। (एरियल)।
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वायव्य  : वि० [सं० वायु+यत्] १. वायु संबंधी। २. वायु के द्वारा बनने या होनेवाला। ३. जिसका देवता वायु हो। पुं० १. पश्चिम और उत्तर दिशाओं के बीच का कोण जिसका अधिपति वायु देवता माना गया है। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ३. दे० ‘वायु-पुराण’।
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वायव्या  : स्त्री० [सं०वायव्य+टाप्]=वायव्य (कोण)।
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वायस  : पुं० [सं०] १. अगर का पेड़। २. कौआ।
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वायसतंतु  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. हनु के दोनों जोड़। २. काल तुंडी।
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वायसी  : स्त्री० [सं० वायस+अण्+ङीष्] १. छोटी मकोय। काकमाची। २. महाज्योतिष्मती। ३. सफेद घुँघची। ४. काकजंघा। ५. महाकरंज। ६. काकतुंडी । कौआ ठोढ़ी।
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वायसेसु  : पुं० [सं० ष० त०] काँस (तृण)।
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वायु  : स्त्री०=वायु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वायु  : स्त्री० [सं०] १. वायु। हवा। विशेष–हमारे यहाँ (क) इसकी गिनती पाँच महाभूतों में की गई है और इसका गुण स्पर्श कहा गया है। (ख) इसकी एक दूसरे के ऊपर सात, तहें या परतें मानी गई है। जिनके नाम है–आवह, प्रवह, संवह, उद्वह, विवह, परिवह और परावह। २. धार्मिक क्षेत्र में एक देवता जो उक्त का अधिष्ठाता माना गया है और जिसका निवास उत्तर-पश्चिम कोण में माना गया है। ३. दर्शन में जीवनी-शक्ति या प्राणों का वह मुख्य आधार जो शरीर के अन्दर रहता है और जिसके पाँच भेद कहे गये हैं–प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। ४. वैद्यक में, उक्त का वह अंश या रूप जो शरीर के अन्दर रहता है और जिसके प्रकोप का विकार से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते है। वात।
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वायु-अपनयन  : पुं० [सं०] वायु का धूल, बालू, आदि उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। विशेष—प्रायः समुद्र तट से और शुष्क प्रदेशों से होकर बहनेवाली वायु वहाँ से अपने साथ बहुत-सी धूल, बालू आदि भी उड़ा ले जाती है जिससे कहीं तो ऊपर की मिट्टी साफ होने से नीचे का चट्टान निकल आती है और कहीं रेत के टीले बन जाते हैं। विज्ञान में वायु की यहि क्रिया वायु-अपनयन कहलाती है।
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वायु-कोण  : पुं० [सं०] वायव्य (कोण)।
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वायु-गुल्म  : पुं० [सं०] १. वायु-विकारों के कारण पेट में बनने या घूमता रहनेवाला वायु का गोला। २. बवंडर।
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वायु-छिद्र  : पुं० [सं०] भू-गर्भ शास्त्र में, समुद्र तट की चट्टानों में कहीं-कहीं पाये जानेवाले वे छिद्र जिनमें हवा भरी रहती है, और ज्वार या भाटा होने पर जिनमें से भीतरी वायु के दबाव के कारण पानी के फुहारे छूटने लगते हैं (ब्लो-होल)।
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वायु-तनय  : पुं० [सं० ष० त०]=वायु-नंदन (हनुमान्)।
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वायु-दारु  : पुं० [सं०] मेघ। बादल।
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वायु-देव  : पुं० [ब० स०] स्वाति नक्षत्र।
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वायु-नंदन  : पुं० [वायु√नंद (हर्षित करना)+ल्यु-अन] १. हनुमान। २. भीम।
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वायु-पंचक  : पुं० [ष० त०] शरीर में रहनेवाला प्राण, अपान, समान उदान और ध्यान नामक पाँचों वायुओं का समाहार।
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वायु-पथ  : पुं०=वायु-मार्ग।
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वायु-पुत्र  : पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम।
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वायु-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] अठारह मुख्य पुराणों में से एक पुराण।
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वायु-फल  : पुं० [सं०] इन्द्रधनुष।
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वायु-भक्ष्य  : पुं० [सं०] सर्प। साँप।
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वायु-भार  : पुं० [सं०] वायु-मण्डल में वायु की ऊपरी तहों का नीचेवाली तहों पर पड़नेवाला वह भार जिसके कारण नीचे की वायु घनी और भारी होती है। (एटमास्फेरिक प्रेशर)। विशेष–हमारे धरातल पर प्रति वर्ग इंच प्रायः १४॥ पौंड भार रहता है।
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वायु-भार-मापक  : पुं० [सं०] वह यंत्र जिससे किसी स्थान या वातावरण के घटने या बढ़नेवाले ताप-क्रम का पता चलता है। (बैरोमीटर)।
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वायु-मंडल  : पुं० [सं०] १. वह गोलाकार वाष्पीय आवरण जो हमारी पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। (एटमाँस्फियर) २. दे० ‘वातावरण’।
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वायु-मरुत्  : स्त्री० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक प्राचीन लिपि।
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वायु-मार्ग  : पुं० [सं०] आकाश या वायु में के वे निश्चित मार्ग जिनसे होकर हवाई जहाज आदि एक देश से या स्थान से दूसरे देश या स्थान को जाते हैं। (एयर रूट)।
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वायु-मिति  : स्त्री० [सं०] वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वायु में कितनी शुद्धता है। (यूडिओमेट्री)।
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वायु-यान  : पुं० [मध्य० स०] हवा में उड़नेवाला मनुष्य निर्मित यान। हवाई जहाज।
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वायु-लोक  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक लोक। २. आकाश।
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वायु-वलन  : पुं० दे० ‘वातानुकूलन’।
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वायु-वाहन  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। २. शिव। ३. धूआँ।
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वायु-संवलन  : पुं० [सं० ब० स०] [वि० वायु-संवलित] दे० ‘वातानुकूलन’।
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वायु-संवलित  : भू० कृ० [सं०] दे० ‘वातानुकूलित’।
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वायु-सुख  : पुं० [सं०] अग्नि। आग।
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वायु-सेना  : स्त्री० [सं०] सेना का वह विभाग जो वायुयानों से शत्रु-पक्ष पर गोले आदि फेंकता है।
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वायु-सेवन  : पुं० [सं०] स्वास्थ्य रक्षा के लिए खुली हवा में घूमना-फिरना उठना-बैठना या रहना।
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वायु-सेवा  : स्त्री० [फा०] वायुयानों के द्वारा की जानेवाली कोई सार्वजनिक सेवा। जैसे– वायुयान द्वारा यात्री या डाक लाने ले जाने का काम।
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वायु-स्नान  : पुं० [सं०] स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए नंगे बदन होकर खुली हवा में कुछ देर तक इस प्रकार रहना कि शरीर के सब अंगों में अच्छी तरह हवा लगे। एयर बाथ।
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वायुगंड  : पुं० [तृ० त०] १. अजीर्ण नामक रोग। २. पेट अफरने का रोग। अफरा।
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वायुमंडल-विज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पृथ्वी के वायु-मंडल की क्या-क्या विशेषताएं हैं, उसमें कैसे-कैसे वाष्प है, और ऊपर की ओर उसका विस्तार कहाँ तक और कैसा है। (एयरॉलोजी)।
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वायुमापी  : पुं० [सं०] वह यंत्र जो वायु मिति के द्वारा वायु की शुद्धि और उसमें होनेवाले आक्सीजन का मान या माप बतलाता है (यूडिओमीटर)।
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वार  : पुं० [सं०√वृ+घञ्] १. द्वार। दरवाजा। २. अवरोध। रुकावट। ३. आवरण। ढक्कन। ४. नियत काल या समय। ५. किसी काम या बात की पुनरावृत्ति का आनेवाला अवसर। दफा। बार। बारी। (दे० ‘बार’) ६. सप्ताह के दिनों के नामों के अन्त में लगनेवाला कालावधिक सूचक शब्द। जैसे–रविवार, सोमवार आदि। ७. क्षण। ८. कुंज नामक वृक्ष। ९. शराब पीने का प्याला। १॰. तीर। बाण। ११. जलाशय का किनारा। कूल। तट। १२. विशेष रूप से जलाशय का वह किनारा जो वक्ता की ओर हो। उदाहरण-पार कहे उत वार है और कहे उतपार। इसी किनारे बैठ रह, वार यहि पार। पद—वार-पार, वारापार (देखें स्वतंत्र शब्द)। अव्य० और। तरफ। पुं० [सं० बार=दांव, बारी] आक्रमण आदि के समय किया जानेवाला आघात। प्रहार। जैसे–तलवार या लाठी से वार करना। मुहावरा–वार खाली जाना= (क) प्रहार, निशाने आदि में चूक होना। (ख) युक्ति निष्फल होना। प्रत्य० [फा०] क्रम से। क्रमात्। जैसे–तफसीलवार, नामवार,ब्योरेवार। प्रत्यय०=वाला। जैसे–करनवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वार-कन्या  : स्त्री० [सं०] वेश्या रंडी।
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वार-तिय  : स्त्री० [सं० वार+स्त्री] वेश्या।
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वार-पार  : पुं० [सं० अवर-पार] १. इस पार के और उस पार के दोनों, किनारे या सिरे। जैसे–बाढ़ का पानी चारों ओर इतनी दूर तक फैल गया था कि कहीं उसका वार-पार नहीं दिखाई देता था। २. पूरा या समूचा। विस्तार। अव्य इस किनारे,छोर या सिरे से उस किनारे छोर या सिरे तक। वार-पार। जैसे– तीर हिरन के वार-पार कर गया।
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वार-फेर  : पुं०=वारा-फेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वार-बाण  : पुं० [सं०] कंचुक की तरह का, पर उससे कुछ छोटा एक पुराना पहनावा जो युद्ध के समय पहना जाता था।
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वार-वधू  : स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
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वारंक  : पुं० [सं०√वृ+अंकन्] पक्षी।
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वारक  : वि० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. वारण अर्थात् निषेध करनेवाला। २. रूकावट डालनेवाला। प्रतिबंधक। पुं०१. घोड़ा। २. घोड़े का कदम। ३. ऐसा समय या स्थान जहाँ कोई कष्ट या पीड़ा हो। ४. बाधा या अवसर या स्थान। ५. एक प्रकार का सुगंधित तृण।
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वारकी  : पुं० [सं० वारक+इनि] १. प्रतिवादी। २. शत्रु। ३. समुद्र। ४. ऐसा तपस्वी जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। पर्णाशी। यती।
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वारकीर  : पुं० [सं० स० त०] १. किसी की पत्नी का भाई। साला। २. द्वारपाल। ३. बाड़वाग्नि। बड़वानल। ४. जूँ नाम का कीड़ा। ५. कंघी। ६. लड़ाई में सवार के काम आनेवाला घोड़ा।
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वारंग  : पुं० [सं०√वृ+अंगच्] १. तलवार की मूठ। २. प्राचीन वैद्यक में एक प्रकार का अस्त्र।
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वारगह  : पुं० [सं० वारि+गृह, मि० फा० बारगाह] १. तंबू। खेमा। २. दे० ‘बारगाह’। पुं० [सं० वारण+गृह] हाथियों के बाँधने का स्थान। उदाहरण-बंधण दधि कि वारगह।–प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वारज  : पुं० [सं०] [भू० कृ० वारित] १. अनिष्ट या अनुचित कार्य आदि के सम्बन्ध में होनेवाली निषेधात्मक आज्ञा, आदेश या सूचना। निषेध। मनाही। २. अनिष्ट आदि को दूर रखने या उनसे बचने के लिए किया जाने वाला उपाय या कार्य। ३. आपत्तिजनक या दूषित प्रकाशनों आदि का प्रचार रोकने के लिए राज्य या शासन की ओर से होनेवाली निषेधात्मक आज्ञा या व्यवस्था। (स्क्रेप्शन)। ४. बाधा। रुकावट। ५. शरीर को अस्त्रों आदि से आघात से बचानेवाला। कवच। बकतर। ६. हाथी को वश में रखनेवाला अंकुश। ७. सम्भवतः इसी आधार पर हाथी की संज्ञा। ८. छप्पय छन्द का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में कुछ आचार्यों के मत से ४१ गुरु और ७॰ लगु तथा कुछ आचार्यों के मत से ४१ गुरु और ६६ लघु मात्रा होती है। ९. हरताल। १॰. कला शीशम। ११. सफेद कोरैया।
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वारंट  : पुं० [अं०] १. आज्ञा-पत्र। २. विधिक क्षेत्र में न्यायालय का ऐसा आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी राजकीय कर्मचारी को कोई ऐसा काम करने का आदेश होता है जो साधारण स्थिति में वह न कर सकता हो। जैसे– गिरिफ्तारी या तलाशी का वारंट। ३. लोकव्यवहार में किसी की गिरफ्तारी के लिए निकलनेवाला आज्ञा-पत्र।
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वारणावत  : पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर जिसमें दुर्योधन के पांडवों के लिए लाक्षागृह बनवाया था।
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वारणिक  : वि० [सं०] १. वारण-संबंधी। २. (उपाय या कार्य) जो अनिष्ट, क्षति, हानि आदि से बचने अथवा अपने हित-साधन के विचार से पहले किया जाय प्रिकाशनरी।
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वारणीय  : वि० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+अनीयर्] वारण करने योग्य। मनाही के लायक।
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वारद  : पुं०=वारिद (बादल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वारदात  : स्त्री० [अं० ‘वारिद’ का बहु० शुद्ध रूप वारिदात] १. घटना। २. बुरी घटना। दुर्घटना। २. चोरी डकैती मार-पीट, दंगा-फसाद आदि की आपराधिक घटना। ४. किसी प्रकार की घटना का विवरण। (मूलतः बहुवचन पर उर्दू हिन्दी में एक वचन रूप में प्रयुक्त)
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वारन  : पुं० [सं० वंदनमाल] बंदनवार। पुं० [सं० वारण] हाथी। स्त्री० [हिं० वारना] वारने की क्रिया या भाव। निछावर। बलि। पुं० [सं० वारण] परदा। उदाहरण–निरवौर वारण बिसारै पुनि द्वार हू कौ।–सेनापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वारना  : स० [सं० वारण=दूर करना] टोने-टोटके के रूप में कोई चीज किसी के सिर के चारों ओर से घुमाकर निछावर करना। मुहावरा–वारी जाऊँ=निछावर हो जाऊँ (स्त्रियाँ)। पुं० निछावर। मुहा०– (किसी पर) वारने जाना=निछावर होना।
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वारनिश  : स्त्री० [अं०] १. स्पिरिट, चपड़े, रूमी मस्तगी आदि के योग से बननेवाला एक प्रकार का घोल जो लकड़ी के सामान पर चमक लाने के लिए लगाया जाता है।
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वारयितव्य  : वि० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+तव्यत्]=वारणीय।
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वारयिता (तृ)  : पुं० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+तृच्] १. रक्षक। २. पति। वि० वरण करनेवाला।
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वारवाणि  : पुं० [सं०] १. वंशी बजानेवाला। २. अच्छा गवैया। ३. न्यायाधीश। ४. ज्योतिषी।
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वारवाणी  : स्त्री० [सं०] वेश्या।
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वारवासि, वारवास्य  : पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद जो भारत की पश्चिमी सीमा के उस पार था।
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वारस्त्री  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या रंडी।
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वारा  : वि० [सं० वारण] १. (पदार्थ) जिसके खरीदने या बेचने में कुछ अधिक बचत भी हो। २. (दर या भाव) जिस पर बेचने से लागत व्यय निकल आने के सिवा कुछ आर्थिक बचत भी हो। पुं० १. वह स्थिति जिसमें किसी निश्चित दर पर कोई चीज खरीदने या बेचने से लागत, व्यय आदि निकालने के साथ-साथ कुछ बचत भी होती है। २. फायदा। लाभ। उदाहरण–उनके बारे की कछू मोपै कही न जाइ।–रसानिधि। पुं० [हिं० वारना] चीज वारने या निछावर करने की क्रिया या भाव। पद–वारा-फेरा। मुहावरा–वारा जाना या वारा होना=किसी पर निछावर जाना या बलि होना। (बहुत अधिक प्रेम का सूचक) वारी जाना=वारा जाना (स्त्रियाँ)।
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वारा-न्यारा  : पुं० [हिं० वार+न्यारा] १. झंझट या झगड़े बखेड़े आदि का निपटारा। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी एक ओर का पूरा निर्णय या निश्चय हो जाय, या तो इधर हो जाय या उधर हो जाय जैसे–सट्टे में लाखों का वारा-न्यारा होता रहता है।
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वारा-पार  : पुं० [सं० वार+पार] १. यह पार और वह पार। २. अन्तिम या चरम सीमा। जैसे–ईश्वर की महिमा का कोई वारापार नहीं है।
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वारा-फेरा  : पुं० [हिं० वारना+फेरना] १. किसी के ऊपर से कोई चीज या कुछ द्रव्य निछावर करने की क्रिया या भाव। २. विवाह, मुंडन आदि शुभ अवसरों पर होनेवाली उक्त रस्म। ३. वह धन या पदार्थ जो उक्त प्रकार से निछावर किया जाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वारांगणा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या। रंडी।
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वाराणसी  : स्त्री० [सं०] वरुणा और अस्सी नदियों के बीच में बसी हुई तथा गंगा तट पर स्थित काशी नगरी। बनारस।
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वाराणसेय  : वि० [सं० वाराणसी+ढक्–एय] १. वाराणसी सम्बन्धी। २. वाराणसी में उत्पन्न या बना हुआ। बनारसी।
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वारांनिधि  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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वाराह  : पुं० [सं०] [स्त्री० वाराही] १. सूअर। बराह। २. विष्णु का तीसरा अवतार जो शूकर या शूअर के रूप में हुआ था। काली मैनी का वृक्ष। ३. जलाशय के किनारे होनेवाला बेंत।
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वाराहपत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] अश्वगंधा। असगंध।
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वाराही  : स्त्री० [सं० वराह+ङीष्] १. ब्रह्माणी आदि आठ मातृकाओं में से एक मातृका। २. एक योगिनी। ३. श्यामा पक्षी। ४. कँगनी नामक कदन्न। ५. वाराही कन्द।
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वाराही-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का महाकंद जो औषध में काम आता है। गृष्टि।
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वारि  : पुं० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्-इञ्, अथवा वृ+इण्] १. जल। पानी। २. कोई तरल द्रव या पदार्थ। ३. वाणी। सरस्वती। ४. हाथी बाँधने का सिक्कड़। ५. छोटा गगरा या घड़ा। ६. सुगन्ध बाला।
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वारि-केय  : पुं० [वारिका+ढक्–एय] दे० ‘जल-लेखी’।
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वारि-कोल  : पुं० [सं०] कच्छप। कछुआ।
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वारि-गर्भ  : पुं० [ब० स०] बादल। मेघ।
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वारि-चर  : वि० [सं०] पानी में रहने और चलने फिरने वाला जलचर। पुं० १. मछली आदि जीव-जन्तु जो पानी में रहते हैं। २. शंख।
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वारि-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] जहाज या यान।
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वारि-रुह  : पुं० [वारि√रुह् (उत्पन्न होना)+क] कमल।
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वारि-वर्त  : पुं० [सं० वारि+आवर्त] मेघ। बादल।
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वारि-वास  : पुं० [सं०] मद्य के निर्माण या व्यापारी।
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वारि-वाह  : पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. नागर मोथा।
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वारि-वाहन  : पुं० [ष० त०] मेघ। बादल।
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वारि-शास्त्र  : पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष का वह अंग जिससे यह जाना जाता है कि कब, कहाँ और कितनी वर्षा होगी। २. दे० ‘वारिकेय’।
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वारिकफ  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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वारिज  : वि० [सं०] जल में या जल से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. कमल। २. मछली। ३. शंख। ४. घोंघा। ५. कौड़ी। ६. खरा और बढ़िया सोना। ७. द्रोणी लवण।
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वारिजात  : वि० पुं० [सं०]=वारिज।
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वारित  : भू० कृ० [सं०] जिसका वारण किया गया या हुआ हो। मना किया हुआ।
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वारित्र  : पुं० [सं० वारि√त्रा (रक्षा करना)+ड] अविहित या निन्दनीय आचरण।
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वारिद  : पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। २. नागर मोथा। वि० [अ०] जो आकर उपस्थित या घटित हुआ हो। सामने आया हुआ आगत। विशेष–वारिदात इसी का बहुवचन है जो हिन्दी में ‘वारदात’ (देखें) के रूप में प्रचलित है।
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वारिदात  : स्त्री० [अ०]=वारदात।
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वारिधर  : पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। २. नागर मोथा। ३. एक प्रकार का सम वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में रगण, नगण और दो भगण होते हैं।
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वारिधि  : पुं० [सं०] समुद्र।
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वारिनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. वरुण। २. समुद्र। ३. बादल। मेघ।
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वारिनिधि  : पुं० [सं०] समुद्र।
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वारिपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] १. जलकुंभी। २. पानी में होनेवाली काई।
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वारियंत्र  : पुं० [सं०] फुहारा।
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वारियाँ  : अव्य० [हिं० वारना] मैं तुम पर निछावर हूँ (स्त्रियाँ)। मुहावरा– बारियाँ जाऊँ=दे० ‘वारा’ के अन्तर्गत मुहा०–‘वारी जाऊँ’। वारियाँ लेना=बार-बार निछावर होना। (विशेष दे० ‘वारना’ और ‘वारा’ के अन्तर्गत)।
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वारिस  : पुं० [अ०] १. वह जिसे किसी की विरासत मिले। २. उत्तराधिकारी। व्यापक क्षेत्र में, जिसने अपने आपको किसी दूसरे के कार्यों का संचालन करने के योग्य बना लिया हो।
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वारी  : स्त्री० [सं० वारि+ङीष्] १. हाथी के बाँधने की जंजीर या अँडुआ। गजबंधन। २. छोटा घड़ा। कलसा। वि० स्त्री० दे० ‘वारा’ के अन्तर्गत ‘वारी’ जाना आदि मुहा०।
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वारी-फेरी  : स्त्री०=वारा-फेरा।
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वारींद्र  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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वारीश  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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वारु  : पुं० [सं०√वृ (मना करना)+णिच्+उण्] वह हाथी जिस पर विजय पताका चलती है। विजय-हस्ति।
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वारुठ  : पुं० [सं० वारु+ठन्] १. मृत्यु-शय्या। २. शव ले जाने की अरथी। टिकठी।
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वारुंड  : पुं० [सं०√वृ+उण्ड] १. साँपों का राजा। २. नाव में भरा हुआ पानी बाहर फेंकने का तसला। ३. कान की मैल। खूँट। ४. आँख में निकलनेवाला कीचड़ या मल।
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वारुण  : पुं० [सं० वरुण+अण्] १. जल-पानी। २. शतभिषा नक्षत्र। ३. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ४. हरताल। ५. एक उप-पुराण। ६. वरुण या बरुना नामक वृक्ष। वि० १. वरुण संबंधी। २. जलीय। ३. पश्चिमी।
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वारुण-कर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] कूआँ तालाब, नहर आदि बनाने का काम।
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वारुणक  : पुं० [सं० वारुण+कन्] एक प्राचीन जनपद।
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वारुणि  : पुं० [सं० वरुण+इञ्] १. अगस्त्य मुनि। २. वसिष्ठ। ३. भृगु ऋषि। ४. दाँतवाला हाथी। ५. वारुण या बरुना नामक पेड़। ६. वारुणाक जनपद।
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वारुणी  : स्त्री० [सं० वरुण+अण्+ङीष्] १. वरुण की पत्नी, वरुणानी। २. वृन्दावन के एक कदंब का रस जो वरुण की कृपा से बलराम जी के लिए निकला था। ३. कदंब के फलों से बनाई जानेवाली मदिरा। ४. मदिरा। शराब। ५. उपनिषदविद्या जिसका उपेदश वरुण ने किया था। ६. पश्चिम दिशा। ७. शतभिषा नक्षत्र। ८. एक प्राचीन नदी (कदाचित् आधुनिक वरुणा)। ९. इन्द्रवारुणी लता। १॰. घोड़े की एक प्रकार की चाल। ११. मादा हाथी। हथनी। १२. भुई आँवला। १३. गाँडर दूब। १४. गंगास्नान का एक पुण्य पर्व या योग जो चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को शतभिषा नक्षत्र पड़ने पर होता है।
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वारुणी वल्लभा  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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वारुणीश  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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वारुण्य  : वि० [सं० वरुण+ण्य, अथवा वारुणी+यत्] वरुण-संबंधी। वारुण।
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वारुद  : पुं० [सं० वारु√दा (देना)+क] अग्नि। आग।
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वार्कजंभ  : पुं० [सं० वृकजंभ+अण्] १. वृकजंभ ऋषि के गोत्रज। २. एक साग का नाम।
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वार्क्ष  : वि० [सं० वृक्ष+अण्] वृक्ष संबंधी। वृक्ष का। पुं० वृक्षों की छाल से बना हुआ कपड़ा।
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वार्क्षी  : स्त्री० [सं० वार्क्ष+ङीष्] प्रचेतागण की स्त्री मारिषा का दूसरा नाम।
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वार्ड  : पुं० [अं०] १. रक्षा। हिफाजत। २. वह व्यक्ति जो किसी की रक्षा या हिफाजत में रहता हो। ३. किसी विशिष्ट कार्य के लिए स्थानों का निश्चित किया हुआ विभाग। मंडल। जैसे– (क) इस नगर पालिका में १२ वार्ड हैं। (ख) इस अस्पताल में यक्ष्मा के रोगियों के लिए अलग वार्ड बनेगा।
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वार्डन  : पुं० [अं०] किसी विभाग विशेषतः छात्रावास के किसी विभाग का व्यवस्थापक आधिकारी।
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वार्डर  : पुं० [अं०] १. वह जो किसी वार्ड (मंडल) में रक्षा का काम करता हो। २. जेलों में कैदियों का पहरेदार।
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वार्णक  : पुं० [सं० वर्णक+अण्] लेखक।
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वार्णव  : पुं० [सं०] [वर्णनद से वर्णु+अण्] आधुनिक बन्नू नगर और उसके आसपास के प्रदेश का पुराना नाम।
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वार्णिक  : पुं० [सं० वर्ण+ठञ्-इक] लेखक।
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वार्त  : वि० पुं०=वार्त्त।
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वार्तक  : पुं० [सं० वार्त+कन्] वटेर पक्षी।
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वार्तमानिक  : वि० [सं० वर्तमान+ठक्-इक] १. वर्तमान (काल) से सम्बन्ध रखनेवाला। आजकल का २. जो वर्तमान (उपस्थित या विद्यमान) से सम्बन्ध रखता हो।
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वार्ता  : स्त्री० [सं०] १. बात-चीत। २. ऐसा कथन या बात जो केवल औपचारिक रूप से कही गई हो। पर जिसका व्यावहारिक रूप में सदा उपयोग न होता हो। (फारमल टाक)। ३. ऐसा कथन जो किसी को किसी विषय का ज्ञान कराने लिए हो। (टाक) ४. किवदन्ती। जनश्रुति। अफवाह। ५. खबर। समाचार। ६. वृत्तान्त। हाल। ७. बातचीत का प्रसंग या विषय। ८. वैश्यों की वृत्ति। जैसे–कृषि गो-रक्षा, वाणिज्य-व्यापार आदि। ९. चीजें खरीदना और बेचना। क्रय-विक्रय। १॰. दुर्ग का एक नाम।
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वार्तालाप  : पुं० [सं० ष० त०] लोगों में आपस में होनेवाली बात-चीत। कथोपथन।
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वार्तिक  : वि० [वृत्ति+ठक्-इक] १. वार्ता संबंधी। २. वार्ता या समाचार लानेवाला। ३. विशद व्याख्या के रूप में होनेवाला। व्याख्यात्मक। पुं० १. किसान। २. व्यवसायी। ३. दूत चर। ४. वैद्य। ५. ऐसी विश्लेषणात्मक व्याख्या जिसमें किसी सूत्र, भाष्य आदि का अर्थ समझाया जाता है उसमें होनेवाली छूट, त्रुटि आदि का निर्देश किया जाता है तथा उसकी व्याप्ति मर्यादित या वर्द्धित की जाती है। ६. कात्यायन का वह प्रसिद्ध ग्रंथ जिसमें पाणिनी के सूत्रों पर विश्लेषणात्मक व्याख्याएँ लिखी हुई है।
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वार्त्त  : वि० [वृत्ति+अण्] १. वृत्ति-सम्बन्धी। वृत्ति का। २. नीरोग। स्वस्थ। ३. हल्का। ४. निस्सार। ५. साधारण। ६. ठीक। पुं० वह जो किसी वृत्ति (काम, धन्धे या पेशे) में लगा हो। वह जो रोजी-रोजगार में लगा हुआ हो।
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वार्त्ताक  : पुं० [सं०] १. बैगन। भंटा। २. बटेर पक्षी।
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वार्त्ताकी  : स्त्री० [सं० वार्ताक+ङीष्] बैंगन। भंटा।
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वार्त्तानुकर्षक  : पुं० [सं० ष० त०] गुप्त बातें ढूँढ़ कर जानने या निकालने वाला, अर्थात् गुप्तचर। जासूस।
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वार्त्तानुजीवी (विन्)  : वि० [सं० ष० त०] कृषि या व्यापार से जीविका चलानेवाला।
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वार्त्तायन  : पुं० [सं० ब० स०] दे० ‘राजपत्र’।
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वार्त्तावह  : पुं० [सं० वार्ता√वह् (ढोना)+अच्] १. पनसारी। २. दूत। ३. राजकीय शासन का आय-व्यय आदि से सम्बन्ध रखनेवाला अंग या विभाग।
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वार्दर  : पुं० [वार√दृ (फाड़ना)+अप्] १. दक्षिणावर्त्त शंख। २. जल। ३. आम की गुठली। ४. रेशम। ५. घोड़े के गले पर दाहिनी ओर की एक भौंरी।
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वार्द्धक्य  : पुं० [सं० वृद्ध+ष्यञ्, कुक्] १. वृद्ध होने की अवस्था या भाव। वृद्धावस्था। २. वृद्धावस्था के फलस्वरूप होनेवाली कमजोरी। ३. वृद्धि।
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वार्ध्रीणस  : पुं० [सं० वार्द्धी नासिका+अच्, नस-आदेश, णत्व, ब० स०] १. लंबे कानोंवाला बकरा। २. गेड़ा। ३. एक प्रकार का पक्षी जिसका बलिदान प्राचीन काल में विष्णु उद्देश्य से किया जाता था।
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वार्मुच  : पुं० [सं० वार्√मुच् (त्याग)+क्विप्] १. बादल। २. मोथा।
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वार्य  : वि० [सं०] १. वरण करने योग्य। २. वर के रूप में प्राप्त या स्वीकार करने योग्य। ३. बहुमूल्य। वि०=निवार्य। पुं० १. वर। २. चहारदीवारी।
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वार्ष  : वि० [सं०]=वार्षिक।
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वार्षक  : पुं० [सं० वर्ष+अण्+कन्] पुराणानुसार पृथ्वी के दस भागों में से एक।
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वार्षगण  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वैदिक आचार्य।
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वार्षिक  : वि० [सं० वर्षा+ठक्-इक] १. जल की वर्षा या वर्षा ऋतु से संबंध रखनेवाला। २. प्रति वर्ष होनेवाला। एक वर्ष के बाद होनेवाला। ३. एक वर्ष तक चलता रहनेवाला। अव्यय प्रति वर्ष के हिसाब से।
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वार्षिकी  : स्त्री० [सं० वार्षिक] १. प्रति वर्ष दी जानेवाली वृत्ति या अनुदान। (एनुइटी) २. प्रतिवर्ष होनेवाला कोई प्रकाशन। (एनुअल) ३. किसी मृत व्यक्ति के उद्देश्य से उसकी मरणतिथि के विचार से प्रतिवर्ष होनेवाला कोई स्मारक कृत्य। बरसी।
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वार्षिक्य  : वि० [सं० वार्षिक+यत्]=वार्षिक। पुं० वर्षा ऋतु।
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वार्षी  : स्त्री० [सं० वर्षा+अण्+ङीष्] वर्षा ऋतु।
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वार्षुक  : वि० [सं० वर्षुक+अण्] १. बरसनेवाला। २. बरसानेवाला।
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वार्ष्ण  : पुं० [सं० वृष्णि+अण्] कृष्णचन्द्र।
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वार्ष्णेय  : वि० [सं० वृष्णि+ढक्-एय] १. वार्ष्ण सम्बन्धी। २. वार्ष्ण का अनुयायी या भक्त। पुं० १. वृष्णि का वंशज। २. श्रीकृष्ण।
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वार्हस्पत्य  : वि० [सं० वृहस्पति+य़ञ्]=बार्हस्पत्य।
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वाल  : पुं० [√वल् (चलना)+घञ्] (घोड़ों आदि की) पूँछ के बाल। प्रत्यय। [हिं० वाला] एक प्रत्यय जो कुछ संज्ञाओं के अन्त में लगकर यह अर्थ देता है— (क) वाला या मालिक जैसे कोठीवाल। (ख) रहनेवाला, जैसे—गयावाल। (ग) क्रिया करनेवाला, जैसे—देवाल=देने-वाला, लेवाल=लेनेवाला।
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वालक  : पुं० [सं० वाल+कन्] १. बालछड़। २. हाथ में पहनने का कंगन।
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वालंटियर  : पुं० [अं०] स्वयंसेवक।
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वालदैन  : पुं० [अ० वालिदैन] माता-पिता।
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वालना  : स० [?] गिराना। डालना। (राज०) उदाहरण—काजल गल वालियौ किरि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वालव  : पुं० [सं० वाल√वा (गमनादि)+क] फलित ज्योतिष में एक करण।
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वाला  : स्त्री० [सं० वाल+टाप्] इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के मेल से बने हुए उपजाति नामक सोलह प्रकार के वृत्तों में से एक, जिसके पहले तीन चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं तथा चौथे चरण में और सब वही रहता है, वल प्रथम वर्ण लघु होता है। प्रत्यय० [सं० वान्] [स्त्री० वाली] १. पूर्ववर्त्ती पद (संज्ञा) के स्वामी या धारक का बोधक। जैसे—घरवाला, चश्मेवाला। २. पूर्ववर्ती पद (क्रिया) के संपादक का बोधक। जैसे—नाचने-वाला, मारनेवाला। ३. पूर्ववर्ती पद (स्थान वाचक संज्ञा) से संबंध रखनेवाला। जैसे— शहरवाला, देहातीवाली जमीन। ४. पूर्ववर्तीपद (उपभोग्य वस्तु) के उपभोग से सम्बन्ध रखनेवाला। (पश्चिम) जैसे—खानेवाली मिठाई=खाने की मिठाई। वि० [फा०] उच्च। ऊँचा।
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वालिका  : स्त्री० [सं० वाल+कन्+टाप्, इत्व] १. =बालिका। २. =बालुका।
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वालिद  : पुं० [अ०] [स्त्री० वालिदा, भाव० वल्दियत] पिता। बाप।
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वालिदा  : स्त्री० [अं० वालिदः] माता। माँ।
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वालिदैन  : पुं० [अं०] माँ-बाप। माता-पिता।
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वाली (लिन्)  : पुं० [सं० वाहिहंसा (तृ), वालि√हन् (मारना)+तृच्, ष० त०] सुग्रीव का बड़ा भाई एक वानर। प्रत्यय० हिं० वाला का स्त्री। पुं० [अं०] १. मालिक। स्वामी। २. बादशाह। ३. सहायक। मददगार। ४. संरक्षक।
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वालुक  : स्त्री० [सं०] १. वृक्ष की शाखा। डाल। २. ककड़ी। ३. वालुका। बालू।
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वालेय  : पुं० [सं० वालि+ढञ्-एय] १. पुत्र। बेटा। २. एक प्रकार का करंज। ३. गधा।
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वाल्क  : वि० [सं० वल्क+अण्] वल्कल या छाल संबंधी। पुं० वृक्षों की छाल या उसके रेशों से बना हुआ कपड़ा।
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वाल्कल  : वि० [सं० वल्कल+अण्] वल्कल संबंधी। छाल का।
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वाल्मीकि  : पुं० [सं० वल्मीक+इञ्] संस्कृत भाषा के आदि कवि तथा रामायण के रचयिता।
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वाल्मीकीय  : वि० [सं० वाल्मीकि+छ-ईय] १. वाल्मीकि सम्बन्धी। वाल्मीकि का। २. वाल्मीकि-कृत।
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वाल्हा  : पुं०=वल्लभ (राज०)।
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वावदूक  : पुं० [सं०√वद् (बोलना)+यङ्, दीर्घ, ऊक्] १. अच्छा बोलनेवाला। वक्ता। वाग्मी। २. बकवादी।
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वावना  : अ० [सं०वाद्य] बजना। उदाहरण-विधि सहित बधावे वाजित्र वावे।—प्रिथीराज। स०=बजाना।
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वावू  : स्त्री०=वायु (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वावैला  : पुं० [अं०] १. रोना-पीटना। विलाप। २. शोर-गुल। हो-हल्ला। क्रि० प्र०—मचाना।
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वांश  : वि० [सं० वंश+अण्] १. वंश संबंधी। वंश का। २. बाँस संबंधी।
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वाशक  : वि० [सं० वा√शा (पतला करना)+ण्वुल-अक] १. चिल्लाने वाला। २. रोनेवाला। पुं०=वासक (अडूसा)।
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वाशन  : पुं० [सं० वा√शा (छीलना)+ल्युट-अन] १. पक्षियों का बोलना। २. मक्खियों का भिनभिनाना। ३. चिल्लाना।
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वांशिक  : पुं० [सं० वंश+ठक्-इक] १. बांस काटनेवाला। २. वंशी अर्थात् बाँसुरी बनानेवाला।
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वाशित  : पुं० [सं०√वाश् (शक करना)+क्त, इत्व] पशु, पक्षी आदि का शब्द।
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वाशिता  : स्त्री० [सं० वाशित+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी।
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वाशिष्ठ  : पुं० [वशिष्ठ+अण्] १. एक उपपुराण का नाम। २. एक प्राचीन तीर्थ। वि० वशिष्ठ संबंधी।
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वाशिष्ठी  : स्त्री० [सं० वाशिष्ठ+ङीप्] गोमदी नदी।
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वांशी  : स्त्री० [सं० वाँस+ङीष्] वंसलोचन।
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वाष्कल  : वि० [सं० वष्कल+अण्] बड़ा। पुं० योद्धा।
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वाष्प  : पुं० [सं०] १. भाप। २. आँसू। ३. लोहा। ४. भटकटैया।
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वाष्प-स्नान  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट प्रकार के रोगों की चिकित्सा के लिए ऐसी स्थिति में रहना कि सारे शरीर या पीड़ित अंग पर खौलते हुए पानी की भाप लगे। (एयर बाथ)।
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वाष्पन  : पुं० [सं०] ताप की सहायता से तरल पदार्थ को वाष्प के रूप में परिणत करना। वाष्प बनाना। (वेपोराइज़ेशन)
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वाष्पशील  : वि० [सं०] [भाव० वाष्पशीलता] (पदार्थ) जो कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में वाष्प बनकर उड़ता हुआ समाप्त हो सकता हो (वोलेटाइल)।
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वास  : पुं० [सं० वस्+घञ्] १. किसी स्थान पर टिक कर रहना। अवस्थान। निवास। जैसे— कल्पवास, कारावास, स्वर्गवास आदि। २. घर। मकान। ३. अडूसा। वासक। ४. गंध। बू। पुं० [सं० वस्त्र] कपड़ा। वस्त्र। उदाहरण—धरौ निधि नील वास उत्तर सुधारत हौ।—सेनापति।
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वास-स्थान  : पुं० [सं०] रहने की जगह। निवास-स्थान। आवास (एबोड)।
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वासक  : पुं० [सं० वास+ण्वुल्-अक] १. अडूसा। २. दिन। दिवस। ३. शालक राग का एक भेद।
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वासक-सज्जा  : स्त्री० [सं० वासक√सज्ज (तैयार होना)+णिच्+अण्+टाप्] साहित्य में वह नायिका जो स्वयं सज-संवरकर तथा घर-वार सँवारकर प्रिय की प्रतीक्षा में बैठी हुई हो।
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वासग  : वि० [सं० वासक] बसानेवाला। पुं०=वासुकि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासगृह  : पुं० [सं०] वासभवन।
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वासंत  : पुं० [सं० वसन्त+अण्] १. कोयल। २. मलयानिल। ३. मूँगा। मैनफल। ४. ऊँट।
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वासत  : पुं० [सं०√वास् (शक करना)+अतच्] गधा।
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वासंतक  : वि० [सं० वासंत+कन् अथवा वसंत+वुञ्-अक] १. वसंत संबंधी। २. वसंत ऋतु में होनेवाला।
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वासति  : पुं० [सं० ब० स०] १. उत्तर भारत का एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी। ३. इक्ष्वाकु का एक पुत्र।
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वासंतिक  : पुं० [सं० वसन्त+ठक्—इक] १. भाँड़। २. नर्तक। वि० वसंत सम्बन्धी।
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वासंती  : स्त्री० [वासन्त+ङीष्] १. माधवीलता। २. जूही। ३. दुर्गा। ४. गनियारी। ५. मदनोत्सव। ६. एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १४-१४ वर्ण होते हैं।
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वासतेय  : वि० [सं० वसति+ढञ्-एय] बस्ती के योग्य। रहने लायक (स्थान)।
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वासंदर  : स्त्री० [सं० वैश्वानर] आग। अग्नि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासन  : पुं० [सं० वसि+ल्युट-अन] [वि० वासित] १. निवास करना। बसना। २. सुगंधित करना। वासना। ३. वसन। कपड़ा। ४. ज्ञान।
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वासना  : स्त्री० [सं०√वस् (मिलना)+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. कोई ऐसी आकांक्षा, इच्छा या कामना जो मन में दबी हुई बनी या बसी रहती हो। विशेष—शास्त्रों में कहा है कि यह किसी पूर्व संस्कार के फलस्वरूप में बनी रहती है और जब तक इसका अन्त नहीं होता, तब तक मनुष्य को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। न्याय-शास्त्र में कहा गया है कि वह एक प्रकार का मिथ्या संस्कार है, जो शरीर को आत्मा से भिन्न समझने की दशा में मन में बना रहता है। २. किसी चीज या बात की ऐसी इच्छा या वासना जिसकी पूर्ति सहज में न हो सकती हो। ३. ज्ञान। ४. दुर्गा का एक नाम। ५. अर्क की पत्नी का नाम। स०=वासना (गन्ध से युक्त करना)।
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वासभवन  : पुं० [सं०] १. रहने का घर। २. प्राचीन भारत में धवल गृह का वह ऊपरी भाग (सौध से भिन्न) जिसमें स्वयं राजा और रानियाँ रहा करती थीं २. अन्तः पुर। ३. शयनागार।
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वासर  : पुं० [सं०√वस् (निवास करना)+णिच्+अर] १. दिन। दिवस। २. वह कमरा या घर जिसमें वर-वधू की सोहागरात होती है।
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वासर-कन्यका  : स्त्री० [ष० त०] रात्रि। रात।
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वासरमणि  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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वासरिक  : वि० [सं०] १. वासर संबंधी। वासर का। २. प्रतिदिन होनेवाला। दैनिक।
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वासरेश  : पुं० [सं०] सूर्य।
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वासव  : वि० [सं०] १. वसु-संबंधी। २. इन्द्र-संबंधी। इन्द्र का। पुं० १. इन्द्र। २. धनिष्ठा। नक्षत्र।
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वासवि  : पुं० [सं०] १. इन्द्र के पुत्र जयंत। २. अर्जुन।
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वासवी  : स्त्री० [सं० वासव+ङीष्] १. व्यास की माता सत्यवती। मत्स्यगंधा। २. इन्द्राणी। शची।
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वासवेय  : पुं० [सं० वासवी+ढञ्-एय] वासवी के पुत्र, वेदव्यास।
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वासा  : स्त्री० [सं०√वस्+णिच्+अच्+टाप्] १. वासक। अडूसा। २. माधवी लता। पुं०=बासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासामात्य  : पुं० [सं० वास+अमात्य] वह राजकीय अधिकारी जो किसी पराये राज्य में वहाँ के शासन आदि पर दृष्टि रखने के लिए अमात्य के रूप में रखा जाता हो। (रेजिडेन्ट)।
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वासि  : पुं० [सं० वस+इञ्] एक प्रकार का छोटा कुल्हाड़ा या बसूला।
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वासित  : भू० कृ० [सं० वास+क्त, इत्व] १. वास अर्थात् सुगंध से युक्त सुगंधित किया या महकाया हुआ। २. कपड़े से ढका हुआ। ३. देर का बना हुआ। बासी।
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वासिता  : स्त्री० [सं० वासित+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी। ३. आर्या छन्द का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में ९ गुरु और ३९ लघु वर्ण होते हैं।
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वासिल  : वि० [अ०] १. जिसका वस्ल अर्थात् संयोग हुआ हो। २. जो वसूल अर्थात् प्राप्त हुआ हो। पद—वासिल-बाकी।
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वासिल-बाकी  : पुं० [अ+फा०] ऐसी सभी धनराशियाँ या रकमें जो या तो प्राप्य होने पर प्राप्त या वसूल हो चुकी होने अथवा अभी प्राप्त या वसूल होने को बाकी हो।
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वासिलात  : पुं० [अ० वासिल का बहु०] वे धनराशियाँ या रकमें जो वसूल हो चुकी हों।
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वासिष्ठ  : वि० [सं० वसिष्ठ+अण्] वसिष्ठ संबंधी। पुं० १. वसिष्ठ का वंशज। २. खून। लहू।
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वासिष्ठी  : स्त्री० [सं० वसिष्ठ+ङीष्] गोमती नदी।
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वासी (सिन्)  : वि० [सं० वास+इनि] रहनेवाला। बसनेवाला। जैसे—काशीवासी, मथुरावासी। स्त्री० [सं० वस+इञ+ङीष्] बढ़इयों का बसूला।
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वासु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. आत्मा। ३. परमात्मा। ४. पुनर्वसु। नक्षत्र।
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वासुकि  : पुं० [सं० वासु√कै+क+इञ्] १. आठ नाग राजाओं में से एक जो कश्यप के पुत्र माने जाते हैं तथा जिनका उपयोग समुद्र-मन्थन के समय रस्सी के रूप में किया गया था। २. एक प्राचीन देवता।
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वासुकेय  : वि० [सं०] वासुकि-सम्बन्धी। पुं०=वासुकि।
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वासुदेव  : पुं० [सं०] १. वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र। २. पीपल का पेड़।
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वासुदेव-धर्म  : पुं० [सं०] वि० पू० चौथी, पाँचवी शती का एक धार्मिक संप्रदाय जो वासुदेव या श्रीकृष्ण का उपासक था। यह ‘एकांतिक धर्म’ का विकसित रूप था।
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वासुदेवक  : पुं० [सं० वासुदेव+कन्] वासुदेव या श्रीकृष्ण के उपासक।
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वासुंधरेयी  : स्त्री० [सं० वासुन्धरेय+ङीष्] सीता।
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वासुभद्र  : पुं० [सं०] वासुदेव। श्रीकृष्णचन्द्र।
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वासुर  : पुं०=वासर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासुरा  : स्त्री० [सं० वास+उरण्+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी। ३. जमीन। भूमि। ४. रात। रात्रि।
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वासू  : स्त्री० [सं० वास+ऊ (बहु०)] नाटक में सेविका बननेवाली स्त्री के लिए संबोधन रूप में प्रयुक्त शब्द।
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वासोख्त  : पुं० [फा०] १. दिल के बहुत ही जले हुए या दुःखी रहने की अवस्था या भाव। मानसिक सन्ताप। २. उर्दू फारसी में मुसछम (षट्-पदी) के रूप में लिखा हुआ वह काव्य जिसमें प्रेमिका के उपेक्षापूर्ण दुर्व्यवहारों के कारण परम दुःखी होकर प्रेमी उसे जली-कटी बातें सुनाता और अपने दिल के फफोले फोडता है।
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वासोख्ता  : वि० [फा०] १. जला हुआ। २. दिल-जला।
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वास्कट  : स्त्री० [अ० वेस्टकोट] पाश्चात्य ढंग की बिना आस्तीन की कुरती या फतुही।
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वास्तव  : वि० [सं० वस्तु+अण्] जो वस्तु या तथ्य के रूप में हो। यथार्थ। सत्य। पुं० परमार्थ अथवा मूलतत्त्व या भूत। पद—वास्तव में=वास्तविकता यह है कि। हकीकत में।
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वास्तविक  : वि० [सं० वस्तु+ठक्-इक] [भाव० वास्तविकता] १. जो वास्तव में हो। जो अस्तित्व में हो। विशेष—यथार्थ और वास्तविक में मुख्य अन्तर यह है कि यथार्थ में उचित और न्यायसंगत होने का भाव प्रधान है और उसका अर्थ है जैसा होना चाहिए, वैसा। परन्तु वास्तविक मुख्यतः इस भाव का सूचक है कि किसी चीज या बात का प्रस्तुत या वर्तमान रूप क्या अथवा कैसा है। काल्पनिक या मिथ्या से भिन्न। (रियल)। २. (वस्तु) जो खरी तथा प्रामाणिक हो।
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वास्तविकता  : स्त्री० [सं०] १. वास्तविक होने की अवस्था या भाव। (रिएलिटी) २. ऐसी स्थिति जो सत्य हो। ३. ऐसी बात जो घटित हुई हो।
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वास्तव्य  : वि० [सं०√वस्+तव्यत्] १. निवास करने अर्थात् बसने या रहने के योग्य। (स्थान) २. निवास करने या बसनेवाला (व्यक्ति)। पुं० बसी हुई जगह बस्ती।
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वास्ता  : पुं० [अ० वास्तः] १. संबंध। लगाव। सरोकार। मुहावरा— (किसी का) वास्ता देना=किसी की शपथ देना (पश्चिम) (किसी से) वास्ता पड़ना=किसी से लेन-देन या व्यवहार स्थापित होना। २. मित्रता। ३. अवैध संबंध विशेषतः पर-स्त्री और पर-पुरुष का। ४. जरिया। द्वारा।
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वास्तु  : पुं० [सं०] १. बसने या रहने के लिए अच्छा और उपयुक्त स्थान। २. वह स्थान जिस पर रहने के लिए मकान बनाया जाय। ३. बनाकर तैयार किया हुआ घर या मकान। ४. ईंट, चूने, पत्थर, लकड़ी आदि से बनाकर तैयार की जानेवाली कोई रचना। इमारत। जैसे—कूआँ, तालाब, पुल आदि।
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वास्तु-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम।
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वास्तु-कला  : स्त्री० [सं०] वास्तु या मकान, महल आदि बनाने की कला जिसके अन्तर्गत चित्रण और तक्षण दोनों आते हैं और जो बिलकुल आरभिक तथा सब कलाओं की जननी मानी गई है। (आर्किटेक्चर)।
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वास्तु-काष्ठ  : पुं० [सं०] इमारत के काम में आनेवाली लकड़ी, अर्थात् किवाड़,चौखट,धरनें आदि बनाने के योग्य लकड़ी।
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वास्तु-पुरुष  : पुं० [सं०] वास्तु अर्थात् इमारत का या बसने योग्य स्थान का अधिष्ठाता देवता।
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वास्तु-पूजा  : स्त्री०=वास्तु-शांति।
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वास्तु-बंधन  : पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम।
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वास्तु-यान  : पुं० [सं०] वह याग जो नये घर में प्रवेश करने से पहले किया जाता है।
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वास्तु-विद्या  : स्त्री०=वास्तु-कला।
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वास्तु-वृक्ष  : पुं० [सं०] वह वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती हो।
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वास्तु-शांति  : स्त्री० [सं०] कर्मकांड संबंधी वे कृत्य जो गृह-प्रवेश से पहले वास्तु या मकान के दोष शांत करने के लिए किए जाते हैं और जिसमें वास्तु-पुरुष का पूजन प्रधान होता है।
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वास्तु-शास्त्र  : पुं० [सं०]=वास्तु-कला।
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वास्तुक  : पुं० [सं० वास्तु+कन्] १. बथुआ नाम का साग। २. पुनर्नवा। गदहपूरना।
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वास्तुप वास्तुपति  : पुं०=वास्तु-पुरुष।
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वास्तूक  : पुं० [सं० वास्तु+कन्, पृषो० दीर्घ] बथुआ (साग)।
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वास्तूपशम,वास्तूपशमन  : पुं०=वस्तु-शांति।
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वास्ते  : अव्य० [अ०] १. निमित्त। लिए। जैसे—मेरे वास्ते किताब लाना। २. सबब। हेतु। जैसे— मैं भी इसी वास्ते वहाँ गया था।
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वास्तेय  : वि० [सं० वस्ति+ढञ्-एय] १. वास्तु-संबंधी। २. बसने या रहने के योग्य। (स्थान)।
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वास्तोष्पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. इन्द्र। २. देवता। ३. वास्तुपति।
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वास्त्र  : वि० [सं० वस्त्र+अण्] १. वस्त्र-संबंधी। २. वस्त्र से बना हुआ। ३. ढका हुआ। पुं० प्राचीन भारत में वह रथ जो कपड़े से ढका होता था।
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वास्य  : वि० [सं० वास+यत्] १. (स्थान) जो बसने के योग्य हो। २. (स्थान) जो छाये जाने के योग्य हो।
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वाह  : वि० [सं०√वह् (ढोना+घञ्] १. वहन करनेवाला। २. बहनेवाला। (यौ० के अन्त में) पुं० १. वाहन। सवारी। जैसे—गाड़ी। रथ आदि। २. बोझ खींचने या ढोनेवाला पशु। जैसे— घोड़ा बैल आदि। ३. वायु हवा। ४. चार गोणी के बराबर एक पुरानी तौल। ५. बाँह। बाहु। अव्य० [फा०] १. प्रशंसा सूचक शब्द। धन्य। जैसे—वाह यह तुम्हारा की काम था। २. आश्चर्य, घृणा आदि का सूचक शब्द। जैसे—वाह यह तुम कैसी बात कहते हो। पुं० [?] एक प्रकार का रात्रिचर जन्तु जिसकी बोली प्रायः बिल्ली की बोली की तरह होती है। यह पेड़ों पर भी चढ़ सकता है और पाला भी जाता है।
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वाह-वाही  : स्त्री० [फा०] १. कोई अच्छा काम करने पर लोगों का वाह-वाह कहना। साधुवाद। २. समाज में होनेवाली प्रशंसा। क्रि० प्र०—मिलना।—लूटना।—होना।
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वाहक  : वि० [सं०√वह् (ढोना)+ण्वुल्-अक] ढोया या लादकर ले जानेवाला। पुं० १. कुली। २. सारथी। ३. एक विषैला कीड़ा।
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वाहणी  : पुं०=वाहन (डि०)।
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वाहन  : पुं० [सं०√वह् (ढोना)+ल्युट-अन, वृद्धि, निपा] १. वहन करने अर्थात् ढोने की क्रिया या भाव। २. कोई ऐसा पशु या चीज जिस पर लोग सवार होते हों। सवारी। जैसे—घोड़ा गाड़ी रथ आदि। ३. उद्योग। प्रयत्न।
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वाहनप  : पुं० [सं०] वह जो किसी प्रकार के वाहन की देख-रेख करता हो। जैसे— महावत, साईस आदि।
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वाहना  : स्त्री० [सं० वाहन+टाप्] सेना। स० १. =वाहना। २. =बाँधना।
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वाहनिक  : पुं० [सं० वाहन+ठक्-इक] वह जो भारवाहक पशुओं के पालन-पोषण वर्द्धन आदि का काम करता हो।
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वाहनीक  : पुं०=वाहनिक।
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वाहनीय  : वि० [सं०√वह (ढोना)+णिच्+अनीयर्] जो वहन किया जा सके। पुं० भारवाही पशु।
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वाहरु  : पुं०=पाहरु (पहरेदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाहला  : स्त्री० [सं० वाह+लच्+टाप्] १. धारा। स्रोत। २. प्रवाह। बहाव। ३. वाहन। पुं० १. =बादल। २. =नाला। (पानी का)। (राजा०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाहवना  : स०=वाहना (बहाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाहि  : सर्व० [हिं० वा] उसको। उसे।
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वाहिक  : पुं० [सं० वाह+ठक्-इक] १. गाडी, रथ आदि यान। २. ढक्का नाम का बाजा।
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वाहिकता  : स्त्री० [वाहिक+तल्-टाप्] वाहिक होने की अवस्था या भाव।
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वाहिकस्व  : पुं०=वाहिकता।
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वाहिका  : स्त्री० [सं०] रक्तवहन करने वाली शिरा। वाहिनी। (वेसल)
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वाहित  : भू० कृ० [सं०√वह (ढोना)+णिच्+क्त] १. जिसका वहन हुआ हो। ढोया हुआ। २. बहता हुआ। प्रवाहित। ३. चलाया हुआ। चालित। ४. वंचित।
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वाहिद  : वि० [अ०] १. एक। २. अकेला। ३. अनुपम। पुं,० ईश्वर।
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वाहिनी  : स्त्री० [सं०] १. सेना। फौज। २. प्राचीन भारतीय सेना की एक इकाई जो तीन गल्मों के योग से बनती थी। ३. आज-कल सेना का वह विशिष्ट विभाग जो किसी एक उच्च सैनिक अधिकारी के अधीन हो। (डिवीजन) ४. शरीर-विज्ञान में नली के आकार के वे सूक्ष्म आधार जो रक्त के कण एक-स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाते हैं। (वेसल) ५. नदी।
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वाहिनीपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. वाहिनी नामक सैनिक विभाग का अधिपति। २. सेनापति।
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वाहिनीय  : वि० [सं०] शरीर के अन्दर की वाहिनियों से संबंध रखनेवाला। (वैस्कयुलर)।
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वाहियात  : वि० [अ० वाही का फा० बहु] [भाव० वाहियातपन] १. (वस्तु) जो निरर्थक या व्यर्थ हो। २. (बात) जो बे-सिर पैर का अश्लील या बेहूदी हो। ३. (व्यक्ति) जो तुच्छ, दुष्टप्रकृति निकम्मा या मूर्ख हो। विशेष—यह शब्द मूलतः बहुवचन संज्ञा होने पर उर्दू और हिन्दी में विशेषण रूप में दोनों वचनों में समान रूप से प्रयुक्त होता है। जैसे—वाहियात लड़का, वाहियात बात।
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वाहियाती  : स्त्री० [फा० वाहयात] १. वाहियातपन। २. कोई वाहियात बात।
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वाही  : वि० [अ०] १. सुस्त। ढीला। २. निकम्मा। निरर्थक। उदाहरण—अजी बस जाओ भी, कुछ तुम तो बड़े वाही हो।—इन्शा०। वाहियात इसी का बहु० रूप है। ३. अश्लील गंदा और भद्दा। मुहावरा— वाही तबाही बकना= (क) अश्लील, गंदी या भद्दी बातें कहना। (ख) बे-सिर-पैर की या व्यर्थ की बातें करना। ४. मूर्ख। बेवकूफ। ५. आवारा। बेहूदा।
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वाही-तबाही  : वि० [अ० वाही+तबाही] १. आवारा। २. बेहूदा। ३. बे-सिर-पैर का। अंड-बंड। स्त्री० गन्दी और भद्दी बातें। क्रि० प्र०—बकना।
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वाहु  : स्त्री० [सं०√वाध् (नाश करना)+कु, हादेश]=बाहु।
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वाह्य  : वि० [सं०√वह्+ण्यत्] वहन किये जाने के योग्य। जिसका वहन हो सके। पुं० १. यान सवारी। २. घोड़े बैल, हाथी आदि पशु जो वहन के काम आते हैं। वि० क्रि० वि०=वाह्म। विशेष—उक्त अर्थ में ‘बाह्म’ के यौ के लिए दे० ‘बाह्म’ के यौ०।
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वाह्लिक  : वि० [सं०] वाह्लीक देश का।
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वाह्लीक  : पुं० [सं०√वह्+लिण्०+कन्] १. एक प्राचीन जनपद जो भारत की उत्तर पश्चिम सीमा पर था। गांधार के पास का प्रदेश। आधुनिक बल्ख राज्य़। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त का घोड़ा। ४. केसर। ५. हींग।
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वि  : उप० [सं०] एक उपसर्ग जो क्रियाओं तथा संज्ञाओं में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है— (क) अलगाव या पार्थक्य, वियोग। (ख) विपरीतता,जैसे—विस्मरण, विक्रय। (ग) अंशीकरण, जैसे—विभाग (घ) अन्तर, जैसे—विशेष, विलक्षण। (ड) क्रम या विन्यास, जैसे— विद्या। (च) अधिकता, जैसे—विकरालता। (छ) अनेक रूपता या विचित्रता, जैसे— विविध। (ज) निषेध या राहित्य, जैसे—विकच। (झ) परिवर्तन, जैसे—विकारा। पुं० १. अन्न। २. आकाश। ३. आँख। स्त्री० पक्षी। चिड़िया।
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वि-प्रपात  : पुं० [सं० तृ० त०] १. विशेष रूप से होनेवाला पतन। बिलकुल गिर जाना। २. ढालुआँ। पुं०=खाईं।
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वि-सदृश  : वि० [सं०] १. जो किसी विशिष्ट के सदृश न हो। भिन्न। (डिस्समिलर) २. अनोखा। विलक्षण।
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वि-सुकृत  : वि० [सं० ब० स०] जिसके कर्म अच्छे न हों। पुं० १. धर्म विरुद्ध कार्य। २. दुष्कर्म।
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वि०  : सं० विक्रम संवत् का संक्षिप्त रूप।
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विक  : पुं० [सं० ब० स०] नई ब्याई हुई गौ का दूध। वि० १. जल रहित। जल-विहीन। २. अप्रसन्न।
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विकंकट  : पुं० [सं० वि√कंक् (गमनादि)+अटन्] गोखरू।
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विकंकत  : पुं० [सं० वि√कंक् (गमनादि)+अतच्] १. एक प्रकार का जंगली वृक्ष जिसके कुछ अंग औषध के काम आते हैं, और प्राचीन काल में जिसकी लकड़ी यज्ञ में जलाई जाती थी। कटाई। किंकिणी।
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विकच  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार के धूमकेतु जिसकी संख्या ६५ कही गई है, और यह माना गया है कि इनका उदय अशुभ होता है। २. ध्वज। ३. क्षपणक। वि० १. जिसके बाल न हों। २. खिला हुआ। विकसित। ३. व्यक्त। स्पष्ट। ४. चमकता हुआ।
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विकचित  : भू० कृ० [सं०] खिला हुआ। (फूल)।
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विकच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसी नदी जिसके दोनों ओर तराई या कछार न हो।
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विकट  : वि० [सं० वि√कट् (गमनादि)+अच्] १. बहुत बड़ा। विशाल। २. भद्दा। भोंडा। ३. उग्र, तीव्र, भयंकर या भीषण। ४. टेढ़ा। वक्र। ५. कठिन। मुश्किल। ६. दुर्गम। ७. दुस्साध्य। पुं० १. विस्फोट। २. सोमलता। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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विकंटक  : पुं० [सं० ब० स०] १. जवासा। २. विंकटक।
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विकटक  : वि० [सं० विकट+कन्] जिसकी आकृति खराब हो गई हो।
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विकटा  : स्त्री० [सं० विकट+टाप्] १. बुद्ध की माता, मायादेवी। २. टेढ़े पैरों वाली लड़की जो विवाह के योग्य न हो।
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विकथा  : वि० [सं०] निरर्थक या बेहदी बात।
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विकंप  : वि० [सं० कर्म० स०] १. काँपता हुआ। २. चंचल। ३. अस्थिर।
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विकंपन  : पुं० [सं०] १. हिलना-डुलना। काँपना २. गति। चाल।
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विकर  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+अच्] १. रोग। व्याधि। २. तलवार चलाने के ३२ प्रकारों में से एक।
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विकरण  : पुं० [सं०] व्याकरण में प्रकृति या धातु और प्रत्यय के बीच में होनेवाला वर्णागम। जैसे—‘घोड़ों पर’ में का विकरण है। वि० कारण अर्थात् इन्द्रियों से रहित।
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विकरार  : वि० १.=विकराल। २.=बे-करार (विकल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विकराल  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विकरालता] भीषण आकृतिवाला। डरावना।
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विकर्ण  : वि० [सं० ब० स०] १. कर्णरहित। २. जिसके कान न हों। बिना कानोंवाला। २. जिसे सुनाई न पड़ता हो। जो सुन न सके। बहरा। ३. जिसके कान बड़े और लम्बे हों। ४. रेखा-गणित में चार या अधिक कोणोंवाले क्षेत्र में किसी कोण से उसकी ठीक विपरीत दिशावाले कोण तक पहुँचने या होनेवाला। टेढ़े या तिरछे बल में ऊपर से नीचे आने अथवा नीचे से ऊपर जानेवाला (डायगनल)। पुं० १. कर्ण का एक पुत्र। दुर्योधन का एक भाई। ३. एक प्रकार का साँप। ४. एक प्रकार का तीर या बाण। ५. रेखा—गणित में वह रेखा जो किसी चतुर्भुज को तिरछे बल से पड़नेवाले आमने-सामने के बिन्दुओं को मिलाती हुई चतुर्भुज को दो भागों में विभक्त करती है (डायगनल)।
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विकर्णक  : पुं० [सं० विकर्ण+कन्] १. एक प्रकार का गँठिवन। २. शिव का व्याडि नामक गण।
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विकर्णतः  : अव्य० [सं०] विकर्ण के रूप में। तिरछे बल में (डायगनली)।
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विकर्णिक  : पुं० [सं० विकर्ण+ठक्-इक] सरस्वती नदी के आस-पास का देश। सारस्वत प्रदेश।
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विकर्णी  : स्त्री० [सं० विकर्ण+इनि, दीर्घ, न-लोप] एक प्रकार की ईंट जिसका व्यवहार यज्ञ की वेदी बनाने में होता था।
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विकर्तन  : पुं० [सं० ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. ऐसा राजकुमार जिसने पिता के राज्य पर अनुचित रूप से अधिकार जमा लिया हो।
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विकर्म  : पुं० [सं०] १. दूषित या निषिद्ध कर्म। २. कर्म विशेषतः वृत्ति से निवृत्त होना। ३. विविध कर्म।
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विकर्मस्थ  : पुं० [विकर्म√स्था (ठहरना)+क] वह जो वेद-विरुद्ध आचरण रखता हो (धर्म-शास्त्र)।
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विकर्मिक  : वि० [सं०] १. दूषित या निसिद्ध कर्म करनेवाला। २. व्यवसाय या विविधि कामों में लगा रहनेवाला। पुं० प्राचीन काल में वह अधिकारी जो बाजारों, हाटों, मेलों आदि की व्यवस्था तथा निरीक्षण करता था।
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विकर्ष  : पुं० [सं० वि√कृष् (खींचना)+घञ्] १. बाण। तीर। २. धनुष की प्रत्यंचा खींचने की क्रिया। २. अन्तर। दूरी। फासला।
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विकर्षण  : पुं० [सं०] १. छीना-झपटी करना। २. आकर्षण। खींचना। ३. दूसरी ओर या विपरीत दिशा में खींचना। ४. खींचकर अपनी ओर लाना। लौटाना। ५. न रहने देना। नष्ट करना। ६. विभाग। हिस्सा। ७. कुश्ती का एक पेंच। ८. कामदेव के पाँच वाणों में से एक। ९. एक प्राचीन शास्त्र जिसमें लोगों को आकर्षित करने की कला का वर्णन था।
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विकल  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें कल न हो। कल से रहित। २. जिसका आराम या चैन नष्ट हो चुका हो। बेचैन। व्याकुल। ३. जिसकी कला न रह गई हो। कला से रहित या हीन। ४. जिसका कोई अंग टूट या निकल गया हो। खंडित। जैसे—विकलांग। ५. जिसमें कोई कमी हो। घटा हुआ। ६. असमर्थ। ७. क्षोभ, भय आदि से युक्त। ८. प्रभाव, शक्ति आदि से रहित। ९. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। १॰. प्राकृतिक। स्वाभाविक। पुं०=विकला।
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विकलन  : पुं० [सि√कल् (गिनती करना)+ल्यु-अन] हिसाब-किताब में किसी मद में कोई रकम किसी के नाम लिखना (डेबिट)।
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विकला  : स्त्री० [सं० विकल+टाप्] १. कला का साठवाँ अंश। २. बुध ग्रह की गति। ३. वह स्त्री जिसका रजोदर्शन बन्द हो गया हो।
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विकलांग  : वि० [सं० ब० स०] १. किसी अंग से हीन। २. जिसका कोई अंग बेकाम हो।
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विकलाना  : अ० [सं० विकल+आना (प्रत्यय)] व्याकुल होना। घबराना। बेचैन होना। स० किसी को विकल या बेचैन करना।
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विकलास  : पुं० [सं० विकलास्य] एक प्रकार का प्राचीन बाजा, जिस पर चमड़ा मढ़ा होता था।
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विकलित  : भू० कृ० [सं० वि√कल्+क्त, इत्व, अथवा विकल+इतच्] १. विकल किया हुआ। २. विकल। बेचैन। ३. दुःखी। पीड़ित।
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विकलेंद्रिय  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी इन्द्रियाँ वश में न हो। २. दे० ‘विकलांग’।
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विकल्प  : वि० [सं०] [वि० वैकल्पिक] १. ऐसी स्थिति जिमसें यह समझना या सोचना पड़ता है कि यह है या वह। २. मन में एक कल्पना उत्पन्न होने के बाद उससे मिलती-जुलती की जानेवाली दूसरी कल्पना। पहले कुछ सोचने के बाद फिर कुछ और सोचना। ३. वह अवस्था जिसमें सामने आई हुई कई बातों या विषयों में से कोई बात या विषय अपने लिए चुनने की आवश्यकता होती है। (आप्शन)। ४. सामने आये हुए दो या अधिक ऐसे कामों या बातों में से हर एक जो आवश्यक, सुभीते आदि के अनुसार काम में लाया या लिया जा सकता हो। (आल्टरनेटिव) ५. व्याकरण में किसी बात या विषय से सम्बन्ध रखनेवाले दो या अधिक नियमों, विधियों आदि में से अपनी इच्छा के अनुसार कोई नियम या विधि मानना, लगाना या लेना। ६. धोखा। भ्रम। भ्रान्ति। ७. विचित्रता। विलक्षणता। ८. योग शास्त्र में, पाँच प्रकार की चित्त-वृत्तियों में से एक जिसमें कोई चीज या बात बिना तथ्य या वास्तविकता का विचार किए ही मान ली जाती है। जैसे—चाहे पारस पत्थर होता हो या न होता हो, फिर भी यह मान लेना कि उसका स्पर्श लोहे को सोना बना देता है। ९. योगसाधन में एक प्रकार की समाधि। १॰. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिमसें दो परस्पर विरोधी बातों का उल्लेख करके कहा जाता है कि या तो यह हो या वह अथवा या तो यह होना चाहिए या वह (आल्टरनेटिव)। जैसे—पार्वती की यह प्रतिज्ञा या तो मैं शंकर से विवाह करूँगी या जन्म-भर कुँआरी रहूँगी। उदाहरण—बैर तो बढ़ायों कह्यौ काहू को न मान्यौ, अब दाँतनि तिनूका कै कृपान गहौ कर में।—मतिराम। ११. मन में विशेष रूप से की जानेवाली कोई कल्पना या विचार। निर्धारण। जैसे— दंड देने का विकल्प। १२. मन में उत्पन्न होनेवाली तरह-तरह की कल्पनाएँ। १३. कल्प का कोई छोटा अंग या विभाग। अवान्तर कल्प। १४. विचित्रता। विलक्षणता।
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विकल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विकल्पित] १. विकल्प करने की क्रिया या भाव। २. किसी बात में सन्देह करना।
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विकल्पना  : स्त्री० [सं०] १. तर्क-वितर्क करना। २. सन्देह करना।
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विकल्पसम  : पुं० [सं० ब० स०] न्याय दर्शन में २४ जातियों में से एक जिसमें वादी के दिये हुए दृष्टान्त में अन्य धर्म की योजना करते हुए साध्य में भी उसी धर्म का आरोप करके अथवा दृष्टान्त को असिद्ध ठहराकर वादी की युक्ति का निरर्थक खंडन किया जाता है। जैसे—यदि वादी कहे-‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घर की तरह उत्पत्ति धर्मवाला है।’ और इस पर प्रतिवादी कहे ‘घर जिस प्रकार उत्पत्ति धर्म से युक्त होने के कारण अनित्य और मूर्त्त है, उसी प्रकार शब्द भी उत्पत्ति धर्म से युक्त होने के कारण अनित्य और मूर्त्त है।’ तो ऐसा तर्क ‘विकल्पसम’ कहा जायगा।
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विकल्पित  : भू० कृ० [सं०] जिसके सम्बन्ध में विकल्पन (तर्क-वितर्क या सन्देह) किया गया हो। अनिश्चित और संदिग्ध। २. जो विकल्प (देखें) के रूप में ग्रहण किया गया हो। ३. जिसके सम्बन्ध में कोई निश्चय न हो। ४. जिसके सम्बन्ध में कोई नियम न हो। अनियमित।
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विकल्मष  : वि० [सं० ब० स०] कल्मष या पाप से रहित। निष्पाप।
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विकस  : पुं० [सं०वि√कस् (विकसित होना)+अच्] चंद्रमा।
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विकसन  : पुं० [सं० वि√कस् (विकसित होना)+ल्युट-अन] [वि० विकसित] १. विकास करना या होना। २. फूलों आदि का खिलना।
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विकसना  : अ० [सं० विकसन] १. विकास के रूप में लाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना। खिलना
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विकसाना  : स० [सं० विकसन] १. विकास के रूप में लाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना। खिलाना।
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विकसित  : भू० कृ० [सं० वि√कस्+क्त, इत्व] १. जिसका विकास हुआ हो या किया गया हो। २. खिला हुआ।
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विकस्वर  : वि० [सं० वि√कस्+वरच्] विकासशील। खिलनेवाला। पुं० साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय गाया जाता है जब विशेष का सामान्य द्वारा समर्थन करने के उपरान्त सामान्य का विशेष द्वारा भी समर्थन किया जाता है।
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विकांक्ष  : वि० [ब० स०] आकांक्षा से रहित।
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विकांक्षा  : स्त्री० [सं० विकांक्ष+टाप्] १. कोई आकांक्षा न होना। आकांक्षा का अभाव। २. अनिश्चय। दुविधा।
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विकाम  : वि० [सं० ब० स०] कामना से रहित। निष्काम।
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विकार  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+घञ्] १. प्रकृति, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला परिवर्तन। २. किसी चीज के आकार, गुण, रंग-रूप, स्वभाव आदि में होनेवाला परिवर्तन जिससे वह खराब हो जाय और ठीक तरह से काम देने के योग्य न रह जाय। बिगाड़। ३. वह तत्त्व या बात जिसके कारण चीज में उक्त प्रकार की खराबी या दोष आता हो। जैसे— उद्देश्य, भावना आदि में होनेवाला विकास। ४. मुख पर क्रोध, घृणा आदि के फलस्वरूप होनेवाली ऐंठन या विकृति। ५. शारीरिक कष्ट या घाव। ६. वेदान्त और सांख्य दर्शन के अनुसार किसी पदार्थ के रूप आदि का बदल जाना। परिणाम। जैसे—कंकण सोने का विकार है, क्योंकि वह सोने से ही रूपान्तरित होकर बना है। ७. निरुक्त के प्रधान चार नियमों में से एक जिसके अनुसार एक वर्ण के स्थान से दूसरा वर्ण हो जाता है।
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विकारित  : भू० कृ० [सं० वि०√कृ+णिच्+क्त] जो किसी प्रकार के विकार से युक्त किया गया हो अथवा आपसे आप हो गया हो।
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विकारी (रिन्)  : वि० [सं० वि√कृ+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. जिसमें कोई विकार उत्पन्न हुआ हो। विकार से युक्त। २. जिसमें कोई परिवर्तन हुआ हो अथवा किया गया हो। ३. जिसमें कोई विकार या परिवर्तन होता रहता हो या होने को हो। पुं० साठ संवत्सरों में से एक संवत्सर का नाम।
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विकाल  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा समय जब देव-कार्य, पितृ-कार्य आदि का समय बीत गया हो। २. सन्ध्या का समय। ३. विलम्ब। देर।
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विकालत  : स्त्री०=वकालत।
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विकालिका  : स्त्री० [सं० विकाल+कन्+टाप्, इत्व] जल-घड़ी।
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विकाश  : पुं० [सं० वि√काश् (दीप्त होना)+घञ्] १. प्रकाश। रोशनी। २. फैलाव। विस्तार। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. आकाश। वि० एकांत। निर्जन।
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विकाशक  : वि० [सं० वि√काश्+ण्वुल्—अक] विकासक।
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विकास  : पुं० [सं०] १. अपने आपको प्रकट या व्यक्त करना। २. फैलना या बढ़ना। ३. फूलों आदि का खिलना। ४. आँख, मुँह आदि का खुलना। ५. किसी चीज या बात का अस्तित्व में आकर या आरम्भ होकर फैलते या बढ़ते हुए और उन्नति की अनेक क्रमिक अवस्थाएं पार करते हुए अपनी पूरी बाढ़ तक पहुँचना। बढ़ते-बढ़ते अपना पूरा रूप धारण करना। ६. उक्त क्रिया के परिणाम-स्वरूप प्रकट होनेवाला रूप या स्थिति। ६. यह सिद्धान्त कि कोई वस्तु अपनी आरम्भिक सामान्य अवस्था से अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ती तथा फूलती-फलती हुई पूर्ण अवस्था प्राप्त करती है (इवोल्यूशन)। स्त्री० [?] दूब की तरह की एक घास जो चौपाये बहुत चाव से खाते हैं।
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विकासक  : वि० [सं० वि√कस्+ण्वुल्-अक] विकास करने अर्थात् खोलने या बढ़ानेवाला।
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विकासन  : पुं० [सं० वि√कस्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विकसित] विकास करने की क्रिया या भाव। २. खिलना। ३. खुलना। ४. फैलना।
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विकासना  : स० [सं० विकास] १. विकास करना। २. खोलकर प्रकट या व्यक्त करना। ३. खिलने में प्रवृत्त करना। अ०=विकसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकासवाद  : पुं० [ष० त०] यह सिद्धान्त कि ईश्वर से यह सृष्टि (अथवा इसका कोई अंग) इसी या प्रस्तुत रूप में नहीं उत्पन्न कर दी थी, वरन् इसका रूप प्रतिक्षण बदलता और बढ़ता जा रहा है (थियरी आँफ इवोल्यूशन)। विशेष—इस सिद्धान्त के अनुसार यह माना जाता है कि इस पृथ्वी पर प्राणियों, वनस्पतियों आदि का आरम्भ बहुत ही सूक्ष्म रूप में हुआ था, और धीरे-धीरे उनका विकास होने पर वे सब फैलते, बढ़ते और अनेक प्रकार के रूप-रंग धारण करते गये, उनकी शक्तियाँ आदि बढ़ती गई और उनके बहुत-से भेद-विभेद होते गये।
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विकासवादी  : वि० [सं०] विकासवाद संबंधी। पुं० वह जो विकासवाद का अनुयायी या ज्ञाता हो।
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विकासित  : भू० कृ० [सं० वि√कस्+णिच्+क्त] १. जिसका विकास किया गया हो। २. सामने लाया हुआ। ३. फैलाया या बढ़ाया हुआ।
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विकिर  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+क] १. पक्षी। चिड़िया। २. कूआँ। ३. विकिरण। बिखेरना। ४. बिखेरी जानेवाली वस्तु। ५. वे चावल आदि जो पूजा के समय विघ्न दूर करने के लिए चारों ओर फेंके जाते हैं। अक्षत।
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विकिरक  : वि० [सं०] जो अपनी किरणें चारों ओर फेंकता या फैलाता हो। किरणें विकीर्ण करनेवाला (रेडिएटर) पुं० कोई ऐसा पदार्थ या यंत्र जो किसी प्रकार की किरणें ताप, भाप, शीत आदि अंदर से निकालकर बाहर फैलाता या बिखेरता हो (रेडिएटर)।
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विकिरण  : पुं० [सं०] १. इधर-उधर फेंकना या फैलाना। छितराना। बिखेरना। २. किसी केन्द्र से शाखाओं आदि के रूप में निकल कर इधर-उधर फैलाना या बढ़ाना। ३. आज-कल वैज्ञानिक क्षेत्र में किसी केंन्द्र से तार, प्रकाश कि किरणों अथवा किसी प्रकार की ऊर्जा को निकल-कर इधर-उधर या चारों ओर फैलाना। (रेडिएशन) ४. चीरना-फाड़ना। ५. हत्या करना। मार डालना। ६. ज्ञान। ७. मदार का पौधा। आक।
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विकिरण-मापी  : पुं० [सं०] वह यंत्र जिसकी सहायता से तपे हुए पदार्थों में से निकलनेवाली ताप-रश्मियों का परिमाण या शक्ति जानी या नापी जाती है। (रेडियो मीटर)।
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विकिरण-विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विचार और विवेचन होता है कि अनेक पदार्थों में से किरणें कैसे निकलती है और उनके क्या-क्या उपयोग, प्रकार या स्वरूप होते हैं (रेडियोलोजी)।
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विकिरणता  : स्त्री० [सं०] १. वह स्थिति जिसमें किसी चीज की किरणें निकलकर किसी ओर फैलती हैं। २. आधुनिक विज्ञान में वह स्थिति जिसमें अणु-बमों आदि के विस्फोट के कारण विषाक्त किरणें निकलकर चारों ओर फैलती और वातावरण दूषित करके जीव, जन्तुओं वनस्पतियों आदि को बहुत हानि पहुँचाती है (रेडियो-एक्टिविटी)।
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विकीरना  : स० [सं० विकीर्ण] १. फैलाना। २. चारों ओर छितराना या बिखेरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√कृ (फेंकना)+क्त] १. चारों ओर फैलाया या छितराया हुआ। २. खुले बिखरे या उलझे हुए (बाल)। ३. प्रसिद्ध। मशहूर। पुं० संस्कृत व्याकरण में स्वरों के उच्चारण में होनेवाला एक दोष।
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विकुंक्षि  : पुं० [सं० विकुक्ष+इनि] अयोध्या के राजा कुशि के पुत्र का नाम। वि० जिसका पेट फूला हुआ और बड़ा हो। तोंदवाला।
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विकुंचन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विकुंचित] १. सिकुंड़ना। २. मुडऩा।
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विकुंज  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जाति।
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विकुंठ  : वि० [सं०] १. तेज और नुकीला। २. अत्यधिक भुथरा। पुं०=बैकुंठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकुंठा  : स्त्री० [सं० विकुंठ+टाप्] १. मन का केन्द्रीकरण। मन को एकाग्र करना। २. विष्णु की माता।
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विकृत  : भू० कृ० [सं० वि०√कृ (करना)+क्त] [भाव० विकृति] १. जिसमें किसी प्रकार का विकार आ गया हो। २. जिसका आकार या रूप बिगड़ गया हो। बेडौल। ३. असाधारण। ४. अधूरा। अपूर्ण। ५. अराजक। विद्रोही। ६. बीमार। रोगी। ७. उद्विग्न। ८. अप्राकृतिक। पुं० १. दूसरे प्रजापति का नाम। २. साठ संवत्सरों में से चौबीसवाँ संवत्सर। ३. बीमारी। रोद। ४. विरक्ति। ५. गर्भपात।
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विकृत-दृष्टि  : पुं० [सं० ब० स०] ऐंचा-ताना।
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विकृत-स्वर  : पुं० [सं०] संगीत में, वह स्वर जो अपने निवास स्थान से हट कर दूसरी श्रुतियों पर जाकर ठहरता है। इसके १२ प्रकार या भेद कहे गये है।
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विकृता  : स्त्री० [सं० विकृत+टाप्] एक योगिनी का नाम।
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विकृति  : स्त्री० [सं० वि√कृ (करना)+क्तिन्] १. विकृत होने की अवस्था या भाव। २. खराबी। विकार। ३. वह रूप जो विकार के उपरान्त प्राप्त हो। बिगड़ा हुआ। ४. बीमारी। रोग। परिवर्तन। ५. मन में होनेवाला क्षोभ। ६. काम-वासना। ७. वैर। शत्रुता। ८. धार्मिक क्षेत्र में माया का एक नाम। ९. पिंगल में २३ वर्णों वाले छंदों की संज्ञा। १॰. सांख्य के अनुसार मूल-प्रकृति का वह रूप जो उसमें विकार आने पर होता है। विकार। परिणाम। ११. व्याकरण में शब्द का वह रूप जो उसको मूल धातु से विकृत होने पर प्राप्त होता है।
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विकृति-विज्ञान  : पुं० [सं०] चिकित्सा-शास्त्र और दैहिकी का वह अंग या विभाग जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि शरीर में किस प्रकार के विकार होने से कौन-कौन से रोग होते हैं। रोग-विज्ञान। (पैथालोजी)।
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विकृतिवेत्ता  : पुं० [सं०] वह जो विकृति-विज्ञान का ज्ञाता हो। (पैथॉलोजिस्ट)।
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विकृतीकरण  : पुं० [सं०] किसी की आकृति अथवा कृति के कुछ अंगों को छोटा-बड़ा करके इस उद्देश्य से उसे विकृत करना कि लोग उसे देखकर अनायास हँस पड़े। (केरिकेचर)।
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विकृष्ट  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] [भाव० विकृष्टि] १. खींचा हुआ। २. खींच या निकाल कर अलग किया हुआ। ३. फैलाया या बढ़ाया हुआ। ४. ध्वनि के रूप में आया या लाया हुआ।
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विकृष्टि  : स्त्री० [सं०] विकृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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विकेट  : पुं० [अ०] १. क्रिकेट के खेल में वे डंडे जिन पर गुल्लियाँ रखी जाती हैं। यष्टि। २. बल्लेबाज। जैसे— तीन विकेट गिर चुके हैं। ३. दोनों ओर की विकटों के बीच की जगह।
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विकेंद्रण  : पुं० [सं०] विकेंद्रीकरण (दे०)।
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विकेंद्रीकरण  : पुं० [सं०] १. केन्द्र से हटाकर दूर करना। २. राजनीतिक क्षेत्र में,शक्ति या सत्ता का एक केन्द्र या स्थान में निहित न होकर अनेक केन्द्रों या स्थानों में थोड़े-थोड़े अंशों में निहित होना (डिसेन्ट्रलाइज़ेशन)।
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विकेश  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विकेशी] १. जिसके सिर के बाल खुले हों। २. जिसके सिर पर बाल न हों। गंजा। पुं० १. एक प्रकार का प्रेत २. पुच्छल तारा।
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विकेशी  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी स्त्री जिसके सिर के बाल खुले हों। २. गंजे सिरवाली स्त्री। ३. मही (पृथ्वी) के रूप में शिव की पत्नी का नाम। ४. एक प्रकार की पूतना।
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विकोष  : वि० [सं० ब० स०] १. कोष या म्यान से निकला हुआ (शस्त्र) २. खुला हुआ। अनाच्छादित। ३. जिस पर भूसी, छिलका आदि न हो।
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विक्टोरिया  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार की घोड़ा-गाड़ी जो देखने में प्रायः फिटन से मिलती-जुलती होती है। पुं० एक छोटा ग्रह जिसका पता सन् १८५॰ में हैंड नामक एक पाश्चात्य ज्योतिषी ने लगाया था।
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विक्रम  : पुं० [सं० वि√क्रम (चलना आदि)+अच्] १. विपरीत गति। ‘संक्रम’ का विपर्याय। २. चलने में पकड़नेवाला कदम। डग। पग। ३. चलना। गति। ४. किसी को दबाकर अपने अधिकार या वश में करना। ५. विशिष्ट पौरुष या बल। ६. बहादुरी। वीरता। ७. ढंग। तरीका। ८. विष्णु का एक नाम। ९. साठ संवत्सरों में से चौदहवाँ संवत्सर। १॰. बिना किसी क्रम या प्रणाली के होनेवाला वेद-पाठ। ११. दे० ‘विक्रमादित्य’। वि० १. क्रम से रहित। बिना क्रम का। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
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विक्रम-शिला  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत की एक नगरी जिसमें बहुत बड़ा बौद्ध विद्यालय था।
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विक्रमक  : पुं० [सं० विक्रम+कन्] कार्तिकेय के एक गण का नाम।
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विक्रमण  : पुं० [सं० वि√क्रम् (चलना आदि)+ल्युट-अन] १. चलना। कदम रखना। २. आगे बढ़ना। संक्रमण का विपर्याय। ३. विक्रम। वीरता।
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विक्रमाजीत  : पुं०=विक्रमादित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विक्रमादित्य  : पुं० [सं० स० त०] उज्जयिनी के एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जिनके संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित है। आज-कल का विक्रमी संवत् इन्हीं का चलाया माना जाता है।
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विक्रमाब्द  : पुं० [सं० मध्यम० स०] विक्रमादित्य के नाम से चलाया हुआ संवत्। विक्रम संवत्।
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विक्रमार्क  : पुं० [स० त०]=विक्रमादित्य।
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विक्रमी  : पुं० [सं० विक्रम+इनि, दीर्घ, न-लोप, विक्रमिन्] १. वह जिसमें बहुत अधिक बल हो। विक्रमवाला। पराक्रमी। २. विष्णु। ३. शेर। वि० १. विक्रम-संबंधी। विक्रम का। २. विक्रमाब्द संबंधी।
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विक्रमीय  : वि० [सं० विक्रम+छ-ईय] विक्रमादित्य संबंधी।
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विक्रय  : पुं० [सं० वि√क्री (बेचना)+अच्] दाम लेकर कोई चीज देना। दाम लेकर किसी चीज का स्वत्वाधिकार दूसरे को देना। बेचना। ‘क्रय’ का विपर्याय। पद—क्रय-विक्रय।
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विक्रय-कर  : पुं० [ष० त०] वह राजकीय कर चीजों के विक्रय के समय खरीदने वाले से लिया जाता हैं। बिक्रीकर (सेल-टैक्स)।
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विक्रय-पंजी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह पंजी (बही) जिसमें व्यापारी नित्य अपनी बेची हुई चीजों के नाम, मूल्य आदि लिखते है (सेल्स जर्नल)।
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विक्रय-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र या लेख्य जिसमें यह लिखा जाता है कि इतना मूल्य लेकर अमुक व्यक्ति ने अमुक वस्तु दूसरे व्यक्ति के हाथ बेची है। बैनामा। (सेल-डीड)।
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विक्रय-लेख  : पुं० [सं०] विक्रय-पत्र।
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विक्रयक  : वि० [सं० वि√क्री+ण्वुल्-अक] बेचनेवाला। विक्रेता।
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विक्रयण  : पुं० [सं० वि√क्री (बेचना)+ल्युट-अन] बेचने की क्रिया। विक्रय। बिक्री।
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विक्रयिक  : पुं०=विक्रेता।
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विक्रयी (यिन्)  : पुं०=विक्रेता।
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विक्रय्य  : वि० [सं० विक्रय+यत्] जो बेचा जाने को हो।
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विक्रांत  : भू० कृ० [सं० वि√क्रम्+क्त] १. जो चल कर पार किया गया हो। २. जिसमें विशेष विक्रम अर्थात् बल या शूरता हो। वीर। ३. विजयी। ४. प्रतापी। ५. तेजस्वी। पुं० १. बहादुर। वीर २. शेर। सिंह। ३. डग। पग। ४. बल और शक्ति। विक्रम। ५. हिरण्याक्ष का एक पुत्र। ६. प्रजापति। ७. साहस। हिम्मत। ८. व्याकरण में एक प्रकार की संधि। जिसमें विसर्ग अविकृत ही रहता है। ९. वैक्रान्त मणि।
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विक्रांता  : स्त्री० [सं० विक्रान्त+टाप्] १. अग्निमथ। वृक्ष। अरणी। २. जयंती। ३. मूसाकानी। ४. अड़हुल। गुड़हर। ५. अपराजिता। ६. लज्जावती। लजालू। ७. हंसपदी नामक लता।
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विक्रांति  : स्त्री० [सं० वि√क्रम्+क्तिन्] १. गति। २. विक्रम। वीरता। ३. घोड़े की सरपट चाल।
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विक्रिया  : स्त्री० [सं० वि√कृ+श+टाप्] १. विकार। २. प्रतिक्रिया।
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विक्रियोपमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें किसी विशिष्ट क्रिया या उपाय का अवलंब कहा जाता है।
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विक्री  : स्त्री०=बिक्री (विक्रय)।
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विक्रीत  : भू० कृ० [सं० वि√क्री+क्त] बेचा हुआ।
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विक्रेतव्य  : वि०=विक्रेय।
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विक्रेता  : पुं० [सं० वि√क्री+तृच्] बिक्री करनेवाला। बेचनेवाला।
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विक्रेय  : वि० [वि०√क्री+यत्] जो बेचा जाने को हो बिकाऊ।
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विक्रोश  : पुं० [सं० वि√क्रश् (विलपना)+घञ्] १. लोगों को अपनी सहायता के लिए पुकारना। गोहार। २. कुवाच्य कहना।
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विक्रोष्टा (ष्ट्रा)  : पुं० [सं० वि√क्रुश्+तृच्] १. गोहार करनेवाला। २. गाली देनेवाला।
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विक्लव  : वि० [सं० वि√क्लु (अधीर होना)+अच्] १. विकल। बेचैन। २. क्षुब्ध। ३. भयभीत। ४. दुःखी। संतप्त।
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विक्लिन्न  : वि० [सं० वि√क्लिद् (भींगना)+क्त] १. बहुत पुराना। जीर्ण-शीर्ण। २. गला-सड़ा। ३. पकाकर मुलायम किया हुआ। ४. गीला। तर।
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विक्लेद  : पुं० [सं० वि√क्लिद्+घञ्] १. आर्द्रता। २. गलाना या द्रव करना। ३. क्षय।
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विक्षत  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जिसमें छत लगा हों जिसमें खराश पड़ी हो। २. जिसे क्षत या घाव लगा हो। घायल। जख्मी।
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विक्षय  : पुं० [सं० ब० स०] अधिक मद्य-पान के कारण होनेवाला रोग (वैद्यक)।
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विक्षिप्त  : वि० [सं० वि√क्षिप् (फेंकना)+क्त] [भाव० विक्षिप्तता] फेंका या छितराया हुआ। २. छोड़ा या त्यागा हुआ। व्यक्त। ३. जिसका मस्तिष्क ठीक तरह से काम न करता हो। पागल। सिड़ी। ४. पागलों की तरह घबराया हुआ और विकल।
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विक्षिप्तक  : पुं० [सं० विक्षिप्त+कन्] ऐसी लाश या शव जो जलाया या गाड़ा न गया हो, बल्कि यों ही कहीं फेंक दिया गया हो।
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विक्षिप्तता  : स्त्री० [सं० विक्षिप्त+तल्+टाप्] विक्षिप्त या पागल होने की अवस्था या भाव। पागलपन।
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विक्षुब्ध  : वि० [सं० वि√क्षुभ् (अधीर होना)+क्त] जिसमें किसी प्रकार का क्षोभ उत्पन्न किया गया हो अथवा आप से आप हुआ हो।
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विक्षेप  : पुं० [वि√क्षिप् (फेंकना)+घञ्] १. इधर-उधर छितराना या फेंकना। २. झटका देना। ३. धनुष का चिल्ला या डोरी चढ़ाना। ४. गदायुद्ध में गदा की कोटि से समीपवर्ती शत्रु पर प्रहार करना। ५. मन इधर-उधर दौड़ाना या भटकाना। ६. बाधा। विघ्न। ७. सेना का पड़ाव। छावनी। ८. एक तरह का प्राचीन अस्त्र।
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विक्षेप-लिपि  : स्त्री० [कर्म० स०] एक प्रकार की प्राचीन लिपि।
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विक्षेपण  : पुं० [सं० वि√क्षिप् (फेंकना)+ल्युट-अन] १. ऊपर अथवा इधर-उधर फेंकने की क्रिया। २. झटका देना। ३. धनुष की डोरी खींचना। ४. बाधा। विघ्न। ५. विक्षेप।
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विक्षेप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० वि√क्षिप्+तृच्] विक्षेप या विक्षेपण करनेवाला।
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विक्षोभ  : पुं० [सं० वि√क्षुभ् (अधीर होना)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला क्षोभ। उद्विग्नता। २. किसी अशुभ या अनिष्ट घटना के कारण मन में होनेवाला ऐसा विकार जो क्रुद्ध या दुःखी कर दे। ३. उथल-पुथल।
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विक्षोभण  : पुं० [सं० वि√क्षुभ्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विक्षोभित] क्षोभ उत्पन्न करने की क्रिया या भाव।
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विक्षोभित  : भू० कृ० [सं० वि√क्षुभ्+क्त]=विक्षुब्ध।
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विक्षोभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√क्षुभ्+णिनि, दीर्घ, न-लोप] [स्त्री० विक्षोभिणी] क्षोभ उत्पन्न करनेवाला। क्षोभकारी।
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विख  : वि० [सं० वि० नासिका, ब० स] नासिका खादेश। जिसकी एक कटी हुई हो या न हो। पुं०=विष। (जहर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विखंड  : वि० [सं०] १. टुकड़े-टुकड़े किया हुआ। २. बहुत छोटे खंडों या टुकड़ों में परिवर्तित।
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विखंड राशि  : पुं० [सं०] भूगोल में चट्टानों की सतह पर से टूट-फूटकर गिरे हुए कंकड़ों का समूह। मलवा (डेट्रिलस)।
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विखंडित  : भू० कृ०=खंडित।
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विखंडी (डिन्)  : वि० [सं० वि√खंड् (टुकड़ा करना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] तोड़ने-फोड़ने या नष्ट करनेवाला।
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विखनस  : पुं० [सं०] १. ब्रह्म २. एक प्राचीन ऋषि।
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विखाद  : पुं०=विषाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विखादितक  : पुं० [सं० वि√खद् (खाना)+णिच्+क्त+कन्] ऐसा मृत शरीर जिसका बहुत सा अंश पशुओं ने खा डाला हो।
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विखान  : पुं०=विषाण (सींग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विखानस  : पुं०=वैखानस।
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विखायँध  : स्त्री०=बिसायँध।
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विखुर  : पुं० [सं० वि√खर (काटना)+अच्] १. राक्षस। २. चोर। वि० जिसके खुर न हों। खुरों से रहित।
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विख्यात  : भू० कृ० [सं० वि√ख्या (प्रसिद्धि होना)+क्त] [भाव० विख्याति] प्रसिद्धि। मशहूर। जिसकी ख्याति चारों ओर हो।
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विख्याति  : स्त्री० [सं० वि√ख्या (ख्याति)+क्तिच्] विख्यात होने की अवस्था या भाव। प्रसिद्ध। शोहरत।
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विख्यापन  : पुं० [सं० वि√ख्या+णिच्+ल्युट-अन] १. प्रसिद्ध करना। मशहूर करना। २. सार्व-जनिक रूप से घोषणा करना।
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विख्यापित  : भू० कृ० [सं०] जिसका विख्यापन हुआ हो।
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विगणन  : पुं० [सं० वि√गण् (गिनती करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विगणित] १. हिसाब लगाना। लेखा करना। २. ऋण से मुक्त होना।
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विगत  : भू० कृ० [सं० वि√गम् (जाना)+क्त] [स्त्री० विगता] १. बीता हुआ। गत। २. गत से ठीक पहले का। अन्तिम या बीते हुए से ठीक पहले का। जैसे— विगत दिन (बीते हुए कल से पहले का)। ३. जो कहीं इधर-उधर चला गया हो ४. जिसका क्रान्ति या प्रभाव नष्ट हो चुका हो। निष्प्रभ। ५. जो किसी बात से रहित या हीन हो चुका हो। जैसे—विगत यौवन। उदाहरण-बोले वचन विगत सब दूषन।—तुलसी।
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विगता  : स्त्री० [सं० विगत+टाप्] ऐसी कन्या जो किसी दूसरे व्यक्ति के प्रेम में पड़ी हो और इसीलिए विवाह के लिए अनुपयुक्त हो।
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विगति  : स्त्री० [सं० वि√गम्+क्तिन्] दुर्दशा। दुर्गति।
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विगद  : वि० [सं० ब० स०] रोगरहित। नीरोग। पुं० १. बात-चीत। चर्चा। २. शोर गुल। हो-हल्ला।
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विगंध  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें किसी प्रकार की गंध न हो। २. बदबूदार। बुरी गंधवाला।
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विगंधकीकरण  : पुं० [सं०] वह रासायनिक प्रक्रिया जिसके द्वारा आदि धातुओं में मिली हुई गंधक निकाल कर दूर की जाती है। (डीसल्फ़राइजेशन)।
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विगंधिका  : स्त्री० [सं० विगंध+कन्+टाप्,+इत्व] १. हपुषा। हाऊबेर। २. अजगंधा। तिलवन।
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विगम  : पुं० [सं० वि√गम्+घञ्] १. प्रस्थान। प्रयाण। २. पार्थक्य। ३. अनुपस्थिति। ४. त्याग। ५. हानि। ६. नाश। ७. सम्पत्ति। ८. मृत्यु। ९. मोक्ष।
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विगर  : पुं० [सं० ब० स०] १. दिगंबर यति। २. पहाड़। ३. भोजन का त्याग करनेवाला व्यक्ति।
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विगर्हण  : पुं० [सं०] [वि० विगर्हित] बुरे काम के लिए निन्दा करना और बुरा-भला कहना। भर्त्सना।
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विगर्हणा  : स्त्री० [सं० वि√गर्ह (निन्दा करना)+णिच्+टाप्] भर्त्सना। डाँट-फटकार।
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विगर्हणीय  : वि० [सं० वि√गर्ह+अनीयर्] निंदरीय।
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विगर्हा  : स्त्री० [सं० वि√गर्ह+अच्+टाप्]=विगर्हण।
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विगर्हित  : भू० कृ० [सं० वि√गर्ह+क्त, तृ० त०] १. जिसकी भर्त्सना की गई हो। जिसे डाँट या फटकार बतलाई गई हो। २. बुरा। खराब। ३. निषिद्ध।
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विगर्ही (र्हिन्)  : वि० [सं० वि√गर्ह+णिनि] विगर्हण करनेवाला।
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विगर्ह्य  : वि० [सं० वि√गर्ह+यत्] जो भर्त्सना का पात्र हो। डाँटने डपटने या निंदा किये जाने के योग्य।
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विगलन  : पुं० [सं० वि√गल् (पिघलना)+ल्यु-अन] [भू० कृ० विगलित] १. अच्छी या पूरी तरह से गलना या पिघलना। २. तरल पदार्थ का चूना, बहना या रिसना। ३. मन का आर्द्र होना। ४. नाश या लोप होना। ५. शिथिल होना।
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विगलित  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जो गल गया हो। पिघला हुआ। ३. गिरा हुआ। पतित। ४. बहा हुआ। ५. ढीला। शिथिल। ६. विकृत।
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विगाढ  : भू० कृ० [सं० वि√गार्ह (विलोड़न करना)+क्त] १. नहाया हुआ। स्नात। २. डूबा हुआ। ३. अन्दर घुसा, धँसा या पैठा हुआ। ४. जो बहुत अधिक मात्रा में हो। बहुत गहन या घना।
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विगाथा  : स्त्री० [सं० वि√गाथ् (कहना)+अक+टाप्] आर्या छन्द का एक भेद जिसके विषम पदों में १२-१२ दूसरे में १५ और चौथे में १८ मात्राएँ होती हैं,और अन्त में वर्ण गुरु होता है। विषम गणों में जगण नहीं होता,पहले दल का छठा गण (२७ ही मात्रा के कारण) एक लघु का मान लिया जाता है। इसे ‘विग्गाहा’ और ‘उदगीति’ भी कहते हैं।
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विगान  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. निंदा। २. अपवाद। ३. असामंजस्य। ४. घृणा।
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विगाहन  : पुं० [सं० वि√गाह्+अच्]=अवगाहन।
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विगीत  : वि० [सं० वि√गै (गाना या कहना)+क्त] १. अनेक प्रकार से या अनेक रूपों में कहा हुआ २. बुरी तरह से कहा या गाया हुआ। ३. परस्पर विरोधी। ४. निंदित।
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विगीति  : स्त्री० [सं० वि√गै+क्तिन्] आर्या छंद का एक भेद।
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विगुण  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें कोई गुण न हो। गुण-रहित गुण-विहीन। २. निर्गुण।
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विगूढ़  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. छिपा हुआ। गुप्त। २. जिसकी निंदा की गई हो।
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विगृहीत  : वि० [सं० वि√ग्रह् (ग्रहण करना)+क्त] १. फैलाया या विभक्त किया हुआ। २. पकड़ा हुआ। ३. जिसका विरोध या सामना किया गया हो। ४. रोका हुआ। ५. जिसका विश्लेषण हुआ हो। विश्लिष्ट।
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विंगेश  : पुं० [सं० ष० त०] अग्नि।
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विग्गाहा  : स्त्री० [सं० विगाथा] विगाथा नामक छन्द जो आर्या का एक भेद है।
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विग्रह  : पुं० [सं० वि√ग्रह्+अच्] १. विस्तृत करना। फैलाना। २. अलग या दूर करना। ३. टुकड़ा। विभाग। ४. यौगिक शब्दों अथवा समस्त पदों के किसी एक अथवा प्रत्येक शब्द को अलग करना। (व्याकरण) ५. लड़ाई-झगड़ा और वैर-विरोध। ६. य़ुद्ध। समर। ७. रीति के छः गुणों में से एक, विपक्षियों में कलह या फूट उत्पन्न करना। ८. आकृति। सूरत। ९. देह। शरीर। १॰. प्रतिमा या मूर्ति। जैसे—शालग्राम की वटिया या शिव का लिंग। ११. श्रृंगार। सजावट। १२. शिव का एक नाम या लिंग। १३. स्कन्द का एक अनुचरी। १४. सांख्य के अनुसार कोई तत्त्व।
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विग्रहण  : पुं० [सं० तृ० त०] रूप धारण करना। शक्ल में आना।
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विग्रही  : वि० [सं०√ग्रह्+णिनि] १. विग्रह या लड़ाई-झगड़ा करनेवाला। २. युद्ध करनेवाला। ३. मूर्ति-पूचक। पुं० प्राचीन भारत में युद्ध-विभाग का मंत्री या सचिव।
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विग्राह्य  : वि० [सं० विग्रह+ण्यत्] जिसके साथ विग्रह अर्थात् लड़ाई या युद्ध किया जा सके।
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विघटन  : पुं० [सं० विघट्टन] १. किसी वस्तु के संयोजक अंगों का इस प्रकार अलग या नष्ट होना कि उसका प्रस्तुत अस्तित्व या रूप नष्ट हो जाय। ‘घटन’ का विपर्याय। (डिस-इन्ट्रिगेशन) जैसे—किसी संस्था या समाज का विघटन। २. खराब होना या टूटना-फूटना बिगड़ना। ३. नष्ट करना या होना।
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विघटिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] समय का एक छोटा मान जो एक घड़ी का २३वाँ भाग होता है।
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विघटित  : भू० कृ० [सं० वि√घट् (मिलाना)+क्त] १. जिसके संयोजक अलग-अलग किये गये हों। २. तोड़ा-फोड़ा हुआ। ३. नष्ट किया हुआ। ४. (संस्था, समिति आदि) जिसे भंग कर दिया गया हो। (डिस्साल्वड)।
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विघट्टन  : पुं० [सं० वि√घट्ट, (संयुक्त करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विघट्टित] १. खोलना। २. पटकना। ३. रगड़ना। ४. दे० ‘विघटन’।
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विघट्टी (ट्टिन)  : वि० [सं० विघट्ट√इनि] विघटन करनेवाला।
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विघन  : पुं० [सं० वि√हन् (मारना)+अप्,ह-घ] १. आघात करना। चोट पहुँचाना। २. बड़ा और भारी हथौड़ा। घन। ३. इन्द्र। पुं०=विघ्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विघर्षण  : पुं० [सं० वि√घृष् (रगड़ना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह रगड़ना या घिसना।
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विघस  : पुं० [सं० वि√घृष् (खाना)+अप्, अद्-घस] १. आहार। भोजन। २. देवताओं पितरों बड़ों आदि के उपभोग के उपरान्त बचा हुआ अन्न।
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विघात  : पुं० [सं०] १. आघात। चोट। २. विनाश। ३. निवारण। रोक। ४. बाधा। ५. हत्या। ६. आज-कल मालिकों को हानि पहुँचाने के विचार से जान-बूझकर उनके यंत्र या उपयोगी सामान तोड़ना-फोड़ना। तोड़-फोड का कार्य। अंतध्वंस। (सँबोटेज) ७. नाश।
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विघातक  : वि० [सं० विघात+कन्] १. विघात करनेवाला। २. तोड़-फोड़ के काम करनेवाला।
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विघातन  : पुं० [सं० वि√हन्+ल्युट-अन] १. विघात करने की क्रिया। २. मार डालना। हत्या।
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विघाती (तिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० विघातिनी]=विघातक।
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विघूर्णन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विघूर्णित] १. इधर से उधर घूमना या होना। २. चारों ओर घूमना। ३. आज-कल किसी अक्ष या केन्द्र के चारों ओर चक्कर काटना या लगाना (जाइरेशन)।
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विघ्न  : पुं० [सं० वि√हन्+क] १. बीच में आकर पड़ने वाली कोई ऐसी बात जिसमें होता हुआ काम रुक जाय। अड़चन। बाधा। क्रि० प्र०—आना।—डालना।—पड़ना।—होना। २. ऐसा अशुभ चिन्ह जिसके कारण बनता हुआ काम बिगड़ जाता हो। (प्रवाद)।
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विघ्नक  : वि० [सं० विघ्न+कन्]=विघ्नकारी।
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विघ्नकारी (रिन्)  : वि० [सं०] बाधा उपस्थित करनेवाला। विघ्न डालनेवाला।
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विघ्ननाशक  : वि० [ष० त०] विघ्नों का नाश करनेवाला। पुं० गणेश।
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विघ्नपति, विघ्नलाज  : पुं० [सं० ष० त०] गणेश।
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विघ्नविनायक  : पुं० [ष० त०] गणेश।
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विघ्नित  : भू० कृ० [सं० विघ्न+इतच्] १. (कार्य) जिसमें विघ्न पड़ा या डाला गया हो। २. बाधित।
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विघ्नेश  : पुं० [ष० त०] गणेश।
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विचकित  : वि० [सं० विचक+इतच्] १. चकित। २. घबराया हुआ।
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विचक्षण  : वि० [सं० वि√चक्ष् (कहना)+युच-अन] १. तीव्र दृष्टि वाला। बहुत दूर की चीजें या बातें देखनेवाला। २. प्रकाशमान। ३. बुद्धिमान। समझदार। ४. कुशल। दक्ष। पुं० पंडित। विद्वान्।
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विचक्षु  : वि० [सं०] चक्षुओं से रहित। अंधा।
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विचच्छन  : वि०=विचक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विचय  : पुं० [सं० वि+चि (बटोरना)+अप्] १. एकत्र करना। इकट्ठा करना। जमा करना। २. जाँच-पड़ताल करना।
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विचयन  : पुं० [सं० वि√चि+ल्युट-अन] १. इकट्ठा करना। एकत्र करना। जाँचना। परखना। ३. चुराई या छिपाई हुई वस्तु। खोज निकालने के उद्देश्य से किसी की ली जानेवाली तलाशी।
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विचयन-प्रकाश  : पुं० [सं०] वह तीव्र प्रकाश जिसके द्वारा बहुत दूर तक की चीजें प्रकाशित होती हों। खोज-बत्ती (सर्चलाइट)।
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विचरण  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+ल्युट-यु=अन] [भू० कृ० विचरित] १. चलना। २. घूमना-फिरना।
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विचरना  : अ० [सं० विचरण] चलना-फिरना। घूमना-फिरना।
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विचर्चिका  : स्त्री० [सं० वि√चर्च (फाटना)+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर पर दाने निकलते है और खुजली होती है। ब्यौंची। २. छोटी फुन्सी।
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विचल  : वि० [सं० वि√चल् (हिलना)+अप्] [भाव० विचलता] १. जो बराबर हिलता रहता हो। २. जो स्थिर न हो। अस्थिर। ३. अपने मार्ग या स्थान से गिरा, डिगा या हटा हुआ। ४. प्रतिज्ञा, संकल्प आदि से हटा हुआ।
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विचलता  : स्त्री० [सं०] विचल होने की अवस्था या भाव।
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विचलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विचलित] १. ठीक या सीधा मार्ग छोड़कर इधर-उधर होना। पथ से भ्रष्ट होना। (डेविएशन)। जैसे—मनुष्य का नैतिक विचलन। (ख) प्रकाश की रेखाओं की विचलन। २. जान-बूझकर या अनजान में उपेक्षापूर्वक अपने कर्त्तव्य या मत से हटकर इधर-उधर होना। कार्य, निश्चय या विचार पर दृढ न रहना। उत्क्रम से भिन्न (डेविएशन)।
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विचलना  : अ० [सं० विचलना] १. अपने स्थान से हट जाना या चल पड़ना। २. इधर-उधर होना। ३. अधीर या विचलित होना। ४. प्रतिज्ञा-संकल्प आदि से हटना।
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विचलाना  : अ०=विचलना। स० विचलित करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विचलित  : भू० कृ० [सं०] १. भय, साहस की कमी, साधन-हीनता आदि के फलस्वरूप अपनी प्रतिज्ञा, सिद्धान्त या स्थान से हटा हुआ। २. अस्थिर। चंचल। ३. विकल।
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विचार  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+घञ्] [वि० विचारणीय, वैचारिक, भू० कृ० विचारित] १. किसी चीज या बात के संबंध में मन ही मन तर्क-वितर्क करके कुछ सोचने या समझने की क्रिया या भाव। आगा-पीछा। ऊँच-नीच आदि का ध्यान रखते हुए कुछ निश्चय करने की क्रिया। जैसे—तुम भी इस बात पर विचार कर लो। २. उक्त प्रकार की क्रिया के फलस्वरूप किसी बात या विषय के सम्बन्ध में मन में बननेवाला उसका चित्र। सोच-समझकर स्थिर की हुई भावना। खयाल। (आइडिया) जैसे— (क) मेरे मन में एक और विचार आया है। (ख) इस पुस्तक में आपको बहुत से नये विचार मिलेगे। ३. कोई प्रश्न सामने आने पर उसके सम्बन्ध में कुछ निर्णय करने के लिए उसके सब अंग अच्छी तरह तर्क करते हुए देखना या समझना। (कन्सिडरेशन)। ४. दो विरोधी, दलों, पक्षों मतों आदि के विवादास्पद विषय के सम्बन्ध में कुछ निश्चय करने से पहले किसी न्यायालय या विचारशील व्यक्ति के द्वारा होनेवाली सब अंगों और बातों की जाँच-पड़ताल। फैसले के लिए मुकदमे की सुनवाई (ट्रायल)। जैसे—न्यायालय में अभियोग के सम्बन्ध में होनेवाला विचार। ५. घूमना-फिरना। विचरण।
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विचार-गोष्ठी  : स्त्री० [सं०] विद्वानों या विशेषज्ञों की वह गोष्ठी जो किसी विशिष्ट गंभीर विषय पर विचार करने के लिए बुलाई गई हो। (सेमिनार)।
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विचार-धारा  : स्त्री० [सं०] १. आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि मनुष्य के मन में विचार कहाँ से और किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और उनके कैसे-कैसे भेद या रूप होते हैं। वैचारिकी। २. विचारों का प्रवाह (आइडियालोजी)।
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विचार-नेता  : पुं० [सं०] वह जो किसी क्षेत्र में जन-साधारण के विचारों का नेतृत्व या मार्ग-दर्शन करता हो।
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विचार-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बहुत बड़ा विचारक। २. न्यायाधीश।
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विचार-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सोचने या विचार करने की शक्ति। बुद्धि। प्रज्ञा। (इन्टेलेक्ट)।
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विचार-स्थल  : पुं० [ष० त०] १. विचार करनेवाला स्थल। २. अदालत। न्यायालय।
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विचार-स्वातंत्र्य  : पुं० [सं०] राज्य शासन आदि की ओर से मिलनेवाली वह स्वतंत्रता जिसमें मनुष्य हर तरह की बातें सोच सकता तथा उन्हें व्यक्त या प्रकाशित भी कर सकता है। (लिबर्टी ऑफ थॉट)।
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विचारक  : वि० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+ण्वुल-अक] विचार करनेवाला। पुं० वह जो किसी विषय पर अच्छी तरह विचार करता हो। विचारशील। २. वह जो न्यायालय आदि में बैठकर अभियोगों का विचार और निर्णय करता हो। न्यायकर्ता। (मुंसिफ)। ३. पथ-प्रदर्शन। नेता। २. गुप्तचर। जासूस।
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विचारकर्ता  : पुं० [सं० विचार√कृ+ (करना)+तृच्, ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार का विचार करता हो। सोचने विचारनेवाला। २. न्यायाधीश। विचाराध्यक्ष।
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विचारज्ञ  : पुं० [सं० विचार√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो विचार करना जानता हो। २. विचाराध्यक्ष।
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विचारण  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+ल्युट-अन] विचारने की क्रिया या भाव।
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विचारणा  : स्त्री० [सं० विचारण+टाप्] १. विचारने की क्रिया या भाव। २. सोची-विचारी हुई बात। ३. कोई काम करने से पहले यह सोचना कि यह काम करना चाहिए या नहीं अथवा हम से हो सकेगा या नहीं।
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विचारणीय  : वि० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+अरीयर्] १. (बात या विषय) जिस पर विचार करना उचित हो या विचार किया जाने को हो। चिन्त्य। २. सन्दिग्ध।
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विचारधीन  : वि० [सं० विचार+अधीन] १. (बात या विषय) जिस पर अभी विचार हो रहा हो। २. दे० ‘न्यायाधीश’।
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विचारना  : अ० [सं० विचार] १. विचार करना सोचना-समझना। गौर करना। २. जानने के लिए किसी से कुछ पूछना। ३. तलाश करना। ढूँढ़ना।
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विचारवान  : पुं० [सं० विचार+मतुप्, म-व] १. जो ठीक तरह से विचार करता हो। विचारशील। २. जिसमें विचार करने की विशेष क्षमता हो।
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विचारशास्त्र  : पुं० [ष० त०] मीमांसा दर्शन।
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विचारशील  : पुं० [सं० ष० त०] [भाव० विचारशीलता] वह जिसमें किसी विषय पर अच्छी तरह सोचने या विचारने की शक्ति हो। विचारवान्।
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विचाराध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०]=विचारपति।
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विचारालय  : पुं० [सं० ष० त०] न्यायालय। कचहरी।
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विचारिका  : स्त्री० [सं० विचार+कन्+टाप्, इत्व] १. प्राचीन काल की वह दासी जो घर में लगे हुए फूल पौधों की देख-भाल तथा इसी प्रकार के और काम करती थी। २. अभियोगों आदि का विचार करनेवाली स्त्री। स्त्री-विचारक।
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विचारित  : भू० कृ० [सं० विचार+इतच्] १. जिसके संबंध में विचार कर लिया गया हो। २. निश्चित या निर्णीत किया हुआ।
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विचारी (रिन्)  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+णिनि] वह जिस पर चलने के लिए बहुत बड़े-बड़े मार्ग बने हों। (जैसे—पृथ्वी)। वि० १. विचरण करने या घूमने-फिरनेवाला २. विचारक। ३. विचारशील।
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विचार्य  : वि० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+यत्]=विचारणीय।
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विचालन  : पुं० [सं० तृ० त०] १. इधर-उधर चलाना। २. अलग या दूर करना। हटाना। ३. नष्ट करना। ४. विचलित करना।
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विचिकित्सा  : स्त्री० [सं० वि√कित् (रोग दूर करना)+सन्+अ,+टाप्] १. किसी बात या विषय में होनेवाली शंका या सन्देह। २. भूल। ३. संदेह।
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विचित  : भू० कृ० [सं० वि√चि (इकटठा करना)+क्त] अन्वेषित किया या खोजा हुआ।
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विचिंतन  : पुं० [सं० वि√चिन्ति (सोचना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह चिंतन करना। खूब सोचना समझना।
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विंचितनीय  : वि० [सं० वि√चिन्ति+अरीयर्] (बात या विषय) जो चिन्ता करने या सोचने के योग्य हो।
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विचिंता  : स्त्री० [सं० वि√चिन्ति-अच्+टाप्] सोच-विचार। चिंतन।
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विचिति  : स्त्री० [सं० वि√चि+क्तिच्] खोज या ढूँढ़ निकालने की अवस्था या भाव।
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विचित्त  : स्त्री० [सं० विचित्त+इनि] १. मन ठिकाने या शांत न करना। २. अन्यमनस्कता। अनमनापन। ३. मूर्च्छा। बेहोशी।
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विचिंत्य  : वि० [सं० विचिन्त+यत्]=विचिंतनीय।
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विचित्र  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विचित्रता] १. जिसमें कई प्रकार के रंग हो। कई तरह के रंगों या वर्णोंवाला। रंग-बिरंगा। २. जिसमें मन को कुछ चकित करनेवाली असाधारणता या विलक्षणता हो। अजीब। जैसे—आज एक विचित्र बात मेरे देखने में आई। २. जिसमें कोई ऐसी नई बात या विशेषता हो जो साधारणतः सब जगह न पाई जाती हो और जो अनोखा जान पड़ता हो। साधारण से भिन्न। नया और विलक्षण। ३. मन में कुतहल उत्पन्न करने चकित या विस्मित करनेवाला। जैसे—वह भी विचित्र स्वभाववाला आदमी है। ४. खूबसूरत। सुन्दर। पुं० १. पुराणानुसार रौच्यमनु के एक पुत्र का नाम। २. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय होता है जब किसी फल की सिद्धि के लिए किसी प्रकार का उल्टा प्रयत्न करने का उल्लेख किया जाता है।
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विचित्र-विभ्रमा  : स्त्री० [सं०] केशव के अनुसार वह प्रौढ़ा नायिका जो अपने सौन्दर्य मात्र से नायक को आकृष्ट या मोहित करती हो (देव ने इसी को सविभ्रमा कहा है)।
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विचित्रक  : पुं० [सं० ब० स०+कन्] भोजपत्र का वृक्ष। वि० विचित्र।
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विचित्रता  : स्त्री० [सं० विचित्र+तल्+टाप्] १. विचित्र होने की अवस्था या भाव। १. वह विशेषता जिसके फलस्वरूप कोई चीज विचित्र प्रतीत होती हो।
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विचित्रवीर्य  : स्त्री० [सं० ष० त०] चन्द्रवंसी शांतनु के एक पुत्र का नाम (महाभारत)।
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विचित्रशाला  : स्त्री० [ष० त०] अजायबघर। अजायबखाना।
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विचित्रा  : स्त्री० [सं० विचित्र+अच्+टाप्] संगीत में एक रागिनी जिसे कुछ लोग भैरव राग की पाँच स्त्रियों में और कुछ लोग त्रिवण, बरारी, गौरी और जयंती के मेल से बनी हुई संकर जाति की मानते हैं।
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विचित्रांग  : पुं० [सं० ब० स०] १. मोर। २. बाघ।
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विचित्रित  : भू० कृ० [सं० विचित्र+इतच्] १. अनेक रंगों से नंगा या अंकित किया हुआ। २. सजाया हुआ।
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विची  : स्त्री० [सं० विचित्र+ङीष्] वीचि। (लहर)।
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विचेतन  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें चेतना शक्ति न हो। अचेत। २. संज्ञाहीन। बेहोश। ३. जिसे भले-बुरे का ज्ञान न हो। विवेक-हीन। पुं० १. चेतना से रहित करने की क्रिया या भाव। २. प्राणियों की वह अवस्था जिसमें शरीर या उसका कोई अंग चेतना रहित या संज्ञा शून्य हो जाता है। संज्ञा-शून्य। निश्चेतन। संवेदनहरण। (ऐनेस्थीशिया)।
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विचेतनक  : वि० [सं०] शरीर या उसका कोई अंग चेतना से रहित या संज्ञाशून्य करनेवाला नाशक (एनीस्थेटिक)।
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विचेतनीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विचेतनीकृ] दे० ‘निश्चेतनीकरण’।
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विचेता (तस्)  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका चित्त ठिकाने न हो। घबराया हुआ। २. जो कुछ जानता न हो। ३. दुष्ट। पाजी। ४. बेवकूफ। मूर्ख।
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विचेष्ट  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० विचेष्टता] १. जो सचेष्ट न हो। २. अक्रिय। २. गतिहीन। अचल।
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विचेष्टा  : स्त्री० [सं० वि√चेष्ट+अङ्+टाप्] १. बुरी या खराब चेष्टा करना। भौहेँ सिकोड़ना, मुँह बनाना या हाथ-पैर पटकना। २. क्रिया।
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विच्छर्दन  : पुं० [सं० वि√चेष्ट् (इच्छा करना)+ल्युट-अन, कर्म० स०] [भू० कृ० विचेष्टिता] पीड़ा आदि होने पर मुँह या शरीर के अंगों से बुरी चेष्टा करना। इधर-उधर लोटना और तड़पना।
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विच्छर्दन  : पुं० [सं० वि√छर्द (कै करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विच्छर्दित] १. कै या वमन करना। २. बलपूर्वक बाहर निकालना। फेंकना। ३. त्याग करना। छोड़ना। ४. तिरस्कार करना।
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विच्छर्दिका  : स्त्री० [सं० विछर्द+क+टाप्, इत्व] वमन। कै
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विच्छाय  : पुं० [सं० ष० त०] १. पक्षियों की छाया। २. मणि। रत्न। वि० १. जिसकी छाया न पड़ती हो। २. कांतिहीन।
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विच्छित्ति  : स्त्री० [सं० वि√छिद् (काटना)+क्तिन्] १. काटकर अलग या टुकड़े करना। २. विच्छेद। ३. कमी। त्रुटि। ४. गले में पहनने का एक प्रकार का हार। ५. कविता में होनेवाली यति। विराम। ६. वेषभूषा आदि के सम्बन्ध में की जानेवाली लापरवाही। ७. ऐसी लापरवाही के कारण वेशभूषा में दिखाई देनेवाला बेढंगापन। ८. रंगों आदि से शरीर चिन्हित करने की क्रिया या भाव। ९. साहित्य में एक प्रकार का हाव जिसमें स्त्री थोड़े श्रृंगार से ही पुरुष को मोहित करने की चेष्टा करती है।
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विच्छिन्न  : भू० कृ० [सं० वि√छिद्+क्त] १. जिसका विच्छेद हुआ हो। २. जो काट या छेदकर अलग कर दिया गया हो। ३. जिसका अपने मूल अंग के साथ कोई सम्बन्ध न रह गया हो। ४. अलग। जुदा। पृथक्। ५. जिसका अन्त हो चुका या कर दिया गया हो। ६. कुटिल।
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विच्छेद  : पुं० [सं०वि√छिद्+घञ्] १. काट या छेदकर अलग करने की क्रिया। २. किसी प्रकार बीच से टूटना। विश्रृंखलता। ३. किसी पूरे में से उसका कोई अंग या अंश किसी प्रकार अलग होना। ४. अलगाव। पार्थक्य। ५. नाश। बरबादी। ६. वियोग। विरह। ७. पुस्तक का अध्याय या प्रकरण। परिच्छेद। ८. बीच में पड़नेवाला खाली स्थान। अवकाश। ९. कविता की यति या विराम।
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विच्छेदक  : वि० [सं० वि√छिद् (काटना)+ण्वुल-अक] विच्छेद करनेवाला।
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विच्छेदन  : पुं० [सं० वि√छिद्+ल्युट-अन] [वि० विच्छेदनीय] विच्छेद करने की क्रिया या भाव। दे० व्यवच्छेदन (शव का)।
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विच्छेदी  : वि० [सं० वि√छिद्+णिनि]=विच्छेदक।
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विच्छेद्य  : वि० [सं० विच्छेद+यत्] जिसका विच्छेद किया जा सकता हो अथवा किया जाने को हो।
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विच्युत  : भू० कृ० [सं० वि√च्यु (मिलना आदि)+क्त] [भाव० विच्युति] १. जो कटकर अथवा और किसी प्रकार इधर-उधर गिर पड़ा हो। २. जो अपने स्थान से गिर या हट गया हो। च्युत। भ्रष्ट। ३. (अंग) जो जीवित शरीर से काटकर अलग किया या निकाला गया हो। (सुश्रुत) ४. नष्ट।
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विच्युति  : स्त्री० [सं० वि√च्यु (हटना)+क्तिन्] १. विच्युत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. गर्भ-पात। ३. नाश।
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विछलना  : अ० १.=विलछना। (फिसलना)। २.=विचलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विछेद  : वि०=विच्छेद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विछोई  : वि० [हिं० विछोह+ई (प्रत्यय)] १. जिसका प्रिय व्यक्ति उससे बिछुड़ चुका हो। २. बिछोह से दुःखी। विरही।
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विछोह  : पुं० [सं० विच्छेद] १. ऐसी अवस्था जिसमें प्रिय के विदेश चले जाने पर उससे संयोग न होता हो। २. संयोग न होने के फलस्वरूप होनेवाला दुःख। विरह।
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विछोही  : वि०=विछोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजई  : वि०=विजयी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजंघ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी जाँघे, कट गई हो, या न हो। २. (गाड़ी या सवारी) जिसमें धुरी पहिए आदि न हो।
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विजट  : वि० [सं० ब० स०] १. जटा से रहित। २. (सिर के बाल) जो यों ही खुले हों, जूड़े आदि के रूप में बँधे न हों।
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विजड  : वि० [सं०] जो पूरी तरह से जड़ हो चुका हो। जिसमें चेतनता का कुछ भी अंश न हो।
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विजडीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विजडीकृत] विजड़ करने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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विजन  : वि० [ब० स०] १. जनहीन। २. एकांत। पुं०=व्यजन। (पंखा)।
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विजनन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विजनित] १. संतान को जन्म देना। जनन। प्रसव। २. प्रयोग-शालाओं आदि में वैज्ञानिक प्रक्रियाओं की सहायता से स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना संतान उत्पन्न करना।
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विजना  : पुं० [सं० विजन] [स्त्री० अल्पा० विजनी] पंखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. किसी स्त्री का उसके उपपति या जार से उत्पन्न पुत्र। जारज सन्तान। २. एक प्राचीन वर्ण-संकर जाति। ३. वह जो जाति से च्युत कर दिया गया हो।
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विजन्या  : वि० [सं० विजन+यत्-टाप्] गर्भवती (स्त्री)।
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विजय  : स्त्री० [सं० वि०√जि+अच्] १. शत्रु को परास्त करने पर होनेवाली जीत। २. प्रतियोगी या प्रतिस्पर्धा को हराकर सिद्ध की जानेवाली श्रेष्ठता। ३. वह अवस्था जिसमें सब विघ्न-बाधाएँ दूर कर दी गई हों। ४. एक प्रकार का छन्द जो केशव के अनुसार सवैया का मत्तगयंद नामद भेद है। ५. भोजन की क्रिया के लिए आदर सूचक पद (पूरब) जैसे—अब आप विजय के लिए उठें अर्थात् भोजन करने चलें।
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विजय-कुंजर  : पुं० [सं० च० त०] १. राजा की सवारी का हाथी। २. लड़ाई में काम आनेवाला हाथी।
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विजय-केतु  : पुं० [सं० ष० त०]=विजय-पताका।
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विजय-डिंडिम  : पुं० [सं० च० त०] प्राचीन काल में युद्ध-क्षेत्र में बजाया जानेवाला एक प्रकार का बड़ा ढोल।
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विजय-दंड  : पुं० [सं० ब० स०] सैनिकों का वह विभाग जो सदा विजयी रहता हो।
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विजय-दीपिका  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-नागरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-पताका  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सेना की वह पताका जो जीत के साथ फहराई जाती है। २. विजय का सूचक कोई चिन्ह।
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विजय-पर्पटी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे, रेंड़ की जड़ अदरक आदि के योग से बनता और संग्रहणी रोग में दिया जाता है।
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विजय-पूर्णिमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] आश्विन की पूर्णिमा।
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विजय-भैरव  : पुं० [सं० च० त०] वैद्यक में एक प्रकार का रस।
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विजय-मर्द्दल  : पुं० [सं० च० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल। ढक्का।
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विजय-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह यात्रा जो किसी पर किसी प्रकार की विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाय।
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विजय-रत्नाकारी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] विजय की अधिष्ठाती देवी, जिसकी कृपा पर विजय निर्भर मानी जाती है।
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विजय-वसंत  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-श्री  : स्त्री० [सं०] १. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। २. विजय-लक्ष्मी।
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विजय-सरस्वती  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-सामंत  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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विजय-सारंग  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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विजयक  : पुं० [सं० विजय+कन्] वह जो सदा विजय प्राप्त करता रहता हो। सदा जीतता रहनेवाला।
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विजयकच्छंद  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कल्पित हार जो दो हाथ लंबा और ५॰४ लड़ियों का माना जाता है। कहते हैं ऐसा हार केवल देवता लोग पहनते हैं। २. ऐसा हार जिसमें ५॰॰ मोती या नग हों।
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विजयंत  : पुं० [सं० वि√जि (जीतना)+झ-अन्त] इंद्र का एक नाम।
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विजयंती  : स्त्री० [सं० वि√जि+शतृ+ङीष्] १. एक अप्सरा का नाम। २. ब्राह्मी।
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विजयदशमी  : स्त्री०=विजयादशमी।
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विजयशील  : वि० [सं० ब० स०] जो विजय प्राप्त करता हो। सदा जीतता रहनेवाला।
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विजयसार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है। विजैसार।
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विजया  : स्त्री० [सं० विजय+टाप्] १. दुर्गा। २. पुराणानुसार पार्वती की एक सखी जो गौतम की कन्या थी। ३. यम की भार्या। ४. एक योगिनी। ५. दक्ष की कन्या। ६. इन्द्र की पताका पर अंकित एक कुमारी। ७. श्रीकृष्ण के पहनने की माला। ८. काश्मीर का एक प्राचीन विभाग। ९. विजयादशमी। १॰. पुरानी चाल का एक प्रकार का बड़ा खेमा या तंबू। ११. वर्तमान अवसर्पिणी के दूसरे अर्हत की माता का नाम। 1२. एक सम-मात्रिक छंद (क) जिसके प्रत्येक चरण में १॰-१॰ की यति पर ४॰ मात्राएँ होती हैं और अन्त में रगण होता है। (ख) जिसके प्रत्येक चरण में १२, १२, १॰,१॰ की यति से ४४ मात्राएँ होती है। १३. एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं। इसके अन्त में लघु और गुरु अथवा नगण भी होता है। १४. भंग। भाँग। १५. हर्रे। १६. वच। १७. जयंती। १८. मंजीठ। १९. अग्नि-मंथ। २॰.एक प्रकार का शमी वृक्ष।
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विजया-एकादशी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] १. क्वार सुदी एकादशी २. फागुन वदी एकादशी।
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विजया-दशमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] आश्विन मास के शुक्लपक्ष की दशमी जो हिन्दुओं का बहुत बड़ा त्यौहार मानी जाती है। विशेष—इसी तिथि को राम ने रावण को मारा था।
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विजयानंद  : पुं० [सं०] संगीत में ताल के आठ मुख्य भेदों में से एक।
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विजयाभरणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजयासप्तमी  : स्त्री० [सं०] रविवार के दिन पड़नेवाली किसी मास की शुक्लपक्ष की सप्तमी।
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विजयास्त्र  : पुं० [सं० विजय+अस्त्र] वह अस्त्र, क्रिया या साधन जिससे विजय प्राप्त करना निश्चित हो (ट्रम्पकार्ड)।
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विजयी  : वि० [सं० विजि+इनि] १. वह जिसने विजय प्राप्त की हो। जीतनेवाला। २. (वह व्यक्ति या पक्ष) जिसकी प्रतियोगिता युद्ध विवाद आदि में जीत हुई हो। पुं० अर्जुन।
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विजयोत्सव  : पुं० [सं० स० त०] १. विजय दशमी के दिन होनेवाला उत्सव। २. युद्ध में विजय प्राप्त करने पर होनेवाला उत्सव।
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विजर  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे जरा या बुढ़ापा न आता हो। जराहीन। २. नया। नवीन।
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विजल  : वि० [सं० ब० स०] जल से रहित। जलहीन। निर्जल। पुं० अनावृष्टि। सूखा।
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विजलीकरण  : पुं० [सं०] निर्जलीकरण।
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विजल्प  : पुं० [सं० तृ० त०] १. व्यर्थ की बहुत सी बकवाद। २. किसी को बदनाम करने के लिए कही जानेवाली झूठी बात।
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विजल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विजल्पित] १. विजल्प करने की क्रिया या भाव। २. कहना। बोलना। ३. अस्पष्ट रूप से कोई बात पूछना। ४. बे-सिर पैर की या व्यर्थ की बातें कहना।
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विजात  : वि० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० विजाता] १. जन्मा हुआ। २. विभिन्न जातियों के माता पिता से उत्पन्न। वर्णसंकर। दोगला। पुं० सखी छन्द का एक भेद जिसमें प्रत्येक चरण में ५-५-४ के विश्राम से १४ मात्राएँ और अन्त में मगण या यगण होता है। इसकी पहली और आठवीं मात्राएँ लघु रहती है।
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विजाता  : स्त्री० [सं०] ऐसी स्त्री जिसने बच्चे या बच्चों को जन्म दिया हो। वि० ‘विजात’ की स्त्री०।
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विजाति  : वि० [सं० ब० स०] विजातीय। (दे०)। स्त्री० दूसरी या भिन्न जाति।
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विजातीय  : वि० [सं० विजाति+छ—ईय] [भाव० विजातीयता] किसी की दृष्टि में, उसकी जाति से भिन्न जाति का। पराई जाति का (हेड्रोजीनियस)।
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विजानक  : वि० [सं० वि√ज्ञा (जानना)+ल्यु,-अन+कनज्ञा-जा] जाननेवाला।
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विजानता  : स्त्री० [सं० विजान+तल्+टाप्] १. जानकारी। २. चातुर्य।
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विजानना  : स० [सं० विजानता] विशेष रूप से जानना।
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विजानु  : पुं० [सं०] १. युद्ध में लड़ने का विशेष कौशल। २. तलवार चलाने का एक ढंग।
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विंजामर  : पुं० [सं०] आँख का सफेद भाग।
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विजार  : पुं० [देश] एक तरह की भूमि जिसमें धान, चना आदि बोया जाता है।
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विजारत  : स्त्री० [अ० विजारत] १. वजीर अर्थात् मन्त्री का कार्य या पद। २. मंत्रियों का समूह मंत्रिमंडल। ३. वजीर या मन्त्री का कार्यालय।
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विजिगीषा  : स्त्री० [सं० विजिगीष+टाप्] विजय पाने की इच्छा।
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विजिगीषु  : वि० [सं० वि√जि+सन्+उ] जिसे विजय पाने की इच्छा हो।
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विजिगीषुता  : स्त्री० [सं०] विजिगीषा।
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विजिट  : स्त्री० [अं०] १. भेंट। मुलाकात। २. डाक्टरों आदि का रोगी को देखने के लिए उसके घर जाना। २. उक्त काम के लिए डाक्टर को मिलनेवाली फीस।
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विजित  : भू० कृ० [सं० वि√जि (जीतना)+क्त] जिस पर विजय पाई गई हो। जिसे जीता गया हो। पुं० फलित ज्योतिष में पराजय का सूचक ग्रह।
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विजितात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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विजितारि  : पुं० [सं० ब० स०] वह जिसने शत्रुओं को जीत लिया हो।
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विजिति  : स्त्री० [सं० वि√जि+क्तिन्] १. विजय। जीत। २. प्राप्ति।
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विजितेय  : वि० [सं० विजित+ठक्, ढ=एय] जिस पर नियंत्रण या विजय प्राप्त की जा सके या की जाने को हो।
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विजित्व  : पुं० [सं०] १. ऐसा भोजन जिसमें अधिक रस न हो। २. एक प्रकार की लपसी।
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विजित्वर  : वि० [सं० वि√जि+क्विप्, तुक्] विजयी। विजेता।
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विजित्वरा  : स्त्री० [सं० विजित्वर+टाप्] एक देवी का नाम।
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विजीष  : वि० [सं०] विजिगीषु (दे०)।
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विजुंभण  : पुं० [सं०] १. खिलना। २. खुलना। ३. तनना या फैलना। ४. विकसित या विस्तृत होना। ५. जँभाई लेना।
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विजुली  : स्त्री० [सं० विजुल+ङीष्] पुराणानुसार एक देवी का नाम। स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजृंभा  : स्त्री० [सं० विजृम्भ+टाप्] उबासी। जंभाई।
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विजृंभिणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजेतव्य  : वि० [सं० वि√जि+ताव्यत्]=विजेय।
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विजेता (तृ)  : वि० [सं० वि√जि+तृच्] जीतनेवाला। विजयी।
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विजेय  : वि० [सं० वि√जि+य़त्] जो जीता जा सके या जीते जाने के योग्य हो।
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विजै  : स्त्री०=विजय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजैसार  : पुं० [सं० विजयसार] साल की तरह का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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विजोग  : पुं०=वियोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजोगी  : वि०=वियोगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजोर  : वि० [हिं० वि+डोर=बल] जिसमें जोर न हो। बलहीन। निर्बल। पुं०=बिजौरा नींबू।
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विजोहा  : पुं० [सं० विमोहा] एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण होते हैं इसे जोहा विमोहा और विजोरा भी कहते हैं।
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विज्जल  : वि० [सं० वि√जड् (स्थित रहना)+अच्,ड-ल, जुट्] (स्थान) जहाँ फिसलन हो। पुं० १. शाल्मलीकद। २. एक तरह की चावल की लपसी। ३. एक तरह की तीर या बाण।
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विज्जव  : पुं० [सं०] एक प्रकार का बाण।
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विज्जावइ  : पुं० [सं० विद्यापति]=विद्यापति। उदाहरण—विज्जावई कविवर एहु गावए।—विद्यापति।
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विज्जु  : स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विज्जुल  : पुं० [सं० विज+उलच्, जुट्] १. त्वचा। छिलका। २. दारचीनी।
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विज्जुलता  : स्त्री० [सं० विद्युलता] विद्युत्। बिजली।
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विज्जोहा  : पुं०=विजोहा (छन्द)।
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विज्ञ  : वि० [सं० वि√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० विज्ञता] (व्यक्ति) जिसकी जानकारी बहुत अधिक हो। २. विशेषतः विषय का बहुत बड़ा जानकार। ३. समझदार और पढा लिखा। व्यक्ति।
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विज्ञता  : स्त्री० [सं० विज्ञ+तल्+टाप्] विज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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विज्ञत्व  : पुं० [सं० विज्ञ+त्व]=विज्ञता।
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विज्ञप्त  : भू० कृ० [सं० वि√ज्ञप्तृ (जानना)+क्त] १. जिसकी जानकारी दूसरों को करा दी गई हो। २. विज्ञप्ति के रूप में निकाला या प्रकाशित किया हुआ।
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विज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० वि√ज्ञप्तृ+क्तिन्] १. जतलाने या सूचित करने की क्रिया। २. इश्तहार। विज्ञापन। ३. आज-कल किसी अधिकारी या उसके कार्यालय की ओर से निकलने वाली ऐसी सूचना जिसमें किसी बात या विषय का स्पष्टीकरण हो (कम्यूनीक)। ४. दे० ‘बुलेटिन’।
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विज्ञात  : वि० [सं० वि√ज्ञा+क्त] १. जाना या समझा हुआ। २. प्रसिद्ध। मशहूर।
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विज्ञातव्य  : वि० [सं० वि√ज्ञा+तव्य] जानने या समझने के योग्य। (बात या विषय)।
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विज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० वि√ज्ञा+तृच्] विज्ञ।
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विज्ञाति  : स्त्री० [सं० वि√ज्ञा+क्तिन्] १. ज्ञान। समझ। २. जानकारी। ३. गम नामक देवयोनि। ४. पुराणानुसार एक कल्प का नाम।
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विज्ञान  : पुं० [सं० वि√ज्ञा+ल्युट-अन] १. ज्ञान। जानकारी। २. बुद्धि विशेषतः निश्चयात्मिका बुद्धि। ३. अच्छी तरह काम करने की योग्यता। दक्षता। ४. सांसारिक कार्यो, बातों और व्यवहारों का अच्छा अनुभव तथा ठीक और पूरा ज्ञान। ५. आविष्कृत सत्यों तथा प्राकृतिक नियमों पर आधारित क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित ज्ञान। ६. विशेषतः भौतिक जगत् से संबंधित उक्त प्रकार का ज्ञान। ७. दार्शनिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अविद्या या माया नाम की वृत्ति। ८. बौद्धों के अनुसार आत्मा के स्वरूप का ज्ञान। आत्मा का अनुभव। ९. आत्मा। १॰. ब्रह्म। ११. मोक्ष। १२. आकाश। १३. कर्म।
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विज्ञान-कोश  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. वेदान्त के अनुसार ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि। २. विज्ञान-मय कोश जो आत्मा को परिवृत्त करने वाला पहला आवरण या कोश कहा गया है।
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विज्ञान-पाद  : पुं० [सं०] वेदव्यास।
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विज्ञानता  : स्त्री० [सं० विज्ञान+तल्+टाप्] विज्ञान का धर्म या भाव।
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विज्ञानमय कोष  : पुं० [सं०] =विज्ञान-कोश।
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विज्ञानवाद  : पुं० [सं०] [वि० विज्ञानवादी] बौद्ध महायान का एक दार्शनिक सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि संसार के समस्त पदार्थ असत्य होने पर भी विज्ञान या चित् की दृष्टि से सत्य ही है।
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विज्ञानवादी  : वि० [सं०] विज्ञानवाद संबंधी। पुं० विज्ञानवाद का अनुयायी।
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विज्ञानिक  : वि० [सं० विज्ञान+ठन्-इक] १. जिसे ज्ञान हो। २. विज्ञ। ३. दे० ‘वैज्ञानिक’।
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विज्ञानिता  : स्त्री० [सं० विज्ञानि+तल्+टाप्] विज्ञानी का धर्म या भाव।
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विज्ञानी (निन्)  : पुं० [सं० विज्ञान+इनि] १. ज्ञानी। २. वैज्ञानिक।
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विज्ञानीय  : वि० [सं० वि√ज्ञा+अनीयर्] विज्ञान-संबंधी। वैज्ञानिक।
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विज्ञापक  : वि० [सं०] दूसरों की जानकारी करनेवाला। पुं० समाचार पत्रों आदि में विज्ञापन छपानेवाला। विज्ञापन-दाता।
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विज्ञापन  : पुं० [सं० वि√ज्ञा+णिच्+युक्-अन] १. सब लोगों को कोई बात जतलाने या बतलाने की क्रिया या भाव। जानकारी कराना। सूचित करना। २. पत्रों आदि में लोगों की जानकारी के लिए विशेष रूप से छपवाई जानेवाली बात या सूचना। ३. उक्त उद्देश्य से बाँटा जानेवाला सूचना-पत्र। ४. प्रचार तथा बिक्री के उद्देश्य से किसी वस्तु के संबंध में सामयिक पत्रों में प्रकाशित कराई जानेवाली सूचना।
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विज्ञापना  : स्त्री० [सं० विज्ञापन+टाप्] विज्ञप्त करना। जतलाना। बतलाना।
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विज्ञापनीय  : वि० [सं० वि√ज्ञप् (जानना)+णिच्+अनीयर] (बात या विषय) जो दूसरों को सार्वजनिक रूप में बताये जाने के योग्य हो।
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विज्ञापित  : भू० कृ० [सं० वि√ज्ञप्+णिच्+क्त] १. जो बतलाया जा चुका हो। जिसकी सूचना दी जा चुकी हो। २. जिसके विषय में विज्ञापन प्रकाशित हो चुका हो। ३. जिसकी सूचना दी गई हो (नोटिफ़ायड)।
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विज्ञापित-क्षेत्र  : पुं० [सं०] स्थानिक स्वशासन और प्रबंध के लिए नियत किया हुआ छोटा क्षेत्र। (नोटिफ़ायड एरिया)।
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विज्ञापी  : वि० [सं० विज्ञापित्]=विज्ञापक।
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विज्ञाप्ति  : स्त्री० [सं० वि√ज्ञा (जानना)+णिच्, पुक्,+क्तिन्]=विज्ञप्ति।
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विज्ञाप्य  : वि० [सं० वि√ज्ञप्+ण्यत्]=विज्ञापनीय।
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विज्ञेय  : वि० [सं० वि√ज्ञा+यत्] (बात या विषय) जो जानने या समझने के योग्य हो।
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विज्वर  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका ज्वर उतर गया हो। जिसका बुखार छूट गया हो। २. सब प्रकार के क्लेशों, चिन्ताओं आदि से मुक्त।
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विट  : पुं० [सं०] १. वह जिसमें काम-वासना बहुत अधिक हो। कामुक। २. पुंश्चली स्त्रियाँ और वेश्याओं से संबंध रखने और प्रायः उन्हीं के साथ रहनेवाला व्यक्ति। लंपट। ३. बहुत बड़ा चालाक या धूर्त आदमी। ४. साहित्य में एक प्रकार का नायक जो प्रायः ऐसा व्यक्ति होता है जो बात-चीत में बहुत चतुर बहुत बड़ा धूर्त तथा लंपट हो और अपनी सारी सम्पत्ति भोग-विलास में नष्ट करके किसी विलासी राजा,राजकुमार या धनवान् के साथ बहुत-कुछ विदूषक के रूप में रहने लगा हो और उसके भोग-विलास में सहायक होकर और उसका मनोरंजन करके अपना निर्वाह भी करता हो और प्रायः वेश्याओं के साथ रहकर थोड़ा बहुत भोग-विलास भी करता है। भाण। (देखें) नामक प्रहसन या रूपक का यही नायक होता है। ५. बहुत बड़ा बदमाश या लुच्चा। ६. एक प्राचीन पर्वत। ७. दुर्गध खैर। ८. नारंगी का पेड़। ९. साँचर नमक। १॰. चूहा। ११. गुह। मल। विष्ठा।
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विट-लवण  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का नमक।
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विटंक  : वि० [सं०] ऊँचा। पुं० १. बैठने का ऊँचा स्थान। २. वह छतरी जिस पर पक्षी बैठते हैं।
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विटक  : पुं० [सं० विट+कन्] १. नर्मदा के किनारे का एक प्राचीन प्रदेश। २. उक्त प्रदेश में रहनेवाली एक जाति। ३. घोड़ा।
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विटकृमि  : पुं० [सं० ष० त०] चुन्ना या चुनचुना नाम का कीड़ा जो बच्चों की गुदा में उत्पन्न होता है।
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विटप  : पुं० [सं०] १. वृक्ष या लता की नई शाखा। कोंपल। २. छतनार पेड़। झाड़। ३. पेड़। वृक्ष। ४. लता।
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विटपी (पिन्)  : वि० [सं० विटप+इनि] (वनस्पति) जिसमें नई शाखाएँ या कोपलें निकली हों। पुं० १. पेड़। वृक्ष। २. अंजीर का पेड़। ३. वटवृक्ष। बड़ का पेड़।
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विटपी मृग  : पुं० [सं० ष० त०] शाखामृग (बंदर)।
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विटम्राक्षिक  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सोना-मक्खी।
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विटामिन  : पुं० [अं० विटैमिन] प्रायः सभी अनाजों, तरकारियों और फलों में बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में पाया जानेवाला एक एक नव-आविष्कृत तत्त्व जो शरीर के अंगों के पोषण, स्वास्थ्य-रक्षण आदि के लिए आवश्यक और उपयोगी माना गया है और जिसके बहुत से भेद तथा उपभेद देखे गये है (विटैमिन)।
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विट्  : पुं० [सं०√विट्+क्विप्] १. साँचर नमक। २. मल विष्ठा।
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विट् खदिर  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का खदिर जो बदबूदार होता है।
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विट्घात  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्राघात नामक रोग।
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विट्ठल  : पुं० [?] विष्णु के अवतार एक देवता जिसकी मूर्ति पंढरपुर (महाराष्ट्र) में प्रतिष्ठित है।
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विट्शूल  : पुं० [सं०] एक प्रकार का शूल रोग।
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विठर  : वि० [सं०] वाग्मी। पुं० बृहस्पति।
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विठल  : पुं०=विट्ठल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विठोबा  : पुं०=विट्ठल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विड  : पुं० [सं०] विट-लवण। बिरिया नोन।
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विडंग  : पुं० [सं०√विड्+अङच्] बाय बिडंग। पुं० [?] घोड़ा।
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विडग्रह  : पुं० [सं०] कोष्ठबद्धता। मलावरोध।
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विडंबक  : वि० [सं० वि√डम्ब (विडम्बना करना)+णिच्+ण्वुल-अक] १. ठीक अनुकरण करने-वाला। पूरी नकल करनेवाला। २. केवल अपमानित करने या चिढ़ाने के लिए किसी तरह की नकल उतारनेवाला। ३. हँसी उड़ाने के लिए निंदा करनेवाला।
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विडंबन  : पुं० [सं०] १. किसी को चिढ़ाने, अपमानित करने आदि के उद्देश्य से उसकी नकल उतारना या हँसी उड़ाना। २. विडंबना।
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विडंबना  : स्त्री० [सं० विडंबन+टाप्] [वि० विडंबनीय, भू० कृ० विडंबित] १. किसी को चिढ़ाने के लिए उसकी उतारी जानेवाली नकल। २. वह हँसी-मजाक जो किसी को चिढ़ाने या अपमानित करने के लिए किया जाय। ३. दम्भ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विडंबनीय  : वि० [सं० वि√डम्ब+अनीयर्] जिसकी विडंबना हो सके या होना उचित हो।
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विडंबित  : भू० कृ० [सं०] जिसकी विडंबना की गई हो या हुई हो।
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विडंबी (बिन्)  : वि० [सं० विडम्ब+इनि] १. दूसरों की नकल उतारनेवाला। २. चिढ़ाने या अपमानित करने के उद्देश्य से दूसरों का हँसी-मजाक उड़ानेवाला।
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विडरना  : अ० [सं० तलव, हिं० डालना या सं० वितरण] १. इधर-उधर होना। तितर-बितर होना। २. भागना।
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विडराना  : स०=विडारना।
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विडलवण  : पुं० [सं० उपमि० स०] साँचर नमक।
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विडारक  : पुं० [सं० विंड+आरकन्, विडाल+कन्, ल-र] बिड़ाल। बिल्ली।
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विडारना  : स० [हिं० विडरना का स० रूप] १. तितर-बितर करना। इधर-उधर करना। छितराना। २. नष्ट करना।
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विडाल  : पुं० [सं०√विड् (निंदा करना)+कालन्] १. आँख का पिंड। २. आँख में लगाई जाने-वाली दवा या उस पर किया जानेवाला लेप। ३. बिल्ली। ४. गन्ध बिलाव। ५. हरताल।
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विडालाक्षी  : स्त्री० [सं०] बिल्ली कीसी आँखोवाली स्त्री।
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विडाली  : पुं० [सं० विडाल+ङीष्] १. विदारी कंद। २. बिल्ली।
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विडीन  : पुं० [सं० वि√डी (उड़ना)+क्त] पक्षियों की एक विशेष प्रकार की उड़ान।
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विडौजा (जस्)  : पुं० [सं०]=इंद्र।
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विड्घात  : पुं० [सं०] मलमूत्र का अवरोध। पेशाब और पाखाना रुकना।
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विड्ज  : वि० [सं०] विष्ठों में से उत्पन्न होनवाला (कीड़ा)।
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विड्भंग  : पुं० [सं०] दस्त आने का रोग।
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विड्भेद  : पुं० [सं० ष० त०]=विड्भंग।
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विड्भेदी (दिन्)  : वि० [सं०] जिसके खाने से दस्त आते हों। विरेचक।
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विड्लवण  : पुं० [सं०] विट्लवण। साँचर नमक।
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विड्वराह  : पुं० [सं० मध्यम० स०] गाँवों में रहनेवाला सुअर।
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विण्लावी  : वि० [सं० विप्लाविन] [स्त्री० विप्लाविनी] १. उपद्रव करनेवाला। २. बाढ़ लानेवाला। ३. निंदक।
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वित  : वि० [सं० विद्] १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. चतुर। होशियार। पुं०=वित्त (अर्थ)।
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वितंड  : पुं० [सं० वि√तंड् (ताड़न करना)+अच्] १. हाथी। २. एक तरह का पुरानी चाल का ताला।
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वितंडा  : स्त्री० [सं० वितंड+टाप्] १. ऐसी आपत्ति, आलोचना विरोध जो छिद्रान्वेषण के विचार से किया गया हो। २. दूसरे के पक्ष को दबाते हुए अपने मत की स्थापना करना। ३. व्यर्थ की कहा-सुनी झगड़ा। ४. दूब। ५. कबूतर। ६. शिला। रस।
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वितताना  : अ० [सं० व्यथा] व्याकुल या बेचैन होना।
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वितति  : स्त्री० [सं० वि√तन्+क्तिन्] वितत होने की अवस्था या भाव। विस्तार।
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विततोरसि  : वि० [सं० वितत (फैला हुआ)+उरसि] १. चौड़ी या विस्तृत छातीवाला (वीरों का लक्षण) २. उदार हृदय।
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वितंत्र  : पुं० [सं० वि+तंत्र] ऐसा बाजा जिसमें तार न लगे हों। बिना तार का बाजा।
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वितंत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] ऐसी वीणा जिसके तारों का स्वर ठीक मिला न हो।
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वितथ  : वि० [सं०√तन+क्थन्] [भाव० वितयता] १. झूठा। मिथ्या। वि २.निरर्थक। व्यर्थ। पु० १. गृह-देवताओं का एक वर्ग। २. भरद्वाज ऋषि।
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वितथ्य  : वि० [सं०] १. तथ्य-रहित। २. वितथ (दे०)
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वितद्रु  : पुं० [सं० वि√तन्+रु, दुट्-आगम] पंजाब की झेलम नदी का प्रचीन नाम।
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वितनु  : [सं० वि√तन्+उ] १. तनहीन। देहहीन। विदेह। २. कोमल, सूक्ष्म, तथा सुंदर। पुं० कामदेव।
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वितपन्न  : वि०=व्युत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितमस  : वि०=वितमस्क।
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वितमस्क  : वि० [सं०] १. जिसमें तम या अंधकार न हो। २. तमोगुण से रहित।
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वितरक  : वि० [सं० वितर+कन्] वितरण करनेवाला। बाँटनेवाला। पुं० व्यावसायिक क्षेत्र में वह व्यक्ति या संस्था जो किसी उत्पादक संस्था की वस्तुओं की बिक्री आदि का प्रबंध करती हो। (डिस्ट्रीब्यूटर)।
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वितरक-नदी  : स्त्री० [सं०] आधुनिक भूगोल में, किसी नदी के मुहाने पर बननेवाली उसकी शाखाओं में से प्रत्येक शाखा जो स्वतंत्र रूप से जाकर समुद्र में गिरती है (डिस्ट्रीब्यूटरी)।
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वितरण  : पुं० [सं० वि√तृ (पार करना)+ल्युट-अन] १. दान करना। देना। २. अर्पण करना। ३. बाँटना। ४. अर्थशास्त्र में उत्पत्ति के फलस्वरूप होनेवाली प्राप्ति का उत्पत्ति के साधनों में बाँटना। ५. व्यापारिक क्षेत्र में विक्रय तथा प्रदर्शन के उद्देश्य से दुकानदारों तथा व्यापारियों को निर्मित वस्तुएँ देना।
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वितरन  : वि०=वितरक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितरना  : स० [सं० वितरण] वितरण करना। बाँटना। उदाहरण—आकर्षण धन-सा वितरे जल। निर्वासित हो सन्ताप सकल।—प्रसाद।
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वितरिक्त  : अव्य,=अतिरिक्त।
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वितरित  : भू० कृ० [सं० वितर+इतष्] जो वितरण किया गया हो। बाँटा हुआ।
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वितरिता  : वि० [सं० वि√तृ (तरना)+तृच्]=वितरक।
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वितरेक  : पुं०=व्यतिरेक।
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वितर्क  : पुं० [सं० वि√तर्क (तर्क करना)+अच्] १. कुतर्क करना। २. किसी के तर्क का खंडन करने के लिए उसके विपरीत उपस्थित किया जानेवाला तर्क। ३. साहित्य में एक संचारी भाव जो उस समय माना जाता है जब मन में कोई विचार उत्पन्न होने पर मन ही मन उसके विरुद्ध तर्क किया जाता है और इस प्रकार असमंजस में रहा जाता है। ४. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी प्रकार के सन्देह या वितर्क का उल्लेख होता है और कुछ निर्णय नहीं होता।
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वितर्कण  : पुं० [सं० वि√तर्क (तर्क करना)+ल्युट-अन] १. तर्क करने की क्रिया या भाव। २. संदेह। ३. वाद-विवाद।
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वितर्क्य  : वि० [सं० वितर्क+यत्] १. जिसमें किसी प्रकार के वितर्क या संदेह के लिए अवकाश हो। २. अद्भुत। विलक्षण।
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वितर्दि (तर्द्धि)  : स्त्री० [वि०√तर्द (मारना)+इनि] १. वेदी० २. मंत्र। ३. छज्जा।
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वितल  : पुं० [सं० तृ० त०] पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोगों में से दूसरा लोक (पुराण)।
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वितली (लिन्)  : पुं० [सं० वितल+इनि] बकदेव, जो वितल के धारक माने गए है (पुराण)।
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वितंवादी  : वि० [सं० वि-सम्√वद् (कहना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. धोखा देनेवाला। २. वचन भंग करनेवाला। ३. खंडन करनेवाला। पुं० संगीत में वह स्वर जिसका वादी स्वर से मेल न बैठता हो।
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वितंस  : पुं० [सं० वि√तंस् (भूषित करना)+अच्] १. पक्षी रखने का पिंजरा। २. बस, रस्सी, जंजीर आदि जिससे पशु या पक्षी को बाँधा जाय।
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वितस्ता  : स्त्री० [सं० वि√तस् (ऊपर फेंकना)+क्त+टाप्] पंजाब की झेलम नदी का प्राचीन नाम।
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वितस्ताख्य  : पुं० [सं० ब० स०] कश्मीर में स्थित तक्षक नाग का निवास स्थान (महाभारत)।
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वितस्ति  : पुं० [सं० वि√तस्+ति] बारह अंगुल की एक नाप। बित्ता।
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वितस्तिद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] राजतरंगिणी में उल्लखित एक पर्वत।
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विताडन  : पुं० [सं० वि√तड् (मारना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विताड़ित]=ताड़न।
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वितान  : पुं० [सं० वि√तन् (विस्तार करना)+घञ्] १. फैलाव। विस्तार। २. ऊपर से फैलाई जानेवाली चादर। चँदोआ। ३. जमाव। समूह। ४. घृणा। ५. शून्य स्थान। खाली जगह। ६. यज्ञ। ७. अग्निहोत्र आदि कृत्य। ८. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण,भगण और दो दो गुरु होते हैं। ९. सिर पर बाँधी जानेवाली पट्टी। वि०१. खाली। शून्य। २. दुःखी। ३. मूर्ख। ४. दुष्ट। ५. परिव्यक्त।
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वितानक  : पुं० [सं०] १. बड़ा। चँदोआ। २. खेमा। ३. धन-सम्पत्ति। ४. धनियाँ। वि० फैलानेवाला।
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वितानना  : स० [सं० वितान] १. खेमा, शामियाना आदि का तानना। २. कोई चीज तानना या फैलाना।
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वितार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का केतु या पुच्छल तारा (बृहत्संहिता)।
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वितारक  : पुं० [सं० वितार+कन्] विधारा नामक जड़ी।
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विताल  : वि० [सं० ब० स०] (संगीत या वाक्य) जो ठीक ताल में न दे रहा हो। बे-ताल। पुं० संगीत में ऐसा ताल जो गाई या बजाई जानेवाली चीज के उपयुक्त न हो।
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वितिक्रम  : पुं०=व्यतिक्रम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितिमिर  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तम या अंधकार न हो।
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वितीत  : वि०=व्यतीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितीपात  : पुं०=व्यतीपात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितीपाती  : वि० [सं० व्यतीपात+ई (प्रत्यय)] जो बहुत अधिक उपद्रव करता हो। पाजी। शरारती। विशेष—फलित के अनुसार ज्योतिष के व्यतीपात योग में जन्म लेनेवाले बालक बहुत दुष्ट होते हैं। इसी आधार पर यह विशेषण बना है।
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वितीर्ण  : पुं० [सं० वि√तृ+क्त]=वितरण। भू० कृ० १. पार किया या लाँघा हुआ। २. दिया या सौंपा हुआ। ३. जीता हुआ।
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वितु  : पुं०=वित्त (अर्थ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितुंड  : पुं० [सं०] हाथी।
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वितुन्न  : पुं० [सं० वि√तुद्+क्त] १. शिरियारी या सुसना नामक साग। २. शैवाल। सेवार।
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वितुन्नक  : पुं० [सं० वितुन्न+कन्] १. धनिया। २. तूतिया। ३. केवटी। मोथा। ४. भू-आँवला।
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वितुव  : पुं० [सं० वि√तुद् (पीड़ित करना)+अच्] एक प्रकार की भूत योनि (वैदिक साहित्य)।
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वितुष्ट  : वि० [सं० वि√तुष् (संतुष्ट होना)+क्त]=असंतुष्ट।
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वितृण  : वि० [सं० ब० स०] (स्थान) जिसमें तृण, घास आदि न उगती हो। तृण से रहित।
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वितृप्त  : वि० [सं० ब० स०] जो तृप्त या संतुष्ट न हुआ हो। अतृप्त।
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वितृष  : वि० [सं० ब० स०]=वितृष्ण।
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वितृष्ण  : वि० [सं०] [भाव० वितृष्णा] जिसके मन में कुछ भी या कोई तृष्णा न रह गई हो। तृष्णा-रहित।
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वितृष्णा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] [भाव० वितृष्ण] १. मन में किसी बात की तृष्णा न रह जाना। तृष्णा का अभाव। २. बुरी या विकट तृष्णा।
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वित्त  : पुं० [सं०] १. धन। संपत्ति। २. राज्य, संस्था आदि के आय-व्यय आदि की मद या विभाग और उसकी व्यवस्था (फ़ाइनान्स)।
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वित्त  : स्त्री०=वृत्ति। पुं०=वृत्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्त-कोश  : पुं० [सं० ष० त०] १. रुपये-पैसे आदि रखने की थैली। २. धन आदि का खजाना।
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वित्त-मंत्री  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज्य का वह मंत्री जो आय-व्यय वाले विभाग का प्रधान अधिकारी हो (फाइनान्स मिनिस्टर) २. किसी संस्था के आय-व्यय वाले विभाग का मंत्री। अर्थ-मंत्री।
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वित्त-वर्ष  : पुं० [सं०] वित्तीय वर्ष।
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वित्त-विधेयक  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक शासन में विधान सभा में आगामी वर्ष के लिए उपस्थित किया जानेवाला वह विधेयक जिसमें आय-व्यय संबंधी सभी मुख्य बातों का उल्लेख रहता है (फाइनान्स बिल)।
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वित्त-सचिव  : पुं० [सं०] वित्त मंत्री।
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वित्त-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक शासन व्यवस्था में वे सब द्वार या साधन जिनसे राज्य, संस्था आदि को अर्थ या धन प्राप्त होता है (फ़ाइनान्सेज)।
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वित्तगोप्ता  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर के भंडारी का नाम।
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वित्तदा  : स्त्री० [सं० वित्त√दा (देना)+क+टाप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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वित्तनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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वित्तपति  : पुं० [सं० ष० त०]=वित्तपाल।
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वित्तपाल  : पुं० [सं० वित्त√पाल् (पालन करना)+अच्] १. कुबेर। २. खजानची। ३. भंडारी।
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वित्तपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] कुबेर की अलका नगरी।
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वित्तवान् (क्तृ)  : वि० [सं०वित्त+मतुप्, म-व, नुम्] धनवान।
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वित्तहीन  : वि० [सं० ष० त०] धन-हीन। निर्धन।
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वित्ति  : स्त्री० [सं० विद् (जानना)+क्ति] १. विचार। २. प्राप्ति। ३. लाभ। ४. ज्ञान। ५. संभावना।
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वित्तीय  : वि० [सं० वित्त+छ-ईय] १. वित्त-संबंधी। वित्त का। २. वित्त की व्यवस्था के विचार से चलने या होनेवाला (फ़ाइनान्सल)।
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वित्तीय-वर्ष  : पुं० [सं०] किसी देश की वित्तीय व्यवस्था की दृष्टि से नियत किया हुआ बारह महीनों का समय या वर्ष। जैसे—भारतीय वित्तीय वर्ष १ अप्रैल से ३१ मार्च तक होता है।
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वित्तेश, वित्तेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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वित्त्व  : पुं० [सं० विद्+त्व] वेत्ता होने की अवस्था या भाव।
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वित्थार  : पुं०=विस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्पन्न  : भू० कृ० [सं०] घबराया हुआ० व्याकुल। वि०=व्युत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्रप  : वि० [सं० ब० स०] निर्लज्ज। बेहया। बेशरम।
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वित्रास  : पुं० [सं० वि√त्रस् (काँपना)+घञ्]=त्रास (भय)।
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वित्रासन  : पुं० [सं० वि√त्रस्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वित्रासित] डराने की क्रिया। त्रासन। वि० डरावना। भयानक।
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विथक  : पुं० [सं० विथ+कन्] पवन।
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विथकना  : अ० [हिं० थकना] थकना। उदाहरण-अंग अंग विथकित भइनारी।—नन्दवास। २. चकित या मुग्ध होकर स्तंभित होना।
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विथकित  : भू० कृ० [हि० विथकना] थका हुआ। शिथिल। चकित या मुग्ध होने के कारण स्तब्ध।
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विथराना  : स०=विथराना (छितराना)।
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विथा  : स्त्री०=व्यथा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विथारना  : स० [सं० वितरण] १. फैलाना। २. छितराना
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विथित  : वि०=कथित।
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विथुर  : पुं० [सं०√व्यथ् (पीर्सत करना)+उरच्, य=इ] १. चोर। २. राक्षस। ३. क्षय। नाश। वि० १. अल्प। थोड़ा। २. व्यथित।
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विथुरा  : स्त्री० [सं० विथुर+टाप्] १. विरहणी स्त्री। २. विधवा स्त्री।
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विद  : वि०=विद।
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विंदक  : पुं० [सं० विंद+कन्] १. प्राप्त करनेवाला। पानेवाला। जाननेवाला। ज्ञाता।
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विदग्ध  : भू० कृ० [सं० वि√दह् (जलाना)+क्त] [भाव० विदग्धता] १. जला हुआ। २. नष्ट। ३. तपा हुआ। ४. जिसने किसी विषय का अच्छा या पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक कष्ट सहे हों। ५. चतुर। ६. रसिक।
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विदग्धक  : पुं० [सं० विदग्ध+कन्] जलती हुई लाश (बौद्ध)।
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विदग्धता  : स्त्री० [सं० विदग्ध+तल्+टाप्] विदग्ध (देखें) होने की अवस्था या भाव।
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विदग्धा  : स्त्री० [सं० विदग्ध+टाप्] साहित्य में वह परकीया नायिका जो चतुरता पूर्वक पर-पुरुष को अपने प्रति अनुरक्त करती है।
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विदत्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. दिया या सौंपा हुआ। बाँटा हुआ।
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विदमान  : वि०=विद्यमान्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदर  : पुं० [सं० वि०√दृ (फाड़ना)+अच्] दराज। (सूराख)।
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विदरण  : पुं० [सं० वि√दृ+ल्युट-अन] [भू० कृ० विदरित] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। २. विद्रधि-नामक रोग।
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विदरना  : अ० [सं० विदरण] विदीर्ण होना। फटना। स० १. विदारण करना। फाड़ना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना। उदाहरण—विदर न मोहि पीत रंग ऐसे।—नूर मुहम्मद।
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विदर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] १. आधुनिक महाराष्ट्र के बरार नामक प्रदेश का पुराना नाम। २. उक्त प्रदेश का राजा।
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विदर्भजा  : स्त्री० [सं० विदर्भ√जन् (उत्पन्न करना)+ड+टाप्] १. अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा। २. दमयंती। ३. रुक्मिणी।
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विदर्भराज  : पुं० [सं० ष० त०] दमयंती के पिता राजा भीष्म जो विदर्भ के राजा थे।
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विदर्व्य  : पुं० [सं० ब० स०] बिना फनवाला साँप।
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विदल  : वि० [सं० ष० त०] १. दल से रहित। बिना दल का। २. खिला हुआ। विकसित। ३. फटा हुआ। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. अनार का दाना। ३. चना। ४. दाल की पीठी। ५. बाँस की पट्टियों का बना हुआ दौरा या पिटारा।
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विदलन  : पुं० [सं० वि√दल् (दलन)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विदलित] १. मलने, दलने या दबाने आदि की क्रिया। २. दलने, पीसने या रगड़ने की क्रिया।
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विदलना  : स० [सं० विदलन] दलित करना। नष्ट करना।
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विदलान्न  : पुं० [सं० ब० स० कर्म० स०] १. दला हुआ अन्न। २. दाल। ३. पकाई हुई दाल।
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विदलित  : भू० कृ० [सं० वि√दल् (दलन करना)+क्त] १. जिसका अच्छी तरह दलन किया गया हो। २. कुचला या रौंदा हुआ। ३. काटा, चीरा या फाड़ा हुआ। ४. बुरी तरह से ध्वस्त या नष्ट किया हुआ।
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विदा  : स्त्री० [सं०√विद्+अङ्+टाप्] बुद्धि। ज्ञान। अक्ल। स्त्री० [सं० विदाय, मि० अ० विदाअ] १. रवाना होना। प्रस्थान। २. कहीं से चलने के लिए मिली हुई अनुमति।
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विदाई  : स्त्री० [हिं० विदा+ई (प्रत्यय)] १. विदा होने की क्रिया या भाव। प्रस्थान। २. विदा होने के लिए मिली हुई अनुमति। ३. विदा होने के समय मिलनेवाला उपहार या धन। ४. किसी के बिदा होने के समय उसके प्रति शुभ कामना प्रकट करने के लिए लोगों का एकत्र होना (फ़ेयर वेल)। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—माँगना।—मिलना।
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विदाय  : पुं० [सं० ब० स०] १. विसर्जन। २. प्रस्थान। रवानगी। ३. प्रस्थान करने के लिए मिली हुई अनुमति। ४. दान। स्त्री०=विदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदायी (यिन्)  : वि० [सं० विदाय+इनि] १. जो ठीक तरह से चलाता या रखता हो। नियामक। २. दाता। दारी। स्त्री०=विदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदार  : पुं० [सं० वि√दृ (फाड़ना)+घञ्] १. युद्ध। समर। २. फाड़ना। विदारण।
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विदारक  : पुं० [सं० वि√दृ+ण्वुल-अक] १. वृक्ष, पर्वत आदि जो जल के बीच में हो। २. छोटी नदियों के तल में बना हुआ गड्ढा जिसमें नदी के सूखने पर भी पानी बचा रहता है। ३. नौसादार। वि० विदारण करनेवाला या फाड़नेवाला।
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विदारण  : पुं० [सं० वि√दृ+णिच्+ण्वुल्—अक] १. बीच में से अलग करके दो या अधिक टुकड़े करना। चीरना, फाड़ना, या ऐसी ही और कोई क्रिया करना। २. मार डालना। वध। ३. ध्वस्त या नष्ट करना। ४. कनेर। ५. खपरिया। ६. नौसादार।
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विदारना  : स० [हिं० विदरना] १. विदारण करना। फाड़ना।
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विदारिका  : स्त्री० [सं० वि√दृ+णिच्+ण्वुल-अक+टाप्, इत्व] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार की डाकिनी जो घर के बाहर अग्निकोण में रहती है। २. गंभारी नामक वृक्ष। ३. शालपर्णी। ४. कडुई तुँबी। ५. विदारी कंद।
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विदारित  : भू० कृ० [सं० वि√दृ+णिच्+क्त] जिसका विदारण हुआ हो।
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विदारी (रिन्)  : वि० [सं० वि०√दृ+णिनि] विदारक। स्त्री० [सं० वि√दृ (फाड़ना)√ णिच् +अच्+ ङीष्] १. शालपर्णी। २. भुई कुम्हड़ा। ३. विदारी कंद। ४. क्षीर काकोली। ५. ‘भाव प्रकाश’ के अनुसार अठारह प्रकार के कंठ रोगों में से एक प्रकार का कंठ रोग। ६. एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें बगल में फुंशी निकलती है। ७. वाग्भट्ट के अनुसार मेढ़ा, सींगी, सफेद पुनर्नवा देवदार अनन्तमूल, बृहती आदि ओषधियों का एक गण।
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विदारी गंधा  : स्त्री० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार शालपर्णी, भुई कुम्हला, गोखरू, शतमूली अनंतमूल, जीवंती, मुगवन, कटियारी, पुनर्नवा आदि औषधियों का एक गण। २. शालपर्णी।
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विदारी-कंद  : पुं० [सं० ब० स०, ष० त०] भुई कुम्हड़ा।
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विदाह  : पुं० [सं० वि√दह् (जलाना)+घञ्] [वि० विदाहक, विदाही] १. पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाली जलन। २. हाथ पैरों में होनेवाली जलन।
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विदाही  : वि०=विदाहक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदिक  : स्त्री० [सं० वि√दिश्+क्विप्] जो दिशाओं के बीच की दिशा कोण। विदिशा।
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विदित  : भू० कृ० [सं० विद् (जानना)+क्त] जाना हुआ। अवगत पुं० कवि।
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विदिता  : स्त्री० [सं० विदित+टाप्] जैनों की एक देवी।
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विदिथ  : पुं० [सं० विद्+थन्, इ] १. पंडित। विद्वान। २. योगी।
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विदिशा  : स्त्री० [सं०] दो दिशाओं के बीच का कोण।
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विदिषा  : स्त्री० [सं० तृ० त०+टाप्] १. वर्तमान भेलसा नामक नगर का प्राचीन नाम। २. एक पौराणिक नदी जो पारियात्र नामक पर्वत से निकली हुई कही गई है। ३. जो दिशाओं के बीच की दिशा। कोण।
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विदीपक  : पुं० [सं० कर्म० स०] दीपक दीया।
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विदीर्ण  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे फाड़ा गया हो। २. टूटा या तोड़ा हुआ। ३. जो मार डाला गया हो। निहत।
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विंदु  : पुं० [सं० विन्द+अण्] १. पानी या किसी तरल पदार्थ का कण बूँद। २. छोटा गोलाकार चिन्ह। विंदी। ३. हाथी के मस्तक पर रंगों से किये जानेवाले चिन्ह। ४. लिखने में अनुस्वार का चिन्ह। ५. शून्य का चिन्ह। सिफर। ६. रेखा-गणित से वह स्थान जिसकी स्थिति तो हो, पर जिसके विभाग हो सकते हों। ७. दाँत से लगनेवाला घाव। दन्त-क्षत। ८. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। कनी। ९. वेदान्त में, नाद के फलस्वरूप होनेवाली क्रिया। देखें, नाद। १॰. रत्नों का एक दोष या धब्बा जो चार प्रकार का कहा गया है-आवर्त्त (गोल) वर्ति (लम्बा) आरक्त (लाल) यव (जौ के आकार) वि० १. ज्ञाता। (वेत्ता) जानकार। २. दाता। दानी। ३. जिसका ज्ञान प्राप्त करना उचित हो। जानने योग्य।
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विदु  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+कु] १. हाथी के मस्तक पर का वह गहरा अंश जो दोनों कुंभों के बीच में पड़ता है। २. घोड़े के कान के बीच का भाग। वि० बुद्धिमान्।
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विंदु-चित्रक  : पुं० [सं० ब० स०] हिरन जिसके शरीर पर सफेद चित्तियाँ हों।
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विंदु-जाल  : पुं० [सं०] सुंदरता के लिए गोद या छापकर किसी स्थान पर बनाई हुई बिंदियाँ। जैसे— हाथी के मस्तक या सूँड़ पर का विंदु जाल, बाँह या हाथ पर गोदने का विंदु-जाल।
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विंदु-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] चौपड़ आदि की बिसात। सारि-फलक।
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विंदु-तीर्थ  : पुं० [सं० मध्यम० स०] काशी का प्रसिद्ध पंचनद तीर्थ जहाँ बिन्दु माधव का मन्दिर है। पंचगंगा।
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विंदु-त्रिवेणी  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में स्वर साधन की एक प्रणाली जिसमें तीन बार एक स्वर का उच्चारण करके एक बार उसके बाद के स्वर का उच्चारण करते हैं, फिर तीन बार उस दूसरे स्वर का उच्चारण करके एक बार तीसरे-स्वर का उच्चारण करते है और अन्त में तीन बार सातवें स्वर का उच्चारण करके एक बार उसके अगले सप्तक के पहले स्वर का उच्चारण करते हैं।
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विंदु-पत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] भोजपत्र।
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विंदु-माधव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] काशी की एक प्रसिद्ध विष्णु मूर्ति।
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विंदु-मालिनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विंदु-रेख  : पुं० [सं०] १. बिंदु रेखा। २. अंकन की एक विशेष प्रक्रिया जिसमें विभिन्न विन्दुओं को रेखाओं से संबद्ध किया जाता है। ३. उक्त प्रकार की विंदुओं की रेखाओं से संबद्ध करने पर बना हुआ चित्र (ग्राफ अंतिम दोनों अर्थो के लिए)।
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विंदु-रेखा  : स्त्री० [सं०] विंदुओं को मिलाने से बननेवाली रेखा। विंदु रेखा।
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विंदुक  : पुं० [सं०] माथे पर लगाया जानेवाला टीका या बिन्दी।
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विदुख  : पुं० [स्त्री० विदुखी]=विदुष (विद्वान्)।
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विदुत्तम  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो सब बातें जानता हो। २. विष्णु।
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विंदुर  : पुं० [सं० विंदु-रक] छोटी विंदी। बुंदकी।
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विदुर  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+कुरच्] १. वह जो जानकार हो। २. ज्ञानवान्। ज्ञानी। ३. पंडित। पुं० १. अम्बिका के गर्भ से उत्पन्न व्यास के पुत्र जो धृतराष्ट्र और पांडु के भाई थे। २. एक प्राचीन पर्वत। विदूर। पुं०=वैदूर्य (मणि)।
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विंदुराजि  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह का साँप जिसके शरीर पर बुँदकियाँ होती है।
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विदुल  : पुं० [सं० वि√दुल् (झूलना)+क√विद् (जानना)+कुलच्] १. बेंत। २. जलबेंत। ३. अमलबेंत। ४. बोल नामक गन्ध द्रव्य।
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विदुला  : स्त्री० [सं० विदुल+टाप्] १. सातला नाम का थूहर। २. विट् खदिर।
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विदुष  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+क्वसु, व-उ] [स्त्री० विदुषी] विद्वान। पंडित।
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विदुषी  : स्त्री० [सं० विदुष+ङीष्] विद्वान स्त्री।
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विंदुसर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. पुराणानुसार कैलाश पर्वत के दक्षिण का एक सरोवर। २. भुवनेश्वर क्षेत्र में स्थित एक प्राचीन सरोवर।
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विदूर  : वि० [सं०] जो बहुत दूर हो। पुं० १. बहुत दूर का प्रदेश। दूर देश। २. एक प्राचीन जनपद अथवा उसमें स्थित एक पर्वत जिसमें वैदूर्य रत्न अधिकता से मिलता था। ३. वैदूर्य मणि।
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विदूरज  : पुं० [सं०] विदूर पर्वत से उत्पन्न, अर्थात् वैदूर्य मणि।
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विदूरत्व  : पुं० [सं० विदूर+त्व] विदूर होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक अन्तर या दूरी।
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विदूरथ  : पुं० [सं०] १. कुरुक्षेत्र का एक नाम। २. बारहवें मनु का एक पुत्र।
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विदूरित  : भू० कृ० [सं० विदूर+इतच्] दूर किया या परे हटाया हुआ।
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विदूषक  : पुं० [सं०] [स्त्री० विदूषिका] १. दूसरों में दोष बतलाकर उनकी हँसी उड़ानेवाला व्यक्ति। उदाहरण—वेद विदूषक विश्व विरोधी।—तुलसी। २. अपने वेष,चेष्टा, बात-चीत आदि से अथवा ढोंग रचकर और दूसरों की नकल उतारकर लोगों को हँसानेवाला। मसखरा। ३. प्रायः नाटकों में इस प्रकार का एक पात्र जो नायक का अंतरंग मित्र या सखा होता है तथा जिसकी सूरत-शक्ल, हाव-भाव, बातें आदि सब को हँसानेवाली होती है। ४. साहित्य में चार प्रकार के नायकों में से एक प्रकार का नायक जो अपने कौतुक और परिहास आदि के कारण कामकेलि में सहायक होता है। ५. कामुक या विषयी व्यक्ति। ६. भाँड़।
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विदूषण  : पुं० [सं० विद्√दूष् (दूषित करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विदूषित] १. किसी पर दोष लगाने की क्रिया या भाव। २. भर्त्सना करना। कोसना।
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विदूषना  : वि० [सं० विदूषण] १. दूसरों पर दोष लगाना। बुरा बताना। २. कष्ट या दुःख देना। अ०=दुःखी होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदूषित  : भू० कृ० [सं० वि√दूष् (दूषित करना)+क्त] १. जिस पर दोष लगाया गया हो। २. दोष से युक्त। खराब। बुरा। ३. जिसकी भर्त्सना की गई हो। निन्दा किया हुआ।
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विदृक् (दृश्)  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे दिखाई न पड़े। अन्धा। २. जो देखने में किसी से भिन्न हो। ‘सदृश’ का विपर्याय।
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विदेय  : वि० [सं० तृ० त०] दिये जाने के योग्य। देय।
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विदेव  : पुं० [सं० ब० स०] १. राक्षस। २. यक्ष।
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विदेश  : पुं० [सं०] स्वदेश से भिन्न दूसरा कोई देश।
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विदेशी  : वि० [सं० विदेश+इनि] १. विदेश अर्थात् दूसरे देश का। २. विदेश में बनने या होनेवाला। जैसे—विदेशी कपड़ा। पुं० विदेश अर्थात् दूसरे देश का निवासी।
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विदेशीय  : वि० [सं० विदेश+छ-ईय]=विदेशी।
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विदेह  : वि० [सं०] १. देह अर्थात् शरीर से रहित। जिसका शरीर न हो। २. हत। बेहोश। ३. शारीरिक चिन्ताओं आदि से रहित। ४. सांसारिक बातो से विरक्त। ५. मृत। पुं० १. वह जिसकी उत्पत्ति माता-पिता से न हुई हो। जैसे—देवता। भूत-प्रेत आदि। २. मिथिला के राजा जनक का एक नाम। मिथिला देश। ४. मिथिला देश का निवासी। मैथिल। ५. राजा निमि का एक नाम।
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विदेह-कैवल्य  : पुं० [सं०] जीवन्मुक्त व्यक्ति को प्राप्त होनेवाला मोक्ष।
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विदेहत्व  : पुं० [सं० विदेह+त्व] १. विदेह होने की अवस्था या भाव। २. मृत्यु। मौत।
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विदेहपुर  : पुं० [सं०] राजा जनक की राजधानी। जनकपुर।
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विदेहा  : स्त्री० [सं० विदेह+टाप्] मिथिला नगरी और प्रदेश का नाम।
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विदेही (हिन्)  : पुं० [सं०] ब्रह्मा। स्त्री० सीता।
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विदोष  : वि० [सं० ब० स०] दोष-रहित। पुं० १. अपराध। २. पाप।
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विद्  : वि० [सं०√विद् (जानना)+क्विप्] जाननेवाला। ज्ञाता। जैसे—ज्योतिर्विद। पुं० १. पंडित। विद्वान। २. बुध ग्रह। ३. तिल का पौधा।
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विद्द  : स्त्री०=विद्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विद्ध  : भू० कृ० [सं०√व्यध् (छेदना)+क्त, य-इ] १. बीच में छेदा या बेधा हुआ। जैसे—विद्ध कर्ण। २. फेंका हुआ। ३. घायल। ४. जिसमें बाधा पड़ी हो। ५. टेढ़ा। वक्र। ६. किसी के साथ बँधा हुआ। बद्ध। ७. किसी के साथ मिला या लगा हुआ। जैसे—दशमी सिद्ध एकादशी अर्थात् ऐसी एकादशी जिसमें पहले कुछ दशमी भी रही हो। ८. मिलता-जुलता। ९. पंडित। विद्वान।
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विद्ध-व्रण  : पुं० [सं० तृ० त०] १. काँटा चुभने से होनेवाला घाव। २. ऐसा व्रण जो किसी चीज के अंग में चुभने या धँसने के फलस्वरूप हुआ हो।
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विद्धक  : वि० [सं० विद्ध+कन्] विद्ध करनेवाला। पुं० मिट्टी खोदने की एक प्रकार की खंती या फावड़ा।
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विद्धा  : स्त्री० [सं० विद्ध+टाप्] छोटी-छोटी फुन्सियाँ। वि० सं० विद्ध का स्त्री।
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विद्धि  : स्त्री० [सं०√व्यध् (आघात करना)+क्ति, य-इ] १. चुभने या धँसने की क्रिया या भाव। वेध। २. इस प्रकार होनेवाला छेद। आघात। चोट। प्रहार।
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विद्यद्दर्शी  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से यह देखा जाता है कि किसी वस्तु में कैसी और कितनी विद्युत की धारा का संचार है (एलेक्ट्रोस्कोप)।
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विद्यमान  : वि० [सं०] [भाव० विद्यमानता] १. जो अस्तित्व में हो। २. जो सामने उपस्थित या मौजूद हो। विशेष—‘उपस्थित’ और ‘विद्यमान’ में मुख्य अन्तर यह है कि ‘उपस्थित’ में तो किसी के सामने आने या होने का भाव प्रधान है, परन्तु ‘विद्यमान’ में कहीं या किसी जगह वर्तमान रहने या सत्तात्मक होने का भाव मुख्य है।
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विद्यमानत्व  : पुं० [सं० विद्यमान+त्व]=विद्यमानता।
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विद्या  : स्त्री० [सं०] १. अध्ययन, शिक्षा आदि से अर्जित किया जानेवाला ज्ञान। इल्म। २. पुस्तकों, ग्रन्थों आदि में सुरक्षित ज्ञान। इल्म। ३. किसी तथ्य या विषय का विशिष्ट और व्यवस्थित ज्ञान। ४. किसी गंभीर और ज्ञातव्य विषय का कोई विभाग या शाखा। ५. किसी कार्य या व्यापार की वे सब बातें जिनका ज्ञान उस कार्य के सम्पादन के लिए आवश्यक हो। ६. कौशल या चातुर्य से भरा हुआ ज्ञान। जैसे— ठगविद्या। ७. दुर्गा।
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विद्या-गुरु  : पुं० [सं०] वह गुरु जिससे विद्या पढ़ी हो। शिक्षक। (मंत्र देने वाले गुरु से भिन्न)।
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विद्या-गृह  : पुं० [सं०] विद्यालय। पाठशाला।
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विद्या-दान  : पुं० [सं०] किसी को विद्या देना या सिखाना।
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विद्या-देवी  : स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. जैनों की एक देवी।
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विद्या-मंदिर  : पुं० [सं० ष० त०] विद्यालय।
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विद्या-वृद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] विद्या या ज्ञान में औरों से बहुत आगे बढ़ा हुआ।
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विद्या-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] गुरु के यहाँ रहकर विद्या सीखने का व्रत।
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विद्याकर  : पुं० [सं०] विद्वान व्यक्ति।
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विद्यात्व  : पुं० [सं०] विद्या का भाव।
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विद्याद्रोही  : पुं० [सं०] १. विद्यार्थी २. विद्या-प्रेमी। उदाहरण-पहले दीच्छित विद्या दोही।—नूर-मोहम्मद।
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विद्याधन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. विद्या स्वीधन २. विद्या के बल से अर्जित किया हुआ धन।
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विद्याधर  : पुं० [सं० विद्या√धृ (धारण करना)+अच्] [स्त्री० विद्याधरी] १. एक प्रकार की देव योनि जिसके अंतर्गत खेचर, गन्धर्व, किन्नर आदि माने जाते हैं। २. वैद्यक में एक रसौषधि। ३. काम-शास्त्र में एक प्रकार का आसन या रति।—बन्ध।
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विद्याधरी  : स्त्री० [सं० विद्याधर+ङीष्] विद्याधर नामक देवता की स्त्री।
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विद्याधारी  : पुं० [सं० विद्याधर+इनि, विद्याधारिन्] एक प्रकार का वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चार मगण होते हैं।
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विद्याधि-देवता  : स्त्री० [सं० ष० त०] विद्या की अधिष्ठात्री देवी, सरस्वती।
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विद्याधिप  : पुं० [सं० ष० त०] १. गुरु। शिक्षक। २. पंडित। विद्वान्।
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विद्यापति  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज-दरबार का सबसे बड़ा विद्वान। २. मिथिला के प्रसिद्ध कवि।
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विद्यापीठ  : [सं० ष० त०] १. शिक्षा का बड़ा और प्रमुख केन्द्र। २. ऐसा विद्यालय जिसमें ऊँचे दरजे की शिक्षा दी जाती हो। महाविद्यालय।
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विद्यामहेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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विद्यारंभ  : पुं० [सं०] हिंदुओं में, बालक को विद्या की पढ़ाई आरम्भ कराने का संस्कार।
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विद्याराज  : पुं० [सं०] विष्णु की एक मूर्ति।
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विद्यार्थी  : पुं० [सं० विद्या√अर्थ+णिनि] १. वह बालक जो प्राचीन काल में किसी आश्रम में जाकर गुरु से विद्या सीखता था। २. आजकल वह बालक या युवक जो किसी शिक्षा-संस्था में अध्ययन करता हो। ३. वह व्यक्ति जो सदा कुछ न कुछ और किसी न किसी विषय में जानने-सीखने को लालायित तथा प्रयत्नशील रहता है।
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विद्यालय  : पुं० [सं०] ऐसी शिक्षण संस्था जिसमें नियमित रूप से विभिन्न कक्षाओं के विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती है।
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विद्यावधू  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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विद्यावान्  : वि० [सं० विद्या+मतुप्, म-व] विद्वान्।
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विद्यु  : स्त्री०=विद्युत (बिजली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विद्युच्चालक  : वि० [सं० ष० त०] (पदार्थ) जिसके एक सिरे से स्पर्श होते ही विद्युत दूसरे सिरे तक चली जाय। जैसे—धातुएँ, द्रव-पदार्थ आदि।
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विद्युत-विश्लेषण  : पुं० [सं०] वह वैज्ञानिक प्रक्रिया जिससे विद्युत के द्वारा खनिज पदार्थों में से धातुएँ निकालकर अलग की जाती हैं। (इलेक्ट्रोलिसिस)।
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विद्युतगौरी  : स्त्री० [सं० उपमि० स० ब० स०] शक्ति की एक मूर्ति।
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विद्युतिक  : वि०=वैद्युत् (बिजली संबंधी)।
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विद्युत्  : स्त्री० [सं० वि√द्युत् (प्रकाश करना)+विप्] १. बिजली। २. सन्ध्या का समय। ३. पुरानी चाल की एक प्रकार की वीणा। ४. एक प्रकार की उल्का। वि० १. बहुत अधिक चमकीला। २. चमक या दीप्ति से रहित।
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विद्युत्ता  : स्त्री० [सं० विद्युत+टाप्] विद्युत। बिजली।
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विद्युत्पात  : पुं० [सं०] आकाश से बिजली गिरना। वज्रपात।
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विद्युत्पादक  : पुं० [सं०] प्रलय काल के सात मेघों में से एक मेघ।
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विद्युत्प्रभा  : स्त्री० [सं० विद्युत-प्रभ+टाप्] १. दैत्यों के राजा बलि की पोती का नाम। २. अप्सराओं का एक गण या वर्ग।
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विद्युत्मापक  : पुं० [सं० विद्युत+मापक, ष० त०] एक प्रकार का यंत्र जो विद्युत की गति या वेग अथवा उसके व्यय की मात्रा नापता है (इलेक्ट्रामीटर)।
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विद्युत्माला  : स्त्री० [सं०] १. आकाश में दिखाई पड़नेवाली बिजली की रेखा। २. चार चरणों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो भगण और दो गुरु होते हैं।
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विद्युत्मुख  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार के उपग्रह।
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विद्युत्य  : वि० [सं० विद्युत+यत्] विद्युत या बिजली से संबंध रखनेवाला। विद्युतिक।
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विद्युद्दाम (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] बिजली की रेखा।
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विद्युन्माला  : स्त्री० [सं०]=विद्युत्माला।
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विद्युल्लता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] लता के रूप में आकाश में चमकने वाली बिजली।
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विद्युल्लेखा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो मगण होते हैं। इसे शेषराज भी कहते हैं। २. विद्युत। बिजली।
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विद्येश  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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विद्योत  : स्त्री० [सं० वि√द्युत् (प्रकाश करना)+घञ्] १. विद्युत। बिजली। २. चमक। दीप्ति। प्रभा।
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विद्रध  : वि० [सं० वि√रुध् (आवरण)+कि] १. मोटा-ताजा। २. हृष्ट-पुष्ट। ३. दृढ़। पक्का। मजबूत। ४. उद्यत। प्रस्तुत। पुं०=विद्रधि।
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विद्रधि  : पुं० [सं० वि√रुध् (आवरण)+कि, पृषो, सिद्धि] पेट में होनेवाला ऐसा घाव या फोड़ा जिसमें मवाद पड़ गया हो।
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विद्रधिका  : स्त्री० [सं० विद्रधि+कन्+टाप्] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का छोटा फोड़ा जो पुराने प्रमेह के कारण होता है।
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विद्रम-लता  : स्त्री० [सं०] १. नलिका या नली नामक गंध द्रव्य २. मूँगा। विद्रुम।
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विद्रव  : पुं० [सं० वि√द्रु (जाना)+अप्] १. द्रवित होना। गलना। २. घबराहट की स्थिति। ३. बुद्धि। समझ। ४. भगवान।
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विद्रवण  : पुं० [सं०] विद्रव।
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विद्राव  : पुं० [सं० वि√द्रु+घञ्] विद्रव (दे०)।
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विद्रावक  : वि० [सं०] १. पिघलनेवाला। २. भागनेवाला।
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विद्रावण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विद्रावित] [वि० विद्राव्य] १. फाड़ना। २. नष्ट करना। ३. दे० ‘विद्रव’।
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विद्रावी (विन्)  : वि० [सं०] १. पिघलने या पिघलानेवाला। २. भागने या भगानेवाला।
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विद्रुत  : वि० [सं० वि√द्रु (जाना)+क्त] १. भागा हुआ। २. गला, पिघला या बहा हुआ। ३. डरा हुआ। भयभीत। पुं० लड़ाई का वह ढंग।
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विद्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] [वि०√द्रु+म०] १. प्रवाल। मूँगा। २. मुक्ताफल नामक वृक्ष। ३. वृक्षों का नया पत्ता। कोंपल। वि० द्रुमों अर्थात् वृक्षों से रहित। (स्थान)।
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विद्रुमफल  : पुं० [सं०] कुंदरू नामक सुगंधित गोंद।
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विद्रूप  : पुं० [सं० बिरूप] किसी का किया जानेवाला उपहास। मजाक उड़ाना।
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विद्रूपण  : पुं० [हिं० विद्रूप से] किसी का उपहास करना। दिल्लगी या मजाक उड़ाना।
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विद्रोह  : पुं० [सं० वि√द्रुह् (वैर करना)+घञ्] १. किसी के प्रति किया जानेवाला द्रोह अर्थात् शत्रुतापूर्ण कार्य। २. विशेषतः राज्य या शासन के प्रति अविश्वास या दुर्भाव उत्पन्न होने पर उसकी आज्ञा विधान आदि के विरुद्ध किया जानेवाला आचरण या व्यवहार। ३. देश या राज्य में क्रांति करने के लिए किया जानेवाला उपद्रव।
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विद्रोही (हिन्)  : वि० [सं०] १. विद्रोह संबंधी। २. विद्रोह के रूप में होनेवाला।
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विद्वज्जन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. विद्वान। २. ऋषि।
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विद्वत्कल्प  : वि० [सं० विद्वस्+कल्पप्] नाम-मात्र का थोड़ा पढ़ा-लिखा (आदमी)।
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विद्वत्ता  : स्त्री० [सं० विद्वस+तल्+टाप्] बहुत अधिक विद्वान होने का भाव। पांडित्य।
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विद्वत्व  : स्त्री० [सं० विद्धस्+त्वल्]=विद्वता।
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विद्वद्वाद  : पुं० [सं०] विद्वानों में होनेवाली बहस या विवाद।
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विद्वान्  : वि० पुं० [सं०] १. वह जो आत्मा का स्वरूप जानता हो। २. वह जिसने अनेक प्रकार की विद्याएँ अच्छी तरह पढ़ी हों। २. सर्वज्ञ।
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विद्विष  : वि० [सं०] द्वेष या शत्रुता रखनेवाला। पुं० ख्श्मन। शत्रु।
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विद्विष्ट  : भू० कृ० [सं० वि√द्विष् (द्वेष करना)+क्त] [भाव० विद्विष्टता] जिसके प्रति द्वेष की भावना व्यक्त की गई हो।
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विद्विष्टि  : स्त्री० [सं० वि√द्विष्+क्तिन्] विद्वेष।
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विद्वेष  : पुं० [सं० वि√द्विष्+घञ्] १. विशेष रूप से किया जानेवाला द्वेष। २. मनोमालिन्य के कारण मन में रहनेवाला वह द्वेष या वैर जिसके फलस्वरूप किसी को नीचा दिखाने या हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया जाता है (स्पाइट) ३. दुश्मनी। शत्रुता।
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विद्वेषक  : वि० [सं० वि√द्विष्+ण्वुल-अक]=विद्वेषी।
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विद्वेषण  : पुं० [सं० वि√द्विष् (द्वेष करना)+णिच्+ल्युट-अन] १. विद्वेष करने की क्रिया या भाव। २. दो व्यक्तियों में विद्वेष उत्पन्न करना। वि० विद्वेषी।
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विद्वेषिता  : स्त्री० [सं० विद्वेषि+तल्+टाप्]=विद्वेष।
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विद्वेषी (षिन्)  : वि० [सं० वि√द्विष्+णिनि] मन में किसी के प्रति विद्वेष रखनेवाला। विद्वेष करनेवाला। पुं० दुश्मन। शत्रु।
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विद्वेष्य  : वि० [सं० विद्वेष+यत्] जिसके प्रति मन में विद्वेष रखा जाय या रखना उचित हो।
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विध  : पुं०=विंध्य (विंध्याचल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विध  : पुं० [सं० विधि] ब्रह्मा। स्त्री०=विधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधत्री  : स्त्री० [सं० विद्या+ष्ट्रन्+ङीष्] ब्रह्मा की शक्ति, महासरस्वती।
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विधन  : वि० [सं० ब० स०] धन-हीन।
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विधना  : स० [सं० विधि] १. प्राप्त करना। २. अपने साथ लगना। ऊपर लेना।
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विधमन  : पुं० [सं० वि√ध्मा (चौंकना)+ल्यु-अन, वि√ध्मा (धौंकना)+शतृ वा] धौंकनी से हवा करना। धौंकना।
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विधर  : अव्य,=उधर (उस तरफ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विधृत] १. पकड़ना। २. आज्ञा न मानना।
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विधर्त्ता (तृ)  : पुं० [सं० वि√धृ (धारण करना)+तृच्] विधरण करनेवाला।
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विधर्म  : वि० [सं०] १. धर्मशास्त्र की आज्ञा, विधि आदि से बाहर का। अधार्मिक। धर्महीन। २. जिससे किसी की धार्मिक भावना को आघात लगता हो। ३. अन्यायपूर्ण। ४. अवैध। पुं० १. किसी की दृष्टि से उसके धर्म से भिन्न धर्म। २. ऐसा कार्य जो किया तो गया हो अच्छी भावना से, परन्तु जो वस्तुतः धर्मशास्त्र के नियम के विरुद्ध हो।
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विधर्मक  : वि० [सं०] १. विधर्म-संबंधी। विधर्म का। २. विधर्म के रूप में होनेवाला। ३. दे० ‘विधर्मी’।
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विधर्मिक  : वि० [सं०]=विधर्मक।
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विधर्मी (र्मिन्)  : पुं० [सं० विधर्म+इनि] १. वह जो अपने धर्म के विपरीत आचरण करता हो। धर्म-भ्रष्ट। २. जो किसी दूसरे धर्म का अनुयायी हो। ३. जिसने अपना धर्म छोड़कर कोई दूसरा धर्म अंगीकृत कर लिया हो।
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विधवा  : स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसका धव अर्थात् पति मर गया हो। पतिहीन। राँड़। २. विशेषतः वह स्त्री जिसने पति के देहांत के उपरांत फिर और विवाह न किया हो।
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विधवापन  : पुं० [सं० विधवा+हिं० पन (प्रत्यय)] वह अवस्था जिसमें विधवा बिना विवाह किये ही अपना जीवन यापन करती है। रँड़ापा। वैधव्य।
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विधवाश्रम  : पुं० [सं० ष० त०, विधवा+आश्रम] वह स्थान जहाँ अनाथ विधवाओं को रखकर उनका पालन-पोषण किया जाता हो।
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विधंसना  : स० [सं० विध्वसंन] नष्ट करना या बरबाद करना।
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विधंसा  : पुं०=विध्वंस। वि०=विध्वस्त।
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विधा  : स्त्री० [सं०] १. ढंग। तरीका। रीति। २. प्रकार। भाँति। ३. हाथी, घोड़े आदि का चारा। ४. वेधन। ५. भाड़ा। किराया। ६. मजदूरी। ७. कार्य। क्रिया। ८. उच्चारण।
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विधातव्य  : वि० [सं० वि√धा (धारण करना)+तव्यत्] १. जिसके संबंध में विधान हो सकता हो या होने के लिए हो। २. (काम) जो किया जा सकता हो या आवश्यक रूप से किया जाने को हो। कर्त्तव्य।
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विधाता (तृ)  : वि० [सं० वि√धा+तृच्] [स्त्री० विधातृका, विधात्री] १. विधान करनेवाला। २. रचने-वाला। बनानेवाला। ३. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० १. सृष्टि की रचना करनेवाली शक्ति। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. कामदेव। ६. विश्वकर्मा। स्त्री० मदिरा। शराब।
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विधातु  : स्त्री० दे० ‘असार’ (धातुओं का)।
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विधात्री  : वि० स्त्री० [सं० विधातृ+ङीष्] १. विधान करनेवाली। २. रचनेवाली। बनानेवाली। ३. प्रबन्ध या व्यवस्था करनेवाली। स्त्री० पिप्पली। पीपल।
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विधान  : पुं० [सं० वि√धा+ल्युट-अन] [वि० वैधानिक] १. किसी कार्य के संबंध में किया जाने वाला आयोजन और उसका प्रबंध या व्यवस्था। २. कोई चीज तैयार करने के लिए बनाना। निर्माण। रचना। सर्जन। ३. किसी चीज या बात का किया जानेवाला उपयोग, प्रयोजन या व्यवहार। जैसे—धातु में प्रत्यय का विधान करना। ४. यह कहना या बतलाना कि अमुक काम या बात इस प्रकार होनी चाहिए। ढंग, प्रणाली या रीति बतलाना। ५. बतलाया हुआ ढंग,प्रणाली या रीति विशेषतः धार्मिक रीति। ६. कायदा। नियम। ७. कही या बतलाई हुई ऐसी बात जो आदेश के रूप में हो और जिसका अनुसरण या पालन आवश्यक और कर्तव्य के रूप में हो। जैसे—धर्मशास्त्र का विधान। ८. आजकल राज्य या शासन के द्वारा जारी किया हुआ कोई कानून जिसमें किसी विषय की विधि और निषेध के संबंध रखनेवाली सभी धाराओं के रूप में लिखी रहती है। कानून। (लाँ) ९. नाटक में विभिन्न भावनाओं,विचारों आदि में होनेवाला द्वन्द्व और संघर्ष। १॰. अनुमति। आज्ञा। 1१. अर्चन। पूजा। १२. धन-संपत्ति। १३. किसी को हानि पहुँचाने के लिए किया जानेवाला दांव-पेंच या शत्रुता का व्यवहार। शत्रुतापूर्ण आचरण। १४. शब्दों में उपसर्ग,प्रत्यय आदि लगाने की क्रिया या नीति। १५. हाथी को पस्त करने के लिए खिलाया जानेवाला चारा।
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विधान-परिषद्  : स्त्री० [सं०] राज्य की विधान सभा से भिन्न दूसरी बड़ी विधि-निर्मात्री सभा जिसका चुनाव परोक्ष रीति से होता है। (लेजिसलेटिव कौंसिल)।
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विधान-मंडल  : पुं० [सं०] राज्य के संबंध में विधान बनानेवाले दोनों अंगों का सामूहिक नाम और रूप। (लेजिस्लेचर)। विशेष—इसके दो अंग या सदन हैं—विधान परिषद् और विधानसभा।
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विधान-सप्तमी  : स्त्री० [सं०] माघ शुक्ल सप्तमी।
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विधान-सभा  : स्त्री० [सं०] किसी देश या राज्य की वह सभा या संस्था, विशेषतः निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा या संस्था जिसे कानून या विधान बनाने का अधिकार होता है (लेजिसलेटिव एसेंबली)।
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विधानक  : पुं० [सं० विधान+कन्] १. विधान। २. वह जो विधान का ज्ञाता हो। वि० विधान करनेवाला।
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विधानांग  : पुं० [सं०]=विधान-मंडल।
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विधानी  : वि० [सं० विधान+इनि, अथवा विधान+हिं० ई (प्रत्यय)] १. विधान जाननेवाला। २. विधान या विधिपूर्वक काम करनेवाला।
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विधायक  : वि० [सं० वि√धा+ण्वुल्-अक, युक्] [स्त्री० विधायिका] १. विधान करनेवाला। जैसे—एकता का विधायक। कार्य का सम्पादन करनेवाला। २. निर्माण या रचना करनेवाला। ३. निर्माण के रूप में होनेवाला। रचनात्मक। ४. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० विधान सभा (या परिषद्) का सदस्य।
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विधायन  : पुं० [सं०] १. विधान करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. आज-कल विशेष रूप से शासन अथवा विधान-मंडल द्वारा कोई विधान (कानून)। बनाने की क्रिया या भाव। (एनैक्टमेन्ट) ३. उक्त प्रकार से बने हुए अधिनियम विधियाँ आदि।
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विधायन-संग्रह  : पुं० [सं०] किसी विषय, विभाग आदि के कार्य-संचालन से संबद्ध नियमों, निर्देशों आदि का संग्रह। संहिता। (कोड) जैसे—बंगाल विधायन संग्रह।
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विधायिका  : वि० स्त्री० [सं०] विधान-निर्मात्री। संस्था। जैसे—विधान परिषद् विधान सभा, लोक सभा या राज्य सभा आदि।
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विधायी (यिन्)  : वि० [सं० वि√धा (धारण करना)+णिनि, युक्] [स्त्री० विधायिनी] विधान करने या बनानेवाला। विधायक। (दे०) पुं० १. निर्माण करनेवाला। २. संस्थापक।
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विधारण  : पुं० [सं० वि√धृ (धारण करना)+णिच्+ल्युट-अन] १. रोकना। २. वहन करना।
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विधाँसना  : स० [सं० विध्वंसन] १. विध्वस्त या नष्ट करना। बरबाद करना। २. अस्त-व्यस्त या गड़बड़ करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधि  : स्त्री० [सं०] १. कोई काम करने का ठीक ढंग या रीति, क्रिया व्यवस्था आदि की प्रणाली। मुहावरा— (किसी काम या बात की) विधि बैठना=लगाई हुई युक्ति या ठीक या सफल सिद्ध होना। जैसे—यदि तुम्हारी विधि बैठ गई तो काम होने में देर न लगेगी। २. आपस में होनेवाली अनुकूलता या संगति। मुहावरा— (आपस में) विधि बैठना=अनुकूलता मेल-मिलाप या संगति होना। जैसे—अब तो उन लोगों में विधि बैठ गई है। विधि मिलना=अनुरूपता होना। जैसे—जन्मकुंडली की विधि मिलना। ३. ऐसी आज्ञा या आदेश जिसका पालन अनिवार्य या आवश्यक हो। ४. धर्म-ग्रन्थों, शास्त्रों आदि में बतलाई हुई ऐसी व्यवस्था जिसे साधारणतः सब लोग मानते हों। पद—विधि निषेध=ऐसी बातें जिनमें यह कहा गया हो कि अमुक अमुक काम या बातें करनी चाहिए और अमुक-अमुक काम या बातें नहीं करनी चाहिए। ५. आचार-व्यवहार। पद—गति-विधि=आगे, बढ़ने पीछे हटने आदि के रूप में होनेवाली चाल-ढाल या रंग-ढंग। जैसे—पहले कुछ उसके रोजगार की गतिविधि तो देख लो, तब उनके साथ साझेदारी करना। ६. तरह। प्रकार। भ्रांति। उदाहरण—एहि विधि राम सबहिं समुझावा। तुलसी। ७. व्याकरण में वह स्थिति जिसमें किसी से काम करने के लिए कहा जाता है। जैसे— (क) तुम वहाँ जाओ। (ख) यह चीज यहीं रखनी चाहिए। ८. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी सिद्ध विषय का फिर से विधान किया जाता है। जैसे—वर्षा काल में ही मेघ, मेघ है। ९. आज-कल राज्य या शासन के द्वारा चलाये या बनाये हुए वे सब नियम, विधान आदि जिसका उद्देश्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करना होता है और जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य तथा आवश्यक होता है। कानून। (लाँ)। पुं० सृष्टि की रचना करनेवाला ब्रह्मा।
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विधि-दर्शक  : पुं० [सं०] विधिदर्शी (दे०)।
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विधि-निषेध  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें कोई काम करने की विधि या अनुमति देने पर भी प्रकारांतर से उसका निषेध किया जाता है। जैसे—आप जाते हैं तो जाइए, अगले जन्म में मैं आपके दर्शन करूँगी। (अर्थात् आपके दर्शन की लालसा में प्राण दे दूँगी।)
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विधि-पत्नी  : स्त्री० [सं०] सरस्वती।
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विधि-भंग  : पुं० [सं०] १. विधि अर्थात् कानून का उल्लंघन करने की क्रिया या भाव। नियम तोड़ना। (ब्रीच आँफ लाँ)।
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विधि-भेद  : पुं० [सं०] साहित्य में उपमा अलंकार का एक दोष जो उस समय माना जाता है, जब उपमेय और उपमान के गुण, धर्म आदि का मेल ठीक से नहीं बैठता।
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विधि-वधू  : स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की पत्नी, सरस्वती।
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विधि-वादपद  : पुं० [सं०] विधिक क्षेत्रों में वह वादपद जिसका संबंध व्यवहार या मुकदमे के केवल विधिक या कानूनी पक्ष से हो। तथ्य वादपद से भिन्न (इश्यू आप लॉ)।
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विधि-वाहन  : पुं० [सं०] ब्रह्मा की सवारी, हंस।
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विधिक  : वि० [सं०] [भाव० विधिकता] १. विधि संबंधी। २. विधि के रूप में होनेवाला। ३. (कार्य) जिसे करने में कोई कानूनी अड़चन न हो। ४. जो विधि के विचार से न्याय-संगत हो। (लीगल)।
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विधिक व्यवहार  : पुं० [सं०] वह कार्य या प्रक्रिया जो किसी व्यवहार या मुकदमे में विधि या कानून के अनुसार होती है। (लीगल प्रोसीडिंग)।
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विधिक-प्रतिनिधि  : पुं० [सं०] वह प्रतिनिधि जिसे किसी की ओर से न्यायालय में कानूनी कार्रवाई करने का अधिकार प्राप्त हो (लीगल रिप्रेज़ेटेटिव)।
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विधिक-साध्य  : स्त्री० [सं०] विधिक-निर्णय (दे०)।
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विधिकता  : पुं० [सं०] १. विधिक होने की अवस्था या भाव। २. कानून के विचार से होनेवाली अनुरूपता।
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विधिकर्ता  : पुं० [सं०] वह जो विधि या कानून बनाता हो। (लॉ-मेकर)।
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विधिज्ञ  : पुं० [सं०] १. वह जो विधि-विधान आदि का अच्छा ज्ञाता हो। २. कानून का ज्ञाता ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के व्यवहारों के संबंध में न्यायालय में प्रतिनिधि के रूप में काम करता हो। (लायर)। ३. वह जो काम करने का ठीक ढंग जानता हो।
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विधितः  : अव्य० [सं०] १. विधि या रीति के अनुसार। २. कानून के अनुसार (बाई लाँ) ३. कानून की दृष्टि में या विचार से (डी० जूरी, लाँ-फुली)।
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विधिदर्शी  : पुं० [सं०] यज्ञ में वह व्यक्ति जो यह देखने के लिए नियुक्त होता था कि होता, आचार्य आदि विधि के अनुसार कर्म कर रहे हैं या नहीं।
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विधिना  : पुं०=विधना (ब्रह्मा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधिपाट  : पुं० [सं०] मृदंग के चार वर्णों में से एक वर्ण। शेष तीन वर्ण ये हैं—पाट, कूटपाट और खंडपाट।
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विधिपुत्र  : पुं० [सं० विधि+पुत्र] ब्रह्मा के पुत्र, नारद।
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विधिपुर  : पुं० [सं० विधि+पुर] ब्रह्मलोक।
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विधिरानी  : स्त्री० [सं० विधि+हिं० रानी] ब्रह्मा की पत्नी, सरस्वती।
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विधिलोक  : पुं० [सं०] ब्रह्मलोक।
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विधिवत्  : अव्य० [सं०] १. विधिपूर्वक। विधितः २. जिस प्रकार होना चाहिए उसी प्रकार।
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विधिविहित  : वि० [सं० तृ० त०] शास्त्रीय विधियों आदि में कहा या बतलाया हुआ। विधि में जैसा विधान हो, वैसा।
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विधिषेध  : पुं० [सं० ष० त०] विधि और निषेध।
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विधु  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. वायु। हवा। ५. कपूर। ६. अस्त्र। आयुध। ७. जल से किया जानेवाला स्नान। ८. पाँवों आदि का प्रक्षालन।
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विधु-बंधु  : पुं० [सं० ष० त०] कुमुद (फूल)।
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विधु-बैनी  : स्त्री० [सं० विधु+वदन, प्रा० वयन] चन्द्रमुखी। सुंदरी। स्त्री।
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विधुक्रांत  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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विधुंत  : पुं० [सं० विधुंतुद] राहु।
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विधुंतुद  : पुं० [सं० विधि√तुद् (दुःख देना)+खच्, मुम्] चंद्रमा को दुःख देनेवाला। राहु।
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विधुदार  : स्त्री० [सं० ष० त०] चन्द्रमा की स्त्री। रोहिणी।
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विधुप्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. चंद्रमा की स्त्री। रोहिणी। २. कुमुदिनी। कोई (दे०)।
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विधुमणि  : स्त्री० [सं० ष० त०] चंद्रकांत मणि।
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विधुमुखी  : वि० [सं०] चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाली (स्त्री)।
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विधुर  : वि० [सं०] [स्त्री० विधुरा] १. दुःखी। २. घबराया या डरा हुआ। ३. बेचैन। विकल। ४. अशक्त। असमर्थ। ५. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त। ६. मूढ़। ७. जिसकी स्त्री मर चुकी हो। रँडुआ। ८. किसी बात से रहित या हीन। (यौ० के अन्त में)। जैसे—अनुनय-विधुर्=जो अनुनय, विनय करना न जानता हो या न करता हो। पुं० १. कष्ट। दुःख। २. जुदाई। वियोग। ३. अलगाव। पार्थक्य। ४. कैवल्य। ५. दुश्मन। शत्रु।
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विधुरा  : स्त्री० [सं०] १. कानों के पीछे की एक स्नायु ग्रन्थि जिसके पीड़ित या खराब होने से आदमी बहरा हो जाता है। २. मट्ठा। लस्सी।
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विधुवदनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] चन्द्रमुखी।
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विधूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विधूति] १. काँपता हुआ। २. हिलता हुआ। ३. छोडा या त्यागा हुआ। ४. अलग या दूर किया हुआ। ५. निकाला या बाहर किया हुआ।
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विधूति  : स्त्री० [सं०] कंपन।
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विधूनन  : पुं० [सं० वि√धू (कंपन)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विधूनित] कंपन। काँपना।
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विधृत  : पुं० [सं० वि√धृ (धारण करना)+क्त] १. ग्रहण या धारण किया हुआ। २. अलग किया हुआ। ३. रोका हुआ। ४. अपने अधिकार में लाया हुआ। ५. सँभाला हुआ। पुं० १. आज्ञा की अवज्ञा। २. असंतोष।
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विधृति  : स्त्री० [सं० वि√धृ+क्तिन्] १. अलगाव। पार्थक्य। २. विभाजन। ३. व्यवस्था। ४. नियम। ४. विभाजन रेखा।
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विधेय  : वि० [सं०] १. देने योग्य। २. प्राप्त करने योग्य। ३. जिसके प्रति विधि का आदेश दिया जाय। ४. जिसे कुछ करने का आदेश दिया जाय। ५. जिसके संबंध में विधान किया जाने को हो। ६. प्रदर्शित किये जाने के योग्य। ७. प्रज्जवलित किये जाने के योग्य। पुं० १. वह काम जो अवश्य किये जाने के योग्य हो। २. व्याकरण में, वह पद या वाक्यांश जिसके द्वारा किसी के संबंध में कुछ विधान किया अर्थात् कहा या बतलाया जाता है। हिन्दी में इसका अन्वय या तो (क) कर्ता से होता है या (ख) प्रधान कर्म से। जैसे— (क) राम जाता है। और (ख) राम रोटी खाता है। में जाता ‘है’ और खाता ‘है’ विधेय है, क्योंकि ‘जाता है’ से राम (कर्ता) के संबंध में और ‘खाता है’ से राम (कर्ता) के सम्बन्ध में और ‘खाता है’ से रोटी (कर्म) के संबंध में कुछ कहा या बतलाया गया है। ३. साहित्य में प्रिय के मन-मोचन के दो उपचारों में से एक जिसमें उपेक्षा, धृष्टता, भय, हर्ष आदि दिखलाकर उसे प्रकारान्तर से अनुकूल करने का प्रयत्न किया जाता है।
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विधेयक  : पुं० [सं० विधेय+कन्] आज-कल किसी कानून या विधान का वह प्रस्तावित रूप या मसौदा जो विधान बनानेवाली परिषद् या सभा के सामने विचारार्थ उपस्थित किया जाने को हो (बिल)।
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विधेयता  : स्त्री० [सं० विधेय+तल्+टाप्] १. विधेय होने की अवस्था, गुण या भाव। २. अधीनता।
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विधेयत्व  : स्त्री० [सं० विधेय+तल्+टाप्] विधेयता।
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विधेयात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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विधेयाविमर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में एक प्रकार का वाक्य-दोष जो विधेय अंश के प्रधान स्थान प्राप्त होने पर होता है। मुख्य बात का वाक्य-रचना के बीच दबा रहना।
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विंध्य  : पुं० [सं० विंध+यत्] एक प्रसिद्ध पर्वत-श्रेणी जो भारतवर्ष के मध्य में पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ है, यह आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर है, और दक्षिण भारत को उत्तर भारत में विभक्त करता है।
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विध्य  : वि० [सं०√विध् (छेदना)+यत्] जो बींधा जाने को हो या बेधा जा सकता हो।
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विंध्य-कूट (क)  : पुं० [कर्म० स० ब० स०] १. विंध्य पर्वत। २. अगस्त्य मुनि का एक नाम।
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विंध्य-गिरि  : पुं० [मध्यम० स०] विंध्य पर्वत।
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विंध्य-चूलि  : पुं० [ब० स०] विंध्य पर्वत के दक्षिण का प्रदेश।
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विंध्यवासिनी  : स्त्री० [सं०] मिरजापुर जिले के अन्तर्गत स्थित दुर्गा की एक मूर्ति।
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विंध्या  : स्त्री० [सं० विंध्य+टाप्] एक प्राचीन नदी। पुं०=विंध्य।
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विंध्याचल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. विंध्य पर्वत। २. उक्त पर्वत का वह विशिष्ट अंग जो मिरजापुर के पास है और जहाँ विंध्यवासिनी देवी का मंदिर है। ३. वह नगरी जिसमें उक्त मंदिर स्थित है।
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विध्यात्मक  : वि० [सं०] १. विधि से संबंध रखता हुआ और उससे युक्त। २. जो विधि के पक्ष में हो। सकारात्मक। सहिक। ‘निषेधात्मक’ का विपर्याय पाज़िटिव)।
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विध्याद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] विंध्य पर्वत।
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विध्वंस  : पुं० [सं० वि√ध्वंस (नाश करना)+घञ्] १. विनाश। नाश। बरबादी। २. घृणा। ३. वैर। शत्रुता। ४. अनादर। अपमान।
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विध्वंसक  : वि० [सं० वि√ध्वंस (नाश करना)+ण्वुल-अक] विध्वंस या नाश करनेवाला। पुं० एक प्रकार के विनाशक पोत (डेस्ट्रायर)।
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विध्वस्त  : भू० कृ० [सं० वि√ध्वंस+क्त] नष्ट किया हुआ। बरबाद किया हुआ।
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विन  : सर्व० [हिं० वा=उस] हिं ‘आ’ के बहु उन का स्थानिक रूप। अव्य बिना (बगैर) के बहु उन का स्थानिक रूप] अव्य बिना (बगैर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनत  : वि० [सं०] [स्त्री० विनता] १. नीचे की ओर प्रवृत्त। झुका हुआ। २. जिसने किसी के सामने मस्तक या सिर झुका रखा हो। ३. विनीत। नम्र। ४. टेढ़ा। वक्र। ५. सिकुड़ा हुआ। संकुचित। ६. कुबड़ा। कुब्ज। पुं० महादेव। शिव।
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विनतड़ी  : स्त्री०=विनति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनता  : स्त्री० [सं० विनत+टाप्] १. दक्ष प्रजापति की एक कन्या जो कश्यप को ब्याही थी और जिसके गर्भ से गरुड़ का जन्म हुआ था। २. एक राक्षसी जिसे रावण ने सीता के पास उसे समझाने-बुझाने के लिए रखा था। ३. व्याधि उत्पन्न करने वाली एक कल्पित राक्षसी। ४. प्रमेह या बहुमूत्र के रोगियों को होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा।
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विनति  : स्त्री० [सं० वि√नम् (नम्र होना)+क्तिन्] १. विनीत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. झुकाव। ३. विनीत भाव से की जाने वाली प्रार्थना। अनुनय-विनय। ४. व्यवहार स्वभाव आदि की नम्रता। ५. दमन। ६. निवारण। रोक। ७. विनियोग।
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विनती  : स्त्री० [सं० विनत+ङीष्]=विनति।
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विनद्ध  : भू० कृ० [सं० वि√नह् (बाँधना)+क्त] १. किसी के साथ जोड़ा या बाँधा हुआ। २. बन्धन से युक्त किया हुआ।
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विनमन  : पुं० [सं० वि√नम् (नम्र होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विनमित] १. झुकना। २. नम्रतापूर्वक झुकना।
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विनम्र  : वि० [सं०] [भाव० विनम्रता] १. विशेष रूप से नम्र। २. विनीत और सुशील। ३. झुका हुआ। पुं० तगर का फूल।
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विनम्रता  : स्त्री० [सं०] विनम्र होने की अवस्था या भाव।
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विनय  : स्त्री० [सं०] १. यह कहना या बतलाना कि अमुक काम या बात इस प्रकार होनी चाहिए। कुछ करने का ढंग बतलाना या सिखाना। शिक्षा। २. कोई काम या बात करने का अच्छा, ठीक और सुंदर ढंग। ३. आचार, व्यवहार आदि में रहनेवाली नम्रता और सौजन्य जो अच्छी तरह शिक्षा से प्राप्त होता है (मॉडेस्टी)। ४. कर्त्तव्यों आदि का ऐसा निर्वाह और पालन जिसमें कुछ भी त्रुटि या दोष न हों। ५. आदेशों, नियमों आदि का ठीक ढंग से और भले आदमियों की तरह किया जानेवाला पालन। (डिसिप्सन)। ६. नम्रतापूर्वक की जानेवाली प्रार्थना या विनती। ७. नीति। ८. इंद्रिय-निग्रह। जितेंन्द्रिय व्यक्ति। ९. किसी को नियंत्रण या शासन में रखने के लिए कही जाने वाली ऐसी बात जिसके साथ अवज्ञ के लिए दंड का भी भय दिखाया जाय या विधान किया गया हो। (स्मृति)। १॰. वणिक्। व्यापारी।
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विनय-पिटक  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्धों का एक धर्म-ग्रन्थ जिसमें विनय अर्थात् सदाचार संबंधी नियम संगृहीत है।
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विनयकर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] पढ़ावे, सियाने आदि का कार्य। शिक्षण। शिक्षा।
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विनयघर  : पुं० [सं०] पुरोहित।
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विनयवान्  : वि० [सं० विनय+मतुप्, विनयवत्] स्त्री० विनयवती] जिसमें विनय अर्थात नम्रता हो। शिष्ट।
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विनयशील  : वि० [सं०] जो स्वभावतः विनम्र हो। प्रकृति से विनम्र्।
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विनयाध्यक्ष  : पुं०=संकायाध्यक्ष।
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विनयावनत  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] विनय के कारण झुका हुआ। विनम्र।
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विनयी (यिन्)  : वि० [सं० विनय+इनि, दीर्घ, न-लोप] विनययुक्त।
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विनवना  : स० [सं० विनय] विनय करना। नम्रतापूर्वक कुछ कहना। अ० १. नम्र होना। २. झुकना।
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विनशन  : पुं० [सं० वि०√वश् (नाश करना)+ल्युट-अन] विनाश करने की क्रियाया भाव। वि० विनश्वर।
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विनश्वर  : वि० [सं० वि√नश् (नष्ट करना)+वरच्] [भाव० विनश्वरता] जिसका विनाश होने को हो।
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विनष्ट  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विनष्टि] १. जो अच्छी तरह नष्ट हो चुका हो या नष्ट किया जा चुका हो। बरबाद। २. मरा हुआ। मृत। ३. बिगड़ा हुआ। ४. भ्रष्ट आचरणवाला। पतित।
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विनष्टि  : स्त्री० [सं० वि√नश् (नष्ट करना)+क्तिन्] १. वह अवस्था जो विनाश की सूचक हो। २. विनाश। ३. पतन। ४. लोप।
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विनष्टोपजीवी (विन्)  : वि० [सं० विनष्टोप√जीव् (जीवित करना)+णिनि] मुर्दा खाकर जीनेवाला।
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विनस  : वि० [सं० ब० स० नासिका-त्रसादेश] [स्त्री० विनसा, विनसी] १. बिना नाक का। नककटा। २. बेशर्म।
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विनसना  : अ० [सं० विनशन] नष्ट होना। लुप्त होना। स०=विनसाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनसाना  : स० [हिं० विनसना का स० रूप] १. नष्ट करना। २. बिगाड़ना। अ०=विनसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विना  : अव्य० [सं० वि+शा] १. न होने पर। अभाव में। बिना। जैसे—आपके बिना काम न चलेगा। २. अलग रहकर अथवा उपयोग न करते हुए। जैसे—बिना जूते के चलने में कष्ट होता है। ३. अतिरिक्त। सिवा। (क्व०)। जैसे—तुम्हारे बिना उसका है ही कौन।
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विनाड़ी  : स्त्री० [सं०] एक घड़ी का साठवाँ भाग। पल। प्रायः २४ सेकेंड का समय।
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विनाथ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका नाथ न हो। अनाथ।
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विनाम  : पुं० [सं० वि√नम् (नम्र होना)+घञ्] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. वैद्यक में पीड़ा आदि के कारण शरीर के किसी अंग का झुक जाना। ३. किसी पदार्थ का वह गुण जिसके कारण वह झुकाया या मोड़ा जा सकता है।
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विनायक  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. गणों के नायक गणेश। २. गरुड़। ३. गुरु। ४. गौतम बुद्ध। ५. बाधा। विघ्न। विशेष—पुराणों में विनायक के कई रूप कहे गये है। यथा कोण बिनायक, दवढ़ि विनायक, सिंदूर विनायक, हस्ति विनायक आदि।
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विनायक चतुर्थी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] माघ सुदी चौथ। गणेशचतुर्थी।
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विनायिका  : स्त्री० [सं०] १. विनायक अर्थात् गणेश की पत्नी। २. गरुड़ की पत्नी।
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विनाल  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें नाल अर्थात् डंठल न हो।
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विनाश  : पुं० [सं० वि√नश्+घञ्] १. ऐसी स्थिति जो अत्यधिक धन-जन की हानि की परिचायिका हो। नाश। ध्वंस। जैसे—भूकम्प के कारण शहरों बाढ़ के कारण गाँवों अतिवृष्टि या अनावृष्टि के कारण खेतों का होनेवाला विनाश। २. अदर्शन। लोप। ३. खराबी। विकार। ४. दुर्दशा। ५. नुकसान। हानि।
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विनाशन  : पुं० [सं०] १. नाश करना। २. मार डालना। ३. बिगाड़ना। ४. काल का एक पुत्र असुर।
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विनाशित  : भू० कृ० [सं० वि√नश्+णिच्+क्त]=विनष्ट।
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विनाशी (शिन्)  : वि० [सं० वि√नश्+णिनि] [स्त्री० विनाशिनी] १. विनाश या ध्वंत करनेवाला। (डेस्ट्रॉयर)। २. मार डालनेवाला। ३. खराब करने या बिगाड़नेवाला।
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विनाश्य  : वि० [सं० वि√नश् (नष्ट करना)+ण्यत्] जिसका विनाश हो सकता हो या होने को हो।
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विनास  : पुं०=विनाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनासक  : वि० [सं० ब० स०+कन्, ह्रस्व] बिना नाक का। नकटा। वि०=विनाशक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनासन  : पुं०=विनाशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनासना  : स० [सं० विनाशन] विनाश करना। अ० विनष्ट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनिगमक  : वि० [सं० वि√गम्+ण्वुल-अक] निश्चयपूर्वक एक पक्ष की स्वीकृति करने और दूसरे को त्यागनेवाला।
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विनिगमना  : स्त्री० [सं०] १. विचारपूर्ण। निर्णय। २. वह स्थिति जिसमें एक पक्ष का ग्रहण और दूसरे पक्ष का त्याग होता है। ३. नजीता। परिणाम।
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विनिग्रह  : पुं० [सं० वि+नि√ग्रह (ग्रहण करना)+क] १. निग्रह। संयम। २. बाधा। रुकावट। ३. अवरोध।
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विनिंदा  : स्त्री० [सं० विनिन्द+टाप्] बहुत अधिक निंदा।
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विनिद्र  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे नींद न आई हो। जागता हुआ। २. जिसे नींद न आती हो। ३. खिला हुआ। उन्मीलित।
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विनिधान  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विनिधित] १. किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा कार्य के लिए अथवा योजना के अनुसार किसी को अलग कर कहीं रखना। (एलोकेशन)। जैसे—छात्रवृत्ति के लिए किसी निधि के कुछ अंश का होनेवाला विनिधान। २. कार्य-प्रणाली आदि के संबंध में दी जानेवाली सूचना। हिदायत।
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विनिपात  : पुं० [सं०] १. विशेष रूप से या अच्छी तरह से किया हुआ। निपात। २. विनाश। ३. वध। ४. अपमान। ५. गर्भपात। ६. बहुत बड़ा कष्ट या संकट उपस्थित करनेवाली घटना या स्थिति। आपद् (कैलेमिटी)।
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विनिपातक  : वि० [सं० वि+नि√पत् (पतन होना)+णिच्+ण्वुल्-अक] विनिपात अर्थात् विनष्ट करनेवाला।
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विनिपाती (तिनि)  : वि० [सं०]=विनिपातक।
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विनिमय  : पुं० [सं०] १. एक वस्तु लेकर उसके बदले में दूसरी वस्तु देना। परिवर्तन (बार्टर) २. वह प्रक्रिया जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न पक्षों या देशों का लेन-देन विनिमय-पत्रों के अनुसार होता है। ३. वह प्रक्रिया जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न देशों के सिक्कों के आपेक्षिक मूल्य स्थिर होते हैं और जिसके अनुसार आपसी लेन-देन चुकाये जाते हैं। ४. किसी क्षेत्र में, किसी से कुछ पाकर उसके बदले में वैसा ही कुछ देना। (एक्सचेंज अंतिम तीनों अर्थों के लिए)। जैसे—विचार विनिमय। पद—विनिमय की दर=वह निश्चित की हुई दर जिस पर देशों के सिक्के परस्पर बदले जाते हैं। ५. गिरवी या बन्धक रखना। ६. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कुछ कम देकर बहुत कुछ लेने का वर्णन रहता है।
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विनिमय  : पुं० [सं० वि+नि√यम् (रोकना)+घञ्] १. रोक। २. संयम। ३. नियंत्रण। ४. शासन। ५. आज-कल कोई ऐसा विशिष्ट नियम जो किसी नये निश्चय या आदेश के अनुसार बनाया गया हो। (रेगुलेशन)।
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विनियंत्रण  : पुं० [सं० ब० स०] [भू० कृ० विनियंत्रित] १. नियंत्रण उठा लेना। २. व्यापारिक क्षेत्र में शासन द्वारा किसी चीज की बिक्री, मूल्य आदि पर लगाये हुए नियंत्रण का हटाया जाना (डि-कन्ट्रोल)।
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विनियोग  : पुं० [सं० वि+नि√युज् (संयुक्त करना)+घञ्] १. फल-प्राप्ति के उद्देश्य से किसी वस्तु का होनेवाला उपयोग। २. वैदिक कृत्य में मन्त्रों का होनेवाला प्रयोग। ३. प्रवेश। पैठ। ४. प्रेषण। भेजना। ५. व्यापार में पूँजी लगाना। ६. किसी विशिष्ट उद्देश्य, प्रयोजन आदि के निमि्त्त संपत्ति आदि किसी दूसरे को देना। (एप्रोप्रियशन)। ७. संपत्ति आदि बेचकर निकालना (डिस्पोजल)।
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विनियोजक  : पुं० [सं०] विनियोजन या विनियोग करनेवाला।
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विनियोजन  : पुं० [सं०] [वि० विनियोज्य, भू० कृ० विनियुक्त, विनियोजित] १. विनियोग करना। २. विशेष रूप से नियक्त करना। ३. भेजना। प्रेषण। ४. अर्पण।
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विनिर्गत  : भू० कृ० [सं०] १. बाहर निकाला हुआ। २. बीता हुआ। व्यतीत। ३. मुक्त।
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विनिर्गम  : पुं० [सं० वि+निर्√गम् (जाना)+अप्] १. बाहर निकलना। २. प्रस्थान या यात्रा करना।
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विनिवेशन  : वि० [सं० वि+नि√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विनिवेशित, वि० विनिवेशी] १. प्रवेश। घुसना। २. अवस्थित या स्थित होना। अधिष्ठान। ३. स्थान आदि का बसना।
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विनिवेशी (शिन्)  : वि० [सं० वि+नि√विश्+णिनि] [स्त्री० विनिवेशनी] १. प्रवेश करनेवाला। घुसनेवाला। २. बसने या रहनेवाला।
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विनिश्चय  : पुं० [सं० वि+निस्√चि (चयन करना)+अच्] किसी विषय में खूब सोच-समझकर किया जानेवाला निश्चय या निर्णय। (डेसीज़न)।
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विनिषिद्ध  : भू० कृ० [सं०] [भाव० निशिषिद्धता] १. जिसका विशेष रूप से निषेध हुआ हो। २. जिसका शासन द्वारा विधिक रीति से निषेध किया गया हो। (कन्ट्राबैड) जैसे—विनिषिद्ध व्यापार।
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विनिषिद्ध व्यापार  : पुं० [सं० ष० त०] वह व्यापार जिसे शासन ने विनिषिद्ध ठहराया हो (कन्ट्राबैंट ट्रेड)।
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विनीत  : वि० [सं० वि√नी (ढोना)+क्त] [भाव० विनीतता, विनीति] १. जिसमें विनय हो। विनय से युक्त। २. सुशील। ३. नम्र और शिष्ट। ४. नम्रतापूर्वक किया जानेवाला। जैसे— विनीत निवेदन। ५. जितेन्द्रिय। संयमी। ६. ग्रहण किया हुआ। ७. शिक्षित। ८. अलग या दूर किया हुआ। ९. दंडित। १॰. साफ किया हुआ। पुं० १. वणिक। बनिया। २. व्यापारी। ३. ऐसा घोड़ा जो जोत, सवारी आदि के काम में सघा हुआ हो। ४. दमनक या दीना नाम का पौधा।
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विनीति  : स्त्री० [सं० वि√नी (दोना)+क्तिन्] १. विनय। २. सदव्यवहार। ३. सम्मान।
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विनु  : अव्य=बिना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनुक्ति  : स्त्री० [सं०] १. श्रौत सूत्र के अनुसार एक प्रकार का एकाह-कृत्य। २. दूर करना। हटाना।
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विनूठा  : वि०=अनूठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनोक्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] साहित्य में एक अर्थालंकार जो उस समय माना जाता है जब कोई वस्तु स्वयं शोभायुक्त होती है तथा किसी अन्य वस्तु के होने या न होने से उसकी शोभा पर प्रभाव नहीं पड़ता।
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विनोद  : पुं० [सं० वि√नुद् (प्रेरणा देना)+घञ्] १. ऐसा काम या बात जिसका मुख्य प्रयोजन अपना (और दूसरे का भी) मन बहलाना तथा प्रसन्न रखना होता है। जैसे—खेल तमाशा आदि २. उक्त के द्वारा होनेवाला मन-बहलाव तथा प्राप्त होनेवाला आनन्द। ३. हँसी-ठट्ठा। ४. एक प्रकार का प्रासाद। ५. कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन।
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विनोद-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] मनुष्य की वह वृत्ति जो उसे विनोद करने और विनोदपूर्ण बातें समझने और प्रसन्नतापूर्वक सहन करने में समर्थ करती है (सेन्स आँफ ह्यूमर)।
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विनोदी (दिन्)  : वि० [सं० वि√नुद्+णिनि] [स्त्री० विनोदिनी] १. विनोद संबंधी। २. विनोद-प्रिय। जैसे—विनोदी स्वभाव। ३. विनोद के द्वारा जी बहलाने या मन को प्रसन्न करनेवाला। विनोदशील। ४. हँसी-दिल्लगी करनेवाला। हँसोड़।
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विन्यसन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विन्यस्त]=विन्यास।
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विन्यस्त  : भू० कृ० [सं० वि+नि√अस् (होना)+क्त] १. रखा हुआ। स्थापित। २. क्रम से या सजाकर रखा हुआ। ३. अच्छी तरह जोड़ा, बैठाया या लगाया हुआ। ४. फेंका हुआ। क्षिप्त।
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विन्यास  : पुं० [सं० वि+नि√अस् (होना)+घञ्] [वि० विन्यस्त] १. कोई चीज कहीं स्थापित करना। जमाकर रखना। २. सजाने सँवारने ठीक स्थान पर रखने तथा ठीक क्रम से लगाने की क्रिया या भाव। जैसे—केश-विन्यास, वस्तु-विन्यास।
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विपक्व  : वि० [सं० वि√पंच् (पकना)+क्त] १. अच्छी तरह पका हुआ। २. पूरी बाड़ पर पहुँचा हुआ। ३. जो पका न हो। कच्चा।
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विपक्ष  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० विपक्षता] १. विपक्षी। (दे०)। पुं० १. किसी पक्ष या पहलू के सामने या नीचेवाला पक्ष या पहलू। २. किसी पक्ष, दल आदि के विचार से विरोधी पक्ष का दल। विशेषतः ऐसा पक्ष या दल जिससे विरोध, शत्रुता, विवाद आदि हो। ३. विरुद्ध व्यवस्था या बाधक नियम। ४. विरोध। ५. व्याकरण में किसी नियम के विरुद्ध अथवा उससे भिन्न व्यवस्था। बाधक नियम। अपवाद। ६. तर्कशास्त्र में ऐसा पक्ष जिसमें साध्य का अभाव हो।
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विपक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं०] १. (पक्षी) जिसके डैने या पंख न हो। २. जिसका संबंध विपक्ष (विरोधी दल आदि) से हो। ३. जिसके पक्ष में कोई न हो। ४. उलटा। विपरीत। पुं० १. विरोधी। २. दुश्मन। शत्रु। ३. प्रतिद्वन्द्वी। पुं० [सं० विपक्षिन्] वह जो किसी पक्ष के विरोधी पक्ष में हो। दूसरा फरीक।
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विपंचक  : पुं० [सं०वि√पंच् (विस्तार करना)+ण्वुल-अक] भविष्यवक्ता
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विपचन  : पुं० [सं०] शरीर में पोषक तत्त्वों या द्रव्यों का पहुँचकर भिन्न-भिन्न रसों आदि के रूप में परिवर्तित होना। उपापचयन। चयापचयन। (मेटाबोलिज़्म)।
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विपंची  : स्त्री० [सं० वि√पंच्+अच्+ङीष्] १. क्रीड़ा। खेल। २. वीणा की तरह का एक प्रकार का बाजा।
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विपज्जनक  : वि० [सं०] विपत्ति उत्पन्न करने या लानेवाला।
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विपणन  : पुं० [सं०] बाजार में जाकर माल खरीदने या बेचने की क्रिया या भाव (मारकेंटिग)।
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विपणि (णी)  : स्त्री० [सं०] १. बाजार। हाट। २. बिक्री का माल। ३. क्रय-विक्रय। खरीद-फरोख्त।
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विपत्तन  : पुं० [सं० वि+पत्तन] आधुनिक राजविधानों में किसी ऐसे व्यक्ति को अपने देश से बाहर निकाल देना जो जनता या राज्य के हित के विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। देश-निकाला (डिपोर्टेशन)।
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विपत्ति  : स्त्री० [सं० वि√पद् (गमन)+क्तिन्] १. ऐसी घटना या स्थिति जिसके फल-स्वरूप कष्ट चिंता या हानि अधिक मात्रा में होती हो या होने की सम्भावना हो। क्रि० प्र०—आना।—झेलना।—टलना।—ढाना।—पड़ना।—भुगतना।—भोगना। २. झंझट या बखेड़े का काम या बात।
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विपत्र  : पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें किसी से प्राप्य धन का ब्योरा होता है। प्राप्यक (बिल)।
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विपथ  : पुं० [सं०] १. खराब या बुरा रास्ता। ऐसा रास्ता जिस पर चलने से कष्ट, हानि आदि हो सकती हो। २. बगल का रास्ता। २. एक प्रकार का रथ। ४. अनुचित कामों में प्रवृत्त होना।
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विपथगामी (मिन्)  : वि० [सं०] १. विपथ पर चलनेवाला। २. चरित्रहीन। कुमार्गी।
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विपथन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विपथित] अपने उचित या नियत पथ या मार्ग से हटकर इधर-उधर होना (एबेरेशन)।
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विपदा  : स्त्री० [सं० विपद्+टाप्] १. विपत्ति। आफत। २. दुःख। ३. शोक या संकट।
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विपद्  : स्त्री० [सं० वि√पद् (गमन)+क्विप्] १. विपत्ति। आफत। संकट। २. मृत्यु। ३. नाश।
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विपन्न  : भू० कृ० [सं० वि√पद् (गमन)+क्त] १. विपत्ति में पड़ा हुआ। विपत्तिग्रस्त। २. कठिनाई या झंझट में पड़ा हुआ। ३. आर्त्त। दुःखी। ४. धोखे या भ्रम में पड़ा हुआ। ५. मरा हुआ। मृत। जो नष्ट हो चुका हो। विनष्ट। ७. भाग्यहीन। अभागा।
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विपरीत  : वि० [सं० वि+परि√इ (गमन)+क्त] [भाव जो विपरीतता] १. जैसा होना चाहिए उसका उलटा। उलटे, क्रम स्थिति आदि में होनेवाला। २. जो अनुकूल या मुआफिक न हो। मेल न खानेवाला। ३. नियम के विरुद्ध होनेवाला। गलत। ४. असत्य। मिथ्या। पुं० केशव के अनुसार एक अर्थालंकार जिसमें कार्य की सिद्धि में स्वयं साधक या बाधक होना दिखाया जाता है।
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विपरीत लिंग  : पुं० दे० ‘लिंग’ (न्यायशास्त्रवाला विवेचन)।
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विपरीत-रति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] साहित्य में ऐसी रति जिसमें संभोग के समय पुरुष नीचे और स्त्री ऊपर रहती है। काम-शास्त्र का पुरुषायित बन्ध।
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विपरीत-लक्षणा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] किसी चीज की ऐसी व्यंग्यपूर्ण अभिव्यक्ति जिसमें परस्पर विरोधी गुणों, लक्षणों आदि का उल्लेख भी हो।
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विपरीतक  : वि० [सं० विपरीत+कन्] विपरीत। पुं०=विपरीत रति।
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विपरीता  : स्त्री० [सं० विपरीत+टाप्] १. बदचलन स्त्री। दुराचारिणी। २. दुश्चरित्रा पत्नी।
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विपरीतार्थ  : वि० [सं० कर्म० स०] विपरीत अर्थात् उलटे अर्थवाला।
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विपरीतोपमा  : स्त्री० [सं० ष० त०] केशव के अनुसार एक अलंकार जिसमें किसी भाग्यवान् व्यक्ति की हीनता वर्णन की जाय और अति दीन दशा में दिखाया जाय।
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विपर्ण  : वि० [सं०] जिसमें पर्ण या पत्ते न हों। पुं० एक साथ या आमने-सामने लगी हुई रसीदों आदि का वह बाहरी भाग जो लिख या भरकर किसी को दिया जाता है (आउटर फॉयल)।
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विपर्णक  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें पत्तें न हों। पुं० टेसू। पलास।
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विपर्यय  : पुं० [सं० वि+परि√ई (गमन)√अच्] १. ऐसा उलट-फेर या परिवर्तन जिससे किसी क्रम के अन्तर्गत कोई कुछ आगे और कोई कुछ पीछे हो जाय। पारस्परिक स्थान-परिवर्तन करनेवाला हेर-फेर। (ट्रांसपोजीशन)। जैसे—‘पिटारा’ से ‘टिपारा’ में होनेवाला वर्णविपर्यय। व्यतिक्रम। २. उलटकर फिर पहले रूप स्थान आदि में लाना। (रिर्वशन)। ३. कुछ को कुछ समझना। मिथ्या ज्ञान। भ्रम। ४. गलती भूल। ५. अव्यवस्था। गड़बड़ी। ६. नाश। बरबादी।
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विपर्यस्त  : भू० कृ० [सं० विपरि+अस्त,वि+परि√अस् (होना)+क्त] १. जिसका विपर्यय हुआ हो। जो उलट-पुलट गया हो जो इधर का उधर हो गया हो। २. इधर-उधर बिखरा हुआ। अस्त-व्यस्त। ३. चौपट। बरबाद। ४. जो ठीक न समझकर उलट दिया या रद्द कर दिया गया हो।
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विपर्यास  : पुं० [सं० वि+परि+अस् (होना)√घञ्] [वि० विपर्यस्त] १. विपर्य्यय। उलट-पलट। व्यतिक्रम। २. जैसा होना चाहिए, उसके विरुद्ध कुछ और ही हो जाना। ३. भ्रम। भ्रांति।
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विपल  : पुं० [सं० ब० स०] पल का साठवाँ अंश।
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विपश्चन  : पुं० [सं०] प्रकृत ज्ञान। यथार्थ बोध (बौद्ध)।
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विपश्चित  : वि० [सं०] जिसे यथार्थ ज्ञान हो। अच्छा ज्ञाता।
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विपाक  : पुं० [सं० वि√पच् (पकना)+घञ्] १. परिपक्व होना। पकना। २. पूरी तरह से तैयार होकर काम में आने के योग्य होना। ३. खाई हुई चीज का पचना। हजम होना। ४. परिणाम या फल। ५. किये हुए कर्मों का फल। ६. जायका। स्वाद। ७. दुर्गति। दुर्दशा। ८. विपत्ति। ९. विपर्यय।
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विपाटन  : पुं० [सं० वि√पट् (गमन)+णिच्+ल्युट-अन] [वि० विपाटक, भू० कृ० विपाटित] १. उखाड़ना खोदना। २. तोड़ना-फोड़ना।
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विपाटल  : वि० [सं० तृ० त०] गहरा लाल (रंग)।
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विपाठ  : पुं० [सं०] एक तरह का बड़ा तीर।
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विपात  : पुं० [सं० वि√पत् (गिरना)+घञ्] १. पतन। २. नाश।
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विपातन  : पुं० [सं० वि√पत् (गिराना)+णिच्+ल्युट-अन] १. विपात करना। २. गिराना। ३. नष्ट करना। ४. गलाना।
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विपादिका  : स्त्री० [सं० विपाद+कन्+टाप्, इत्व] १. अपरस नामक रोग। २. पैर में होनेवाली बिवाई। ३. प्रहेलिका। पहेली।
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विपाल  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे किसी ने पाला हो। २. जिसका कोई पालक न हो। अनाथ।
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विपासा  : स्त्री० [सं० विपास+टाप्] पंजाब की व्यास नदी का पुराना नाम।
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विपिन  : पुं० [सं०√वेप् (काँपना)+इनन्] १. वन। जंगल। २. उपवन। वाटिका। ३. समूह। वि० घना। सघन।
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विपिनचर  : वि० [सं० विपिन√चर् (चलना)+अच्] १. वन में रहनेवाला वनचर। पुं० १. जंगली आदमी। २. जंगली जीव-जन्तु।
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विपिनतिलका  : स्त्री० [सं० ष० त०+टाप्] एक प्रकार की वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में नगण, रगण, नगण और दो रगण होते हैं।
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विपिनपति  : पुं० [सं० ष० त०] वनराज। सिंह।
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विपिनबिहारी  : वि० [सं० विपिन-वि√हृ (हरण करना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप, विपिन+बिहारी] विचरनेवाला। पुं० श्रीकृष्ण।
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विपुत्र  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विपुत्री] जिसके आगे पुत्र न हो। पुत्र-हीन। निपूत।
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विपुर  : वि० [सं० ब० स०] जिसके रहने का स्थान निश्चित न हो।
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विपुल  : वि० [सं०] [स्त्री० विपुला] [भाव० विपुलता] १. संख्या या परिमाण में बहुत अधिक। २. बहुत बड़ा। विशाल। ३. बहुत गंभीर या गहरा। पुं० १. सुमेरु पर्वत का पश्चिमी भाग। २. हिमालय। ३. एक प्रसिद्ध पर्वत जिसकी अधिष्ठाती देवी विपुला कही गई है। ४. राजगृह के पास की एक पहाड़ी।
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विपुलक  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत चौड़ा। २. पुलक से रहित।
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विपुलता  : स्त्री० [सं० विपुल+टाप्] विपुल होने की अवस्था या भाव।
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विपुला  : स्त्री० [सं० विपुल+टाप्] १. पृथ्वी। २. विपुल नामक पर्वत की अधिष्ठाती देवी। ३. एक प्रकार का छन्द जिसके प्रत्येक चरण में भगण, रगण और दो लघु होते हैं। ४. आर्या छन्द के तीन भेदों में से एक जिसके प्रथम चरण में १८ दूसरे में १२ तीसरे में १४ और चौथे में १३ मात्राएँ होती हैं।
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विपुलाई  : स्त्री०=विपुलता।
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विपुष्ट  : वि० [सं०] १. जो अच्छी तरह पुष्ट न हो। २. जिसे भरपेट खाने को न मिलता हो।
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विपुष्प  : वि० [सं० ब० स०] पुष्पहीन (वृक्ष)।
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विपुंसक  : वि० [सं० ब,० स०] नपुंसक।
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विपुंसी  : स्त्री० [सं० विपुंस+ङीष्] वह स्त्री जिसकी चेष्टा, स्वभाव, या आकृति पुरुषों की सी हो। मर्दानी औरत।
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विपूयक  : पुं० [सं०√पूय् (दुर्गन्ध करना)+अच्+कन्] १. सड़ायँध। २. सड़ा हुआ मुर्दा। (बौद्ध)।
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विपृक्त  : भू० कृ० [सं० वि√पृच् (पृथक् करना)+क्त] अलग किया हुआ।
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विपोहना  : स० [सं० वि+प्रोत] १. पोतना। २. लीपना। स०=पोहना।
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विप्र  : पुं० [सं०√वप् (बीज फैलाना)+रनिपा० सिद्धि अथवा वि√प्रा (पूर्ण करना)+ड] १. ब्राह्मण। २. पुरोहित। ३. कर्मनिष्ठ और धार्मिक व्यक्ति। ४. पीपल। ५. सिरस का पेड़। ५. पापर या रेणु का नाम का पौधा। वि० १. मेधावी। २. विद्वान्।
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विप्र-चरण  : पुं० [सं०] [सं० विप्र+चरण] भृगु मुनि की लात का चिन्ह जो विष्णु के हृदय पर माना जाता है।
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विप्र-पद  : पुं० [सं० ष० त०] विप्र-चरण।
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विप्र-बंधु  : पुं० [सं० ष० त० या ब० स०] १. वह ब्राह्मण जो अपने कर्म से च्युत हो। नीच ब्राह्मण। २. एक मंत्रद्रष्टा। ऋषि।
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विप्र-राम  : पुं० [सं०] परशुराम।
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विप्र-व्रजनी  : स्त्री० [सं०] दो पुरुषों से यौन-संबंध रखनेवाली स्त्री।
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विप्र-हरण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. परित्याग। २. मुक्ति।
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विप्रक  : पुं० [सं० विप्र+कन्] नीच ब्राह्मण।
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विप्रकर्षण  : पुं० [सं० वि+प्र√कृष् (आकर्षण करना)+ल्युट-अन] [वि० विप्रकृष्ट] १. दूर खींचकर ले जाना। दूर हटाना। २. काम पूरा करना।
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विप्रकार  : पुं० [सं० वि+प्र√कृ (करना)+घञ्] [वि० विप्रकृत] तिरस्कार। अनादर। २. अपकार।
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विप्रकीर्ण  : वि० [सं० वि+प्र√कृ (फेंकना)+क्त] १. बिखरा या छितराया हुआ। इधर-उधर गिरा पड़ा। २. अस्त व्यस्त। अव्यवस्थित।
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विप्रकृष्ट  : भू० कृ० [सं० वि+प्र√कृष् (खींचना)+क्त] १. खींचकर दूर किया हुआ। २. दूर का। दूरस्थ।
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विप्रगीत  : वि० [सं० वि+प्र√गा (गाना)+क्त, ब० स०] जिसके संबंध में मतभेद हो (जैन)।
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विप्रता  : स्त्री० [सं० विप्र+तल्+टाप्] १. विप्र होने की अवस्था या भाव। २. ब्राह्यणत्व।
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विप्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं०] १. मतों, विचारों स्वार्थों में आदि होनेवाला झगड़ा। मतभेद या संघर्ष। विरोध। २. किसी काम या बात पर की जानेवाली आपत्ति। ३. किसी के प्रति होनेवाला शत्रुतापूर्ण भाव। ४. भूल। ५. न्याय में, ऐसा कथन जिसमें दो परस्पर विरोधी बातें हों। ६. बदनामी।
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विप्रतिपन्न  : भू० कृ० [सं० वि+प्रति√पद् (गमन)+क्त] १. जिसमें प्रतिपत्ति का अभाव हो। २. संदिग्ध। ३. जो स्वीकृत न हो। अग्राह्य। अमान्य। ४. जो प्रमाणित या सिद्ध न हुआ हो। अप्रमाणित। असिद्ध।
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विप्रतिषिद्ध  : वि० [सं० वि+प्रति√षिध् (मना करना)+क्त] १. जिसका निषेध किया गया हो। निषिद्ध। (स्मृति)। २. उल्टा। विरुद्ध। ३. मना किया हुआ। वर्जित।
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विप्रतिषेध  : पुं० [सं० वि+प्रति√षिध् (मना करना)+घञ्] १. नियन्त्रण में रखना। २. दो सम कार्य-प्रणालियों का संघर्ष। ३. व्याकरण में वह जटिल स्थिति जो दो विभिन्न नियमों के एक साथ प्रयुक्त होने के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।
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विप्रत्य  : पुं० [सं० विप्र+त्व] विप्रता।
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विप्रत्यय  : पुं० [सं० मध्यम० स०] प्रत्यय या विश्वास का अभाव। अविश्वास।
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विप्रथित  : वि० [सं० वि√प्रथ (ख्यात करना)+क्त] विख्यात। मशहूर।
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विप्रबुद्ध  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० विप्रबुद्धता] १. अच्छी तरह जागा हुआ और सचेत। जागरुक। २. ज्ञानी।
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विप्रमाथी (थिन्)  : वि० [सं० वि+प्र√मथि (मथन करना)+णिनि] [स्त्री० विप्रमाथिन] १. अच्छी तरह मथन करनेवाला। २. ध्वंस या नाश करनेवाला। ३. व्याकुल या क्षुब्ध करनेवाला।
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विप्रयुक्त  : वि० [सं० तृ० त०] १. अलग किया हुआ। २. बिछुड़ा हुआ। विमुक्त। ३. बाँटा हुआ। विभक्त।
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विप्रयोग  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विप्रयुक्त] १. अलग या पृथक् होने की अवस्था या भाव। अलगाव। पार्थक्य। २. किसी बात या वस्तु से रहित या हीन होने की अवस्था या भाव। ‘संयोग’ का विरुद्धार्थक। जैसे—बिना धनुष-बाण के राम। (यदि धनुष-बाण वाला राम कहा जायगा तो वह संयोग कहलाएगा) ३. साहित्य में विप्रलंभ के दो भेदों में से एक जो उस मानसिक कष्ट या विरह का सूचक है, जो दूसरे से विवाह हो जाने पर कौमार्य अवस्था के प्रेम-पात्र से स्मरण से होता है। (आयोग से भिन्न) ४. वियोग। विरह। ५. बुरा या दुःखद समाचार।
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विप्रयोगी (गिन्)  : वि० [सं० वि+प्रयोग+इनि] १. विप्रयोग-संबंधी। २. विप्रयोग करनेवाला। विमुक्त।
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विप्रर्षि  : पुं० [सं० विप्र+ऋषि] वह ऋषि जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हो। जैसे— विप्रर्षि दुर्वासा।
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विप्रलब्ध  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे किसी ने छला हो। २. जिससे वादा-खिलाफी की गई हो। ३. निराश। ४. वंचित। ५. जिसका प्रिय से समागम न हुआ हो। वियुक्त।
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विप्रलब्धा  : स्त्री० [सं० विप्रलब्ध+टाप्] १. साहित्य में वह नायिका जिसे प्रिय उसे वचन देकर भी संकेत स्थल पर न आया हो। वह नायिका जो प्रिय के वचन भंग करने तथा संकेत-स्थल पर न मिलने के कारण दुःखी हो।
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विप्रलंभ  : पुं० [सं०] १. छलपूर्ण व्यवहार। २. बात बनाकर या वादा न पूरा करके किसी को धोखा देना। ३. मतभेद के कारण होनेवाला झगड़ा। ४. अभीष्ट वस्तु प्राप्त न होना। चाही हुई चीज न मिलना। ५. एक दूसरे से अलग होना। विच्छेद। ६. साहित्य में प्रेमी या प्रेमिका का वियोग या विरह ७. साहित्य में अलंकार का वह प्रकार या भेद जिसके कारण नायक और नायिका के विरह का वर्णन होता है। ८. अनुचित या बुरा काम।
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विप्रलंभक  : वि० [सं० विप्रलंभ+कन्] धोखा देकर या वचन भंग कर दूसरों को छलनेवाला। धूर्त और धोखेबाज।
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विप्रलंभन  : पुं० [सं० वि+प्र+√लभ् (वादा करना)+ल्युट-अन, नुम्] [भू० कृ० विप्रलंभित] छल करना। धोखा देना।
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विप्रलंभी (भिन्)  : वि० [सं०] विप्रलंभक।
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विप्रलाप  : पुं० [सं०] १. व्यर्थ की बकवाद। प्रलाप। २. झगड़ा विवाद। ३. दुर्वचन।
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विप्रलापी (पिन्)  : वि० [सं० वि+प्रलाप+इनि] विप्रलाप करनेवाला।
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विप्रलुंपक  : पुं० [सं० विप्रलुम्प+कन्] १. बहुत बड़ा लालची और लोभी। २. वह जो अपने लिए औरों को कष्ट देता या पीड़ित करता हो। ३. वह शासक जो बहुत अधिक कर लेता हो।
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विप्रलुप्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जो लूटा गया हो। अपहृत। २. गायब या लुप्त किया हुआ। ३. जिसके काम में विघ्न डाला गया हो।
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विप्रलोप  : पुं० [सं० तृ० त०] [वि० विप्रलुप्त] १. बिलकुल लोप। २. पूरा नाश।
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विप्रवाद  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. बुरे वचन। २. बकवाद। कलह। विवाद। ४. मतैक्य का अभाव। मतभेद।
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विप्रवास  : पुं० [सं० कर्म० स०] [भाव० विप्रवासित] १. परदेश में रहना। प्रवास। २. सन्यासी का अपने वस्त्र दूसरे को देना जो एक अपराध या दोष माना गया है।
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विप्रश्न  : पुं० [सं० मध्यम० स०] ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर फलित ज्योतिष के द्वारा दिया जाय।
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विप्रश्निक  : पुं० [सं०] [स्त्री० विप्रश्निका] दैवज्ञ। ज्योतिषी।
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विप्राधिप  : पुं० [सं० ष० त०] चंद्रमा।
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विप्रिय  : वि० [सं० वि√प्री (प्रसव करना)+क्त] १. जो प्रिय न हो। अप्रिय। २. कटु और तीक्षण। ३. जो रुचि के अनुकूल न हो। पुं० १. अप्रिय काम या बात। २. अपराध। कसूर। ३. वियोग। विरह।
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विप्रेत  : वि० [सं० तृ० त०] १. बीता हुआ। गत। २. अस्त-व्यस्त। छिन्न-भिन्न।
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विप्रेषित  : भू० कृ० [सं० वि+प्र√वस् (निवास करना)+क्त] १. देश से निकाला हुआ। २. देश से बाहर गया हुआ। ३. अनुपस्थित।
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विप्लव  : पुं० [सं० वि√प्लु (तैरना कूदना)+अप्] १. पानी की बाढ़। २. किसी चीज का पानी में डूबना। ३. उथल-पुथल। हल-चल। ४. उत्पात। उपद्रव। ५. देश या राज्य में होनेवाला ऐसा उपद्रव जिससे शांति में बाधा पड़े। बलवा। ६. आफत। विपत्ति। ७. विनाश। ८. डाँट-डपट। ९. अनादर। १॰. घोड़े की बहुत तेज चाल।
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विप्लवक  : वि० [सं० विप्लव+कन्] विप्लव करनेवाला।
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विप्लवी (विन्)  : वि० [सं० वि√प्लु+णिनि] १. क्रांति करनेवाला। २. क्षण-भंगुर।
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विप्लाव  : वि० [सं० वि√प्लु+घञ्] १. पानी की बाढ़। २. घोड़े की बहुत तेज चाल।
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विप्लावक  : वि० [सं० वि√प्लु+ण्वुल्-अक] विप्लव करने या करानेवाला।
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विप्लावन  : पुं० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] १. निंदा करना। २. अपशब्द कहना।
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विप्लुत  : वि० [सं०] [भाव० विप्लुति] १. छितराया या बिखरा हुआ। अस्त-व्यस्त। २. घबराया हुआ। हक्का-बक्का। ३. तोड़ा या भंग किया हुआ। (वचन आदि) ४. आचार-भ्रष्ट। चरित्रहीन। ५. नियम, प्रतिज्ञा, आदि से च्युत। ६. अस्पष्ट। ७. विपरीत। विरुद्ध।
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विप्सा  : स्त्री०=वीप्सा (दे०)।
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विफल  : वि० [सं०] १. (वृक्ष) जिसमें पल न लगे हों या न लगते हों। २. जिसके अण्डकोश न हों या काट दिये गये हों। ३. निरर्थक। ४. जिसका उद्देश्य सिद्ध न हुआ हो। ५. जिसके प्रयत्न का कोई फल न हुआ हो। ६. जो परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ हो।
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विफलता  : स्त्री० [सं० विफल+तल्+टाप्] विफल होने की अवस्था या भाव।
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विबंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. बहुत बड़ा बन्धन। २. पेट के अफरा नामक रोग का एक भेद। ३. अनाज, भूसे आदि का ढेर। ४. बैलों आदि के कन्धे पर रखा जानेवाला जूआ। जुआठा। ५. चौड़ी और बड़ी सड़क। राजमार्ग। ६. प्राचीन काल में वह आय जो राजा को प्रजा से होती थी। ७. बन्धन। हथकड़ी।
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विबंधन  : पुं० [सं० तृ० त०] [वि० विबंधक] १. बाँधने की क्रिया या भाव। २. पीठ, छाती, पेट आदि के घाव या फोड़े पर बाँधी जानेवाली पट्टी (सुश्रुत)। ३. बाधा। रुकावट।
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विबंधु  : वि० [सं० ब० स० वि+बन्धु] १. जिसके भाई-बन्धु न हों। बन्धुहीन। २. अनाथ।
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विबल  : वि० [सं० मध्यम० स०] १. बल या शक्ति से रहित। अशक्त। २. विशेष रूप से बलवान्। बहुत बड़ा बली।
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विबाध  : वि० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] बाधारहित।
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विबुद्ध  : वि० [सं० तृ० त० वि०+बुद्ध] [भाव० विबुद्धता] १. जागा हुआ। जाग्रत। २. खिला हुआ। विकसित। ३. ज्ञानवान्।
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विबुध  : पुं० [सं० वि√बुध (जानना)+क] १. पंडित। बुद्धिमान्। २. देवता। ३. चन्द्रमा। ४. शिव। वि० विद्वानों से रहित।
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विबुध-वन  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र का कानन।
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विबुध-विलासिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. देवांगना। २. अप्सरा।
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विबुध-वैद्य  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के चिकित्सक, अश्विनीकुमार।
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विबुधतरु  : पुं० [ष० त०] कल्पवृक्ष।
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विबुधधेनु  : स्त्री० [सं०] कामधेनु।
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विबुधनदी  : स्त्री० [ष० त०] आकाश-गंगा।
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विबुधपति  : पुं० [ष० त०] देवताओं का राजा, इन्द्र।
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विबुधपुर  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवताओं का देश, स्वर्ग।
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विबुधप्रिया  : स्त्री० [सं०] चंचरी या चर्चरी नामक छंद का दूसरा नाम।
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विबुधबेलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] कल्पलता।
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विबुधाचार्य  : पुं० [सं० विबुध+आचार्य, ष० त०] बृहस्पति।
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विबुधान  : पुं० [सं० वि√बुध (जानना)+शानच्] १. पंडित। आचार्य। २. देवता।
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विबुधापगा  : स्त्री० [सं० विबुध-आपगा, ष० त०] आकाश गंगा।
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विबुधावास  : पुं० [सं० ष० त० विबुध+आवास] १. स्वर्ग। २. देव-मंदिर।
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विबुधेंद्र  : पुं० [सं० विबुध+इन्द्र, ष० त०] इंद्र।
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विबुधेश  : पुं० [सं० ष० त० विबुध+ईश] देवताओं का राजा, इन्द्र।
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विबोध  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. जागरण। जागना। २. अच्छा और पूरा ज्ञान। ३. चेतनता। होश-हवास। वि० जिसे बोध या ज्ञान न हो।
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विबोधन  : पुं० [सं० वि√बुध् (जानना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विबोधित] १. जगाना। प्रबोधन। २. ज्ञान कराना। ३. ढाढस या सांत्वना देना। ४. प्रस्फुटित करना। खिलाना।
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विब्वोक  : पुं० [सं०] विब्वोक (हाव)।
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विभक्त  : भू० कृ० [सं०वि√भज् (भाग करना)+क्त, तृ० त०] १. जिसके विभाग किए गये हों। २. अलग किया हुआ। ३. बाँटा हुआ। जिसे पैतृक संपत्ति से में से अपना अंश प्राप्त हो गया हो। पुं० वह अंश जो किसी को पैतृक संपत्ति में से प्राप्त हुआ हो।
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विभक्तज  : पुं० [सं० विभक्त√जन् (उत्पन्न होना)+ड] सम्पत्ति के बँटवारे के बाद पैदा होनेवाला लड़का। (स्मृति)
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विभक्तवाद  : पुं० [सं०] [वि० विभक्तवादी] यह मत या सिद्धान्त कि त्यागियों तथा साधुओं को संसार या समाज से अलग रहना चाहिए।
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विभक्ति  : स्त्री० [सं० वि√भज्+क्तिन्] १. विभक्त करने या होने की अवस्था या भाव। विभाग। बाँट। २. अलगाव। पार्थक्य। ३. संस्कृत व्याकरण के अनुसार शब्द में लगनेवाला वह प्रत्यय जिससे उस शब्द का कारक, लिंग तथा वचन जाना जाता है।
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विभंग  : पुं० [सं० ब० स०] [भू० कृ० विभाग्न] १. सब चीजें यथास्थान रखना या लगाना। विन्यास। २. टूटना। ३. विभाग। ४. विश्रृंखल होना। ५. भौहों से की जानेवाली चेष्टा। भू-भंग। ६. मन का भाव प्रकट करनेवाली चेष्टा। ७. किसी कड़ी या ठोस चीज का आघात आदि के कारण बीच से टूट जाना। (फ्रैक्चर) जैसे—अस्थिविभंग।
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विभंगि  : स्त्री० [सं० विभंग+इनि] १. अनुकृति। २. भंगी।
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विभंगी (गिन्)  : वि० [सं० वि√भज् (भंग होना)+णिनि] १. कंपशील। २. झुर्रियोंवाला।
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विभंगुर  : वि० [सं०] अस्थिर।
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विभज्य  : वि० [सं०]=विभाज्य।
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विभर  : वि० [सं० विभा] १. प्रकाशमान्। २. तेजस्वी।
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विभव  : पुं० [सं०] १. ईश्वर का अवतार। २. ऐश्वर्य। ३. धन-संपत्ति। ४. बल। शक्ति। ५. उदारता। ६. अधिकता। बहुतायता। ७. मोक्ष। ८. पालन। ९. विकास। १॰. छत्तीसवाँ संवत्सर।
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विभवकर  : पुं० [सं०] वह कर जो किसी की धन-संपत्ति या वैभव के विचार से लिया जाता है। (वेल्थ टैक्स)
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विभवशाली  : पुं० [सं०] १. संपत्तिशाली। २. शक्तिशाली।
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विभवी (विन्)  : वि० [सं० विभव+इनि, दीर्घ, नलोप]=विभवशाली।
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विभा  : स्त्री० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+क्विप्] १. प्रभा। कान्ति। २. किरण। रश्मि। ३. छवि। शोभा।
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विभाकर  : वि० [सं०] प्रकाश करने या फैलानेवाला। पुं० १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. चित्रक। चीता। ४. अग्नि। आग। ५. राजा।
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विभाग  : पुं० [सं० वि+भज् (भाग करना)+घञ्] १. कोई चीज कई टुकड़ों या भागों में बाँटना। २. उक्त प्रकार से अलग किया हुआ अंश या टुकड़ा। ३. ग्रन्थ का परिच्छेद या प्रकरण। ४. कोई विशिष्ट कार्य करने के लिए अलग किया हुआ क्षेत्र (डिपार्टमेंट)। जैसे— न्याय विभाग। ५. कार्य-संचालन के सुभीते के लिए किसी कार्य-क्षेत्र के कई छोटे-छोटे हिस्सों में से हर एक (सेक्सन)। ६. किसी विशिष्ट कार्य के लिए निश्चित किया हुआ क्षेत्र या खंड (डिविजन)।
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विभागक  : पुं० [सं० विभाग+कन्] १. विभाग करनेवाला। विभाजक। २. विभागीय। (दे०)।
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विभागात्मक-नक्षत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] रोहिणी, आर्द्रा, पुनर्वस्, मघा, चित्रा, स्वाती, ज्येष्ठा और श्रवण आदि आठ प्रकाशमान् नक्षत्र।
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विभागी (गिन्)  : वि० [सं० वि√भज् (भाग करना)+णि] १. विभाग। २. हिस्सेदार।
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विभागीय  : वि० [सं०] किसी विशिष्ट विभाग में होने या उससे संबंध रखनेवाला (डिपार्टमेंटल) जैसे—विभागीय कार्रवाई।
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विभाजक  : वि० [सं० वि्√भज् (भाग करना)+ण्वुल्-अक] १. विभाजन करनेवाला। २. बाँटने वाला। पुं० वह संख्या या राशि जिससे दूसरी संख्या को भाग दिया जाय (गणित)।
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विभाजन  : पुं० [सं० वि√भज् (भाग करना)+णिच्+ल्युट-अन] १. हिस्से लगाना। विभाग करना। २. संयुक्त संपत्ति आदि को उसके स्वामियों द्वारा आपस में बाँटना। ३. पात्र। बरतन।
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विभाजित  : भू० कृ० [सं० वि√भज् (भाग करना)+णिच्+क्त] १. जिसका विभाजन हो चुका हो। २. विभाजन द्वारा जिसका अंश अलग या निकाल लिया गया हो। खंडित। जैसे— विभाजित भारत।
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विभाज्य  : वि० [सं० वि√भज् (भाग करना)+ण्यत्] जिसका विभाजन हो सके या होने को हो।
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विभात  : पुं० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+क्त] सबेरा। प्रभात।
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विभाँति  : स्त्री० [सं० वि+हिं० भाँति] प्रकार। किस्म। वि० अनेक प्रकार का। अव्य० अनेक प्रकार से।
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विभाति  : पुं० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+क्तिन्] शोभा। सुंदरता।
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विभाना  : अ० [सं० विभा+हिं० ना (प्रत्यय)] १. चमकना। शोभित होना। फबना। स० १. चमकाना। सुशोभित करना।
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विभाव  : पुं० [सं०] साहित्य में, वह निमित्त या हेतु जो आश्रय में भाव जाग्रत या उद्दीप्त करता हो। इसके दो भेद है—आलंबन और उद्दीपन।
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विभावक  : वि० [सं० विभाव+कन्] १. अभिव्यक्त करनेवाला। २. तर्क करनेवाला।
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विभावन  : पुं० [वि√भू (होना)+णिच्+युच्-अन] १. सोचने की क्रिया या भाव। २. अनुभूति। ३. परीक्षण। ४. तर्क। ५. साहित्य में वह स्थिति जिसमें कविता या नाटक के पात्र के साथ पाठक या दर्शक का तादात्म्य होता है।
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विभावना  : स्त्री० [सं०] १. कल्पना। २. कारण के अभाव में कार्य की होनेवाली कल्पना। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में एक विरोध मूलक अर्थालंकार। विशेष—यह पाँच प्रकार का कहा गया है— (क) कारण के अभाव में कार्य होना, (ख) अपर्याप्त कारण से कार्य होना। (ग) प्रतिबंधक तत्त्व के होने पर भी कार्य होना। (घ) विरुद्ध कारण द्वारा कार्य होना और, (ड़) कार्य से कारण की व्युत्पत्ति होना।
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विभावनीय  : वि० [सं० वि√भू (होना)+णिच्+अनीयर्] जिसकी भावना अर्थात् चिंतन या विचार हो सके।
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विभावरी  : स्त्री० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+वनिप्+ङीष्-आदेश] १. रात्रि। रात। २. तारों से जगमगाती हुई रात। चतुर और मुखरा स्त्री। ४. कुटनी। दूती। ५. पतिता स्त्री। ६. रखैल। ७. हलदी। ८. मेदा। ९. प्रचेतस की नगरी का नाम।
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विभावरीश  : पुं० [सं० विभावरी-ईश, ष० त०] निशापति। चन्द्रमा।
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विभावसु  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें विशेष प्रकार हो। अधिक प्रभावाला। पुं० १. सूर्य। २. अग्नि। ३. चन्द्रमा। ४. वसुओं के एक पुत्र। ५. नरकासुर का पुत्र एक दानव। ६. एक गंधर्व जिसने गायत्री से वह सोम छीना था जो वह देवताओं के लिए ले जा रही थी। ७. आक। मदार। ८. चित्रक। चीता। ९. गले में पहनने का एक प्रकार का हार।
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विभावित  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जिसकी विभावना हुई हो। कल्पित। २. निश्चित। ३. गृहीत या स्वीकृत।
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विभावी (विन्)  : वि० [सं० वि√भू (होना)+णिनि] १. भावों का उदय करनेवाला। २. प्रकट करने वाला। ३. शक्तिशाली।
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विभाव्य  : वि० [सं० वि√भू (होना)+ण्यत्] जिसके संबंध में विभावना या विचार हो सकता हो। विभावना के लिए उपयुक्त।
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विभाषा  : स्त्री० [सं०] [वि० वैभाषिक] १. यह कहना कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। २. व्याकरण में, ऐसा प्रयोग जिसके संबंध में उक्त प्रकार के दोहरे मत, विचार या सिद्धान्त मिलते हों। ३. उक्त मतों नियमों आदि के चुनाव के संबंध में होनेवाली स्वतंत्रता। ४. भाषा विज्ञान में किसी भाषा की कोई ऐसी बड़ी शाखा जो उसके विशिष्ट विभाग के अन्तर्गत हो और जिसके कई स्थानिक भेद, प्रभेद भी हों। बोली (डायलेक्ट)।
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विभाषित  : वि० [सं० विभाषा+इतच्] जो इस रूप में कहा गया हो कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता।
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विभास  : पुं० [सं० वि√भास् (प्रकाश करना)+अप्] १. चमक। दीप्ति। २. संगीत में सबेरे गाया जानेवाला एक प्रकार का राग। पुराणानुसार एक देव-योनि। ३. तैत्तरीय आरण्यक के अनुसार सप्तर्षियों में से एक।
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विभासक  : वि० [सं० विभास+कन्] [स्त्री० विभासिका] १. चमकने या चमकानेवाला। प्रकाशयुक्त। २. प्रकट या व्यक्त करनेवाला।
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विभासना  : अ० [सं० विभास+हि० ना (प्रत्यय)] १. चमकाना। २. विभासित होना। जान पड़ना।
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विभासा  : स्त्री० [सं० विभास+टाप्] १. प्रकाश। २. चमक। कांति।
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विभासित  : भू० कृ० [सं०] १. प्रकाशित। २. चमकता हुआ। ३. कांति से युक्त।
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विभिन्न  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विभिन्नता] १. काट या छेदकर अलग किया हुआ। २. अलग। पृथक्। ३. जो ठीक वैसा ही न हो जैसा कि कोई और प्रस्तुत पदार्थ हो। ४. जिनमें परस्पर कुछ न कुछ विभेद या असमता दिखाई दे।
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विभिन्नता  : स्त्री० [सं० विभिन्न+तल्+टाप्] १. विभिन्न होने की अवस्था या भाव। २. वह तत्त्व जो दो या अधिक वस्तुओं का भेद दरशाता हो। ३. फरक। अंतर।
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विभीत  : भू० कृ० [सं० वि√भी (भय करना)+क्त, तृ० त०] [भाव० विभीति] भय-भीत।
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विभीति  : स्त्री० [सं० वि√भी (भय करना)+क्तिन्] १. डर। भय। २. शंका। ३. सन्देह।
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विभीषक  : वि० [सं० वि√भीष् (भयभीत होना)+ण्वुल्-अक] डराने वाला। भयानक।
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विभीषण  : वि० [सं० वि√भीष् (भयभीत होना)+ल्यु-अन] [स्त्री० विभीषणा] बहुत अधिक भीषण। पुं० १. रावण का एक भाई जिसे राम ने रावण की मृत्यु के उपरांत लंका का राजा बनाया था। २. अपने भाई-बंधुओं से द्रोह करके शत्रुओं के साथ जा मिलनेवाला व्यक्ति (व्यंग्य) ३. नरसल। ४. एक तरह का मुहुर्त।
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विभीषिका  : स्त्री० [सं० विभीषा+कर्+टाप्, इत्व] १. भय-प्रदर्शन। डर दिखाना। २. वह साधन जिससे किसी को भयभीत किया जाय। ३. भय का वह रूप जिसके उपस्थित होने पर मनुष्य किंकर्तव्य-विमूढ़ हो जाता है। त्रास (ड्रेड)।
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विभु  : वि० [सं० वि√भू (होना)+डु] [भाव० विभुता] १. जो संबंध वर्तमान हो। सर्वव्यापक। जैसे—दिक् काल, आत्मा आदि। २. जो सब जगह जा या पहुँच सकता हो। ३. बहुत बड़ा। महान्। ४. सदा बना रहनेवाला। नित्य। ५. अपने स्थान से न हटनेवाला। अचल। अटल। ६. ऐश्वर्यशाली। ७. शक्तिशाली। सशक्त। पुं० १. ब्रह्मा। २. जीवात्मा। ३. ईश्वर। ४. शिव। ५. विष्णु। ६. प्रभु। स्वामी। ७. नौकर। सेवक।
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विभुता  : स्त्री० [सं० विभु+तल्+टाप्] १. विभु होने की अवस्था या भाव। सर्वव्यापकता। २. ऐश्वर्य। वैभव। ३. प्रभुत्व। ४. शक्ति।
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विभूति  : स्त्री० [सं० वि√भू (होना)+क्तिन्] १. बहुत अधिक होने की अवस्था या भाव। बहुतायत। विपुलता। २. बढ़ती। वृद्धि। ३. धन-धान्य आदि की यथेष्टता। ऐश्वर्य। विभव। ४. धन-संपत्ति दौलत। ५. भगवान् विष्णु का वह ऐश्वर्य जो नित्य या स्थायी माना जाता है। ६. अणिमा, महिमा आदि अलौकिक या दिव्य शक्तियाँ। ७. चिता की वह राख या भस्म जो शिव जी अपने शरीर पर पोतते थे। ८. यज्ञ, होम आदि के बाद बची हुई राख जो शैव लोग माथे पर या शरीर में लगाते हैं। ९. लक्ष्मी। १॰. एक दिव्यास्त्र जो विश्वामित्र ने राम को दिया था। ११. सृष्टि। १२. प्रभुत्व।
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विभूमा (मन्)  : वि० [सं० वि√भू (होना)+मनिन्, विजहु,+इमनिच्, बहु-भू-वा] ऐश्वर्यवान्। शक्ति-शाली। पुं० श्रीकृष्ण।
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विभूषण  : पुं० [सं० वि√भूष् (भूषित करना)+णिच्+ल्युट-अन ] [ वि० विभूष्य, भू० कृ० विभूषित] १. आभूषणों अर्थात् गहनों से सजाना। २. आभूषण गहना अथवा अलंकरण का कोई और उपकरण। ३. सौन्दर्य। ४. मंजुश्री का एक नाम (बौद्ध)।
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विभूषना  : सं० [सं० विभूषण] १. विभूषित करना। २. गहनों आदि से सजाना। ३. सजाना-सँवारना। ४. शोभा से युक्त करना।
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विभूषा  : स्त्री० [सं० विभूषण-टाप्] १. आभूषणों, गहनों अथवा सजावट के उपकरणों से युक्त होने की अवस्था। २. उक्त अवस्था से प्रस्फुटित होनेवाली शोभा।
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विभूषित  : भू० कृ० [सं० वि√भूष् (भूषित+करना)+क्त] १. आभूषणों से सजा या सजाया हुआ। अलंकृत। २. अच्छी बातों या गुणों से युक्त। ३. शोभित।
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विभूष्य  : वि० [सं० वि√भूष् (भूषित करना)+यत्] विभूषित किये जाने के योग्य। सजाये जाने के योग्य।
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विभेद  : पुं० [सं० वि+भिद् (काटना)+अच्, घञ्-वा] १. वह तत्व जो दो वस्तुओं में होनेवाली असमता का द्योतक हो। २. अनेक भेद और प्रभेद। ३. कटा हुआ अंश छेद या दरार। ४. खंड। विभाग। ५. एक से विकसित होकर अनेक रूप बनना। ६. मिश्रण। मिलावट। ७. दे० ‘विभेदन’। ८. विशेष रूप से किया हुआ अलगाव या भेद (डिस्क्रिमिनेशन)।
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विभेदक  : वि० [सं० वि√भिद्+ण्वुल्-अक] १. भेदन करनेवाला। काटने या छेदनेवाला। २. विभेद उत्पन्न करनेवाला। ३. भेदने या छेदनेवाला। ४. घुसने या धँसनेवाला। ५. अन्तर या भेद दिखलाने य बतलानेवाला। ६. आपस में मतभेद करनेवाला। पुं० विभीतक। बहेड़ा।
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विभेदकारी (रिन्)  : वि० [सं० विभेद√कृ (करना)+णिनि]=विभेदक।
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विभेदन  : पुं० [सं० वि√भिद्+ल्युट-अन] [वि० विभेदनीय, विभेद्य, भू० कृ० विभेदित] १. बीच में से छेदना या भेदना। २. काटना या तोड़ना। ३. खंड या टुकड़े करना। ४. अलग या पृथक् करना। ५. अन्तर या भेद उत्पन्न करना, मानना या समझना। ६. आपस में मन मुटाव पैदा करके फूट डालना।
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विभेदना  : स० [सं० विभेदन] १. भेदन करना। छेदना। काटना। २. विभेद या भेद उत्पन्न करना। ३. छेदते हुए घुसना या धँसना। ४. अन्तर उत्पन्न करना। फरक डालना।
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विभेदी (दिन्)  : वि० [सं०]=विभेदक।
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विभेद्य  : वि० [सं० वि√भिद् (काटना)+यत्] १. विभेदन के लिए उपयुक्त। जिसका विभेदन हो सके। २. जिसमें भेद या अन्तर निकाला जा सके।
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विभोर  : वि० [सं० विह्नल] १. विकल। विह्रल। २. मग्न। लीन। ३. मत्त। मस्त।
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विभौ  : पुं०=विभव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विभ्रम  : पुं० [सं० वि√भ्रम (चलना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। चक्कर लगाना। भ्रमण। २. किसी काम या बात में होनेवाला भ्रम। भ्रांति। किसी काम या बात में होने वाला शक या संदेह। ४. पारस्परिक व्यवहार में किसी काम या बात का अर्थ, आशय या उद्देश्य समझने में होनेवाली भूल। और का और समझना। गलत-फहमी। (मिसअन्डर-स्टैडिंग) ५. मनोविज्ञान में किसी विशिष्ट मानसिक विचार के कारण किसी ज्ञानेन्द्रिय के द्वारा होनेवाला ऐसा भ्रम जो प्रायः निराधार होता है। निर्मूल भ्रम। (हैल्यूसिनेशन) जैसे—अँधेरे में कोई आकृति या भूत-प्रेत दिखाई देना। ६. साहित्य में संयोग श्रृंगार के प्रसंग में स्त्रियों का एक हाथ जिसमें वे प्रियतम का आगमन सुनकर अथवा उससे मिलने के लिए जाने के समय उतावली और उत्सुकता के कारण कुछ उलटे-पुलटे गहने-कपड़े पहन लेती है। ७. घबराहट। विकलता। ८. शोभा।
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विभ्रमी (मिन्)  : वि० [सं० वि√भ्रम् (घूमना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] चारों ओर घूमने या चक्कर खानेवाला।
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विभ्रंश  : पुं० [सं० वि√भंश् (नाश करना)+अच्] १. विनाश। ध्वंस। २. अवनति। ३. पतन। ४. पहाड़ के ऊपर का चौरस मैदान। ५. ऊँचा कगार।
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विभ्रंशन  : पुं० [सं०] [वि० विभ्रंशी, भू० कृ० विभ्रंशित] विभ्रंश करने की क्रिया या भाव।
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विभ्राट्  : पुं० [सं०] १. आपत्ति। विपत्ति। संकट। २. उत्पात। उपद्रव। वि० दीप्त। चमकीला।
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विभ्रांत  : भू० कृ० [सं०] [भाव०विभ्रांति] १. जो घूस या चक्कर खा चुका हो। २. चारों ओर फैला या बिखरा हुआ। ३. भ्रम में पड़ा हुआ। ४. घबराया हुआ। ५. अस्थिर। चंचल।
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विभ्रांति  : स्त्री० [सं० वि√भ्रम् (चक्कर काटना)+क्तिन्] १. फेरा चक्कर। २. भ्रम। भ्रांति। ३. घबराहट।
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विमंडन  : पुं० [सं० तृ० त० वि√मण्ड् (सजाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विमंडित] १. गहनों आदि से सजाना। २. सजाना। पुं० अलंकार। गहना।
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विमंडित  : भू० कृ० [सं० वि√मण्ड्+क्त, तृ० त०] १. अलंकृत। सजा हुआ। २. सुशोभित। ३. किसी से युक्त। मिला हुआ।
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विमत  : वि० [मध्य० स०] [भाव० विमति,वैमत्य] १. जिसका मत या विचार अच्छा न हो। २. जो अच्छी राय न देता हो। पुं० १. ऐसा मत या विचार जो किसी के विरुद्ध पड़ा या दिया गया हो। विमति। (डिस्सेन्ट)। २. ऐसी राय जो अनुकूल न हो।
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विमति  : वि० [सं० मध्यम० स०] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। मूर्ख। स्त्री १. विमत होने की अवस्था या भाव। विरुद्ध मत या विचार। २. खराब या बुरी मत। (बुद्धि या विचार) ३. किसी के विपरीत या विरुद्ध मति या विचार। ४. असहमति।
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विमत्सर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] बहुत अधिक मत्स या अहंकार। वि० मत्सर से रहित।
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विमद  : वि० [सं० ब० स०] १. मदसे रहित। २. (हाथी) जिसे मद न बहता हो।
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विमध्य  : वि० [वि√मन् (जानना)+पक्, न-घ] [भाव० विमध्यता] १. जिसका अक्ष अपने केन्द्र या ठीक मध्य में न हो। केन्द्र या मध्य से कुछ इधर-उधर हटा हुआ। उत्केंद्र। २. (वृत्त) जिसका मध्य दूसरे वृत्त के मध्य भाग या केन्द्र से भिन्न हो। ३. जो आकृति, गति आदि में ठीक गोलाकार न हो और इसीलिए वृत्त के हर बिंदु से जिसमें एक ही मध्य न पड़ता हो। उत्केंद्र (एक्सेन्ट्रिक)।
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विमध्यता  : वि० [सं० विमध्य+तल्+टाप्] विमध्य होने की अवस्था या भाव। उत्केंद्रता। (एकसेन्ट्रिसीटी)।
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विमन  : वि० [सं० ब० स० विमनस्]=विमनस्क।
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विमनस्क  : वि० [सं० ब० स० कप्] १. अनमना। अन्यमनस्क। २. उदास। खिन्न।
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विमर्द  : पुं० [वि√मद् (रगड़ना)+घञ्] १. रगड़ना। २. रौंदना। ३. संघर्ष। ४. नाश। ५. बाधा। संपर्क। ६. खग्रास। (ग्रहण)।
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विमर्दक  : वि० [सं० विमर्द+कन्] विमर्दन करनेवाला।
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विमर्दन  : पुं० [सं०वि√मृद् (मर्दन करना)+ल्युट-अन] [वि० विमर्दनीय, भू० कृ० विमर्दित] १. खूब मर्दन करना। अच्छी तरह मलना-दलना। २. खूब रगड़ना या रौंदना। ३. कुचलना या पीसना। ४. नष्ट करना। ५. मार डालना। ६. बहुत अधिक कष्ट देना या पीडि़त करना। ७. अंकुरित या प्रस्फटित होना। (सांख्य)।
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विमर्दित  : भू० कृ० [सं० वि√मृद् (रगड़ना)+क्त, तृ० त०] १. मला-दला हुआ। २. कुचला या रौंदा हुआ। ३. नष्ट किया हुआ। ४. पीड़ित ५. अपमानित।
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विमर्दी  : वि० [सं० विमर्द+इनि, विमर्दिन] [स्त्री० विमर्दिनी] विमर्दन करनेवाला। विमर्दक।
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विमर्श  : पुं० [वि√मृश् (स्पर्शनादि)+घञ्] १. सोच-विचार कर तथ्य या वास्तविकता का पता लगाना। २. किसी बात या विषय पर कुछ सोचना समझना। विचार करना। ३. गुण-दोष आदि की आलोचना या मीमांसा करना (डेलिबरेशन) ४. जाँचना और परखना। ५. किसी से परामर्श या सलाह करना। ६. ज्ञान। ७. नाटक में पाँच संधियों में से एक संधि। दे० ‘विमर्श संधि’।
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विमर्श-संधि  : स्त्री० [सं०] नाटक की पाँच संधियों में से एक जो ऐसे अवसर पर मानी जाती है जहाँ क्रोध, लोभ, व्यसन आदि के विमर्श या विचार से फल-प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता हो और गर्भ (संधि) देखें के द्वारा यह उद्देश्य बीज रूप में प्रकट भी हो जाता हो। अवमर्श संधि। विशेष—प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में यह उस समय आती है, जब चाणक्य की नीति से असंतुष्ट होकर चन्द्रगुप्त के माता-पिता चले जाते हैं,और चंद्रगुप्त अकेला पड़कर अपना असंतोष और क्रोध प्रकट करता है और विमर्शपूर्वक साम्राज्य स्थापित करने के लोभ से प्रयत्न आरम्भ करता है।
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विमर्शक  : वि० [सं०] विमर्श करनेवाला।
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विमर्शन  : पुं० [सं० वि√मृश् (तर्क-विवेचनकरना)+ल्युट-अन] [वि० विमृष्ट, विमर्शी, भू० कृ० विमर्शित] विमर्श करने की क्रिया या भाव।
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विमर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+चञ्,विमर्श+इन्] विमर्श अर्थात् विचार या समीक्षा करनेवाला।
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विमर्ष  : पुं० [सं० वि√मृष् (सहन करना)+घञ्]=विमर्श।
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विमल  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विमला, भाव० विमलता] १. जिसमें किसी प्रकार का मल न हो। मलरहित। निर्मल। २. साफ तथा पारदर्शक। जैसे—विमल जल। ३. दूषण, दोष आदि से रहित। जैसे—विमल चरित्र। ४. दर्शनीय। सुन्दर। ५. सफेद तथा चमकता हुआ। पुं०१. चाँदी। २. एक प्रकार की उप-धातु। ३. पद्य-काठ। ४. सेंधा नमक। ५. गत उत्सर्पिणी के ५वें और वर्तमान अवसर्पिणी के १३वें अर्हत् या तीर्थकर (जैन)।
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विमलक  : पुं० [सं० विमल+कन्] एक प्रकार का नग या बहुमूल्य पत्थर।
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विमलता  : स्त्री० [सं० विमल+तल्+टाप्] विमल होने की अवस्था,गुण या भाव।
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विमलध्वनि  : स्त्री० [सं० ब० स०] छः चरणों का एक प्रकार का छन्द जो एक दोहे और समान सवैया से मिल कर बनता है।
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विमला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. योग में ,सिद्धि की दस भूमियों या स्तरों में से एक। २. एक देवी जो वासुदेव की नायिका कही गई है। ३. सरस्वती। ४. सातला (वृक्ष)।
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विमलात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसका हृदय निर्मल तथा शुद्ध हो। पुं० चन्द्रमा।
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विमलाद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] गुजरात का गिरनार पर्वत।
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विमलाशोक  : पुं० [सं० ब० स०] संन्यासियों का एक भेद।
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विमली  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विमा  : स्त्री० [सं०] [वि० विमीय] किसी दिशा में काया का होनेवाला विस्तार जो नापा जा सकता हो। आयाम। (डाइमेंशन)। विशेष—विमाएँ तीन प्रकार की होती हैं, लंबाई,चौड़ाई और ऊँचाई (जिसके अन्तर्गत मोटाई या गहराई भी आ जाती हैं)। पद—द्विविम, त्रिविम (दे०)।
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विमाता (तृ)  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] सौतेली माँ।
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विमातृज  : वि० [सं० विमातृ√जन् (उत्पन्न करना)+ड] विमाता से उत्पन्न। सौतेला।
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विमान  : वि० [ब० स०] जिसका कोई मान न हो। मान से रहित। पुं० १. पुराणानुसार देवताओं का वह यान या रथ जो आकाश-मार्ग से चलता था। २. आज-कल आकाश-मार्ग से उडनेवाला यान या सवारी। वायुयान। हवाई जहाज। ३. महात्मा बुद्ध आदि के शव की ऐसी अरथी जो फूल-मालाओं आदि से खूब सजाई गई हो। ४. रासलीला आदि के जलूस में वह चौकी जिस पर देवताओं की मूर्तियाँ रखकर आदमी लोग कंधे पर उठाकर चलते हैं। ५. रथ। ६. घोड़ा। ७. सात खंडोंवाला मकान। ८. परिणाम। ९. वास्तुकला में ऐसा देवमंदिर जिसका ऊपरी भाग बहुत ऊँचा और गावदुमा या लंबोतरा हो।
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विमान-चालक  : पुं० [ष० त०] वह जो हवाई जहाज या वायु-यान चलाता हो।
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विमान-चालन  : पुं० [ष० त०] हवाई जहाज चलाने की विद्या या क्रिया (एविएशन)।
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विमान-पत्तन  : पुं० [सं०] हवाई अड्डा (एयर पोर्ट)।
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विमान-वाहक  : पुं० [सं० विमान+वाहक] एक प्रकार का समुद्री जहाज जिसके ऊपर बहुत लंबी चौड़ी छत होती है। और जिस पर बहुत से हवाई जहाज रहते हैं।
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विमानन  : पुं० [सं०] विमान अर्थात् हवाई जहाज चलाने की कला,क्रिया या विद्या (एयर नैविगेशन)।
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विमानित  : भू० कृ० [सं० वि√मान् (मान करना)+क्त, विमान+इतच् वा] जिसका अपमान हुआ हो।
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विमार्ग  : पुं० [कर्म० स०] १. बुरा रास्ता। कुमार्ग। २. बुरा आचरण। ३. झाड़ू। बुहारीए।
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विमार्गा  : स्त्री० [सं०] दुश्चरित्रा स्त्री।
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विमार्जन  : पुं० [सं० वि√मृज् (शुद्ध करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विमार्जित] १. धोना। २. साफ करना। ३. पवित्र करना।
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विमास  : पुं० [सं० मध्यम० स०] ऐसा मांस जो खराब हो तथा भक्ष्य न हो।
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विमासन  : अ० [सं० विमर्श] राय या विचार करना। विमर्श करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विमित  : वि० [सं०] परिमित। सीमित। पुं० १. भवन। २. विशेषतः ऐसा भवन जो चार खंभों पर आश्रित हो। ३. बड़ा कमरा।
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विमिश्र  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसमें कई तरह की चीजों का मेल हो। मिला-जुला। २. जो विशुद्ध हो।
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विमिश्रा  : स्त्री० [सं० विमिश्र+टाप्] मृगशिरा, आर्द्रा, मघा और अश्लेषा नक्षत्रों में बुध की होनेवाली गति जिसका मान ३॰ दिनों तक रहता है।
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विमिश्रित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें कई तरह की चीजें मिली हों या मिलाई गई हों।
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विमीक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० वि√मोक्ष् (छोड़ना)+णिनि] जिसे मुक्ति या निर्वाण प्राप्त हुआ हो।
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विमीय  : वि० [सं०] विमा-संबंधी। विमा का (डाइमेंशनल)।
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विमुक्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] [भाव० विमुक्तता, विमुक्ति] १. कैद, पाश, बंधन आदि में से जो छूट चुका हो या छोड़ दिया गया हो। स्वतंत्र हुआ या किया हुआ। २. बंध आदि से छूटा हुआ। ३. चलाया या छोड़ा हुआ। जैसे—विमुक्त वाण। ४. स्वछंदतापूर्वक विचरण करनेवाला। ५. बरखास्त। कार्य-भार से मुक्त किया हुआ।
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विमुक्ति  : स्त्री० [सं०] १. विमुक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। कष्ट, संकट आदि से होनेवाला छुटकारा। ३. कार्य-भार नियम, बंधन आदि से मिलनेवाला छुटकारा। (एग्जेम्प्शन)। ४. विछोह। ५. मोक्ष।
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विमुख  : वि० [ब० स०] [स्त्री० विमुखी, भाव० विमुखता] १. जिसने किसी ओर से मुँह फेर या मोड़ लिया हो। २. फलतः जो किसी से उदासीन या विरक्त हो चुका हो। ३. प्रतिकूल। विरुद्ध। ४. जो फलप्राप्ति से वंचित रहा हो।
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विमुखता  : स्त्री० [सं० विमुख+तल्+टाप्] विमुख होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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विमुग्ध  : वि० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+क्त] [भाव० विमुग्धता] १. मोहित। आसक्त। २. भ्रम में पड़ा हुआ। भ्रान्त। ३. घबराया और डरा हुआ। विकल। ४. उन्मत्त मतवाला। ५. पागल। बावला। ६. अचेत। बेसुध।
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विमुग्धक  : वि० [सं० विमुग्ध+कन्] विमुग्ध करनेवाला। पुं० साहित्य में एक प्रकार का छोटा अभिनय।
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विमुद्र  : वि० [सं० ब० स०] १. जिस पर मोहर या छाप न लगी हो। २. जिसका मुँह बन्द न हो। खिला या खुला हुआ।
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विमुद्रण  : पुं० [सं० वि+मुद्रा+युच्,-अन, तृ० त०] [भू० कृ० विमुद्रित] १. मुद्रा या छाप तोड़ना या हटाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना।
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विमूढ़  : वि० [सं०] [स्त्री० विमूढ़ा, भाव० विमूढ़ता] १. विशेष रूप से मुग्ध। अत्यन्त मोहित। २. भ्रम या मोह में पड़ा हुआ। ३. अचेत। बेसुध। ४. बहुत बड़ा। मूढ़ या नासमझ। पुं० १. एक देवयोनि। २. एक प्रकार की संगीत-कला।
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विमूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा गर्भ जिसमें बच्चा मर गया हो या मर जाता हो।
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विमूढ़क  : पुं० [सं० विमूढ़+कन्] साहित्य में एक प्रकार का प्रहसन।
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विमूर्च्छ  : वि० [सं०] जिसकी मूर्च्छा दूर हो गई हो।
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विमूर्च्छित  : वि० [सं०]=मूर्च्छित (बेहोश)।
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विमूल  : वि० [सं० ब० स०] १. मूल से रहित। बिना जड़ का। २. मूल से उखाड़ा या हटाया हुआ। ३. ध्वस्त या नष्ट किया हुआ। बरबाद।
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विमूलन  : पुं० [सं० वि√मूल् (स्थित करना)+ल्युट-अन] १. जड़ से उखाड़ना। उन्नमूलन २. ध्वंस। विनाश।
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विमृश  : पुं० [सं०] विमर्श।
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विमृश्य  : वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+यत्] जिसके विषय में विमर्श अर्थात् आलोचना या विवेचन हो सके या होने को हो। विमर्ष के योग्य।
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विमृष्ट  : वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+क्त] १. जिसके संबंध में विमर्श अर्थात् आलोचना या विवेचन हो चुका हो। २. अच्छी तरह विचारा हुआ।
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विमोक  : वि० [सं० ब० स०] १. दुर्वासना, द्वेष राग आदि से युक्त या रहित। २. जिसके ऊपर कोई आवरण न हो। ३. स्पष्ट। साफ। पुं० छुटकारा। मुक्ति।
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विमोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० वि√मुच् (छोड़ना)+तृच्] विमुक्त करने या छुड़ानेवाला।
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विमोक्ष  : पुं० [सं० वि√मोक्ष् (छोड़ना)+अच्] १. छुटकारा। २. जन्म-मरण के बंधन से होनेवाला छुटकारा। मुक्ति। ३. पकड़ी हुई चीज इधर-उधर छोड़ना या फेंकना। ४. चन्द्रमा या सूर्य के ग्रहण का अन्त। उग्रह। ५. मेरू पर्वत। ६. दे० ‘मोक्ष’।
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विमोक्षण  : पुं० [सं० वि√मोक्ष् (छोड़ना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विमोक्षित] १. बंधन आदि खोलना। मुक्त करना। २. हथियार आदि चलाना या छोड़ना।
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विमोघ  : वि० [सं० ब० स०] १. अमोघ। (अचूक) २. व्यर्थ। बेकार।
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विमोचक  : पुं० [सं० वि√मुच् (मोड़ना)+ण्वुल्-अक] मुक्त करने या करानेवाला।
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विमोचन  : पुं० [सं० वि√मुच्) मोड़ना)+ल्युट—अन] [वि० विमोचनीय, विमोच्य, भू० कृ० विमोचित] १. बंधन आदि खोलकर मुक्त करना, छुड़ाना या छोड़ना। २. सवारी में से खींचनेवाले जानवर को खोलना। जैसे—गाड़ी या रथ में से घोड़ों या बैलों का विमोचन। ३. किसी प्रकार के नियंत्रण, सीमा आदि से अलग या बाहर करना। जैसे—रथ से अश्व-विमोचन। (ख) धनुष से बाण का विमोचन। ४. गिराना या फेंकना।
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विमोचना  : सं० [सं० विमोचन] १. विमोचन अर्थात् मुक्त करना या कराना। २. किसी पर से रोक उठा या हटा लेना जिससे वह स्वच्छंद गति प्राप्त कर सके। ३. गिराना। ४. निकालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विमोच्य  : वि० [सं० वि√मुच् (छोड़ना)+यत्] जिसका विमोचन हो सकता हो या होने को हो। मुक्त होने के योग्य।
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विमोह  : पुं० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+घञ्] १. अज्ञान, भ्रम आदि के कारण उत्पन्न होनेवाला मोह। २. अचेत होने की अवस्था या भाव। बेहोशी। ३. बुद्धिभ्रंश। ४. एक नरक।
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विमोहक  : वि० [सं० विमोह+कन्] मोहित करनेवाला। लुभावना। २. मन में लोभ उत्पन्न करने या ललचानेवाला। ३. सुध-बुध भुलानेवाला। पुं० संगीत में एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है।
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विमोहन  : पुं० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+ल्युट-अन] [भू० कॉ० विमोहित, वि० विमोही] १. मुग्ध या मोहित करना। लुभाना। २. किसी का मन अपने वश में करना। २. सुध-बुध भूलना। ४. कामदेव के पाँच वाणो में से एक। ५. एक नरक का नाम।
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विमोहना  : अ० [सं० विमोहन] १. मोहित करना। २. अचेत या बेसुध होना। ३. भ्रम में पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. मोहित करना। २. बेहोश करना। ३. भ्रम में डालना।
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विमोहा  : स्त्री० [हिं०] विज्जोहा नामक छन्द का दूसरा नाम।
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विमोहित  : भू० कृ० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+क्त] १. जो किसी पर मोहित या आसक्त हो। २. जो सुध-बुध खो चुका हो। बेसुध। बेहोश। ३. भ्रम या धोखे में पड़ा हुआ।
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विमोही (हिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० विमोहिनी] १. जिसमें किसी के प्रति मोह न हो। २. मोहित करनेवाला। मोह लेनेवाला। ३. धोखे या भ्रम में डालनेवाला।
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विमौट  : पुं०=बिमौट (बाँबी)।
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विय  : वि० [सं० द्वि, द्वितीय, प्रा० विय] १. दो। युग्म। २. दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वियंग  : वि० [सं० अव्यंग] जो टेढ़ा-मे़ढ़ा न हो। सीधा। पुं० [?] शिव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वियत्  : पुं० [सं० वि√यम्+क्विप्, तुक्-म-लोप] १. आकाश। २. वायुमंडल। वि० १. गमनशील। २. गतिशील।
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वियत्-पताका  : स्त्री० [सं० वियत्+पताका] विद्युत। बिजली।
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वियद्गंगा  : स्त्री० [सं० ब० स०] आकाशगंगा।
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वियम  : पुं० [सं०√यम्+अप्]=वियाम।
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वियाम  : पुं० [सं० वि√यम् (संयम करना)+घञ्] १. इन्द्रिय निग्रह। संयम। २. विराम। ३. कष्ट। ४. रोक।
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वियुक्त  : वि० [वि√युज् (संयक्त होना)+क्त] [भाव० वियुक्ति] १. जो युक्त या संयुक्त न हो। २. जो किसी से अलग, जुदा या पृथक् हो चुका हो। ३. जिसे औरों ने छोड़ दिया हो। परित्यक्त। ४. वियोगी। ५. वंचित, रहित या हीन।
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वियुग्म  : वि० [सं०] १. जो युग्म अर्थात् जोड़ा हो। अकेला। २. (गणित में वह राशि) जिसे दो से भाग देने पर एक निकलता या बचता हो। (आँड) ३. जिसमें कुछ अस्वाभाविकता हो।
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वियुत  : वि० [सं० वि√यु (मिलना, न मिलना)+क्त] १. वियुक्त। अलग। २. जो किसी से अलग हुआ हो। वियुक्त। ३. रहित। हीन।
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वियो  : वि०=विय (दूसरा)।
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वियोग  : पुं० [वि√युज् (संयोग होना)+घञ्, मध्यम० स०] १. योग न होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य। २. ऐसी अवस्था जिसमें दो जीव विशेषतः प्रेमी एक दूसरे से दूर हों और इस प्रकार उनमें मिलन न होता हो। ३. उक्त अवस्था के फलस्वरूप प्रेमियों को होनेवाला कष्ट। ४. किसी का सदा के लिए बिछुड़ना। मरने के कारण होनेवाला अलगाव। ५. उक्त के फलस्वरूप होनेवाला शोक।
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वियोग-श्रृंगार  : पुं० [सं०] साहित्य में श्रृंगार रस का वह अंग या विभाग जिसमें विरही की दशा का वर्णन होता है। २. संयोग श्रृंगार का जिसमें विरही की दशा का वर्णन होता है। विप्रलंभ। ३. ‘संयोग श्रृंगार’ का विपर्याय।
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वियोगांत  : वि० [सं० ब० स०] (कथा-कहानी या नाटक) जिसके अंतिम दृश्य में प्रेमी, मित्र आदि के वियोग का वर्णन हो।
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वियोगिन  : स्त्री०=वियोगिनी।
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वियोगिनी  : वि० [वियोगिन्+ङीष्] जो नायक, पतिया प्रिय के पर देश चले जाने पर उसके विरह में दुःखी हो। स्त्री० विरहनी नायिका।
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वियोगी (गिन्)  : वि० [सं० वियोगिन्] [स्त्री० वियोगिनी] १. जिसका किसी से वियोग हुआ हो। २. विरही। पुं० १. नायक जो नायिका से वियुक्त होने पर दुःखी हो। २. चकवा पक्षी। चक्रवाक।
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वियोजक  : वि० [सं० वि√युज् (मिलना)+णिच्+ण्वुल-अक] [स्त्री० वियोजिका] वियोजन करने-वाला। पृथक् करनेवाला। पुं० गणित में वह छोटी संख्या जो किसी बड़ी संख्या में से घटाई गई हो।
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वियोजन  : पुं० [सं० वि√युज् (मिलना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वियोजित, वियुक्त] १. वियोग होना। योग का अभाव। २. जुदाई। वियोग। ३. गणित में एक संख्या (या राशि) में से दूसरी संख्या या राशि घटाने की क्रिया।
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वियोजित  : भू० कृ० [सं० वि√युज् (मिलना)+णिच्+क्त] १. जिसका किसी से वियोग हुआ हो। २. जिसे बलात् किसी से अलग या जुदा कर दिया गया हो। ३. वंचित।
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वियोज्य  : वि० [सं० वि√युज् (मिलना)+क्त] १. जिसका वियोजन हो सके या होने को हो। २. (गणित में संख्या) जिसमें से कोई छोटी संख्या घटाई जाने को हो।
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विरक्त  : वि० [सं०] [भाव० विरक्ति, विरक्तता] १. गहरा लाल। रक्त वर्ण। खूनी। २. जिसके रंग में कुछ परिवर्तन आ चुका हो। ३. जिसकी किसी पर आसक्ति न रह गई हो। अनुरक्त का विपर्याय। ४. सांसारिक प्रपंचों, बंधनों आदि से परे रहनेवाला। ५. भोग विलास आदि से बहुत दूर रहनेवाला। ६. खिन्न।
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विरक्तता  : स्त्री० [सं० विरक्त+तल्+टाप्]=विरक्ति।
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विरक्ति  : स्त्री० [सं० वि√रञ्ज् (राग करना)+क्तिन्] १. विरक्त होने की अवस्था या भाव। २. मन में अनुराग या चाह रहने की अवस्था या भाव। ३. सांसारिक बात की ओर से मन हटाना। वैराग्य। ४. भोग-विलास आदि के प्रति होनेवाली अरुचि या उदासीनता। ५. अप्रसन्नता। खिन्नता।
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विरंग  : वि० [सं० ब० स०] १. रंगहीन। २. अनेक रंगोंवाला। रंग-बिरंगा। ३. बदरंग।
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विरंच (चि)  : पुं० [सं० वि√रञ्च् (रचना करना)+अच्] ब्रह्मा।
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विरचन  : पुं० [सं० वि√रच् (बनाना)+ल्युट-अन] [वि० विरचनीय, भू० कृ० विरचनीय] १. रचना करना। निर्माण करना। बनाना। २. तैयारी।
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विरचना  : स० [सं० विरचन] १. निर्माण करना। बनाना। रचना। २. अलंकृत करना। सजाना। अ०=विरक्त होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरंचि-सुत  : पुं० [सं० ष० त० विरंचि+सुत] नारद।
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विरचित  : भू० कृ० [सं० वि√रच् (बनाना)+क्त] १. रचा या बनाया हुआ। निर्मित। रचित। २. (ग्रन्थों आदि के संबंध में) लिखित।
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विरज  : वि० [ब० स०] १. धूल, गर्द आदि से रहित। २. जो रजोगुण प्रधान न हो। ३. जिसमें रजोगुणी प्रवृत्ति न हो। ४. स्वच्छ। निर्मल। ५. (स्त्री) जिसका रजोधर्म रुक गया या समाप्त हो चुका हो। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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विरंजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विरंजित] १. रंजन से रहित करना। २. ऐसी प्रक्रिया जिससे किसी वस्तु में के सब रंग हट या निकल जाएँ। ३. धोकर साफ करना। प्रक्षालन।
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विरजन  : वि० [सं०] रंग-परिवर्तन करनेवाला।
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विरजा  : स्त्री० [सं०] १. श्रीकृष्ण की एक सखी। २. नहुष की स्त्री।
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विरजा-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] उड़ीसा का एक तीरथ स्थान जो जोधपुर के पास है।
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विरजाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] एक पर्वत जो मेरु के उत्तर में कहा गया है।
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विरत  : वि० [सं० वि√रम् (रमण करना)+क्त, म-लोप] [भाव० विरति] १. जो रत अर्थात् अनुरक्त का प्रवृत्त न रह गया हो। जिसका मन किसी ओर से हट गया हो। २. जिसने किसी से अपना संबंध तोड़ लिया हो। जो अलग हो गया हो। जैसे—किसी काम से विरत होना। ३. जिसने सांसारिक विषयों से अपना मन हटा लिया हो। विरक्त। वैरागी। ४. जो विशेष रूप से किसी ओर रत हुआ हो।
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विरति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स० ब० स० वा] १. विरत होने की अवस्था या भाव। उदासीनता या विरक्ति २. वैराग्य।
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विरथ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके पास रथ न हो। अथवा जो रथ पर आरूढ़ न हो। २. रथ से गिरा या हटा हुआ। ३. पैदल। पुं० पैदल सिपाही।
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विरद  : पुं० [सं० विरुद्ध] १. बड़ा और सुन्दर नाम। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. कीर्ति। यश। वि० जिसे रद अर्थात् दाँत न हो। दन्तहीन।
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विरदावली  : स्त्री०=विरुदावली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरदैप  : वि० [हिं० विरद+ऐत (प्रत्यय)] १. बड़े विरदावली। २. कीर्ति या यशवाला। ३. किसी का विरद बखानने वाला। पुं० चारण।
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विरम  : पुं०=विराम। उदाहरण-जागरणोंपम यह सुप्ति विरम भ्रम भर।—निराला।
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विरमण  : पुं० [सं० वि√रम् (क्रीड़ा)+ल्युट-अन] १. विराम करना। ठहरना। थमना। रुकना। २. रमण करना। रमना। ३. भोग-विलास। ४. रमण से मन हटा कर अलग होना। परित्याग।
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विरमना  : अ० [सं० विरमण] १. रम जाना। मन लगाना अनुरक्त हो जाना। किसी से या कहीं से मन लगाना २. मन का रमने लगना। ३. ठहरना। रुकना। ४. वेग, गति आदि का कम होना या रुकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=विलंबना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरमाना  : स० [हिं० विरमना का स० रूप] १. किसी को विरमने में प्रवृत्त करना। बिलमाना। २. धोखे या भ्रम में डालना।
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विरल  : वि० [सं० वि√रा (ना)+कलन्] [भाव० विरलता] १. जिसके अंग या अंश बहुत पास-पास न हों। जो घना न हो। जिसके बीच-बीच में अवकाश हो। ‘सघन’ का विपर्याय। जैसे—विरल बुनावटवाला। कपड़ा। २. जो बहुत कम मिलता हो। दुर्लभ। ३. जो गाढ़ा न हो। पतला। ४. निर्जल। एकान्त। ५. खाली। शून्य। ६. अल्प। थोड़ा।
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विरला  : वि० [सं० विरल] १. विरल। २. जो केवल कहीं कहीं या बहुत कम मिलता अथवा होता हो।
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विरलीकरण  : पुं० [सं० विरल+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] सघन को विरल करने की क्रिया।
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विरव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] अनेक या विविध प्रकार के शब्द। वि० १. जिसमें शब्द न हो। २. जो शब्द न करता हो। निःशब्द। नीरव।
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विरस  : वि० [मध्य० स०] [भाव० विरसता] १. जिसमें रस या मिठास न हो। २. फलतः जो स्वाद में फीका हो। ३. जिसमें रुचि को आकृष्ट करने का कोई गुण या तत्त्व न हो। जिसमें रुचि न लगती हो। ४. (साहित्यिक रचना) जिसमें रस का परिपाक न हुआ हो। पुं० काव्य में होनेवाला रसभंग नामक दोष।
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विरसता  : स्त्री० [सं० विरस+तल्+टाप्] १. विरस होने की अवस्था या भाव। २. साहित्य का रस-भंग नामक दोष।
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विरह  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु से रहित होना। किसी वस्तु के अभाव में होना। २. प्रिय व्यक्तियों का एक दूसरे से अलग होना जो दोनों पक्षों के लिए बहुत कष्टप्रद हो। वियोग। ३. उक्त के फलस्वरूप होनेवाला मानसिक कष्ट या दुःख। ४. त्याग। वि० रहित। हीन।
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विरह-निवेदन  : पुं० [सं०] साहित्य में दूत या दूती का नायक (अथवा नायिका) के पास पहुँचकर उससे यह कहना कि तुम्हारे विरह में नायक (अथवा नायिका) कितनी दुःखी है।
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विरहा  : पुं०=विरहा (गीत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरहागि  : स्त्री०=विरहाग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विरहाग्नि  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्रिय के विरह या वियोग के कारण होनेवाला तीव्र मानसिक कष्ट या संताप।
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विरहानल  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स०]=विरहाग्नि।
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विरहिणी  : वि० [सं० विरह+इनि+ङीप्] पति या प्रिय के विरह से संतप्त (नायिका)।
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विरहित  : वि० [सं० वि√रह् (त्याग करना)+क्त] रहित। शून्य।
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विरही (हिन्)  : वि० [सं० विरह+इनि] [स्त्री० विरहिणी] (नायक) जो प्रियतमा के विरह से संतप्त हो।
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विरहोत्कंठिता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में वह विरहिणी नायिका जो प्रिय के आगमन के लिए अधीर हो रही हो।
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विराग  : पुं० [सं० वि√रञ्ज् (राग करना)+घञ्, मध्यम० स०] १. मन में राग होनेवाला अभाव। किसी चीज या बात की चाह न होना। ‘अनुराग’ का विपर्याय। २. किसी काम, चीज या बात से मन उचट या हट जाना। विरक्ति। ३. सांसारिक सुख-भोग की चाह न रह जाना। वैराग्य। ४. संगीत में दो रागों के मेल से बना हुआ संकर राग।
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विरागी (गिन्)  : वि० [सं० विराग+इनि] [स्त्री० विरागिनी] १. जिसके मन में राग (चाह या प्रेम) न हो। राग-रहित। २. दे० ‘विरक्त’।
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विराज  : वि० [सं० वि√राज् (शोभित होना)+अच्] १. चमकीला। २. राज्य-रहित। पुं० १. राजा। २. क्षत्रिय। ३. ब्रह्माण्ड। ४. एक प्रकार का मन्दिर। ५. एक प्रकार का एकाह यज्ञ। ६. एक प्रजापति का नाम।
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विराजन  : पुं० [सं० वि√राज्+ल्युट-अन] १. शोभित होना। २. उपस्थित वर्तमान या विद्यमान होना।
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विराजना  : अ० [सं० विराजन] १. शोभित होना। प्रकाशित होना। २. उपस्थित या विद्यमान होना। ३. बैठना। (बड़ों के लिए आदरसूचक) जैसे—आइए, विराजिए।
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विराजमान  : वि० [सं० वि√राज्+शानच्, मुक्] १. प्रकाशमान्। चमकता हुआ। चमक-दमक वाला। २. उपस्थित। विद्यमान (बड़ों के लिए आदरार्थक, विशेषतः बैठे रहने की दशा में)।
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विराजित  : भू० कृ० [सं० वि√राज्+क्त] १. सुशोभित। २. प्रकाशित। ३. विराजमान।
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विराट  : पुं० [सं०] १. मत्स्य देश का पुराना नाम। २. उक्त देश का राजा जिसकी उत्तरा नामक कन्या का विवाह अभिमन्यु से हुआ था। ३. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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विराट्  : वि० [सं०] बहुत बड़ा या भारी जैसे—विराट् सभा विराट् आयोजन। पुं० १. विश्वरूप ब्रह्मा। २. विश्व। ३. क्षत्रिय। ४. दे० ‘विश्व रूप’।
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विराण  : वि० [फा० बेगानः] [स्त्री० विराणी] दूसरे का। पराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विराध  : पुं० [सं० वि√राध् (पीड़ित करना)+अच्] १. पीड़ा। क्लेश। तकलीफ। २. एक राक्षस जो दंडकारण्य में लक्ष्मण के हाथ से मारा गया था। वि० कष्ट देने या पीड़ित करनेवाला।
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विराधन  : पुं० [सं० वि√राध् (पीड़ित करना)+ल्युट-अन] १. किसी का अपकार या हानि करना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना।
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विराम  : पुं० [सं०] १. क्रिया, गति, चाल आदि में होनेवाला अटकाव। २. कार्य-व्यापार में होनेवाली मंदी। ३. आराम या विश्राम के उद्देश्य से चुप-चाप पड़े रहने की अवस्था या भाव। ४. विश्राम। ५. कार्य, पद सेवा आदि से अवकाश ग्रहण करना। ६. पद्य के चरण में की यति। ७. विराम-चिन्ह।
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विराम-काल  : पुं० [सं०] वह छुट्टी जो काम करनेवालों को विराम करने या सुस्ताने के लिए मिलती है।
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विराम-चिन्ह  : पुं० [सं०] लेखन, छपाई आदि में प्रयुक्त होनेवाले चिन्ह। (पंक्चुएशन) जैसे—, ;.-। आदि।
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विराम-संधि  : स्त्री० [सं०] युद्ध होते रहने की दशा में बीच में होनेवाली वह अस्थायी संधि जो स्थायी संधि की शर्ते निश्चित करने के लिए होती है और जिसके अनुसार युद्ध कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाता है। अवहार (आर्मिस्टिस)।
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विराल  : पुं० [सं० वि√डल्+घञ्, ड-र] बिडाल। बिल्ली।
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विराव  : पुं० [सं० वि√रु (शब्द करना)+घञ्] १. शब्द। आवाज। २. मुँह से निकलनेवाली वाणी। बोली। उदाहरण—मोर कौं सोर गान कोकिल विराव कै।—सेनापति। ३. शोरगुल। हो-हल्ला। वि० रव अर्थात् शब्द से रहित। जिसमें आवाज न हो।
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विरावण  : वि० [सं० विराव√नी (ढोना)+ड] [स्त्री० विराविणी] १. बोलने या शब्द करनेवाला। २. रोने-चिल्लानेवाला। ३. शोर-गुल करने या हो-हल्ला मचानेवाला।
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विरावी (विन्)  : वि० [सं०] विरावण।
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विरास  : पुं०=विलास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरासत  : स्त्री०=वरासत।
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विरासी  : वि०=विलासी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरिक्त  : वि० [वि०√रिच् (रेचन करना)+क्त०] [भाव० विरिक्ति] १. जो रिक्त हो। खाली। २. (पेट) जो जुलाब लेने के बाद साफ हो गया हो।
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विरिंच (चि)  : पुं० [वि०√रिच् (बनान)+अच्, नुम्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव।
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विरुज  : वि० [सं० मध्यम, स० या ब० स०] जिसे रोग न हो। निरोग।
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विरुजालय  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ रोगों का निदान तथा उपचार किया जाता हो (क्लिनिक)।
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विरुझना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरुझाना  : स०=उलझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=उलझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरुद  : पुं० [सं० ब० स०] १. उच्च स्वर में की जानेवाली घोषणा। २. किसी के गुण, प्रताप आदि का वर्णन। प्रशस्ति। ३. उक्त की सूचक कोई पदवी जो प्रायः राजाओं के नाम के साथ लगती थी। जैसे—‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’ में ‘विक्रमादित्य’ विरुद है। ३. कीर्ति। यश।
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विरुदावली  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. विरुदों या पदवियों का संग्रह। २. किसी बड़े व्यक्ति के गुणों, पराक्रम आदि का होनेवाला विस्तार-पूर्वक वर्णन। ३. गुणावली।
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विरुद्ध  : वि० [सं०] १. सामने आकर विरोधी होनेवाला। २. कार्य, प्रयत्न आदि का विरोध करने या उसकी विफलता चाहनेवाला। ३. जो अनुकूल नहीं, बल्कि प्रतिकूल हो। मेल या संगति में न बैठनेवाला। विपरीत। ४. साधारण नियमों आदि से विभिन्न और उलटा। जैसे— विरुद्ध आचरण। अव्य० १. प्रतिकूल स्थिति में। खिलाफ। जैसे—किसी के विरुद्ध चलना या बोलना। २. किसी के मुकाबले या विरोध में। ३. सामने। पुं० [सं०] भारतीय नैयायिकों के अनुसार ५ प्रकार के हेत्वाभावों में से एक जो वहाँ माना जाता है जहाँ दिया हुआ हेतु स्वयं अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत हो।
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विरुद्ध-मति-कारिता  : स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का काव्य दोष जो ऐसे पद या वाक्य के प्रयोग में होता है जिससे वाच्य के संबंध में विरुद्ध या अनुचित भाव उत्पन्न हो सकता हो। जैसे—‘‘भवानीश’’ में यह दोष इसलिए है कि भव से उनकी पत्नी का नाम भवानी हुआ है। अब उसमें ईश शब्द जोड़ना इसलिए ठीक नहीं है कि इससे अर्थ हो जायगा—भव की स्त्री के स्वामी।
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विरुद्धकर्मी (कर्मन)  : वि० [सं० ब० स०] १. विरुद्ध कर्म करनेवाला। २. विपरीत या निन्दनीय आचरण वाला। पुं० श्लेष अलंकार का एक भेद जिसमें किसी क्रिया के फलस्वरूप होने वाली परस्पर विरुद्ध प्रतिक्रियाओं का उल्लेख होता है। (केशव)।
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विरुद्धता  : स्त्री० [सं० विरुद्ध+तल्+टाप्] १. विरुद्ध होने की अवस्था या भाव। विरोध। २. प्रतिकूलता।
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विरुद्धार्थ  : वि० [सं०] विरोधी अर्थवाला। पुं० विरुद्ध या विपरीत अर्थ।
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विरुद्धार्थ दीपक  : पुं० [सं०] साहित्य में दीपक अलंकार का एक भेद जिसमें एक ही बात से दो परस्पर विरुद्ध क्रियाओं का एक साथ होना दिखाया जाता है।
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विरुध  : पुं०=विरोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=विरुद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=वीरुध (पौधा या लता)।
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विरुह  : वि०=विरुद्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पु०=विरोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरूज  : पुं० [सं० ब० स०] एक अग्नि जिसका स्थान जल में माना गया है।
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विरूढ़  : भू० कृ० [सं० वि√रूह् (उत्पन्न होना)+क्त] १. किसी पर चढ़ा हुआ। आरूढ़। सवार। २. अंकुरित। ३. उत्पन्न। जात। ४. अच्छी तरह जमा, धँसा या बैठा हुआ।
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विरूथिनी  : स्त्री० [सं० विरुथ+इनि+ङीप्] वैसाख बदी एकादशी।
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विरूप  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विरुपा] [भाव० विरूपता] १. अनेक या कई रूपोंवाला। २. कई तरह या प्रकार का। ३. भद्दे रुपवाला। कुरूप। बदसूरत। ४. जिसका रूप बदल गया हो। ५. शोभा श्री आदि से रहित। ६. उलटा, विपरीत या विरुद्ध। ७. अप्राकृतिक। ८. अन्य या दूसरे प्रकार का। भिन्न। पुं० १. बिगड़ी हुई सूरत। २. पाडु रोग। ३. शिव। ४. एक असुर। ५. पिप्ललीमूल।
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विरूप-परिणाम  : पुं० [सं०] एक रूपता से अनेक-रूपता अर्थात् निर्विशेषता से विशेषता की ओर होनेवाला परिवर्तन। एक मूल प्रकृति से अनेक विकृतियों का विकसित होना।
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विरूपण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विरूपित] आघात आदि के द्वारा अथवा और किसी प्रकार का रूप या आकार बिगड़ना।
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विरूपता  : स्त्री० [सं० विरूप+तल्+टाप्] विरूप होने की अवस्था या भाव।
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विरूपा  : स्त्री० [सं० विरूप+टाप्] १. दुरालभा। २. अतिविषा। ३. यम की पत्नी का नाम। वि० सं० विरूप का स्त्री०।
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विरूपाक्ष  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी आँखें विरूप हों। पुं० १. शिव। २. शिव का एक गण। ३. रावण का एक सेनापति जिसे सुग्रीव ने मारा था। ४. पुराणानुसार एक दिग्गज।
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विरूपिक  : वि० [स्त्री० विरूपिका]=विरूप।
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विरूपी (पिन्)  : वि० [सं० विरूप+इनि] [स्त्री० विरूपिणी] १. जिसका रूप बिगड़ा हो। २. कुरूप। बदसूरत। ३. डरावनी या भयानक आकृतिवाला। पुं० गिरगिट नामक जन्तु।
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विरेक  : पुं० [सं०] [वि०√रिच् (रेचन करना)+घञ्]=विरेचक।
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विरेचक  : वि० [सं० वि√रिच् (रेचन करना)+ण्वुल-अक] (पदार्थ) जो दस्त लानेवाला हो। दस्तावर।
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विरेचन  : पुं० [वि०√रिचे (रेचन करना)+ल्युट-अन] १. ऐसी क्रिया करना जिससे दस्त आवें। २. ऐसा पदार्थ या ओषधि जिसके सेवन से दस्त आते हों। विरेचक पदार्थ।
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विरेची (चिन्)  : वि० [सं० वि√रिच् (रेचन करना)+णिनि]=विरेचक।
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विरेच्य  : वि० [सं० वि√रिच् (रेचन करना)+यत्] जो दस्तावर दवा देने के योग्य हो। जिससे विरेचन कराया जा सके।
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विरोक  : पुं० [सं० वि√रुच् (चमकना)+घञ्] १. चमक। दीप्ति। २. किरण। रश्मि। ३. चन्द्रमा। ४. विष्णु। ५. छेद सूराख।
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विरोकना  : स०=रोकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरोचन  : पुं० [सं० वि√रुच् (चमकना)+युच्-अन] १. प्रकाशमान होना। चमकना। २. सूर्य की किरण। ३. सूर्य। ४. चन्द्रमा। ५. अग्नि। ६. विष्णु। ७. प्रहलाद के पुत्र और बलि के पिता का नाम। ८. राजा बलि का एक नाम। ९. आक। मदार। १॰. रोहित वृक्ष। रुहेड़ा। ११. श्योनाक। सोनापाढ़ा। १२. घृतकरंज। वि० चमकनेवाला। दीप्तिमान।
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विरोध  : पुं० [सं० वि√रुध् (ढकना)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला रोध या रुकावट। २. किसी कार्य या प्रयत्न को रोकने या विफल करने के लिए उसके विपरीत होनेवाला प्रयत्न (आँपोजीशन) ३. भिन्न-भिन्न तथ्यों विचारों आदि में होनेवाला ऐसा तत्त्व जो एक दूसरे के विपरीत हो। (रिपग्नेन्सी) ४. मतों व्यक्तियों सिद्धान्तों आदि में होनेवाली पारस्परिक विपरीतता। ५. उक्त के फलस्वरूप आपस में होनेवाला ऐसा संघर्ष जिसमें प्रायः वैर या शत्रुता का भाव भी सम्मिलित होता है। (कॉन्प्लिक्ट) ६. आपस में होनेवाली अनवन या बिगाड़। पद—वैर विरोध। ७. ऐसी स्थिति जिसमें दो बातें एक साथ हो सकती हों। विप्रतिपति। व्याघात। ८. उलटी या विपरीत स्थिति। ९. विरोधाभास। (दे०) १॰. नाटक का एक अंग जिसमें किसी बात का वर्णन करते समय विपत्ति का आभास दिखाया गया है। ११. नाश।
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विरोध-पीठ  : पुं० [सं०] विधायिका सभा में विरोध पक्षवालों के बैठने का स्थान (ऑपोजीशन बेंच)।
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विरोधक  : वि० [सं० वि√रुध् (ढकना)+ण्वुल्-अक] १. विरोध संबंधी। २. विरोधी। पुं० नाटक में ऐसा विषय जिसका प्रदर्शन या वर्णन निषिद्ध हो।
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विरोधन  : पुं० [सं० वि√रुध् (ढकना)+ल्युट-अन] [वि० विरोधी, विरोधित, विरोध्य] १. विरोध करने की क्रिया या भाव। प्रतिरोध। ३. ध्वंस। नाश। बरबादी।
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विरोधना  : स० [सं० विरोधन] १. किसी का या किसी से विरोध करना। २. वैर करना।
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विरोधाभास  : पुं० [सं०] साहित्य में एक विरोधमूलक अर्थालंकार जिसमें वस्तुतः विरोध का वर्णन न होने पर भी विरोध का आभास होता है।
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विरोधित  : भू० कृ० [सं० वि√रुध् (ढकना)+क्त] जिसका विरोध किया गया हो।
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विरोधिता  : स्त्री० [सं० विरोधिन्+तल्+टाप्] १. विरोध। २. वैर। शत्रुता। ३. फलित ज्योतिष में नक्षत्रों की प्रतिकूल दृष्टि।
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विरोधी (धिन्)  : वि० [सं०] १. जो किसी के विरुद्ध आचरण करता हो। विरोध करनेवाला। २. जो इस प्रयास में हो कि अमुक कार्य को प्रचलन में न लाया जाय अथवा प्रचलन से उठा लिया जाय। ३. विरुद्ध पडने या होनेवाला। उलटा। विपरीत। पुं०१. विपक्षी। २. शत्रु। वैरी।
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विरोध्य  : वि० [सं० विरोध+यत्] जिसका विरोध किया जा सके या किया जाने को हो।
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विरोपण  : पुं० [सं० वि√रुप् (बहना)+णिच्+ल्युट—अन] [वि० विरोपणीय, विरोप्य, भू० कृ० विरोपित] १. जमीन के पौधे आदि लगाना। रोपना। २. लेप करना। चढ़ाना या लगाना।
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विरोम  : वि० [सं० ब० स०] रोम-रहित। बिना रोएँ का।
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विरोह  : पुं० [सं० वि√रुह् (अंकुर निकलना)+घञ्] १. अंकुरित होना। २, उत्पत्ति या उद्भव होना।
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विरोहण  : पुं० [सं० वि√रुह् (अंकुरित होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विरोहित, वि० विरोहणीय,] एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाना। रोपना।
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विरोही  : वि० [सं० वि√रुह् (उगना)+णिनि=विरोहिन्] [स्त्री० विरोहिणी] (पौधा) रोपनेवाला।
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विलक्ष  : वि० [सं० वि√लक्ष् (लक्षित करना)+अच्] १. जिसमें विशिष्ट चिन्ह या लक्षण न हों। २. जिसका कोई लक्ष्य न हो। ३. चकित। ४. लज्जित।
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विलक्षण  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका कोई लक्षण न हो। २. जिसके बहुत से लक्षण हों। ३. अपने वर्ग के अन्यों की अपेक्षा जिसके लक्षणों में विशेषता हो। जैसा साधारणताः होता हो, उससे कुछ अलग प्रकार का। ४. किसी की तुलना में कुछ अलग और विशिष्ट प्रकार का
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विलक्षणता  : स्त्री० [सं० विलक्षण+तल्+टाप्] १. विलक्षण होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिसके कारण कोई चीज विलक्षण कही जाती है।
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विलखना  : अ०=विलखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=लखना।
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विलखाना  : स० [हिं० विलखना का स०](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. =विलखाना। २. =लखाना।
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विलग  : वि० [हिं० वि (उप)+लगना] जो किसी के साथ लगा हुआ न हो। अलग। जुदा। पृथक्। पुं० अन्तर। फरक। भेद।
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विलगाना  : अ० [हिं० विलग+ना (प्रत्यय)] अलग होना। पृथक् होना। अलग या पृथक् करना।
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विलग्न  : वि० [सं०] १. किसी के साथ लगा हुआ। संलग्न। २. झूलता या लटकता हुआ। ३. किसी में बंद किया या बाँधा हुआ। ४. बीता हुआ। व्यतीत। ५. कोमल। पुं० १. कमर। २. चूतड़। ३. जन्म-पत्री। ४. राशियों का उदय।
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विलंघन  : पुं० [सं० वि√लंच् (लाँघना)+ल्युट-अन] १. कूद या लाँघकर पार करना। २. उपवास। लंघन। ३. किसी काम चीज या बात से अपने आपको रहित या वंचित रखना।
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विलंघना  : स०=लाँघना।
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विलंघनीय  : वि० [सं० वि√लंच् (लाँघना)+अनीयर्] १. जिसका विलंघन हो सके या होने को हो। २. (काम) जो सहज किया जा सके। सुगम।
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विलंघित  : भू० कृ० [सं० वि√लंघ् (लाँघना)+क्त] जिसका विलंघन हुआ हो।
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विलंघी (घिन्)  : वि० [सं० वि√लंघ् (लाँघना)+णिनि] विलंघन करनेवाला।
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विलंघ्य  : वि० [सं० वि√लंघ् (लाँघना)+यत्]=विलंघनीय।
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विलच्छन  : वि०=विलक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलज्ज  : वि० [सं० ब० स०] निर्लज्ज। बेहया।
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विलपन  : पुं० [सं०] १. विलाप करना। २. गप-शप करना। ३. तेल आदि के नीचे जमने या बैठनेवाली मैल। गंदगी।
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विलपना  : अ० [सं० विलाप] विलाप करना। रोना।
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विलंब  : पुं० [सं० वि√लम्ब् (देर करना)+घञ्] १. ऐसी स्थिति जिसमें अनुमान, आवश्यकता, औचित्य आदि से अधिक समय लगे। अति-काल। देर। २. इस प्रकार अधिक लगनेवाला समय।
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विलंब-शुल्क  : पुं० [ष० त०] १. वह शुल्क जो किसी काम या बात में विलंब करने पर देना पड़े। (लेट फ़ी) २. वह अतिरिक्त शुल्क जो जहाज रेल आदि से आया हुआ माल देर से छुड़ाने पर देना पड़ता है (डेमरेज)।
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विलंबन  : पुं० [सं० वि√लम्ब् (देर होना)+ल्युट-अन] [वि० विलंबनीय, विलंबी, भू० कृ० विलंबित] १. देर करना। विलंब करना। २. टँगना। या लटकाना। ३. आश्रय या सहारा लेना।
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विलंबना  : स० [सं० विलंबन] १. आवश्यकता से अधिक समय लगाना। २. देर या विलंब करना। अ० १. देर या विलंब होना। २. लटकना। ३. आश्रय या सहारा लेना। ४. दे० ‘बिरमना’ या ‘बिलमना’।
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विलंबित  : वि० [सं० वि√लम्ब् (देर करना)+क्त] १. लटकता या झूलता हुआ। २. जिसमें विलंब लगा हो या देर हुई हो। ३. देर करने या लगानेवाला। पुं० १. ऐसे जीव-जंतु जो बहुत धीरे-धीरे चलते हों। जैसे—गैंडा, भैंस आदि। २. संगीत ऐसी लय, जिसमें स्वरों का उच्चारण बहुत मंद गति से होता हो। ‘द्रुत’ का विपर्याय।
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विलंबी (दिन्)  : वि० [सं० वि√लम्ब् (देर करना)+णिनि] [स्त्री० विलंबिनी] १. लटकता हुआ। झूलता हुआ। २. विलंब करने या देर लगानेवाला। पुं० साठ संवत्सरों में से बत्तीसवाँ संवत्सर।
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विलब्ध  : भू० कृ० [सं० वि√लभ् (प्राप्त होना)+क्त] १. दिया हुआ। पाया हुआ। मिला हुआ। प्राप्त। लब्ध। २. अलग या पृथक् किया हुआ।
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विलम  : पुं०=विलंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलमना  : अ०=विलमना।
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विलय  : पुं० [सं० वि√ली (मिलना घुलना आदि)+अच्] १. किसी चीज या पानी में घुलकर मिल जाना। घुलना। २. एक पदार्थ का किसी रूप में दूसरे पदार्थ में घुलना-मिलना। विलीन होना। ३. आज-कल किसी छोटे-देश या राज्य का अपनी स्वतंत्र सत्ता गँवाकर दूसरे बड़े देश या राज्य में मिल जाना। छोटे राज्य का बड़े में लीन होना। (मर्जिंग)। ४. आत्मा का शरीर से निकलकर परमात्मा में मिलना, अर्थात् मृत्यु। मौत। ५. सृष्टि का नष्ट होकर अपने मूल तत्त्वों में मिल जाना, अर्थात् प्रलय। ६. ध्वंस। नाश।
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विलयन  : पुं० [सं० वि√ली (लय होना)+ल्युट—अन] १. लय या विलय होने की अवस्था, क्रिया या भाव। विलीन होना। २. एक वस्तु का दूसरी वस्तु में इस प्रकार मिलकर समा जाना कि उस पहली वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व न रह जाय। ३. किसी देशी रियासत का या किसी छोटे राज्य का बड़े राज्य में होनेवाला विलय (मर्जर)।
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विलसन  : पुं० [सं० वि√लस् (चमकना)+ल्युट-अन] १. चमकने की क्रिया या भाव। २. क्रीड़ा। प्रमोद। विलास।
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विलसना  : अ० [सं० विलसन] १. शोभा पाना। फबना। २. क्रीड़ा या विलास करना। ३. किसी चीज का सुखपूर्वक भोग-विलास करना।
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विलसाना  : स०=बिलसाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलसित  : वि० [सं० वि√लस्+क्त] १. चमकता हुआ। २. व्यक्त। ३. क्रीड़ा में मग्न। ४. विनोदी। पुं० १. चमकने या चमकाने की क्रिया। २. चमक। दीप्ति। ३. अभिव्यक्ति। ४. क्रीड़ा। ५. अंग-भंगी। ६. परिणाम। फल।
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विलह-बंदी  : स्त्री० [?] ब्रिटिश शासन में जिले के बन्दोबस्त का वह संक्षिप्त ब्योरा जिसमें प्रत्येक महाल का नाम, कास्तकारों के नाम और उनके लगान आदि का ब्योरा लिखा जाता था।
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विलहा  : पुं० दे० ‘बोल्लाह’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलाना  : अ० स०=विलाना (नष्ट होना या करना)।
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विलाप  : पुं० [सं० वि√लप् (बोलनाः+घञ्] हार्दिक दुःख प्रकट करने के लिए बिलख-बिलख कर या विकल होकर रोने की क्रिया।
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विलापन  : वि० [सं० वि√लप् (कहना)+ल्युट-अन] १. रुलानेवाला। २. जो विलाप का कारण हो (शस्त्रादि) ३. पिघलानेवाला। ४. नष्ट करनेवाला। पुं० १. रुलाने की क्रिया। २. नाश। ३. मृत्यु। ४. पिघलाने का साधन। ५. शिव का एक गण।
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विलापना  : अ० [सं० विलाप] विलाप करना। स०=रोपना (वृक्ष आदि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलापी (पिन्)  : वि० [सं० वि√लप्+णिनि] रोने या विलाप करनेवाला।
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विलायत  : पुं० [अ०] १. पराया देश। दूसरों का देश। बहुत दूर का विशेषतः समुद्र पार का देश। २. भारतीयों की दृष्टि से इंग्लैंड, अमेरिका, यूरोप आदि देश या महादेश।
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विलायती  : वि० [अ०] १. विलायत का। विदेशी। २. विलायत या दूसरे देश का बना हुआ। ३. विलायत या दूसरे देश में रहनेवाला। विदेशी।
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विलायती-पटुआ  : पुं० [हिं० विलायती+पटुआ] लाल पटुआ। लाल सन।
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विलायती-बैगन  : पुं० [हिं०] टमाटर (देखें)।
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विलायन  : पुं० [सं० वि√ली+णिच्+ल्युट-अन] प्राचीन भारत का एक अस्त्र। कहते है कि इस अस्त्र के प्रयोग से शत्रु की सेनाएँ विश्राम करने लगती थीं।
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विलावल  : पुं०=बिलावल (राग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलास  : पुं० [सं० वि√लस् (साथ में क्रीड़ा करना)+घञ्] १. ऐसी क्रिया या व्यापार जो अपने देश को प्रसन्न तथा प्रफुल्लित रखने के लिए किया जाय। २. क्रीड़ा। खेल। ३. अधिक मूल्य की और सुख-सुभीते की वस्तुओं का ऐसा उपयोग या व्यवहार जो केवल मन प्रसन्न करने के लिए हो। शौकीनी। (लक्ज़री)। ४. अनुराग तथा प्रेम में लीन होकर की जानेवाली क्रीड़ा। ५. ऐसी स्त्रियोचित भाव-भंगी या कोमल चेष्टा जो काम वासना की उत्पादक या सूचक हो। ६. साहित्य में संयोग श्रृंगार का एक भाव जिसमें जिसमें प्रिय से सामना होने पर नायिका अपनी कोमल चेष्टाओं तथा भाव-भंगियों से उसके मन में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करती है। ७. मनोहरता। सौन्दर्य। ८. किसी अंग की आकर्षक और कोमल चेष्टा। जैसे—भ्रू-विलास। ९. किसी वस्तु का उक्त प्रकार से हिलना-डोलना। जैसे— विद्युत विलास। १॰. आनन्द। प्रसन्नता। हर्ष। ११. यथेष्ट सुख-भोग।
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विलासक  : वि० [सं० विलास+कन्] [स्त्री० विलासिका] १. इधर-उधर फिरनेवाला। २. दे० ‘विलासी’। ३. नर्तकी।
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विलासन  : पुं० [सं० वि√लस्+ल्युट-अन] विलास करने की क्रिया या भाव।
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विलासिका  : स्त्री० [सं० विलास्+कन्+टाप्, इत्व] साहित्य में एक प्रकार का श्रृंगार प्रधान एकांकी रूपक जिसका विषय संक्षिप्त और साधारण होता है।
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विलासिता  : स्त्री० [सं०] १. विलासी होने की अवस्था या भाव। २. विलास।
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विलासिनी  : स्त्री० [सं० विलास+इनि+ङीष्] १. सुंदरी युवती। कामिनी। २. रंडी। वेश्या। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ज, र, ज, ग, ग होता है वि० विलासिता प्रिय (स्त्री)।
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विलासी (सिन्)  : वि० [सं० विलास+इनि] १. (व्यक्ति) जो प्रायः ऐसी क्रीड़ाओं में रत रहता हो जिनसे उसे सुख-भोग प्राप्त होता हो। २. हँसी-खुशी में समय बितानेवाला। ३. आराम-तलब। ४. कामुक। पुं० वरुण (वृक्ष)।
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विलास्य  : पुं० [सं० विलास+यत्] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिए तार लगे होते थे। वि० विलास के लिए उपयुक्त या योग्य।
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विलिखन  : पुं० [सं० वि√लिख् (रेखा करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलिखित] १. लिखना। २. खरो-चना। ३. खोदकर अंकित करना।
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विलिंग  : वि० [सं० ब० स०] १. लिंग-रहित। २. दूसरे या भिन्न लिंग का। पुं० लिंग अर्थात् चिन्ह का अभाव।
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विलिप्त  : भू० कृ० [सं० वि√लिप् (लीपना)+क्त] १. पुता हुआ। लिपा हुआ। २. उखड़ा या खुदा हुआ। ३. अस्त-व्यस्त। ४. कलुषित।
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विलीक  : वि०=व्यलीक (असत्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलीन  : भू० कृ० [वि√ली (मिलना, घुलना)+क्त] १. (पदार्थ) जो किसी दूसरे पदार्थ में गल, घुल या मिल गया हो। २. उक्त के आधार पर जो अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर दूसरे में मिल गया हो। ३. जो गायब या लुप्त हो गया हो। अदृश्य। ४. नष्ट। ५. मृत। ६. जो आड़ में जा छिपा हो। ओझल।
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विलुनन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विलुनित] नष्ट करना।
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विलुप्त  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका लोप हो गया हो। नष्ट। २. जो अदृश्य या गायब हो गया हो। ३. नष्ट। बरबाद।
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विलुलक  : वि० [सं० वि√लुल् (मर्दन करना)+ण्वुल्-अक] नाश करनेवाला।
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विलून  : भू० कृ० [सं० वि√लू (काटना)+क्त, त-न] १. कटा हुआ। अलग किया हुआ। २. काटकर अलग किया हुआ।
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विलेख  : पुं० [वि√लिख्+घञ्] १. अनुमान। कल्पना। २. सोच-विचार। ३. वह कारण या लिखत जिसमें दो पक्षों में होनेवाला अनुबंध लिखा हो और जिस पर प्रमाण-स्वरूप दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हों। दस्तावेज (डीड)।
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विलेखन  : पुं० [सं० वि√लिख् (लिखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलेखित] १. खरोंचना। २. खोदना। ३. उखाड़ना। ४. चिन्ह बनाना। ५. चीरना। ६. नदी का मार्ग। ७. विभाजन। वि० खरोंचनेवाला।
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विलेखा  : स्त्री० [सं० विलेख+टाप्] १. खरोंच। २. चिन्ह। ३. विलेख। लेख्य।
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विलेखी (खिन्)  : वि० [सं० वि√लिख् (लिखना)+णिनि] १. खरोंचनेवाला। २. चिन्ह बनानेवाला। ३. इकरार लिखनेवाला। ४. विलेख अर्थात् अनुबंध या संधि-पत्र लिखनेवाला।
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विलेप  : पुं० [सं० वि√लिप् (लेपन करना)+घञ्] १. शरीर आदि पर लगाने का लेप। २. दीवारों पर लगाया जानेवाला पलस्तर।
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विलेपन  : पुं० [सं० वि√लिप्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलेपित] १. लेप करने या लगाने की क्रिया या भाव। अच्छी तरह लीपना या लगाना। २. लेप के रूप में लगाई जानेवाली चीज। लेप।
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विलेपनी  : स्त्री० [सं० विलेपन+ङीप्] १. वह स्त्री जिसने अंगराग लगाया हो। श्रृंगारित स्त्री। २. माँड़।
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विलेपी (पिन्)  : वि० [सं० वि√लिप् (लेप करना)+णिनि] [स्त्री० विलेपिनी] १. लेप करनेवाला। २. पलस्तर करनेवाला। ३. चिपका या साथ लगा हुआ। ४. लसदार। लसीला।
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विलेय  : वि० [सं०] १. जिसका विलय हो सके या किया जा सके। २. (पदार्थ) जो पानी या किसी तरल द्रव्य में घुल सके। (सोल्युबल)।
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विलेवासी (सिन्)  : पुं० [सं० विले√वस् (रहना)+णिनि, दीर्घ, नलोप, सप्तमी, अलुक] सर्प।
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विलेशय  : वि० [सं० विले√शी (सोना)+अच्, सप्त, अलुक] बिल में वास करनेवाला। पुं० १. साँप। २. चूहा। ३. बिच्छू। ४. गोह। ५. खरगोश।
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विलोक  : वि० [सं० ब० स०] १. लोक या जन से रहित। २. निर्जन पुं० १. दृष्टि। नजर। २. दृश्य।
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विलोकन  : पुं० [सं० वि√लोक् (देखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलोकित] १. देखना। २. विचार करना। २. तलाश करना। ढूँढ़ना। ४. ध्यान देना। ५. अध्ययन करना।
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विलोकना  : स० [सं० विलोकन] १. देखना। २. निरीक्षण करना। ३. ढूँढ़ना।
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विलोकनि  : स्त्री० [हिं० विलोकना] १. देखने की क्रिया या भाव। २. दृष्टि। नजर।
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विलोकनीय  : वि० [सं० वि√लोक् (देखना आदि)+अनीयर्] देखने योग्य अर्थात् सुन्दर।
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विलोकित  : भू० कृ० [सं०] १. देखा हुआ। २. निरीक्षित।
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विलोकी (किन्)  : वि० [सं० वि√लोक् (देखना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. देखनेवाला। २. निरीक्षण करनेवाला।
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विलोचन  : पुं० [सं०] १. लोचन। नेत्र। आँख। २. एक नरक का नाम। वि० लोचन अर्थात् आँख से रहित।
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विलोडक  : वि० [सं० वि√लुड् (मथना आदि)+ण्वुल्-अक] विलोड़न करनेवाला पुं० चोर।
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विलोडन  : पुं० [सं० वि√लुड् (मथना आदि)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलोड़ित] १. मथना। २. हिलाना। ३. चुराना।
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विलोड़ना  : स० [सं० विलोड़न] विलोड़न करना। बिलोड़ना।
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विलोप  : पुं० [सं० वि√लुप् (भागना)+घञ्] १. लोप। २. बाधा। रुकावट। ३. आपत्ति। संकट। ४. नाश। ५. नुकसान। हानि। ६. कोई चीज चुरा या लेकर भागना।
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विलोपक  : वि० [सं० वि√लुप् (नष्ट करना)+ण्वुल-अक] विलोप करनेवाला।
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विलोपन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विलोपित] १. विलोप करने की क्रिया या भाव। २. जो कुछ पहले वर्तमान हो, उसे काट या रद्द करके अलग करने, छोड़ने या निकालने की क्रिया या भाव। (डिलीशन)।
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विलोपना  : स० [सं० विलोपन] १. लोप करना। २. नाश करना। ३. ले भागना। ४. बाधा या विघ्न डालना। अ० १. लुप्त होना। २. नष्ट होना।
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विलोपी (पिन्)  : वि० [सं० वि√लुप् (गायब करना आदि)+णिनि, दीर्घ, नलोप] लोप अर्थात् पूर्णतया नष्ट या ध्वस्त करनेवाला।
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विलोप्ता (प्तृ)  : वि० [सं० वि√लुप् (लुप्त करना)+तृच्] विलोपी। पुं० १. चार। २. डाकू।
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विलोप्य  : वि० [वि√लुव् (लुप्त करना)+यत्] जिसका विलोपन हो सके। विलुप्त किये जाने के योग्य।
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विलोभ  : वि० [वि√लुभ् (विमोहित करना)+घञ्] जिसे लोभ न हो। लोभ से रहित। पुं० १. ऐसी बात जो मन को ललचाती हो। २. प्रलोभन। ३. माया के कारण उत्पन्न होनेवाला भ्रम या मोह।
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विलोभन  : पुं० [सं०] १. विलोभ। २. प्रलोभन।
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विलोम  : वि० [सं०] १. जिसे बाल न हो। लोम-रहित। २. सामान्य या स्वाभाविक स्थिति के विपरीत स्थिति में होनेवाला। ३. सामान्य क्रम से न होकर विपरीत क्रम से होनेवाला। ४. जो सामान्य रीति प्रथा आदि के विचार से नहीं, बल्कि उसके विपरीत हुआ हो। जैसे— विलोम विवाह। ५. क्रम के विचार से ऊपर से नीचे की ओर जानेवाला। जैसे—विलोम स्वर साधन। पुं० १. साँप। २. कुत्ता। ३. रहट। ४. एक वरुण। ५. संगीत में स्वरों का अवरोहात्मक साधन।
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विलोम-जात  : वि० [सं०] १. (बच्चा) जो उलटा जन्मा हो। २. जिसकी माता का वर्ण उसके पिता के वर्ण की अपेक्षा ऊँचा हों।
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विलोमक  : वि० [सं० विलोम+कन्] १. उलटे या विपरीत क्रम से चलने या होनेवाला। २. (औषध या पदार्थ) जिसके प्रयोग से शरीर के बाल, विशेषतः फालतू बाल झड़ जाते हों ( डेपिलेटरी)।
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विलोमतः  : अव्य, [सं०] १. विलोम अर्थात् उलटे प्रकार या रूप से चलकर। विपरीत दिशा या रूप में। (कॉन्वर्सली)। २. दे० ‘प्रतिक्रमात्’।
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विलोमन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विलोमित] १. विलोम अर्थात् उलटे क्रम से चलाना, रखना या लगाना। २. नाटकों में मुख-सन्धि का एक अंग।
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विलोमवर्ण  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसकी माता का वर्ण पिता के वर्ण की अपेक्षा ऊँचा हो।
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विलोमा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] १. केश-रहित। २. उलटी और मुड़ा हुआ।
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विलोल  : वि० [सं० तृ० त०] १. लहराता या हिलता हुआ। २. अस्थिर। चंचल। ३. सुन्दर। ४. ढीला। शिथिल। ५. अस्त-व्यस्त। बिखरा। हुआ।
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विलोहित  : वि० [सं० तृ० त०] १. गाढ़ा लाल। २. बैंगनी रंग का। ३. हलका लाल। पुं० १. रुद्र। २. शिव। ३. एक नरक का नाम। ४. लाल प्याज।
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विलोहिता  : स्त्री० [सं० विलोहित+टाप्] अग्नि की एक जिह्वा।
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विल्व  : पुं० [सं०√विल् (भेदन करना)+वन्-क्विन्]=बिल्व (बेल का पेड़ और फल)।
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विव  : वि० [सं०] १. दो। २. दूसरा।
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विवक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० वि√वच् (बोलना)+तृच्] १. कहने या बतानेवाला। २. स्पष्ट बात करनेवाला। ३. ठीक या दुरुस्त करनेवाला।
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विवक्षा  : स्त्री० [सं० वि√वच् (कहना)+सन्, द्वित्व,+टाप्] १. कुछ कहने या बोलने की इच्छा। २. वह जो किसी के स्वभाव का अंश हो। ३. शब्द के अर्थ में होनेवाली विशिष्ट छाया जो उसका स्वाभाविक अंग होती है। ४. फल या परिणाम के रूप में या आनुषंगिक रूप से होनेवाली बात (इम्प्लिकेशन)।
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विवक्षित  : भू० कृ० [सं०] १. जो कहे जाने को हो। २. आर्थी छाया) जिसे शब्द व्यक्त कर रहा हो।
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विवत्स  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विवत्सा] संतानहीन।
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विवदन  : पुं० [सं० वि√वद् (बोलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विवदित] विवाद करने की क्रिया या भाव।
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विवदना  : अ० [सं० विवाद+हिं० नाप्रत्यय] विवाद अर्थात् तर्क-वितर्क या झगडा करना।
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विवदमान्  : वि० [सं०] विवाग या झगड़ा करनेवाला।
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विवदित  : वि० [सं०] जिसके संबंध में किसी प्रकार का विवाद हुआ हो (डिस्प्यूटेड)।
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विवर  : पुं० [सं०] १. छिद्र। बिल। २. गर्त। गडढा। ३. दरार। ४. कन्दरा। गुफा। ५. किसी ठोस चीज के अन्दर होनेवाला खोखला स्थान (कैविटी)।
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विवरण  : पुं० [सं० वि√वृ (संवरण करना)+ल्युट-अन] १. स्पष्ट रूप से समझाने के लिए किसी घटना, बात आदि का विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन या विवेचन। २. उक्त प्रकार से कहा हुआ वृत्तान्त या हाल। जैसे—किसी संस्था का वार्षिक विवरण, अधिवेशन या बैठक का कार्य-विवरण। ३. ग्रन्थ की टीका या व्याख्या। ४. किसी अधिकारी आदि के पूछने पर अपने कार्यों आदि के संबंध में बताई जानेवाली विस्तृत बातें।
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विवरण-पत्र  : पुं० [सं०] १. वह पत्र जिसमें किसी प्रकार का विवरण लिखा हो। (रिपोर्ट)। २. ऐसा सूचीपत्र जिसमें सूचित की जानेवाली वस्तुओं का थोड़ा-बहुत विवरण भी हो।
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विवरणिका  : स्त्री० [सं०] १. विवरण-पत्र।
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विवरणी  : स्त्री० [सं०] आय-व्यय आदि की स्थिति बतानेवाला वह लेखा जो प्रतिवेदन के रूप में कहीं उपस्थित किया जाने को हो (रिटर्न)।
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विवरना  : अ०=विवरना (सुलझाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=विवरना (सुलझाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवर्जन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विवर्जित] १. त्याग करने की क्रिया। परित्याग। २. मनाही। निषेध। वर्जन। अनादर। ४. उपेक्षा।
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विवर्जित  : भू० कृ० [सं० वि√वर्ज् (मना करना)+क्त] जिसका या जिसके सम्बन्ध में विवर्जन हुआ हो।
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विवर्ण  : वि० [सं०] १. जिसका कोई रंग न हो। रंगहीन। २. जिसका रंग बिगड़ गया हो। ३. कांति-हीन। ४. रंग-बिरंगा। ५. जो किसी वर्ण के अन्तर्गत न हो, अर्थात् जाति-च्युत। पुं० साहित्य में एक भाव जिसमें भय, मोह, क्रोध, लज्जा आदि के कारण नायक और नायिका के मुख का रंग बदल जाता है।
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विवर्णता  : स्त्री० [सं०] विवर्ण होने की अवस्था या भाव। वैवर्ण्य।
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विवर्त  : पुं० [सं०] १. घूमना। मुड़ना। २. लुढ़कना। ३. नाचना। ४. एक रूप या स्थिति छोड़कर दूसरे रूप या स्थिति में आना या होना। ५. वेदान्त का यह मत या सिद्धान्त कि सारी सृष्टि वास्तव में असत् या मिथ्या है, और उसका जो रूप हमें दिखाई देता है, वह भ्रम या माया के कारण ही है। ६. लोक व्यवहार में किसी वस्तु का कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में या किसी कारण से मूल से भिन्न होना। जैसे—रस्सी का साँप प्रतीत होना या ब्रह्म का जगत् प्रतीत होना। ७. ढेर। राशि। ८. आकाश। ९. धोखा। भ्रम।
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विवर्तक  : वि० [सं०] विवर्तन करनेवाला। चक्कर लगानेवाला।
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विवर्तन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विवर्तित] १. किसी के चारों ओर घूमना। चक्कर लगाना। २. किसी ओर ढलकना या लुढ़कना। ३. भिन्न भिन्न अवस्थाओं में से होते हुए या उन्हें पार करते हुए आगे बढ़ना। विकसित होना। विकास। ४. नाचना। नृत्य। ५. अरविन्द दर्शन में, चेतना या क्रमशः उन्नत तथा जाग्रत होकर विश्व की सृष्टि और विकास करना। ‘निवर्तन’ का विपर्याय (इवोल्यूशन)।
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विवर्तवाद  : पुं० [सं०] दार्शनिक क्षेत्र में, यह सिद्धान्त कि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत् उसके विवर्त या भ्रम के कारण कल्पित रूप है।
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विवर्तवादी  : वि० [सं०] विवर्तवाद-सम्बन्धी। पुं० वह जो विवर्तवाद का अनुयायी हो।
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विवर्तित  : भू० कृ० [सं० वि√वृत्त (उपस्थित रहना)+क्त] १. जिसकी विवर्तन हुआ हो या जो विवर्त के रूप में लाया गया हो। २. बदला हुआ। परिवर्तित। ३. घूमता या चक्कर खाता हुआ। ४. नाचता हुआ। ५. (अंग) जो मुड़क या मुड़ गया हो। ६. (अंग) जिसमें मोच आ गई हो।
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विवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० वि√वृत्त (उपस्थित रहना)+णिनि]=विवर्तक।
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विवर्द्धन  : पुं० [सं० वि√वृध् (बढ़ना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विवर्द्धित] १. बढ़ाने या वृद्धि करने की क्रिया। २. बढ़ती। वृद्धि।
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विवर्द्धिनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विवश  : वि० [सं० वि√वश् (वश में करना)+अच्] [भाव० विवशता] १. जो स्वयं अपनी इच्छा के अनुसारन ही बल्कि दूसरों की इच्छा से अथवा परिस्थितियों के बंधन में पड़कर काम कर रहा हो। २. जिसका अपने पर वश न हो,बल्कि जो दूसरों के वश में हो। ३. जिसे कोई विशिष्ट काम करने के अतिरिक्त और कोई चारा न हो। ४. पराधीन।
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विवशता  : स्त्री० [सं० विवश+तल्+टाप्] १. विवश होने की अवस्था या भाव। लाचारी। २. वह कारण जिसके फलस्वरूप किसी को विवश होना पड़ता हो।
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विवस  : वि०=विवश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवसन  : वि० [स्त्री० विवसना]=विवस्त्र।
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विवस्त्र  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विवस्त्रा] जिसके पास वस्त्र न हो अथवा जिसने वस्त्र उतार दिये हों।
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विवस्वत्  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. सूर्य का सारथी। अरुण। ३. पन्द्रहवें प्रजापति का नाम।
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विवस्वान् (स्वत्)  : पुं० [सं० विवस्वत्] १. सूर्य। २. सूर्य का सारथी। अरुण। ३. अर्क। मदार वृक्ष। ४. वर्तमान मनु का नाम। ५. देवता।
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विवाक  : पुं० [सं० वि√वच् (कहना)+घञ्] १. न्यायाधीश। २. मध्यस्थ।
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विवाचन  : पुं० [सं० वि√वच् (कहना)+णिच्+ल्युट-अन] आपसी झगड़ों या पंच या पंचायतों के द्वारा होनेवाला विचार और निर्णय।
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विवाद  : पुं० [सं०] १. किसी बात या वस्तु के सम्बन्ध में होनेवाला जबानी झगड़ा। कहा-सुनी। तकरार। २. किसी विषय में आपस में होनेवाला मतभेद। ३. ऐसी बात जिसके विषय में दो या अनेक विरोधी पक्ष हों और जिसकी सत्यता का निर्णय होने को हो। (डिस्प्यूट)। ४. न्यायालय में होनेवाला वाद। मुकदमा।
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विवादक  : वि० [सं० वि√वद् (कहना)+ण्वुल्-अक] विवाद करनेवाला। झगड़ालू।
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विवादार्थी (थिन्)  : पुं० [सं० विवादार्थ+इनि, ब० स०] १. वादी। मुद्दई। २. मुकदमा लड़नेवाला व्यक्ति।
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विवादास्पद  : वि० [सं० ष० त०] १. (विषय) जिसके सम्बन्ध में दो या अधिक पक्षों का विवाद चल रहा हो। २. प्रस्ताव, मत, विचार आदि जिसके संबंध में तर्क-वितर्क चल सकता हो। (काँन्ट्रोवर्सल)।
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विवादी (दिन्)  : वि० [सं० वि√वद् (कहना)+णिनि] १. विवाद करनेवाला। कहासुनी या झगड़ा करनेवाला। २. मुकदमा लड़नेवाला। पुं० संगीत में वह स्वर जिसका प्रयोग किसी राग में नियमित रूप से तो नहीं होता फिर भी कभी-कभी राग में कोमलता या सुन्दरता लाने के लिए जिसका व्यवहार किया जाता है। जैसे—भैरवी में साधारणतः तीव्र ऋषभ या तीव्र निषाद का प्रयोग नहीं होता फिर भी कभी-कभी कुछ लोग सुन्दरता लाने के लिए इसका प्रयोग कर लेते हैं।
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विवाद्य  : वि० [सं०] (विषय) जिस पर विवाद, बहस या तर्क-वितर्क होने को हो या हो सकता हो (डिबेटेबुल)।
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विवान  : पुं०=विमानो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवास  : पुं० [सं०] १. घर-छोड़कर कहीं दूसरी जगह जाकर रहना। २. निर्वासन।
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विवासन  : पुं० [सं० वि√वस् (निवास करना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विवासित] १. निर्वासित करना। निर्वासन। २. दे० ‘विस्थापन’।
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विवास्य  : वि० [सं० वि√वस्+ण्यत्] (व्यक्ति) जो अपने निवास-स्थान से निकाल दिया जाने को हो या निकाला जा सके।
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विवाह  : पुं० [सं० वि√वह् (ढोना)+घञ्] १. हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों में से एक जिसमें वर तथा कन्या पति-पत्नी का धर्म स्वीकार करते हैं। विशेष—हिन्दू धर्म में आठ प्रकार के विवाह माने जाते है-ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच्य। ३. उक्त संस्कार के अवसर पर होनेवाला उत्सव या समारोह। ४. व्यापक अर्थ में वह उत्सव जिसमें पुरुष तथा स्त्री वैवाहिक बन्धन में बँधना स्वीकार करते हैं। ५. उक्त अवसर पर होनेवाला धार्मिक कृत्य। जैसे—विवाह पंडित जी करावेंगे।
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विवाह-विच्छेद  : पुं० [सं० ष० त०] वह अवस्था जिसमें पुरुष और स्त्री अपना वैवाहिक सम्बन्ध तोड़कर एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। तलाक (डाइवोर्स)।
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विवाहना  : स०=ब्याहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवाहला  : पुं० [सं० विवाह] विवाह के समय गाये जानेवाले गीत (राज०)
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विवाहा  : वि० कृ० [स्त्री० विवाही]=विवाहित।
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विवाहित  : भू० कृ० [सं० विवाह+इतच्] [स्त्री० विवाहिता] १. जिसका विवाह हो गया हो। ब्याहा हुआ। २. जिसके साथ विवाह किया गया हो।
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विवाह्य  : वि० [सं० वि√वह (ढोना)+ण्यत्] १. जिसका विवाह होने को हो या होना उचित हो। २. जिसके साथ विवाह किया जा सकता हो।
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विवि  : वि० [सं०] १. दो। २. दूसरा। द्वितीय।
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विविक्त  : भू० कृ० [सं० वि√विच् (पृथक् होना)+क्त] [स्त्री० विविक्ता] १. पृथक् किया हुआ। २. बिखरा हुआ। अस्त-व्यस्त। ३. निर्जन। ४. पवित्र। जैसे—विविक्त स्त्री। पुं० त्यागी। २. संन्यासी।
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विविक्ति  : स्त्री० [सं० वि√विच् (पृथक् करना)+क्तिन्] १. विवेक-पूर्वक काम करना। २. अलगाव। पार्थक्य। ३. विभाग।
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विविध  : वि० [सं० ब० स०] १. अनेक या बहुत प्रकार का। भांति-भाँति का। जैसे—विविध विषयों पर होनेवाला भाषण। २. कई विभागों, मदों आदि का मिला-जुला। फुटकर (मिसलेनियस)।
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विविर  : पुं० [सं० वि√जृ (संवरण करना)+अञ्]=विवर।
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विवीत  : पुं० [सं० वि√वी (गमन, व्याप्त होना आदि)+क्त] १. चारो ओर से घिरा हुआ स्थान। २. पशुओं के रहने का बाड़ा।
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विवुध  : पुं०=विबुध। विशेष—‘विवुध’ के यौ के लिए दे० ‘विबुध’ के यौ०।
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विवृतोक्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें श्लेष से छिपाया हुआ अर्थ कवि स्वयं अपने शब्दों द्वारा प्रकट कर देता है।
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विवृत्  : वि० [सं०] १. फैला हुआ। विस्तृत। २. खुला हुआ। (वर्ण) जिसका उच्चारण करते समय मुख-द्वार पूरा खुलता हो। पुं० व्याकरण में उच्चारण की वह अवस्था जिसमें मुख-द्वार पूरा खुलता हो। विशेष—नागरी वर्ण माला में ‘आ’ विवृत्त वर्ण (स्वर) है।
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विवृत्त  : वि० [सं०] १. घूमता हुआ या चक्कर खाता हुआ। २. चलता हुआ। ३. ऐंठा हुआ या मुड़ा हुआ। ४. खुला या खोला हुआ। ५. सामने आया या लाया हुआ।
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विवृत्ता  : स्त्री० [सं० विवृत्त+टाप्] योनि का एक रोग जिसमें उस पर मंडलाकार फुंसिया होती है और बहुत जलन होती है।
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विवृत्ति  : स्त्री० [सं०] १. विवृत्ति होने की अवस्था या भाव। २. किसी को कही या लिखी हुई बात की अपनी बुद्धि से प्रसंगानुकूल अर्थ लगाना या स्थिर करना। निर्वचन। (इन्टरप्रिटेशन)। ३. भाषा विज्ञान का विवृत्त नामक प्रयत्न अथवा वह प्रयत्न करने की क्रिया या भाव।
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विवृत्ति  : स्त्री० [सं० वि√वृत्त (फैलाना आदि)+क्तिन्] १. विवृत होने की अवस्था या भाव। २. चक्कर खाना। घूमना ३. विस्तार। फैलाव। ४. विकास। ५. ग्रन्थ की टीका या व्याख्या।
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विवृद्ध  : वि० [सं०] [भाव० विवृद्धि] १. बहुत बढ़ा हुआ। २. पूरी तरह से विकसित। ३. प्रौढ़ अवस्था में पहुँचा हुआ। ४. शक्तिशाली।
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विवेक  : पुं० [सं०] [भाव० विवेकता] १. अन्तः करण की वह शक्ति जिसमें मनुष्य यह समझता हैं कि कौन-सा काम अच्छा है या बुरा, अथवा करने योग्य है या नहीं (कान्शेन्स) २. अच्छी बुद्धि या समझ। ३. सदविचार की योग्यता। ४. सत्यज्ञान।
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विवेकवादी  : पुं० [सं०] वह जो यह कहता या मानता हो कि मनुष्य को वही काम करना चाहिए और वही बात माननी चाहिए जो उसका विवेक ठीक मानता हो।
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विवेकवान्  : वि० [सं० विवेक+मनुण, म-व, नुम्] १. जिसे सत और असत् का ज्ञान हो। अच्छे बुरे की पहचाननेवाला। २. बुद्धिमान्।
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विवेकाधीन  : वि० [सं०] (विषय) जो किसी के विवेक पर आश्रित हो। (डिस्क्रीशनरी)।
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विवेकी (किन्)  : वि० [सं० विवेक+इनि] १. जिसे विवेक हो। भले-बुरे का ज्ञान रखनेवाला। विवेकशील। २. बुद्धिमान। ३. ज्ञानी। ४. न्यायाशील। पुं० न्यायाधीश।
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विवेचक  : वि० [सं० वि√विच्+ण्वुल्-अक] विवेचन करनेवाला।
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विवेचन  : पुं० [सं० वि√विच् (जाँच करना)+ल्युट-अन] १. किसी चीज या बात के सभी अंगों या पक्षों पर इस दृष्टि से विचार करना कि तथ्य या वास्तविकता का पता चले। यह देखना कि क्या समझना ठीक है और क्या ठीक नहीं है। सत् और असत् का विचार। २. तर्क-वितर्क। ३. मीमांसा। ४. अनुसंधान। ५. परीक्षण।
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विवेचना  : स्त्री० [विवेचना+टाप्] १. विवेचन। २. विवेचन करने की योग्यता या शक्ति।
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विवेचनीय  : वि० [सं० वि√विच् (विचारना)+अनीयर्] जिसका विवेचन होने को हो या होना उचित हो।
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विवेचित  : भू० कृ० [सं० वि√विच् (विवेचन करना)+क्त] जिसकी विवेचना की गई हो या हो चुकी हो। २. निश्चित या तै किया हुआ। निर्णीत।
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विवेच्य  : वि० [सं०] विवेचनीय।
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विव्वोक  : पुं० [सं० वि√वा (गमन करना)+आदि,+कु, विवु-ओक, ष० त०] साहित्य-शास्त्र के अनुसार एक हाव जिसमें स्त्रियाँ संयोग के समय प्रिय का अनादर करती हैं।
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विंश  : वि० [सं० विशति+डट्, अति-लोप] बीसवाँ। पुं० किसी चीज का बीसवाँ भाग।
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विश  : पुं० [सं०√विश् (प्रवेश करना आदि)+क] १. कमल की डंडी। मृणाल। २. मनुष्य। ३. चाँदी। स्त्री० १. कन्या। २. लड़की।
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विंशक  : वि० [सं०] बीस।
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विशंक  : वि० [सं० ब० स०] शंका-रहित। निःशंक।
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विशंकनीय  : वि० [सं० वि√शक् (संदेह करना)+अनीयर्] जिसमें किसी प्रकार की शंका न हो।
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विशंका  : स्त्री० [सं० वि√शक् (संदेह करना)+अच्+टाप्] १. आशंका। २. डर। भय। ३. आशंका का अभाव।
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विशंकी (किन्)  : वि० [सं० वि√शंक्+णिनि] जिसे किसी प्रकार की आशंका हो।
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विशंक्य  : वि० [सं० वि√शंक्+ण्यत्] १. जिसके मन में कोई संका हो या हो सकती हो। २. प्रश्नास्पद। पूछने योग्य।
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विशंत  : वि० [सं०] बीस (समस्त शब्दों में)।
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विंशति  : स्त्री० [सं० विंश+ति] १. बीस की संख्या। २. उक्त संख्या के सूचक अंक। वि० जो गिनती में बीस अर्थात् दस का दूना हो।
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विंशति-बाहु  : पुं० [सं० ब० स०] रावण।
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विशद  : वि० [सं०] [भाव० विशदता] १. स्वच्छ। निर्मल। साफ। २. स्पष्ट रूप से दिखाई देनेवाला। ३. उज्जवल। चमकीला। ४. सफेद। ५. चिंतारहित। शांत तथा स्थिर। ६. खुश। प्रसन्न। ७. मनोहर। सुन्दर। ८. अनुकूल। पुं० १. सफेद रंग। २. कसीस। ३. बृहती। बन-भंटा।
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विशदता  : स्त्री० [सं०] १. विशद होने की अवस्था या भाव। २. निर्मलता। ३. स्पष्टता।
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विशदित  : भू० कृ० [सं० वि√शुद् (स्वच्छ करना आदि)+क्त] विशद अर्थात् साफ किया हुआ।
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विशय  : पुं० [सं० वि√शी (स्वप्न, संशय आदि)+अच्] १. संशय। संदेह। शक। २. आश्रय। सहारा। ३. केन्द्र। मध्य।
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विशरण  : पुं० [सं० वि√श्रृं (मारना)+ल्युट-अन] १. मार डालना। हत्या करना। वध करना। २. नाश। ३. विस्फोटन।
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विशल्य  : वि० [सं०] १. (स्थान) जो काँटों से रहित हो। २. तीर जिसमें नोक न हो। ३. (स्थिति) जिसमें कष्ट या संकट न हो।
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विशल्या  : स्त्री० [सं० विशल्य+टाप्] १. गुडुच्। २. दंती। ३. नागदंती। ४. अग्नि-शिखा नामक वृक्ष। ५. निशोथ। ६. पाटला। ७. खेसारी। ८. एक प्रकार की तुलसी जिसे रामदंती भी कहते हैं। ९. एक प्राचीन नदी। १॰. लक्ष्मण की स्त्री उर्मिला का दूसरा नाम।
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विशवसहा  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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विशसन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विशसित] १. वध करना। २. नष्ट या बरबाद करना। ३. युद्ध।
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विशसित  : भू० कृ० [सं० वि√शस् (मारना)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. काटा या चीरा हुआ।
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विशस्त  : वि०=विशसित।
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विशा  : स्त्री० [सं० विश् (प्रवेश करना)+क+टाप्] १. जाति। २. लोक।
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विशाकर  : पुं० [सं० विशा√कृ (करना)+अच्] १. भद्रचूड़। लंकासिज। २. दंती। ३. हाथीशुंडी। ४. पाटला या पाढर नामक वृक्ष।
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विशाख  : पु० [सं० विशाखा+अण्, ब० स०] १. कार्तिकेय। २. शिव। ३. धनुष चलानेवाले की वह मुद्रा जिसमें एक पैर आगे और एक पीछे रखा जाता है। ४. पुराणानुसार एक देवता जिनका जन्म कार्तिकेय के वज्र चलाने से हुआ था। ५. गदहपुरना। पुनर्नवा। ६. बालकों को होनेवाला एक प्रकार का रोग (वैद्यक) वि० १. शाखाओं से रहित। २. माँगनेवाला। याचक।
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विशाख-यूप  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन देश जिसे कुछ लोग मद्रास प्रान्त का आधुनिक विशाखपत्तन मानते है।
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विशाखा  : स्त्री० [सं० विशाख+टाप्] १. बड़ी शाखा में से निकली हुई छोटी शाखा। २. सत्ताईस नक्षत्रों में से सोलहवाँ नक्षत्र जो मित्र गण के अन्तर्गत है और इसे राधा भी कहते हैं। ३. कौशाम्बी के पासका एक प्राचीन जनपद। ४. सफेद गदहपूरना। ५. काली अपराजिता।
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विशातन  : पुं० [सं० वि√शत् (काटना आदि)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विशातित] १. खंडित या नष्ट करना। २. विष्णु का एक नाम। वि० काटने, तोड़ने या नष्ट करनेवाला।
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विशांप्रति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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विशारण  : पुं० [सं० वि√शृ (मारना)+णिच्+ल्युट-अन] १. मार डालना। २. चीरना या फाड़ना।
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विशारद  : वि० [सं० विशाल√दा (देना)+क, ल+र] १. समस्त पदों के अन्त में किसी विषय का विशेषज्ञ। जैसे—चिकित्सा विशारद, शिक्षा-विशारद। २. पंडित। विद्वान। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. अभिमानी। पुं० बकुल वृक्ष।
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विशाल  : वि० [सं०√विश् (प्रवेस करना)+कालन्] [भाव० विशालता] १. जो आकार-प्रकार आयतन आदि की दृष्टि से अत्यधिक ऊँचा या विस्तृत हो। २. जिसके आकार-प्रकार में भव्यता हो। ३. सुन्दर। पुं० १. पेड़। २. पक्षी। ३. एक प्रकार का हिरन।
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विशाल-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. श्रीताल नामक वृक्ष। हिंताल। २. मानकंद।
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विशालक  : पुं० [सं० विशाल+कन्] १. कैथ। कपित्थ। २. गरुड़।
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विशालता  : स्त्री० [सं० विशाल+तल्+टाप्] विशाल होने की अवस्था, गुण धर्म या भाव।
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विशाला  : स्त्री० [सं० विशाल+टाप्] १. इन्द्रवारुणी नामक लता। २. पोई का साग। ३. मुरा-मांसी। ४. कलगा नामक घास। ५. महेन्द्र-वारुणी। ६. प्रजापति की एक कन्या। ७. दक्ष की एक कन्या। ८. एक प्राचीन तीर्थ।
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विशालाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] [स्त्री० विशालाक्षी] १. महादेव। २. विष्णु। ३. गरुड़। वि० बड़ी और सुन्दर आँखोंवाला।
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विशालाक्षी  : स्त्री० [सं० विशालाक्ष+ङीष्] १. पार्वती। २. एक देवी। ३. चौंसठ योगिनियों में से एक योगिनी। ४. नागदंती।
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विशिका  : स्त्री० [सं० विश+कन्+टाप्, इत्व] बालू। रेत।
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विशिख  : पुं० [सं० ब० स०] १. रामसर या भद्रभुंज नामक घास। २. बाण। ३. रोगी के रहने का स्थान। वि० १. शिखाहीन। २. (बाण) जिसकी नोक भोथरी हो। ३. (आग) जिसमें से लपट न उठ रही हो।
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विशिखा  : स्त्री० [सं० विशिख+टाप्] १. कुदाल। २. छोटा बाण। ३. एक तरह की सूई। ४. मार्ग। रास्ता। ५. रोगियों के रहने का स्थान।
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विशिरस्क  : पुं० [सं० ब० स०+कप्] पुराणानुसार मेरु पर्वत के पास का एक पर्वत। वि० सिर या मस्तक से रहित।
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विशिरा (रस्)  : वि० [सं०] जिसका सिर न हो या न रह गया हो।
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विशिष्ट  : वि० [सं०] [भाव० विशिष्टता] १. (वस्तु) जिसमें औरों की अपेक्षा कोई बहुत बड़ी विशेषता हो। २. (व्यक्ति) जिसे अन्यों की अपेक्षा अधिक आदर, मान आदि प्राप्त हो या दिया जा रहा हो। ३. अदभुत। ४. शिष्ट। ५. कीर्तिशाली। ६. तेजस्वी। ७. प्रसिद्ध।
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विशिष्टता  : स्त्री० [सं० विशिष्ट+तल्-टाप्] विशिष्ट होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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विशिष्टाद्वैत  : पुं० [सं० विशिष्ट+अद्वैत] आचार्य रामनुज (सन् १॰३७-११३७ ईं०) का प्रतिपादित किया हुआ यह दार्शनिक मत कि यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं, और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं।
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विशिष्टी  : स्त्री० [सं० विशिष्ट+ङीष्] शंकराचार्य की माता का नाम।
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विशिष्टीकरण  : पुं० [सं०] १. किसी काम या बात को कोई विशिष्ट रुप देने की क्रिया या भाव। २. किसी कला, विद्या या शास्त्र में विशिष्ट रूप से प्रवीणता या योग्यता प्राप्त करने की क्रिया या भाव (स्पेशलाइजेशन)।
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विशीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√शृ (हिंसा करना)+क्त] १. जिसके टुकड़े-टुकड़े या खण्ड खण्ड हो गये हों। २. गिरा हुआ। पतित। 3,संकुचित। ४. सूखा हुआ। ५. दुबला-पतला। ६. बहुत पुराना।
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विशील  : वि० [सं० ब० स०] १. बुरे शीलवाला। २. दुश्चरित्र।
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विशुद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विशुद्धि] १. जो बिलकुल शुद्ध हो। खरा। जैसे—विशुद्ध घी। २. जिसमें कुछ भी दोष या मैल न हो। ३. सच्चा। सत्य।
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विशुद्ध-चक्र  : पुं० [सं०] हठयोग के अनुसार शरीर के अन्दर के छः चक्रों में से एक जो ध्रूम वर्ण का तथा सोलह दलोंवाला है तथा गले के पास माना जाता है। विशेष—आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार इसी चक्र की ग्रंथियों की प्रक्रिया से शरीर के अन्दर के विष बाहर निकलते हैं।
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विशुद्धता  : स्त्री० [सं० विशुद्ध+टाप्] १. विशुद्ध होने की अवस्था या भाव। पवित्रता। २. चारित्रिक पवित्रता।
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विशुद्धि  : स्त्री० [सं०] विशुद्धता। २. दोष, शंका आदि दूर करने की क्रिया या भाव। ३. भूल का सुधार। ४. पूर्ण ज्ञान। ५. सादृश्य।
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विशुद्धिवाद  : पुं० [सं०] यह सिद्धान्त कि दूषित प्रभावों से अपने को या अपनी चीजों को निर्दोष तथा विशुद्ध रखना चाहिए।
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विशूचिका  : स्त्री० [सं० वि√शूच् (सूचना देना)+अच्+कन्, टाप्, इत्व] विषूचिका (रोग)।
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विशून्य  : वि० [सं० विशूना+यत्] [भाव० विशून्यता] १. पूरी तरह से रिक्त या शून्य। २. जिसके अन्दर वायु तक न रह गई हो। (वैकुम)।
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विशेष  : वि० [सं० वि√शिष् (विशेषता होना)+घञ्] १. जिसमें औरों की अपेक्षा कोई नयी बात हो। विशेषता-युक्त। २. जिसमें औरों की अपेक्षा कुछ अधिकता हो। ३. विचित्र। विलक्षण। ४. बहुत अधिक। विपुल। पुं० १. वह जो साधारण से अतिरिक्त और उससे अधिक हो। अधिकता। ज्यादती। २. अन्तर। ३. प्रकार। भेद। ४. विचित्रता। विलक्षणता। ५. तारतम्य। ६. नियम। कायदा। ७. अंग। अवयव। ८. चीज। पदार्थ। वस्तु। ९. व्यक्ति। १॰. निचोड़। सार। ११. साहित्य में, एक प्रकार का अलंकार जिसके तीन भेद कहे गये हैं।
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विशेषक  : वि० [सं०] विशेष रूप देने या विशिष्टता उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. विशेषता बतलाने वाला चिन्ह तत्त्व या पदार्थ। २. माथे पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक जो प्रायः किसी सम्प्रदाय के अनुयायी होने का सूचक होता है। ३. प्राचीन भारत में, अगर, कस्तूरी, चंदन आदि से गाल माथे आदि पर की जानेवाली एक प्रकार की सजावट। ४. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें पदार्थो से रूप-सादृश्य होने पर भी किसी एक की विशिष्टता के आधार पर उसके पार्थक्य का उल्लेख होता है। उदाहरण—कागन में मृदुबानि ते मैं पिक लियो पिछान।—पद्याकर। ५. एक प्रकार का समवृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ५ भगण और एक गुरु होता है। इसे अश्वगीत, नील, और लीला भी कहते हैं। ६. साहित्य में ऐसे तीन पदों या श्लोकों का वर्ग या समूह जिनमें एक ही क्रिया होती है, और इसी लिए इन तीन पदों या श्लोकों का एक साथ अन्वय होता है। ७. तिल का पौधा। ८. चित्रक। चीता।
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विशेषक चिन्ह  : पुं० [सं०] वे चिन्ह जो वर्णमाला के अक्षरों या वर्णों पर उसका कोई विशिष्ट उच्चारण प्रकार सूचित करने के लिए लगाये जाते हैं (डायाक्रिटिकल मार्क्स)
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विशेषज्ञ  : पुं० [सं० विशेष√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० विशेषज्ञता] वह जो किसी विषय का विशेष रूप से ज्ञाता हो। किसी विषय का बहुत बड़ा पंडित।
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विशेषण  : पुं० [सं०] १. वह जिससे किसी प्रकार की विशेषता सूचित हो। २. व्याकरण में ऐसा विकारी शब्द जो किसी संज्ञा की विशेषता बतलाता हो, उसकी स्थिति मर्यादित करता हो अथवा उसे अन्य संज्ञाओं से पृथक् करता हो (ऐडजेक्टिव)।
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विशेषता  : स्त्री० [सं० विशेष+तल्+टाप्] १. विशेष होने की अवस्था या भाव। २. किसी वस्तु या व्यक्ति में औरों की अपेक्षा होनेवाली कोई अच्छी बात।
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विशेषांक  : पुं० [सं० विशेष+अंक] सामयिक पत्र का वह अंक जो विशिष्ट अवसर पर या किसी विशेष उद्देश्य से और साधारण अंकों की अपेक्षा विशिष्ट रूप में या अलग से प्रकाशित होता है (स्पेशल नम्बर)।
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विशेषाधिकार  : पुं० [सं०] किसी विशिष्ट व्यक्ति को विशेष रूप से मिलनेवाला कोई ऐसा अधिकार जिससे उसे कुछ सुभीता भी मिलता हो। (प्रिविलेज)।
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विशेषित  : भू० कृ० [सं० वि√शिष् (विशेषता होना)+क्त] १. जिसमें विशेषता लाई गई हो। २. (संज्ञा शब्द) जिसकी विशेषता कोई विशेषण मर्यादित करता हो।
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विशेषी  : वि [सं० वि√शिष्+णिन] जिसमें कोई विशेष बात हो। विशेषता-युक्त। विशिष्ट।
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विशेषोक्ति  : स्त्री० [सं० विशेष+उक्ति] साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कारण के पूरी तरह से वर्तमान रहते भी कार्य के अभाव का अथवा किसी क्रिया के होने पर भी उसके परिणाम या फल के अभाव का उल्लेख होता है। (पिक्यूलियर+एलेजेशन) यह विभावना का बिल्कुल उल्टा है। इसके उक्त निमित्ता, अनुरक्त निमित्ता और औचित्य निमित्ता ये तीन भेद माने गये हैं।
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विशेष्य  : पुं० [सं० वि√शिष्+ण्यत्] व्याकरण में वह शब्द अथवा पद जिसकी विशेषता कोई विशेषण या विशेषण पद सूचित करता या कर रहा हो।
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विशेष्य-लिंग  : पुं० [सं०] व्याकरण में ऐसा शब्द जिसका लिंग उसके विशेष्य के लिंग के अनुसार निरूपित हो। जैसे—पाले या हिम के अर्थ में शिशिर शब्द पुं० है शीत काल के अर्थ में पुन्नपुंसक तथा शीत से युक्त पदार्थ के अर्थ में विशेष्य लिंग होता है। अर्थात् उसका वहीं लिंग होता है, जो उसके विशेष्य का होता है।
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विशेष्यासिद्ध  : स्त्री० [सं० विशेष्य+असिद्धि, तृ० त०] तर्कशास्त्र में ऐसा हेत्वाभाव जिसके द्वारा स्वरूप की असिद्धि हो।
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विशोक  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० विशोकता] जिसे शोक न हो शोक से रहित। पुं० १. अशोक वृक्ष। २. ब्रह्मा का एक मान पुत्र।
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विशोका  : स्त्री० [सं० विशोक+टाप्] योग दर्शन के अनुसार ऐसी चित्तवृत्ति जो संप्रज्ञात समाधि से पहले होती है। इसे ज्योतिष्मती भी कहते हैं।
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विशोणित  : भू० कृ० [सं० ब० स०] जिसका रक्त निकाल लिया गया हो।
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विंशोत्तरी  : स्त्री० [सं० ब० स०] फलित ज्योतिष में मनुष्य के शुभाशुभ फल जानने की एक रीति जिसमें मनुष्य की आयु १२॰ वर्ष मानकर उसके विभाग करके नक्षत्रों और ग्रहों के अनुसार फल कहे जाते हैं।
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विशोध  : वि० [सं०] विशुद्ध करने के योग्य। विशोध्य।
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विशोधन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विशोधित] १. विशुद्ध करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. विशुद्धीकरण।
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विशोधनी  : स्त्री० [सं० विशोधन+ङीप्] १. ब्रह्मा की पुरी का नाम। २. ताम्बूल। पान। ३. नागदंती। ४. नीलीनाम का पौधा।
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विशोधित  : भू० कृ० [सं० वि√शुध् (शुद्ध करना)+क्त] जिसका विशोधन हुआ हो या किया गया हो।
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विशोधिनी  : स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. जमालगोटा। ३. नीली नाम का पौधा।
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विशोधी (धिन्)  : वि० [सं० वि√शुध्+णिनि] विशुद्धि करने या बनानेवाला।
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विशोध्य  : वि० [सं० वि√शुध्+यत्] जिसका शोधन होने को हो या हो सकता हो। पुं० ऋण। कर्ज।
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विश्  : स्त्री० [सं० विश् (प्रवेश करना)+क्विप्] १. प्रजा। २. रिआया। ३. कन्या। लड़की। वि० जिसने जन्म लिया हो।
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विश्पति  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० विशपत्नी] १. राजा। २. वैश्यों या व्यापारियों का पंच या मुखिया।
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विश्रब्ध  : वि० [सं०] १. जिसका विश्वास किया जा सके २. जो किसी का विश्वास करे। ३. निडर। निर्भय। ४. शान्त और सुशील।
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विश्रब्ध-नवोढ़ा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका (विशेषतः ज्ञातयौवना) जिसमें लज्जा और भय पहले से कम हो गया हो और जो प्रेमी की ओर कुछ-कुछ आकृष्ट होने लगी हो।
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विश्रंभ  : पुं० [सं०] १. किसी में होनेवाला दृढ़ तथा पूर्ण विश्वास। २. प्रेम। मुहब्बत। ३. रति के समय प्रेमी और प्रेमिका में होनेवाला झगड़ा। ४. वध। हत्या। ५. स्वच्छन्दतापूर्वक घूमना-फिरना।
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विश्रंभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√श्रम्भ् (विश्वास करना)+णिनि] १. विश्वास करनेवाला। विश्वास का पात्र। विश्वसनीय। ३. गोपनीय (वार्ता) ४. प्रेम-संबंधी।
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विश्रम  : पुं० [सं० वि√श्रम् (श्रम करना)+घञ्, ब० स०]=विश्राम।
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विश्रय  : पुं० [सं० वि√श्रि (आश्रय देना)+अच्] आश्रय। स्थान।
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विश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० विश्रय+इनि] आश्रय या सहारा लेनेवाला।
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विश्रव (स्)  : पुं० [सं०] ख्याति। प्रसिद्धि।
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विश्रवा (वस्)  : पुं० [सं०] कुबेर के पिता जो पुलस्त्य के पुत्र थे।
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विश्रांत  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने विश्राम कर लिया हो। २. जो कम हो गया या रुक गया हो। ३. रहित। ४. समाप्त। ५. वंचित। ६. क्लांत।
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विश्रांति  : स्त्री० [सं०] १. विश्राम। आराम २. थकावट। ३. कार्य-काल पूरा होने अथवा और किसी कारण से अपने कार्य, पद, सेवा आदि से स्थायी रूप से हट कर किया जानेवाला विश्राम (रिटायरमेन्ट)।
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विश्राम  : पुं० [सं०] १. ऐसा उपचार क्रिया या स्थिति जिससे श्रम दूर हो। थकावट कम करने या मिटानेवाला काम या बात। आराम। (रेस्ट) २. कर्मचारियों को कुछ नियत घंटों तक काम करने के बाद थकावट और सुस्ती मिटाने तथा जलपान आदि करने के लिए मिलनेवाला अवकाश। ३. ठहरने का स्थान। विश्रामालय। ४. चैन। सुख।
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विश्रामालय  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ यात्री लोग सवारी के इन्तजार में ठहर या रुककर विश्राम करते हों।
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विश्राव  : पुं० [सं० वि√श्रु (सुनना)+घञ्] १. तरल पदार्थ का झरना, बहना या रिसना। क्षरण। २. बहुत अधिक प्रसिद्धि। ३. ध्वनि।
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विश्रावण  : पुं० [सं० वि√श्रु+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विश्रावित] कोई तरल पदार्थ विशेषतः रक्त बहना।
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विश्री  : वि० [सं०] १. जिसकी श्री नष्ट या लुप्त हो गयी हो। श्रीहीन। २. (व्यक्ति) जिसके मुख पर सौन्दर्य की झलक न दिखायी पड़ती हो। भद्दा।
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विश्रुत  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विश्रुति] १. जिसे लोग अच्छी तरह से सुन चुके हों। २. जिसे सब लोग जान चुकें हों, फलतः प्रसिद्ध।
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विश्रुतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० विश्रुत+आत्मा, ब० स०] विष्णु।
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विश्रुति  : स्त्री० [सं० वि√श्रु (ख्याति होना)+क्ति] विश्रुत होने की अवस्था या भाव।
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विश्रृंखल  : वि० [सं० ब० स०] १. जो श्रृंखलित न हो। बंधनहीन। २. जो किसी प्रकार दबाया या रोका न जा सके। अदम्य।
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विश्रृंखलता  : स्त्री० [सं०] विश्रृंखल होने की अवस्था या भाव।
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विश्रृंग  : वि० [सं० ब० स०] जिसे श्रृंग न हो। श्रृंगरहित।
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विश्लथ  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत थका हुआ। श्लथ। क्लान्त। २. ढीला। शिथिल। ३. बन्धन से छूटा हुआ। मुक्त।
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विश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं० वि√श्लिष (संयुक्त होना)+क्त] १. जिसका विश्लेषण हो चुका हो। २. जो अलग किया जा चुका हो। ३. खिला हुआ। विकसित। ४. प्रकट। व्यक्त। ५. खुला हुआ। मुक्त। ६. थका हुआ। शिथिल।
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विश्लिष्ट-संधि  : स्त्री० [सं० ब० स०] शरीर के अंगों की ऐसी संधि या जोड़ जिसकी हड्डी टूट गई हो। (वैद्यक)।
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विश्लेष  : पुं० [सं० वि√श्लिष्+घञ्] १. अलग या पृथक् होना। २. वियोग। ३. थकावट। शिथिलता। ४. विरक्ति। ५. विकास।
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विश्लेषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विश्लेषित] १. अलग या पृथक् करना। २. किसी वस्तु के संयोजक अंगों या द्रव्यों को इस उद्देश्य से अलग-अलग करना कि उनके अनुपात कर्तृत्व, गुण, प्रकृति पारस्परिक संबंध आदि का पता चले। ३. किसी विषय के सब अंगों की इस दृष्टि से छान-बीन करना कि उनका तथ्य या वास्तविक स्वरूप सामने आए। (एनैलिसिस उक्त दोनों अर्थों के लिए) ४. वैद्यक में, घाव या फोड़े में वायु के प्रकोप से होनेवाली एक प्रकार की पीड़ा।
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विश्लेषणात्मक  : वि० [सं० विश्लेषण+आत्मक] (विचार या निश्चय) जो विश्लेषणवाली प्रक्रिया के अनुसार हो। ‘आश्लेषात्मक’ का विपर्याय। (एनैलिटिकल)।
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विश्लेषी (षिन्)  : वि० [सं० विश्लेष+इनि] १. विश्लेषण करनेवाला। २. वियुक्त।
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विश्लेष्य  : वि० [सं०] जिसका विश्लेषण होने को हो या हो रहा हो।
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विश्व  : वि० [सं०√विश् (प्रवेश करना)+क्वन्] १. कुल। समस्त। पुं० १. सृष्टि का वह सारा अंश जो हमें दिखाई देता है। २. ब्रह्मांड। समस्त सृष्टि। ३. जगत्। संसार ४. विष्णु ५. शिव। ६. जीवात्मा। ७. देह। शरीर।
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विश्व-गोचर  : वि० [सं०] जिसे सब लोग जान या देख सकते हों।
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विश्व-चक्र  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार बारह प्रकार के महादानों में से एक। इसमें एक हजार पल का सोने का चक्र बनवाकर दान किया जाता है।
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विश्व-चक्षु (ष्)  : पुं० [सं०] ईश्वर।
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विश्व-नाभि  : स्त्री० [सं०] विष्णु का चक्र जो विश्व की नाभि के रूप में माना जाता है।
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विश्व-पदिक  : वि० [सं०] (रोग या विकार) जो बहुत बड़े भू-भाग सारे महाद्वीप या सारे संसार में फैला या फैल सकता हो (पैण्डेमिक)
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विश्व-प्रकाश  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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विश्व-बंधु  : वि० [सं० ष० त०] जो विश्व का मित्र हो। पुं० शिव।
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विश्व-बीज  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व की मूल प्रकृति, माया।
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विश्व-भर  : वि० [सं० ष० त०] जिससे विश्व उत्पन्न हुआ हो। पुं० ब्रह्मा।
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विश्व-योनि  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा।
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विश्व-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०] ईश्वर।
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विश्व-सृज्  : पुं० [सं०] विश्व की सृष्टि करनेवाला ईश्वर या ब्रह्मा।
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विश्व-हेतु  : पुं० [सं०] विश्व की सृष्टि करनेवाले विष्णु।
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विश्वक  : वि० [सं०] १. विश्व-संबंधी। २. जिसका प्रभाव, प्रसार आदि विश्व-व्यापी हो (यूनीवर्सल)।
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विश्वकर्ता  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व का स्रष्टा। ईश्वर।
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विश्वकर्मा (र्म्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. समस्त संसार की रचना करनेवाला अर्थात् ईश्वर। २. ब्रह्मा। ३. सूर्य। ४. शिव। ५. वैद्यक में शरीर की चेतना नामक धास्तु। ६. एक शिल्पकार जो देवताओं के शिल्पी और वास्तु कला के सर्वश्रेष्ठ आचार्य माने गए है। ७. इमारत का काम करनेवाले राज, बढ़ई लोहार आदि।
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विश्वकाय  : पुं० [सं० ब० स०] सारा विश्व जिसका शरीर हो, अर्थात् विष्णु।
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विश्वकाया  : स्त्री० [सं० विश्वकाय+टाप्] दुर्गा।
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विश्वकार  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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विश्वकार्य  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य की सात किरणों का या रश्मियों में से एक।
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विश्वकृत्  : पुं० [सं०] १. विश्व का निर्माता अर्थात् ईश्वर। २. विश्वकर्मा।
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विश्वकेतु  : पुं० [सं० ष० त०] (कृष्ण के पौत्र) अनिरुद्ध।
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विश्वकोश  : पुं० [सं०] ऐसा कोश या भंडार जिसमें संसार भर के पदार्थ संगृहीत हो। २. ऐसा विशाल ग्रन्थ जिसमें ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाओं, प्रशाखाओं तथा महत्वपूर्ण बातों का विश्लेषण तथा विवेचन होता है (एनसाइक्लोपीडिया) विशेष—विश्व कोश में विभिन्न विषयों के बड़े-बड़े विद्वानों के लिखे हुए ग्रन्थों,निबंधों,विवेचनों आदि के सारांश संकलित होते हैं और उन विषयों के शीर्षक प्रायः अक्षर-क्रम से लगे रहते हैं।
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विश्वग  : वि० [सं० विश्व√गम् (जाना)+ड] विश्व भर में जिसका गमन या गति हो। पुं० ब्रह्मा।
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विश्वगंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. बोल (गंध द्रव्य) २. प्याज। वि० जिसकी गंध बहुत दूर-दूर तक फैलती हो।
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विश्वगंधा  : स्त्री० [सं० विश्वगंध+टाप्] पृथ्वी।
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विश्वगर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव।
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विश्वगुरु  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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विश्वगोप्ता  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. इन्द्र। २. विश्वम्भर।
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विश्वजित्  : वि० [सं०] विश्व को जीतनेवाला। पुं० १. वह जिसने सारे विश्व को जीत लिया हो। २. एक प्रकार की अग्नि। ३. एक प्रकार का यज्ञ। ४. वरुण का पाश।
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विश्वजीव  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर।
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विश्वतः (तस्)  : अव्य० [सं० विश्व+तसिल्] १. विश्व भर में सब कहीं। सर्वत्र। २. सारे विश्व के विचार से।
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विश्वंतर  : पुं० [सं० विश्व√तृ (पार करना)+खच्, मुम्] भगवान् बुद्ध का एक नाम।
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विश्वतोया  : स्त्री० [सं०] गंगा नदी।
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विश्वत्रय  : पुं० [सं०] आकाश, पाताल और मर्त्य लोक।
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विश्वदेव  : पुं० [सं०] देवताओं का एक वर्ग जिसकी पूजा नांदी-मुख श्राद्ध में की जाती हैं।
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विश्वदैवत  : पुं० [सं०] उत्तराषाढ़ नक्षत्र जिसके देवता विश्वदेव माने जाते हैं।
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विश्वधर  : पुं० [सं० विश्व√धृ (धारण करना)+अच्] विश्व को धारण करनेवाले विष्णु।
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विश्वधाम (न्)  : पुं० [सं०] ईश्वर।
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विश्वधारिणी  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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विश्वधारी (रिन)  : पुं० [सं०] विष्णु।
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विश्वनाथ  : पुं० [सं०] १. विश्व के स्वामी, शंकर। महादेव। २. काशी का एक प्रसिद्ध ज्योतिलिंग
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विश्वनाभ  : पुं० [सं०] विष्णु।
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विश्वपति  : पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. श्रीकृष्ण।
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विश्वप्स (प्सन्)  : पुं० [सं० विश्व√प्सा (खाना)+कनिन्] १. अग्नि। २. चन्द्रमा। ३. सूर्य। ४. देवता। ५. विश्वकर्मा।
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विश्वबाहु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. महादेव।
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विश्वभद्र  : पुं० [सं० ब० स०] सर्वतोभद्र (चक्र)।
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विश्वंभर  : वि० [सं० विश्व√भृ (भरण पोषण करना)+खच्, मुम्] [स्त्री० विश्वंभरा] विश्व का भरण-पोषण करनेवाला। पुं० १. विष्णु। २. इन्द्र। ३. अग्नि। ४. एक उपनिषद् का नाम।
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विश्वंभरा  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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विश्वंभरी  : स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विश्वभुज्  : पुं० [सं० विश्व√भुज् (भोग करना)+क्विप्] १. ईश्वर। २. इन्द्र।
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विश्वमाता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा जो विश्व की माता कही गई है।
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विश्वमुखी  : स्त्री० [सं० ब० स०] पार्वती।
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विश्वमूर्ति  : वि० [सं० ब० स०] जो सब रूपों में प्याप्त हो। पुं० विष्णु।
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विश्वरुचि  : पुं० [सं०] एक देव-योनि।
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विश्वरुची  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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विश्वरूप  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। ३. भगवान् श्रीकृष्ण का वह स्वरूप जो उन्होंने गीता का उपदेश करते समय अर्जुन को दिखलाया था। ४. एक प्राचीन तीर्थ।
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विश्वरूपी (पिन्)  : पुं० [सं० विश्वरुप+इनि] विष्णु।
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विश्वलोचन  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. चन्द्रमा।
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विश्ववाद  : पुं० [सं०] १. दार्शनिक क्षेत्र का यह मतवाद कि विज्ञान की दृष्टि से यह सिद्ध किया जा सकता है कि सारा विश्व एक स्वतंत्र सत्ता है और कुछ निश्चित नियमों के अनुसार उसका निरन्तर विकास होता चलता है (कॉजमिस्म) २. यह सिद्धान्त कि तत्वज्ञान संबंधी सभी बातें सारे विश्व में समान रूप से पाई जाती हैं। (युनिवर्सलिज़्म)।
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विश्ववास  : पुं० [सं०] संसार। जगत्।
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विश्ववासिक  : वि० [सं० वैश्वासिक]=विश्वसनीय।
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विश्वविद्  : वि० [सं० विश्व√विद् (जानना)+क्विप्] १. जो विश्व की सब बातें जानता हो। २. बहुत बड़ा पंडित। पुं० ईश्वर।
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विश्वविद्यालय  : पुं० [सं०] वह बहुत बड़ी शैक्षणिक संस्था जिसके अन्तर्गत या अधीन सभी प्रकार के विषयों की सर्वोच्च शिक्षा देनेवाले बहुत से महाविद्यालय हों और जिसे, अपने स्नातकों को शिक्षा संबंधी उपाधियाँ देने का अधिकार हो। (यूनिवर्सिटी)।
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विश्वव्यापक  : वि० पुं० [सं०] विश्वव्यापी। (दे०)
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विश्वव्यापी  : वि० [सं० विश्वव्यापिन्] १. जो सारे विश्व में व्याप्त हो। २. जो संसार या उसके अधिकतर भागों में व्याप्त हो। पुं० ईश्वर या परमात्मा।
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विश्वश्रवा (वस्)  : पुं० [सं०] रावण के पिता का नाम।
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विश्वसन  : पुं० [सं० वि√श्वस् (जीवन देना)+ल्युट्-अन] १. विश्वास। २. ऋषियों और मुनियों के रहने का स्थान।
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विश्वसनीय  : वि० [सं० वि√श्वस् (विश्वास करना)+अनीयर्] १. (व्यक्ति) जिस पर विश्वास किया जा सकता हो। २. (बात) जिस पर विश्वास किया जाना चाहिए।
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विश्वसित  : भू० कृ० [सं० वि√श्वस् (विश्वास करना)+क्त] १. जिस पर विश्वास किया गया हो। २. विश्वास-पात्र। ३. जिसे अपने पर पूर्ण विश्वास हो।
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विश्वस्त  : भू० कृ० [सं० वि√श्वस् (विश्वास करना)+क्त] १. जिसका विश्वास किया जाय। २. जिसके मन में विश्वास हो चुका हो।
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विश्वहर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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विश्वा  : स्त्री० [सं०√विश् (प्रवेशकरना)+क्वन्+टाप्] १. दक्ष की एक कन्या जो धर्म को ब्याही थी और जिससे वसु, सत्य, क्रतु आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए थे। २. बीस पल की एक प्राचीन तौल या मान। ३. पीपल। ४. सोंठ। ४. अतीस। ६. शतावर। ७. चोरपुष्पी। शंखिनी।
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विश्वाक्ष  : वि० [सं० विश्व+अक्ष] जिसकी दृष्टि पूर्ण विश्व पर हो। पुं० ईश्वर।
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विश्वांड  : पुं० [सं० कर्म० स०] ब्रह्माण्ड।
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विश्वातीत  : वि० [सं० ष० त०] १. जिसे विश्व प्राप्त न कर सकता हो। २. विश्व से अलग या दूर। पुं० ईश्वर।
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विश्वात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स० विश्व+आत्मन्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. सूर्य।
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विश्वाद्  : पुं० [सं० विश्व√अद् (खाना)+क्विप्] अग्नि।
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विश्वाधार  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व का आधार अर्थात् परमेश्वर।
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विश्वानर  : वि, पुं०=वैश्वानार।
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विश्वामित्र  : वि० [सं० ब० स०, विश्व+मित्र] जो विश्व का मित्र हो। पुं० गाधि नामक कान्यकुब्ज नरेश के पुत्र जिन्होंने घोर तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। विशेष—भगवान राम ने इन्हीं की आज्ञा से ताड़का का वध किया था।
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विश्वामृत  : वि० [सं० विश्व+अमृत] जिसकी कभी मृत्यु न हो। अमर।
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विश्वायन  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो विश्व की सब बातें जानता हो। सर्वज्ञ। २. ब्रह्मा।
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विश्वावसु  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. साठ संवत्सरों में से एक। स्त्री० रात्रि। रात।
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विश्वावास  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर। परमात्मा।
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विश्वाश्रय  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व को आश्रय देनेवाला अर्थात् ईश्वर।
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विश्वास  : पुं० [सं० वि√श्वस्+घञ्] १. किसी बात, विषय, व्यक्ति आदि के संबंध में मन में होनेवाली यह धारणा कि यह ठीक, प्रामाणिक या सत्य है, अथवा उसे हम जैसा समझते हैं, वैसा ही है, उससे भिन्न नहीं है। एतबार। यकीन। २. धार्मिक क्षेत्र में, ईश्वर, देवता, मत्त सिद्धान्त आदि के संबंध में होनेवाली उक्त प्रकार की धारणा। (बिलीफ़) मुहा०— (किसी पर) विश्वास जमना या बैठना=विश्वास का दृढ़ रूप धारण करना। (किसी को) विश्वास दिलानाकिसी के मन में उक्त प्रकार की धारणा दृढ़ करना। ३. केवल अनुमान के आधार पर होनेवाला मन का दृढ़ निश्चय। जैसे—मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि वह अवश्य आएगा।
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विश्वास-घात  : पुं० [सं० ष० त०, तृ० त०] १. किसी को विश्वास दिला कर उसके प्रति किया जानेवाला द्रोह। २. विश्वसनीय व्यक्ति द्वारा अपने मित्र या स्वामी के हितों के विरुद्ध किया हुआ ऐसा बुरा काम जिससे उसका विश्वास जाता रहे।
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विश्वास-घातक  : वि० [सं० विश्वास√हन् (मारना)+ण्वुल्, अक, ब० स०] विश्वासघात करनेवाला (व्यक्ति)।
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विश्वास-पात्र  : वि० [सं०] (व्यक्ति जिसका विश्वास किया जाता हो और जो विश्वास किये जाने के योग्य हो। विश्वसनीय।
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विश्वासित  : वि० [सं० विश्वास+इचत्] जिसे विश्वास दिलाया गया हो।
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विश्वासी (सिन्)  : वि० [सं० विश्वास+इनि] १. जो किसी एक पर विश्वास करता हो। विश्वास करनेवाला। २. जिसका विश्वास किया जा सके।
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विश्वास्य  : वि० [सं० वि√श्वस्+णिच्+यत्] विश्वास के योग्य। विश्वसनीय।
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विश्वेदेव  : पुं० [सं०] १. अग्नि। २. वैदिक युग में इन्द्र, अग्नि आदि ऐसा नौ देवताओं का एक वर्ग जो विश्व के अधिपति और लोकरक्षक माने जाते थे। विशेष—अग्नि-पुराण में इनकी संख्या दस कही गई है। यथा—क्रतु, दक्ष, वसु, सत्य, काम, काल, ध्वनि, रोचक, आद्रव और पुरूरवा। नांदीमुख श्राद्ध में इन्हीं का पूजन होता है।
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विश्वेश  : पुं० [सं० विश्व-ईश, ष० त०] १. शिव। २. विष्णु। ३. उत्तराषशाढ़ा नक्षत्र जिसके अधिपति विश्व नामक देवता कहे गए हैं।
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विश्वेश्वर  : पुं० [सं० विश्व+ईश्वर, ष० त०] १. ईश्वर। २. शिव की एक मूर्ति।
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विष  : पुं० [सं०√विष्+क] १. कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ जो थोड़ी मात्रा में भी शरीर के अन्दर पहुँचने या बनने पर भीषण रोग या विकार उत्पन्न कर सकता और अंत में घातक सिद्ध हो सकता हो। जहर। (प्वाइज़न) २. कोई ऐसा तत्त्व या बात जो नैतिक या चारित्रिक पवित्रता अथवा सार्वजनिक कल्याण, सुख, स्वास्थ्य आदि के लिए नाशक या भीषण सिद्ध हो। जैसे—बाल-विवाह समाज के लिए विष है। पद—विष की गाँठ=बहुत बड़ी खराबी या बुराई पैदा करनेवाली बात, वस्तु या व्यक्ति। मुहा०— (किसी चीज में) विष घोलना=ऐसा दोष या खराबी पैदा करना जिससे सारी भलाई या सुख नष्ट या मजा किरकिरा हो जाय। ३. पानी। ४. कमल की नाल या रेश्मा। ५. पद्मकेसर। ६. बोल (गंधद्रव्य)। ७. बछनाग। ८. कलिहारी।
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विष मंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो विष उतारने का मंत्र जानता हो। ऐसा मन्त्र जिससे विष का प्रभाव दूर होता हो। २. ऐसा व्यक्ति जो उक्त प्रकार का मंत्र जानता हो। ३. सपेरा।
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विष-कंटक  : पुं० [सं० ब० स०] दुरालभा।
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विष-कंटकी  : स्त्री० [सं० विषकंटक+ङीष्] बाँझ कर्कोटकी।
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विष-कंठ  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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विष-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. नीलकंद। २. इगुदी। हिंगोट।
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विष-कन्या  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वह कन्या या स्त्री जिसके शरीर में इस आश्य से विष प्रविष्ट किया गया हो कि उसके साथ सम्भोग करनेवाला मर जाय। विशेष—प्राचीन भारत में धोखे से शत्रुओं का नाश करने के लिए कुछ लड़कियाँ बाल्यावस्था से कुछ दवाएँ देकर तैयार की जाती थीं और छल से शत्रुओं के पास भेजी जाती थीं।
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विष-कृत  : वि० [सं०] विषाक्त
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विष-गंधक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का तृण जिसमें बीनी-भीनी गंध होती है।
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विष-गिरि  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा पहाड़ जिस पर जहरीले पेड़-पौधे होते हैं।
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विष-ज्वर  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. शरीर में किसी प्रकार का जहर पहुँचन या उत्पन्न होने पर चढ़नेवाला ज्वर जिसमें जलन भी होती है। २. भैंसा।
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विष-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह तंत्र या चिकित्सा-प्रणाली जिससे विष का कुप्रभाव दूर या नष्ट किया जाता था।
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विष-तरु  : पुं० [सं० ष० त०] कुचला।
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विष-दंतक  : पुं० [सं० ब० स०] सर्प। साँप।
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विष-दुष्ट  : वि० [सं० तृ० त०] (पदार्थ) जो विष के सम्पर्क के कारण दूषित या विषाक्त हो गया हो।
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विष-दूषण  : वि० [सं० ष० त०] विष का प्रभाव दूर करनेवाला।
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विष-द्रुम  : पुं० [सं० ष० त०] कुचला।
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विष-नाशन  : वि० [सं० ष० त०] विष का प्रभाव नष्ट करनेवाला। पुं० १. सिरिस का पेड़। २. मानकन्द।
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विष-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] कोई जहरीली पत्ती या छिलका।
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विष-पुच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] [स्त्री० विष-पुच्छी] बिच्छू।
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विष-प्रयोग  : पुं० [सं० ष० त०] १. चिकित्सा के लिए विष का ओषधि के रूप में होनेवाला प्रयोग। २. किसी की हत्या के लिए उसे जहर देना।
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विष-लता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. इन्द्र वारुणी नाम की लता। २. कमल-नाल। मृणाली।
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विष-वल्ली  : स्त्री० [सं० ष० त०] इन्द्र वारुणी (लता)।
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विष-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान या विद्या जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के विष किस प्रकार अपना काम करते हैं और उनका प्रभाव किस प्रकार दूर किया जा सकता है। (टॉक्सीकालोजी)।
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विष-विधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक तरह की परीक्षा जिससे यह जाना जाता था कि अमुक व्यक्ति अपराधी है अथवा निरपराधी।
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विष-वृक्ष  : पुं० [सं०] १. ऐसा पेड़ जिसके अंग विष का काम करते हों। २. गूलर।
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विष-वैद्य  : पुं० [सं० च० त०] वह जो मंत्र-तंत्र की सहायता से विष उतारता हो।
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विष-व्रण  : पुं० [सं० ष० त०] जहरबाद (दे०)।
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विष-हंता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] सिरिस (पेड़)। वि० विष का प्रभाव नष्ट करनेवाला।
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विष-हंत्री  : स्त्री० [सं० विष-हंतृ+ङीष्, ष० त०] १. अपराजिता। २. निर्विषी।
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विषंगी (गिन्)  : वि० [सं० विषंग+इनि] जो किसी से संलग्न हो। किसी के साथलगा हुआ।
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विषघ  : वि० [सं० विष√हन् (मारना)+ड, ह-घ] विष का नाश करनेवाला।
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विषघा  : स्त्री० [सं०] गुरुच। वि० विष दूर करनेवाला। विष-नाशक।
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विषघ्न  : पुं० [सं० विष√हन् (मारना)+टक्, कुत्व] १. सिरिस वृक्ष। २. भिलावाँ, ३. भू-कदंब। ४. गंध-तुलसी। ५. चम्पा।
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विषघ्नी  : स्त्री० [सं० विशघ्न+ङीष्] १. हिलमोचिका या हिलंच नामक साग २. बन-तुलसी। ३. इन्द्रवारुणी। ४. भुई-आँवला। ५. गदहपुरना। पुनर्नवा। ६. हल्दी। ७. गदा करंज। ८. वृश्चिकाली। ९. देवदाली। १॰. कठ-केला। ११. सफेद चिचड़ा। १२. रास्ना।
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विषणि  : पुं० [सं० विष√नी (होना)+क्विप्] एक प्रकार का साँप।
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विषण्ण  : वि० [सं० वि√सद्+क्त] [भाव० विषण्णता़] १. उदास २. दुःखी तथा हतोत्साहित। ३. जिसमें कुछ करने की इच्छा-शक्ति न रह गई हो।
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विषता  : स्त्री० [सं० विष+तल्+टाप्] १. विष का धर्म या भाव। जहरीलापन। २. ऐसी चीज या बात जो विषाक्त प्रभाव उत्पन्न करती हो।
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विषद  : पुं० [सं० वि√सद् (क्षीण करना)+अच्] १. बादल। मेघ। २. सफेद रंग। ३. अतिविषा। अतीस। ४. द्वाराकसीस। वि० १. विषैला। २. साफ। स्वच्छ।
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विषदंड  : पुं० [सं० ष० त०] कमलनाल।
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विषदंष्ट्रा  : स्त्री० [सं० मध्य स०] १. साँप का वह दाँत जिसमें विष होता है। २. नाग-दमनी। ३. सर्प-कंकालिका नामक लता।
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विषदा  : स्त्री० [सं० विषद+टाप्] अतिविषा। अतीस।
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विषदिग्ध  : भू० कृ० [सं० ब० स०] [भाव० विषदिग्धता] (वस्तु) जिसमें विष का प्रवेश कराया गया हो। विषाक्त।
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विषधर  : पुं० [सं० विष√धृ+अच्] विषाक्त। जहरीला। पुं० साँप।
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विषधात्री  : स्त्री० [सं०] जरत्कारु ऋषि की स्त्री मनसा देवी का एक नाम।
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विषनाशिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सर्प कंकाली नामक लता। २. बाँझ ककोड़ा। ३. गन्ध नाकुली।
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विषपुष्प  : पुं० [सं० ब० स० या मध्य० स०] १. नीला पद्म। २. अलसी का फूल। ३. मैनफल।
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विषम  : वि० [सं० मध्य० स०] [स्त्री० विषमा] [भाव० विषमता] १. जो सम अर्थात् समान या बराबर न हो। असमान। सम का विपर्याय। २. (संख्या) जो दो से भाग देने पर पूरी न बँटे बल्कि जिसमें एक बाकी बचे। ताक। ३. (कार्य या स्थिति) जो बहुत ही कठिन या विकट हो। ४. (विषय) जिसकी मीमांसा सहज में न हो सके। जैसे—विषम समस्या। ५. बहुत ही उत्कृष्ट, प्रचंड भीषण या विकट। जैसे—विषम विपत्ति। ६. भयंकर। भीषण। ७. तीव्र। तेज। पुं० १. विपत्ति। संकट। २. छंद शास्त्र में, ऐसा वृत्त जिसके चारों चरणों में अक्षरों और मात्राओं की संख्या समान हो। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें या तो दो परस्पर विरोधी बातों या वस्तुओं के संयोग का उल्लेख होता है, या उस संयोग की विषमता, अर्थात् अनौचित्य दिखलाया जाता है। (इन्कांग्रैचुइटी) ४. गणित में पहली तीसरी, पाँचवी आदि विषम संख्याओं पर पड़नेवाली राशियाँ। ५. संगीत में एक ताल का प्रकार। ६. वैद्यक में, चार प्रकार की जठराग्नियों में से एक जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है।
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विषम कोण  : पुं० [सं० कर्म० स०] ज्यामिति में ऐसा कोण जो सम न हो। समकोण से भिन्न कोई और कोण।
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विषम त्रिभुज  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा त्रिभुज जिसके तीनों भुज छोटे बड़े हों, समान न हों। (ज्यामिति)।
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विषम-कर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] (चतुर्भुज) जिसके कोण सम न हो।
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विषम-चतुष्कोण  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा चतुष्कोण जिसकी भुजाएँ विषम हों। (ज्यामिति)।
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विषम-छंद  : पुं०=विषमवृत्त।
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विषम-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. मच्छरों के दंश से फैलनेवाला एक प्रकार का ज्वर जिसके साथ प्रायः जिगर और तिल्ली भी बढ़ती है। इसके आरंभ में बहुत जाड़ा लगता है, इसी से इसे जूड़ी और शीत ज्वर भी कहते हैं। (मलेरिया) २. क्षय रोग में होनेवाला ज्वर।
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विषम-नयन  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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विषम-नेत्र  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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विषम-बाहु  : पुं०=विषम भुज।
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विषम-भुज  : पुं० [सं० ब० स०] ज्यामिति में ऐसा क्षेत्र विशेषतः त्रिभुज जिसके कोई दो भुज आपस में बराबर न हों। (स्केलीन)।
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विषम-वाण  : पुं० [सं० ब० स०] १. कामदेव का एक नाम। २. कामदेव।
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विषम-शिष्ट  : पुं० [सं०] प्रायश्चित्त आदि के लिए व्यवस्था देने के संबंध का एक रोष जो इस समय माना जाता है जब कोई भारी पाप करने पर हल्का प्रायश्चित्त करने या हल्का पाप करने पर भारी प्रायश्चित्त करने की व्यवस्था दी जाती है।
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विषमता  : स्त्री० [सं० विषम+तल्+टाप्] १. विषम होने की अवस्था या भाव। २. ऐसा तत्त्व या बात जिसके कारण दो वस्तुओं या व्यक्तियों में अंतर उत्पन्न होता है। ३. द्रोह। बैर।
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विषमत्व  : पुं० [सं० विषम+त्व] विषम होने की अवस्था या भाव। विषमता।
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विषमवृत्त  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा छंद या वृत्त जिसके चरण या पद समान न हों। असमान पदोंवाला वृत्त।
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विषमा  : स्त्री० [सं० विषम+टाप्] १. झरबेरी। २. एक प्रकार का बछनाग।
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विषमाक्ष  : पुं० [सं० ब० स] शिव। महादेव।
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विषमांग  : वि० [सं० विषम+अंग] जिसके सब अंग या तत्त्व भिन्न-भिन्न अथवा परस्पर विरोधी प्रकार के हों। ‘समांग’ का विपर्याय। (हेटेरोजीनिअस)।
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विषमाग्नि  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार की जठराग्नि जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है।
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विषमान्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] विषमाशन।
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विषमायुध  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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विषमाशन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. ठीक समय पर भोजन न करना। २. आवश्यकता से कम या अधिक भोजन करना।
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विषमित  : भू० कृ० [सं०] विषम रूप में लाया हुआ। जो विषम किया या बनाया गया हो।
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विषमीकरण  : पुं० [सं०] १. ‘सम’ को विषम करने की क्रिया या भाव। विषम करना। २. भाषा-विज्ञान में वह प्रक्रिया जिससे किसी शब्द में दो व्यंजन या स्वर पास-पास आने पर उनमें से कोई उच्चारण के सुभीते के लिए बदल दिया जाता है। ‘समीकरण’ का विपर्याय (डिस्सिमेलेशन)।
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विषमृष्टि  : पुं० [सं०] १. केशमुष्टि। २. बकायन। घोड़ा। नीम। ३. कलिहारी। ४. कुचला।
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विषमेषु  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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विषय  : पुं० [सं० वि√सि+अच्, षत्व] [वि० विषयक] १. वह तत्त्व या वस्तु जिसका ग्रहण या ज्ञान इन्द्रियों से होता है। जैसे—रस-जिह्वा का और गंध नासिका का विषय है। २. कोई ऐसी चीज या बात जिसके संबंध में कुछ कहा, किया या समझा-सोचा जाय। ३. कोई ऐसी काम या बात जिसके संबंध में रखनेवाली बातों का स्वतंत्र रूप से अध्ययन, मीमांसा या विवेचन होता है। ४. कोई ऐसी आधारित कल्पना या विचार जिस पर किसी प्रकार की रचना हुई हो। विषय-वस्तु। (थीम)। जैसे—किसी काव्य या नाटक का विषय। ५. कोई ऐसी चीज या बात जिसके उद्देश्य से या प्रति कोई कार्य या प्रक्रिया की जाती हो (सबजेक्ट, उक्त सभी अर्थों के लिए) ६. वे बातें या विचार जिनका किसी ग्रन्थ, लेख आदि में विवेचन हुआ हो या किया जाने को हो। (मैटर)। ७. सांसारिक बातों से इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होनेवाला सुख। जैसे—विषम वासना। ८. स्त्री के साथ किया जानेवाला संभोग। मैथुन। ९. सांसारिक भोग-विलास और उसके साधन की सामग्री (आध्यात्मिक ज्ञान या तत्त्व से पार्थक्य दिखाने के लिए) १॰. जगह। स्थान। ११. प्राचीन भारत में कोई ऐसा प्रदेश या भू-भाग जो किसी एक जन या कबीले के अधिकार में रहता था और उसी के नाम से प्रसिद्ध होता था। १२. परवर्ती काल में क्षेत्र प्रदेश या राज्य।
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विषय-कर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] सांसारिक काम-धन्धे।
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विषय-निर्धारिणी-समिति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह छोटी समिति जो किसी सभा में उपस्थित किये जानेवाले विषयों या प्रस्तावों के स्वरूप आदि निश्चित करती हो (सबजेक्ट्स कमेटी)।
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विषय-वस्तु  : स्त्री० [सं०] कल्पना, विचार आदि के रूप में रहनेवाला वह मूल तत्त्व जिसे आधार मानकर कोई कलात्मक या कौशलपूर्ण रचना की गई हो। किसी कृति का आधारिक और मूल-विचार-विषय (थीम)। जैसे—इन दोनों नाटकों में भले ही बहुत-कुछ समता हो फिर भी दोनों की विषय-वस्तु एक दूसरे से भिन्न है।
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विषय-समिति  : स्त्री०=विषय-निर्धारिणी समिति।
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विषयक  : वि० [सं० विषय+कन्] १. किसी कथित विषय से संबंध रखनेवाला। विषय-संबंधी। जैसे—ज्ञान-संबंधी बातें। २. विषय के रूप में होनेवाला।
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विषयपति  : पुं० [सं० ष० त०] किसी विषय अर्थात् राज्य का स्वामी या प्रधान व्यवस्थापक।
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विषया  : स्त्री० [सं० विषय+टाप्] १. विषय-भोग की इच्छा। २. विषय-भोग की सामग्री।
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विषयांत  : पुं० [सं० विषय+अन्त, ष० त०] विषय अर्थात् देश या राज्य की सीमा।
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विषयांतर  : वि० [सं० विषय+अन्तर, कर्म० स०] समीप। स्थित। पड़ोस का। पुं० १. एक विषय को छोड़कर दूसरे विषय पर आना। २. असावधानता आदि के कारण मूल विषय पर कहते-कहते (या लिखते-लिखते) दूसरे विषय पर भी कुछ कहने (या लिखने) लगना।
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विषयाधिप  : पुं० [सं० विषय+अधिप, ष० त०]=विषयपति।
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विषयानुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] विषयों के विचार से बनी हुई अनुक्रमणिका। विशेषतः किसी ग्रंन्थ में विवेचित विषयों की अनुक्रमणिका या सूची (इन्डेक्स)।
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विषयासक्त  : वि० [सं० स० त०] [भाव० विषयासक्ति] सांसारिक विषयों का भोग-विलास के प्रति आसक्ति रखनेवाला।
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विषयासक्ति  : स्त्री० [सं० स० त०] सांसारिक विषयों के भोग में रत रहने की अवस्था या भाव।
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विषयी (यिन्)  : वि० [सं० विषय+इनि] १. विषयों अर्थात् भोगविलास में रत रहनेवाला। २. कामुक। पुं० १. कामदेव। २. धनवान् व्यक्ति। ३. राजा।
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विषरूपा  : स्त्री० [सं०] १. अति विषा। अतीस। २. घोड़ा नीम। मीठी नीम। ३. ककोड़ा। खेखसा।
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विषल  : पुं० [सं० विष√ला (ग्रहण करना)+क, विष+लच्, वा] विष। जहर।
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विषवद्देश  : पुं० [सं० ष० त०] विषुवत् रेखा के आस पास पड़नेवाले देश।
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विषविद्या  : स्त्री० [सं० च० त०] मंत्र आदि की सहायता से झाड़-फूँककर विषय का प्रकोप, प्रभाव या विकार शान्त करने की विद्या।
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विषह  : वि० [सं० विष√हन् (मारना)+ड] जो विष का नाश करता हो। विषघ्न। पुं० १. देवपाली। २. निर्विषी।
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विषह  : वि० [सं० ष० त०] (औषध या मंत्र) जिससे विष का प्रभाव दूर होता हो। विष दूर करनेवाला।
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विषहरा  : स्त्री० [सं० विषहर+टाप्] १. मनसा देवी का एक नाम। २. देवपाली। ३. निर्विषी।
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विषहा  : स्त्री० [सं० विषह+टाप्] १. देवपाली। बंदाल। २. निर्विषी।
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विषहारक  : पुं० [सं० ष० त०]भुइँकदंब। वि० विष का प्रभाव दूर करनेवाला।
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विषा  : स्त्री० [सं० विष+टाप्] १. अतिविषा। अतीस। २. कलिहारी। २. कड़वी तोरई। ४. काकोली। ५. बुद्धि। समझ।
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विषांकुर  : पुं० [सं० ष० त०] तीर।
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विषाक्त  : वि० [सं०] जिसमें विष मिला हो। २. (वातावरण) जो बहुत अधिक दूषित हो।
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विषाण  : पुं० [सं०√विष्+कानच्] १. जानवर का सींग। २. हाथी का बाहर वाला दाँत। हाथी-दाँत। ३. सूअर का दाँत। खाँग। ४. ऊपरी सिरा। चोटी। ५. शिव की जटा। ६. मथानी। ७. मेढ़ा-सिंगी। ८. वराही कंद। गेंठी। ९. ऋषभक नामक औषधि। १॰. इमली। ११. सींग का बनाया हुआ बाजा। सिंगी। उदाहरण—कि जाने तुम आओ किस रोज बजाते नूतन रुद्र विषाण।—दिनकर। १२. चोटी।
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विषाणका  : पुं० [सं० विषाण+कन्] १. सींग। २. हाथी।
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विषाणिका  : स्त्री० [सं० विषाण+ठन्-इक+टाप्] १. मेढासिंगी। २. सातला। ३. काकड़ासिंगी। ४. भागवत वल्ली नाम की लता। ५. सिंघाड़ा। ६. ऋषभक नामक ओषधि। ७. काकोली।
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विषाणी  : वि० [सं० विषाण+इनि, विषाणिन्] १. जिसे सींग हो। सींगवाला। पुं० १. सींगवाला पशु। २. हाथी। ३. सूअर। ४. साँड़। ५. सिघाड़ा। ६. ऋषभक नामक औषधि। ७. क्षीर काकोली। ८. मेढ़ा सिंगी। ९. वृश्चिकाली। १॰. इमली।
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विषाणु  : पुं० [सं० विष+अणु] कुछ विशिष्ट रोगों में शरीर के अन्दर उत्पन्न होनेवाला एक विषाक्त तत्त्व जो दूसरे जीवों के शरीर में किसी प्रकार पहुँचकर वही रोग उत्पन्न कर सकता है। (विरस)।
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विषांतक  : वि० [सं० ष० त०] जिससे विष का नाश हो। पुं० शिव। महादेव।
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विषाद  : पुं० [सं० वि√सद्+घञ्] [वि० विषण्ण] १. शारीरिक शिथिलता। २. जड़ता। निश्चेष्टता। ३. मूर्खता। ४. अभिलाषा या उद्देश्य पूरा न होने पर उत्साह या वासना का दुःखदरूप से मंद पड़ना जो साहित्य के श्रृंगारिक क्षेत्र में एक संचारी भाव माना गया है (डिस्पॉन्डेन्सी) ५. आज-कल मन की वह दुःखद अवस्था जो कोई भारी दुर्घटना (बाढ़, भूकंप, महापुरुष का निधन आदि) होने पर और भारी भविष्य के संबंध में मन में गहरी निराशा या भय उत्पन्न होने पर प्रायः सामूहिक रूप से उत्पन्न होती है (ग्लूम)।
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विषादन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विषादित] १. किसी के मन में विषाद उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. परवर्ती साहित्य में, एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें बहुत अधिक विषाद उत्पन्न करनेवाली स्थिति का उल्लेख होता है (वह प्रहर्षण नामक अलंकार के विरोधी भाव का सूचक है)।
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विषादनी  : स्त्री० [सं० विष√अद् (खाना)+मल्युट-अन+ङीप्] १. पलाशी नाम की लता। २. इन्द्रवारुणी।
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विषादिता  : स्त्री० [सं० विषाद+तल्+टाप्, इत्व] विषाद का धर्म या भाव।
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विषादिनी  : स्त्री० [सं० विषाद+इनि+ङीष्] १. पलाशी नाम की लता। २. इन्द्रवारुणी।
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विषादी (दिन्)  : वि० [सं०] विषाद-युक्त।
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विषाद्  : पुं० [सं० विष√अद् (खाना)+क्विप्] हलाहल विष खानेवाले शिव।
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विषांनगा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] विष-कन्या।
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विषानन  : पुं० [सं० ष० त०] साँप।
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विषापह  : वि० [सं० विष+अप्√हन् (मारना)+ड] विष का नाश करनेवाला। पुं० मोखा नामक वृक्ष।
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विषापहा  : स्त्री० [सं० विषापह+टाप्] १. इन्द्रवारुणी इन्द्रायन। २. निर्विषी। ३. नाग-दमनी। ४. अर्कपत्रा। इसरौल। ५. सर्प-काकोली।
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विषायुध  : पुं० [सं० ब० स०] १. जहर में बुझाया हुआ या जहरीला आयुध। २. साँप।
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विषार  : पुं० [सं० विष√ऋ (प्राप्त होना आदि)अच्] साँप।
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विषारि  : पुं० [सं० ष० त०] १. महाचंचु नामक साग। २. घृत-करंज। वि० विष को दूर करनेवाला। विषनाशक।
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विषालु  : वि० [सं० विष+अलुच्] विषैला। जहरीला। (प्वायजनस)।
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विषास्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा अस्त्र जो विष में बुझाया गया हो। २. साँप।
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विषी  : पुं० [सं० विष+इनि, विषिन्] १. विषपूर्ण वस्तु। जहरीली चीज। २. जहरीला सांप। वि० विषयुक्त। जहरीला।
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विषुप  : पुं० [सं० विषु√पा (रक्षा करना)+क] विषुव।
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विषुव  : पुं० [सं० विषु√वा (गमन)+क] गणित ज्योतिष में वह समय जब सूर्य विषुवत् रेखा पर पहुँचता है तथा दिन और रात दोनों बराबर होते हैं।
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विषुवत्  : वि० [सं० विष+मतुप्, म-व] बीच का। मध्यस्थित। पुं०=विषुव।
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विषुवत्-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] भूगोल में वह कल्पित रेखा जो पृथ्वी तल के पूरे मानचित्र पर ठीक बीचो-बीच गणना के लिए पूर्व पश्चिम खींची गई है। (इक्वेटर)।
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विषुवदिन  : पुं० [सं०] ऐसा दिवस जिसमें दिन और रात दोनों समय के मान से बराबर होते हैं।
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विषूचक  : पुं० [सं०]=विसूचिका (रोग)।
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विषूचिका  : स्त्री०=विसूचिका।
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विषौषधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. जहर दूर करने की दवा। २. नागवंती।
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विष्क  : पुं० [सं०√विष्क (मारना)+अच्] ऐसा हाथी जिसकी अवस्था बीस वर्ष की हो।
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विष्कंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो गति को रोकता हो। २. बाधा। विघ्न।
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विष्कंभ  : पुं० [सं० वि√स्कम्भ्+अच्] १. अड़चन। बाधा। रुकावट। २. दरवाजे का अर्गल। ब्योंड़ा। ३. खंभा। ४. फैलाव। विस्तार। ४. नाटक का रूपक में, किसी अंक के आरम्भ का वह अंश या स्थिति जिसमें कुछ पात्रों के द्वारा कुछ भूत और कुछ भावी घटनाओं की संक्षिप्त सूचना रहती है। जैसे—भारतेन्दु कृत चन्द्रावली नाटिका के पहले अंक के आरम्भ में नाटक और शुक्रदेव वार्ता विष्कंभ है। ५. फलित ज्योतिष में सत्ताईस योगों में से पहला योग जो आरंभ के ५ दंडों को छोड़कर शुभ कार्यों के लिए बहुत अच्छा कहा गया है। ६. ज्यामिति में किसी वृत्त का व्यास। ७. योग साधन का एक प्रकार का आसन या बंध। ८. पेड़। वृक्ष। ९. एक पौराणिक पर्वत।
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विष्कंभन  : पुं० [सं० विष्कम्भ+कन्] [भू० कृ० विष्कंभित] १. बाधा डालना। २. विदारण करना या फाड़ना।
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विष्कंभी (भिन्)  : पुं० [सं० वि√स्कम्भ (रोकना)+णिनि] १. शिव का एक नाम। २. अर्गल। ब्योड़ा।
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विष्कर  : पुं० [सं० वि√कल् (खाना)+क, कृ+अच्] १. एक दाना २. पक्षी। चिड़िया। ३. अर्गल। ब्योड़ा।
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विष्कलन  : पुं० [सं० वि√कल् (खाना)+ल्युट-अन] भोजन। आहार।
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विष्किर  : पुं० [सं० वि√कृ (फेंकना)+क, सुट्, षत्व] १. पक्षी। चिड़िया। २. साँप।
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विष्ट  : भू० कृ० [सं√विश् (प्रवेश करना)+क्त] १. [भाव० विष्टि] १. घुसा हुआ। २. भरा हुआ। ३. युक्त।
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विष्टप-हारी  : पुं० [सं० विष्टप√हृ (हरण करना)+णिनि, ष० त०] १. भुवन। लोक। २. पात्र। बरतन।
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विष्टंभ  : पुं० [सं० वि√स्तम्भ (रोकना)+घञ्] १. अच्छी तरह से जमाना या स्थिर करना। २. रोकना। ३. बाधा। रुकावट। ४. आक्रमण। चढ़ाई। ५. अनाह या विबंध नामक रोग।
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विष्टंभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√स्तम्भ (रोकना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] कब्जियत करनेवाला पदार्थ।
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विष्टय  : पुं० [सं०√विश्+कपन्, सुट्] १. स्वर्ग-लोक। २. जगह। स्थान।
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विष्टर  : पुं० [सं० वि√स्तृ+अप्, षत्व] १. आक। मदार। २. पेड़। वृक्ष। ३. आसन विशेषतः पीठ। ४. कुश का आसन।
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विष्टरश्रवा (वस्)  : पुं० [सं० विष्टर+श्रवस्, ब० स०] १. विष्णु। २. कृष्ण।
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विष्टि  : स्त्री० [सं०√विष् (प्याप्त रहना आदि)+क्तिन्] १. ऐसा परिश्रम जिसका पुरस्कार न दिया जाता हो। २. व्यवसाय। पेशा। ३. प्राप्ति। ४. वेतन। ५. फलित ज्योतिष के ग्यारह करणों में से सातवाँ करण जिसे विष्टिभद्रा भी कहते हैं। ६. एक प्रकार का पौराणिक व्रत।
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विष्टि-भार  : पुं० [सं० ष० त०] बेगारी का भार। उदाहरण—बोले ऋषि भुगतेंगे हम सह विष्ट भार।—मैथिलीशरण गुप्त।
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विष्टिकर  : पुं० [सं० विष्टि+कृ (करना)+अप्, ष० त०] १. प्राचीन काल के राज्य का वह बड़ा सैनिक कर्मचारी जिसे अपनी सेना रखने के लिए राज्य की ओर से जागीर मिला करती थी। २. अत्याचारी। जालिम।
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विष्ठ  : स्त्री० [सं० वि√स्था (ठहरना)+क, षत्व,+टाप्] १. वह चीज जो प्राणियों के गुदा मार्ग से निकलती है। गुह। मल। २. बहुत ही गंदी तथा त्याज्य वस्तु।
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विष्ठित  : भू० कृ० [सं० वि√स्था (ठहरना)+क्त] १. स्थित। २. उपस्थित। ३. विद्यमान।
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विष्णु  : भू० कृ० [सं०√विष् (व्यापक रहना)+नुक्] १. हिन्दुओं के एक प्रधान और बहुत देवता जो संसार का भरण-पोषण करनेवाले कहे गये हैं। २. अग्नि देवता। ३. वसु देवता। ४. बारह आदित्यों में से एक।
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विष्णु-कांत  : पुं० [सं० ब० स०] १. इश्कपेचाँ नामक लता या उसका फूल। २. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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विष्णु-कांता  : स्त्री० [सं०] १. नीली अपराजिता। कोयल नाम की लता। २. बाराही कन्द। मेंठी। ३. नीली शंखाहुली।
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विष्णु-कांति  : पुं० [सं०] एक प्रकार का बहुत गहरा आसमानी रंग (सेरुलियन)। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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विष्णु-पत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. विष्णु की स्त्री। लक्ष्मी। २. अदिति का एक नाम।
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विष्णुं-पद  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु के चरण या उसकी बनाई हुई आकृति। २. आकाश। ३. स्वर्ग। ४. कमल।
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विष्णु-पदी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] १. गंगा। २. द्वारिकापुरी। ३. वृष, वृश्चिक, कुंभ और सिंह इनमें से प्रत्येक की संक्रान्ति।
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विष्णु-प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लक्ष्मी। २. तुलसी का पौधा।
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विष्णु-माया  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा।
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विष्णु-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] गरुड़।
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विष्णु-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] वैकुंठ। गोलोक।
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विष्णु-वल्लभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. तुलसी का पौधा। २. कलिहारी।
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विष्णु-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] लक्ष्मी।
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विष्णु-शिला  : स्त्री० [सं० ष० त०] शालग्राम का विग्रह।
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विष्णु-श्रुत  : पुं० [सं० तृ० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का आर्शीवाद जिसका आशय है विष्णु तुम्हारा मंगल करे।
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विष्णु-श्रृंखला  : पुं० [सं० ष० त०] श्रवण नक्षत्र में पड़नेवाली द्वादशी।
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विष्णु-स्मृति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्रसिद्ध स्मृति (याज्ञवल्क्य)।
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विष्णुचक्र  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु के हाथ का चक्र सुदर्शन।
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विष्णुतिथि  : स्त्री० [सं० ष० त०] एकादशी और द्वादशी दोनों तिथियाँ, जिसके स्वामी विष्णु माने जाते हैं।
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विष्णुत्व  : पुं० [सं० विष्णु+त्व] विष्णु होने की अवस्था, धर्म पद या भाव।
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विष्णुदैवत  : पुं० [सं० ब० स०] श्रवण नामक नक्षत्र जिसके स्वामी विष्णु माने जाते हैं।
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विष्णुधर्मोत्तर  : पुं० [सं० ब० स०] एक उपपुराण का नाम जो विष्णु पुराण का एक अंग माना जाता है।
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विष्णुधारा  : स्त्री० [सं० ष० त० या ब० स०] १. पुराणानुसार एक प्राचीन नदी। २. उक्त नदी के तट का एक तीर्थ।
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विष्णुपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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विष्णुयशा  : पुं० [सं० ब० स० विष्णुयशस्] पुराणानुसार जो ब्रह्मयशा का पुत्र और कल्कि अवतार का पिता होगा।
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विष्णुयान  : पुं० [सं० ष० त०] गरुड़।
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विष्णुवृद्ध  : पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि।
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विष्णुहिता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. तुलसी का पौधा। २. मरुआ।
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विष्णूत्तर  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु के पूजा के निमित्त किया जानेवाला भूमि या संपत्ति का दान।
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विष्पर्धा  : पुं० [सं० वि√स्पर्ध (संघर्ष करना)+असुन्, ब० स० विष्पर्धस्] स्वर्ग। वि० स्पर्धा से रहित।
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विष्फार  : पुं० [सं० वि√स्फर् (स्फुरण करना)+णिच्+अच्, अत्व, षत्व] धनुष की टंकार। विस्फार।
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विष्य  : वि० [सं० विष+यत्] जिसे विष दिया जाना चाहिए या दिया जाने को हो।
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विष्यंदन  : पुं० [सं० वि√स्यन्द+ल्युट—अन] १. चूना २. बहना। ३. पिघलना। ४. एक तरह की मिठाई।
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विष्व  : वि० [सं०√विष् (प्याप्त होना)+क्वन्] १. हिस्र। २. हानिकारक। ३. दुष्ट।
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विष्वककिरण  : स्त्री० [सं०] दे० ‘ब्रह्माण्ड किरण’।
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विष्वक्  : वि० [सं०] १. बराबर इधर-उधर घूमनेवाला। २. विश्व-संबंधी। विश्व का। २. सारे विश्व में समान रूप से होने यापाया जानेवाला। (यूनीवर्सल) ३. इस जगत् से भिन्न शेष सारे विश्व से संबंध रखनेवाला। पृथ्वी को छोड़कर सारे आकाश और ब्रह्माण्ड का। ब्रह्माण्डीय। (कॉस्मिक)। अव्य० १. चारों ओर। २. सब जगह। पुं०=विषुव।
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विष्वक्वाद  : पुं० [सं०] दे० ‘विश्ववाद’।
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विष्वक्सिद्धान्त  : पुं० [सं० कर्म० स०] दर्शन और न्यायशास्त्रों में वह सिद्धान्त जो किसी वर्ग या विभाग के सभी व्यक्तियों या सभी प्रकार के तत्त्वों के लिए समान रूप से प्रयुक्त होता या हो सकता हो (डाँक्ट्रिन आँफ यूनिवर्सल्स)।
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विष्वक्सेन  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव। ३. एक मनु का नाम जो मत्स्य पुराण के अनुसार तेरहवें और विष्णु पुराण के अनुसार चौदहवें हैं।
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विष्वग्वात  : पुं० [सं०] एक प्रकार की दूषित वायु।
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विस  : पुं० [सं० वि√सो (तनूकरण)+क] कमल। पुं०=विष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विसंकट  : पुं० [सं० ब० स०] १. इंगुदी या हिंगोट नाम का वृक्ष। २. शेर। सिंह। वि० बहुत बड़ा। विशाल।
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विसंक्रमण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विसंक्रमित] बहुत अधिक ताप पहुँचाकर ऐसी क्रिया करना जिससे किसी पदार्थ में लगे हुए कीटाणु या रोगाणु पूरी तरह से नष्ट हो जाएँ और दूसरी वस्तुओं में लगकर उन्हें दूषित न करने पाएँ (स्टरिलाईजेशन) जैसे—शल्य चिकित्सा में चीड़-फाड़ करने से पहले नश्तरों आदि का होनेवाला विसंक्रमण।
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विसंगत  : वि० [सं० ब० स० या तृ० त० वा] जो संयत न हो। जिसके साथ संगति न बैठती हो। बे-मेल।
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विसंज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] संज्ञाहीन। बेहोश।
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विसंधि  : स्त्री० [सं०] समस्त पदों या शब्दों की संधियाँ मनमाने ढंग से बनाना-बिगाड़ना जो साहित्य में एक दोष माना गया है।
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विसंधिक  : वि० [सं० ब० स०] जिनकी या जिनसे संधि न हो।
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विसँभारा  : वि० [हि० वि+संभार] जिसकी सुध-बुध ठिकाने न हो।
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विसम  : वि०=विषम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विसम्मति  : स्त्री० [सं०] किसी विषय में दूसरे के मत से सहमत न होने की अवस्था या भाव। विमत होना (डिस्सेन्ट)।
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विसर्ग  : पुं० [सं० वि√सृज्+घञ्] १. सामने आए हुए काम या बात के सम्बन्ध में आवश्यक कार्यवाही उचित निर्णय आदि करके उसे निपटाने की क्रिया या भाव। (डिस्पोजल)। २. दान। ३. त्याग। ४. मल-मूत्र का त्याग। शौच। ५. मृत्यु। ६. मोक्ष। ७. प्रलय। ८. वियोग। ९. चमक। दीप्ति। १॰. सूर्य का एक अयन। ११. वर्षा, शरद और हेमन्त ऋतुओं का समूह। १२. व्याकरण के अनुसार एक वर्ण जिससे ऊपर-नीचे दो बिन्दु होते हैं और उसका उच्चारण प्रायः अर्द्धह के समान होता है।
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विसर्गी  : वि० [सं०] १. जिसमें विसर्ग हो। विसर्ग से युक्त। २. बीच-बीच में ठहरने या रुकनेवाला। जैसे—विसर्गी ज्वर। ३. दानी। ४. त्यागी।
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विसर्गी-ज्वर  : पुं० [सं०] वह ज्वर जो बराबर बना रहता हो, बल्कि बीच-बीच में कुछ समय के लिए उतर जाता हो। अंतरायिक ज्वर। विरामी ज्वर (इन्टरमिटेन्ट फीवर)।
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विसर्जन  : पुं० [सं० वि√सृज् (त्याग करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विसर्जित] १. परित्याग करना। छोड़ना। २. किसी को कुछ करने का आदेश देकर कहीं भेजना। ३. कहीं से प्रस्थान करना। विदा होना। ४. अन्त। समाप्ति। ५. दान। ६. देव-पूजन के सोलह उपचारों में से अंतिम उपचार जिसमें आहूत देवता के प्रति यह निवेदन होता है कि अब पूजन हो चुका, आप कृपया प्रस्थान करें। ७. उक्त के आधार पर पूजन आदि के उपरान्त प्रतिमा या विग्रह का किसी जलाशय में किया जानेवाला प्रवाह। भसान। जैसे—दुर्गा या सरस्वती की मूर्ति का गंगा में होनेवाला विसर्जन। ८. कार्य की समाप्ति पर उसके सदस्यों आदि का कार्य-स्थल से होनेवाला प्रस्थान।
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विसर्जनी  : स्त्री० [सं० विसर्जन+ङीष्] गुदा के मुँह पर चमड़े का एक भाग।
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विसर्जनीय  : वि० [सं० वि√सॉज्+अनीयर्] जिसका विसर्जन हुआ हो सके या किया जाने को हो।
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विसर्जित  : भू० कृ० [सं० वि√सृज्+क्त, इत्व] जिसका विसर्जन हुआ हो।
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विसर्प  : पुं० [सं० वि√सृप् (सरकना चलना)+घञ्] १. रेंगते हुए या मन्द गति से इधर-उधर घूमना, फैलना या बढ़ना। २. खुजली नामक चर्म रोग। ३. नाटक में किसी कार्य का अप्रत्याशित रूप से होनेवाला दुःखद परिणाम।
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विसर्पण  : पुं० [सं० वि√सृप्+ल्० युट-अन] १. सांप की तरह लहराते हुए चलना। २. उक्त प्रकार की लहराती हुई आकृति या स्थिति। (मिएन्टर) ३. फैलना। ४. फेंकना। ५. फोड़ों आदि का फूटना।
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विसर्पिका  : स्त्री० [सं० वि√सृप्+ण्वुल्-अक, इत्व+टाप्, या विसर्प+कन्+टाप्, इत्व] विसर्प या खुजली नामक रोग।
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विसर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं०] १. तेज चलनेवाला २. फैलनेवाला ३. साँप की तरह लहराते हुए चलनेवाला। लहरियेदार। (मिएन्डर) ४. रंगता हुआ आगे बढ़ने या चलनेवाला। ५. (पौधा या बेल) जो धीरे-धीरे आगे बढ़कर जमीन पर फैले या किसी आधार पर चढ़े (क्रीपिंग)।
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विसल  : पुं० [सं० विस√ला (ग्रहण करना)+क, अथवा विस+कलच्] वृक्ष का नया पत्ता। पल्लव।
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विसवर्त्म  : पुं० [सं० ब० स०] आँखों का एक प्रकार का रोग।
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विसंवाद  : पुं० [सं० वि-सम√वद् (कहना)+घञ्] १. विरोध। झूठा। कथन। २. अनुचित कहासुनी। ३. डांट-फटकार। ४. प्रतिज्ञा भंग करना। ५. खंडन। ६. असहमति। वि० अद्भुत। विलक्षण।
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विसंहत  : भू० कृ० [सं० वि-सम√हन् (हिंसा करना)+क्त] १. जो संहत न हो। २. अलग या पृथक् किया हुआ।
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विसार  : पुं० [सं० वि√सृ (गमन)+घञ्] १. विस्तार। २. निर्गम। निकास। ३. प्रवाह। बहाव। ४. उत्पत्ति। ५. मछली।
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विसारक  : वि० [सं०] विसरण करनेवाला।
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विसारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विसारित, वि० विसारी] १. फैलाना। २. चलाना। ३. निकालाप। ४. कार्य का संपादन करना।
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विसाल  : पुं० [अ०] १. मिलना। २. प्रेमी और प्रेमिका का मिलन। २. मृत्यु जिससे आत्मा जाकर परमात्मा से मिल जाती है। उदाहरण-पसे विसाल मयस्सर मुझे विसाल हुआ। मेरे जनाजे में बैठे रहे व सारी रात।—कोई शायर।
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विसिनी  : स्त्री० [सं० विस+इनि+ङीष्] कमलिनी। वि०=व्यसनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विसूचन  : पुं० [सं० वि√सूच् (सूचित करना)+ल्युट—अन] सूचित करना। जतलाना।
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विसूचिका  : स्त्री० [सं० वि√सूच्+अच्+कन्+टाप्, इत्व] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसे कुछ लोग हैजा कहते हैं।
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विसूची  : स्त्री० [सं० वि√सूच्+अच्+ङीष्] वह रोग जिसमें कै और दस्त आते हैं परन्तु पेशाब नहीं होता।
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विसूरण  : पुं० [सं० वि√सूर् (दुःख होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विसूरित] १. दुःख। रंज। २. चिन्ता। फिक्र। ३. विरक्ति। वैराग्य।
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विसृत  : भू० कृ० [सं० वि√सृ (गमन)+क्त] [भाव० विसृति] १. फैला या फैलाया हुआ। २. ताना हुआ। ३. कथित। उक्त।
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विसृष्ट  : भू० कृ० [सं० वि√सृज् (रचना)+क्त, षत्व, त-ट] [भाव० विसृष्टि] १. जिसकी सृष्टि हुई हो। २. छोड़ा, त्यागा या निकाला हुआ। ३. प्रेरित। पुं० विसर्ग नामक लेख-चिन्ह जो इस प्रकार लिखा जाता है—
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विसृष्टि  : स्त्री० [सं० वि√सृज्+क्तिन्] १. विसृष्ट होने की अवस्था या भाव। २. सृष्टि। ३. छोड़ना, त्यागना या निकालना। ४. भेजना। ५. प्रेरणा करना। ६. संतान। ७. स्राव।
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विसैन्यीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विसैन्यीकृत] युद्ध के आवश्यकतावश प्रस्तुत किये गये सैनिकों को सैन्य-सेवा से पृथक् करना। सैन्य-विघटन (डिमिलिटराइजेशन)।
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विसौख्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] सौख्य या सुख का अभाव। कष्ट। दुःख।
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विस्खलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विस्खलित]=स्खलन।
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विस्त  : पुं० [सं०√विस् (छोड़ना)+क्त] १. एक कर्ष का परिमाण २. सोना। स्वर्ण।
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विस्तर  : पुं० [सं० वि√स्तृ (फैलना)+अप्] [भाव० विस्तृता] १. विस्तार। २. प्रेम। ३. समूह। ४. आसन। ५. आधार। ६. गिनती। संख्या। ६. शिव का एक नाम। वि० अधिक। बहुत।
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विस्तरण  : पुं० [सं० वि√स्तृ+ल्युट—अन] १. विस्तार करना। बढ़ाना। विस्तृत करना।
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विस्तार  : पुं० [सं० वि√स्तृ+घञ्] १. फैले हुए होने की अवस्था, धर्म या भाव २. वह क्षेत्र या सीमा जहाँ तक कोई चीज फैली हुई हो। फैलाव। (एक्सटेन्ट) ३. लंबाई और चौड़ाई। ४. विस्तृत। विवरण। ५. शिव। ६. विष्णु। ७. वृक्ष की शाखा। ८. गुच्छा।
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विस्तारण  : पुं० [सं०] १. विस्तार करना। फैलाना। २. काम-काज या कर्म-क्षेत्र बढ़ाना।
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विस्तारना  : स० [सं० विस्तरण] विस्तार करना। फैलाना।
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विस्तारवाद  : पुं० [सं०] यह मत या सिद्धान्त कि राज्य को अपने अधिकार क्षेत्र और सीमाओं का निरन्तर विस्तार करते रहना चाहिए, भले ही इसमें दूसरे राज्यों या राष्ट्रों का अहित होता हो (एक्सपैन्शनिज्म)
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विस्तारिणी  : स्त्री० [सं० वि√स्तृ+णिनि+ङीष्] संगीत में एक श्रुति।
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विस्तारित  : भू० कृ० [सं० विस्तार+इतच्] १. जिसका विस्तार हुआ हो। २. व्यापक विवरण से युक्त।
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विस्तारी (रिन्)  : वि० [सं० विस्तारिन्] १. जिसका विस्तार अधिक हो। विस्तृत। शक्तिशाली। पुं० बड़ या बरगद का पेड़।
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विस्तीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√स्तृ+क्त] [भाव० विस्तीर्णता] १. फैला या फैलाया हुआ हो। विस्तृत किया हुआ। २. व्यापक सूत्रवाला। ३. बहुत चौड़ा। ४. बहुत बड़ा। ५. विपुल।
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विस्तृत  : भू० कृ० [सं० वि√स्तृ+क्त] [भाव० विस्तृति] १. जो अधिक दूर तक फैला हुआ हो। लंबा-चौड़ा। विस्तारवाला। जैसे—यहाँ आप लोगों के लिए बहुत विस्तृत स्थान है। २. कथन या वर्णन जिसमें सब अंग या बातें विस्तारपूर्वक बताई गई हों। जैसे—विस्तृत विवेचन। ३. बहुत बड़ा या लम्बा चौड़ा। (एक्सटेन्सिव उक्त सभी अर्थों में)
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विस्तृति  : स्त्री० [सं० वि√स्तृ+क्तिन्] १. फैलाव। विस्तार। २. प्याप्ति। ३. लंबाई चौड़ाई या गहराई। ४. वृत्त का व्यास।
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विस्थापन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विस्थापित] १. जो कहीं स्थापित या स्थित हो उसे वहाँ से हटाना। २. किसी स्थान पर बसे हुए लोगों को कहीं से बलपूर्वक हटाना और वह जगह उनसे खाली करा लेना (डिस्प्लेसमेंट)।
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विस्थापित  : भू० कृ० [सं० वि√स्था+णिच्, पुक्+क्त] १. जो अपने स्थान से हटा दिया गया हो। २. जिससे उसका निवास-स्थान जबरदस्ती छीन लिया गया हो (डि-स्प्लेस्ड)।
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विस्थिति  : स्त्री० [सं०] ऐसी विकट स्थिति जिसमें उलट-फेर की संभावना हो।
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विस्फार  : पुं० [सं० वि√स्फुर् (संचालन)+घञ्, उ-आ] [वि० विस्फारित] १. धनुष की टंकार। कमान चलाने का शब्द। धनुष की डोरी। ३. फैलाव। विस्तार। ४. तेजी। फुरती। काँपना। कंपन। ५. विकास।
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विस्फारक  : पुं० [सं० विस्फार+कन्] एक प्रकार का विकट सन्निपात जिसमें रोगी को खाँसी, मूर्च्छा, मोह और कम्प होता है। वि० विस्फार करनेवाला।
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विस्फारण  : पुं० [सं० वि√स्फुर् (हिलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विस्फारित] १. खोलना या फैलाना। २. पक्षियों का डैने फैलाना। ३. फाड़ना। ४. धनुष चढ़ाना।
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विस्फारित  : भू० कृ० [सं० विस्फार+इतच्] १. अच्छी तरह से खोला या फैलाया हुआ। जैसे—विस्फारित नेत्र। २. फाड़ा हुआ।
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विस्फीत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विस्फीति] जो स्फीत न हो। ‘स्फीत’ का विपर्याय।
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विस्फीत  : स्त्री० [सं० ब० स०] दे० ‘अवस्फीति’।
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विस्फुरण  : पुं० [सं० वि√स्फुर् (कंपित होना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० विस्फुरित] १. विद्युत का कंपन। २. स्फुरण।
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विस्फुलिंग  : पुं० [सं० वि√स्फुर (हिलना)+डु=विस्फु, विस्फु+लिंग, ब० स०] १. एक प्रकार का विष। २. आग की चिनगारी। स्फुलिंग।
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विस्फूर्जन  : पुं० [सं० वि√स्फूर्ज (फैलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विस्फूर्जित] १. किसी पदार्थ का बढ़ना या फैलाना। विकास। २. गरजना।
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विस्फोट  : पुं० [सं० वि√स्फुट्+घञ्] १. अन्दर की भरी हुई आग या गरमी का उबल या फूटकर बाहर निकलना। जैसे—ज्वाला मुखी का विस्फोट। २. उक्त क्रिया के कारण होनेवाला जोर का शब्द। ३. एकत्र गैस, बारूद आदि का अग्नि या ताप के कारण जोर का शब्द करते हुए बाहर निकल पड़ना। (एक्सप्लोजन)। ४. बड़ा और जहरीला फोड़ा।
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विस्फोटक  : पुं० [सं० विस्फोट+कन्] १. फोड़ा विशेषतः जहरीला फोड़ा। २. चेचक या शीतला नामक रोग। वि० (पदार्थ) जो अन्दर की गरमी या ताप के कारण चटक कर फूट जाए।
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विस्फोटन  : पुं० [सं० वि√स्फुट्+ल्युट-अन] विस्फोट उत्पन्न करने की क्रिया या भाव।
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विस्मय  : पुं० [सं० वि√स्मि+अच्] १. आश्चर्य। २. अचम्भा। २. वह विशिष्ट स्थिति जब किसी प्रकार की अप्रत्याशित तथा चमत्कारिक बात या वस्तु सहसा देखकर प्रसन्नता-मिश्रित आश्चर्य होता है। ३. साहित्य में उक्त के आधार पर अद्भुत रस का स्थायी भाव। वि० जिसका अभिमान या गर्व चूर्ण हो चुका हो।
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विस्मयाकुल  : वि० [सं० तृ० त०] जो बहुत अधिक विस्मय के कारण घबरा या चकरा गया हो।
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विस्मयादि-बोधक  : पुं० [सं०] व्याकरण में अव्यय का वह भेद जो ऐसे अधिकारी शब्द का सूचक होता है जो आश्चर्य, खेद, दुःख, प्रसन्नता आदि का सूचक होता है। जैसे— वाह, हाय ओह आदि।
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विस्मरण  : पुं० [सं० वि√स्मृ (स्मरण करना)+ल्युट्-अन, मध्यम, स०] [भू० कृ० विस्तृत] १. स्मरण न होने की अवस्था या भाव। भूलना। २. भुलाना।
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विस्मापन  : पुं० [सं० वि√स्मि (आनन्द होना)+णिच्, आत्व, पुक्+ल्युट-अन] १. गंधर्व नगर। २. कामदेव। वि० विस्मयकारक।
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विस्मारक  : वि० [सं० वि√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] विस्मरण कराने या भुला देनेवाला। ‘स्मारक’ का विपर्याय।
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विस्मिति  : भू० कृ० [सं० वि√स्मि (आश्चर्य होना)+क्त] [भाव० विस्मृति] जिसे विस्मय हुआ हो।
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विस्मिति  : स्त्री० [सं० वि√स्मि (आश्चर्य होना)+क्तिन्]=विस्मय।
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विस्मृत  : भू० कृ० [सं० वि√स्मि+क्त] [भाव० विस्मृति] १. जिसका स्मरण न रहा हो। भूला हुआ। २. भुलाया हुआ।
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विस्मृति  : स्त्री० [सं० वि√स्मृ+कित, मध्यम० स०] भूल जाना। विस्मरण।
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विस्रंभ  : पुं० [सं०]=विश्रंभ।
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विस्रवण  : पुं० [सं० वि√स्रु (बहना)+ल्युट—अन] १. बहना। २. झड़ना ३. रसना।
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विस्रा  : स्त्री० [सं० विस्र+अच्+टाप्] १. हाऊबेर। हवुषा। २. चरबी।
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विस्राम  : पुं०=विश्राम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विस्राव  : पुं० [सं० वि√स्रु (बहना)+घञ्] भात का माँड़। पीच।
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विस्रावण  : पुं० [सं० वि√स्रु (बहना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विस्रावित] १. बहना। २. रक्त बहाना। ३. अर्क चुआना।
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विस्वर  : वि० [सं० ब० स०] १. स्वरहीन। २. बेमेल। ३. कर्कश (स्वर)।
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विस्वाद  : वि० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] १. जिसमें स्वाद न हो। २. फीका।
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विहंग  : पुं० [सं० विहायस्√गम्+खच्, डित्व, मुम्, विहादेश] १. पक्षी। चिड़िया। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा। ४. सोना। मक्खी। ५. बादल। मेघ। ६. तीर। बाण।
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विहग  : पुं० [सं० विहायस्√गम्+ड,विहादेश] १. पक्षी। चिड़िया। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा। ४. ग्रह। ५. तीर। बाण।
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विहंग-राज  : पुं० [सं० ष० त०] गरुड़।
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विहंगक  : वि० [सं० बिहंग+कन्] आकाश में उड़नेवाले। पुं० छोटा पक्षी।
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विहंगम  : पुं० [सं० विहायस्√गम् (जाना)+खच्, मुम्, विहादेश] १. पक्षी। चिड़िया। २. सूर्य। वि०=बेहंगम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विहंगम मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] योग की साधना में दो मार्गों में से एक जिसके द्वारा साधक बिना अधिक काया-क्लेश सहे बहुत जल्दी और सहज में उसी प्रकार अपने प्राण ब्रह्मांड तक ले जाता है, जिस प्रकार पक्षी उड़कर वृक्ष के ऊपरी भाग पर जा पहुँचता है। यह दूसरे अर्थात् पिपीलिका मार्ग की तुलना में श्रेष्ठ समझा जाता है।
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विहंगमा  : स्त्री० [सं० विहंगम+टाप्] १. सूर्य की एक प्रकार की किरण। २. चिड़िया। ३. बहँगी।
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विहंगहा (हन्)  : पुं० [सं०] बहेलिया।
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विहंगिका  : स्त्री० [सं० विहंग+कन्+टाप्, इत्व] बहँगी।
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विहगेंद्र  : पुं० [सं० विहग+इन्द्र] गरुड़।
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विहँड़ना  : स० [?] १. नष्ट करना। २. मार डालना।
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विहत  : भू० कृ० [सं०√हन् (मारना)+क्त, न-लोप] १. मारा हुआ। हत। २. फाड़ा हुआ। विदीर्ण। ३. जिसका निवारण हुआ हो। निवारित। ४. जिसका प्रतिरोध या विरोध किया गया हो। पुं० जैन मंन्दिर।
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विहति  : स्त्री० [सं० वि√हन्+क्तिन्] विहत होने की अवस्था या भाव।
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विहर  : पुं० [सं० वि√हृ (हरम करना)+अच्] वियोग। विछोह।
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विहरण  : पुं० [सं० वि√ह्र (हरण करना)+ल्युट-अन] १. बिहार करने की क्रिया या भाव। २. फैलना। ३. वियोग। विछोह। ४. घूमना-फिरना।
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विहरना  : अ० [सं० विहार] १. विहार करना। २. घूमना-फिरना।
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विहर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० वि√हृ+तृच्] १. विहार करनेवाला। २. घूमने-फिरने का शौकीन। पुं० डाकू।
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विहव  : पुं० [सं० वि√हु (दान देना लेना)+अच्] १. यज्ञ। २. युद्ध। लड़ाई।
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विहसन  : पुं० [सं० वि√हस् (हँसना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विहसित] १. मंद और मधुर मुस्कान। २. किसी की हँसी या मजाक उड़ाना।
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विहँसना  : अ०=हँसना।
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विहसित  : पुं० [सं० वि√हस् (हँसना)+क्त] ऐसा हास्य जो न बहुत उच्च हो न बहुत मधुर। मध्यम हास्य। भू० कृ० जिसकी हँसी उड़ाई गई हो। उपहसित।
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विहस्त  : पुं० [ब० स०] पंडित। विद्वान।
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विहाग  : पुं०=बिहाग। (राग)।
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विहाण  : पुं०=बिहान। (सबेरा)।
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विहाना  : स० [सं० विहीन] पथक् करना। अ०, स० बिहाना (बीतना, बिताना)।
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विहायस  : पुं० [सं०] १. आकाश। आसमान। २. दान। ३. चिड़िया। पक्षी।
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विहार  : पुं० [सं० वि√हृ (हरण करना)+घञ्] १. घूमना। २. आनन्द प्राप्त करने या मौज लेने के लिए घूमना। ३. घूमने-फिरने तथा आनन्द लेने की जगह। जैसे—उद्यान, बगीचा। ४. प्राचीन काल में बौद्ध श्रमणों के रहने का मठ या आश्रम। ५. रति-क्रीड़ा। ६. रति-क्रीड़ा का स्थान।
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विहारक  : वि० [सं० वि√हृ+ण्वुल्-अक, विहार+कन्] १. विहार करनेवाला। २. विहार अर्थात् बौद्ध मठ-सम्बन्धी।
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विहारिका  : स्त्री० [सं० विहार+कन्+टाप्, इत्व] छोटा विहार या मठ।
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विहारी  : वि० [सं० वि√हृ+णिनि] [स्त्री० विहारिणी] जो विहार करता हो। विहार करनेवाला। पुं० श्रीकृष्ण का एक नाम।
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विहास  : पुं० [सं०] मुसकान।
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विहि  : पुं० [सं० विधि] १. विधाता। २. विधान। स्त्री० विधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विहित  : भू० कृ० [सं० वि√धा+क्त] १. जो विधि के अनुसार हुआ या किया गया हो। २. जो विधि के अनुरूप या अनुसार हो। ३. उचित। मुनासिब।
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विहिंसक  : वि० [सं०]=हिंसक।
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विहीन  : वि० [सं० वि√हा (त्याग करना)+क्त, ईत्व, तृ-न] [भाव० विहीनता, भू० कृ० विहीनिता] १. रहित। बगैर बिना। २. छोड़ा या त्यागा हुआ।
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विहून  : वि० [सं० विहीन] रहित। अव्य० बिना। बैगेर।
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विहृत  : पुं० [सं० वि√हृ+क्त] साहित्य में हाव की वह अवस्था जिसमें प्रिया लज्जा के कारण प्रिय पर अपना मनोभाव नहीं प्रकट कर पाती। भू० कृ० हरण किया हुआ।
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विहृति  : स्त्री० [सं० वि√हृ+क्तिन्] १. जबरदस्ती या बल-पूर्वक कुछ ले लेना या कोई काम करना। २. खेलना। ३. क्रीड़ा। बिहार।
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विह्लल  : वि० [सं० वि√ह्लल्+अच्] [भाव, विह्ललता] आशंका, भय आदि मनोविकारों के कारण किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा होकर जो अपना चैन तथा साहस छोड़ चुका हो और घबरा रहा हो।
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विह्वलता  : स्त्री० [सं० विह्वल+तल्+टाप्] विह्वल होने की अवस्था या भाव। व्याकुलता। घबराहट।
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वी० पी  : पुं० [अं० वेल्यू-पेएबुल के आरम्भिक अक्षर वी० और पी०] १. डाक द्वारा चीजें भेजने की वह व्यवस्था जिसमें पानेवाले व्यक्ति से चीजों का दाम वसूल करके तब उन्हें चीजें दी जाती है। २. उक्त प्रकार से भेजी हुई चीज।
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वीक  : पुं० [सं० वि√अज् (गमन)+कन्, अज-वी] १. वायु। हवा। २. चिड़िया। पक्षी। ३. मन।
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वीकाश  : पुं० [सं० वि√कश् (विकाश करना)+घञ्, दीर्घ] १. एकांत स्थान २. प्रकाश। रोशनी।
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वीक्ष  : पुं० [सं० वि√ईक्ष् (देखना)+अच्] दृष्टि।
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वीक्षक  : वि० [सं० वि√ईक्ष+ण्वुल्-अक] देखनेवाला।
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वीक्षण  : पुं० [सं० वि√ईक्ष्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वीक्षित वि० वीक्षणीय] देखने की क्रिया। निरीक्षण।
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वीक्षणीय  : वि० [सं० वि√ईक्ष्+अनीयर्] जो देखे जाने के योग्य हो। दर्शनीय।
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वीक्षा  : स्त्री० [सं० वि√ईक्ष्+अङ्+टाप्] देखने की क्रिया। वीक्षण। दर्शन।
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वीक्षित  : भू० कृ० [सं० वि√ईक्ष्+क्त] देखा हुआ। पुं० दृष्टि। नजर।
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वीक्ष्य  : वि० [सं० वि√ईक्ष्+ण्यत्] देखने या देखे जाने के योग्य। पुं० १. वह जो देखा जाए। दृश्य। २. घोड़ा। ३. नर्तक। नचनिया।
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वीख  : पुं० [?] कदम। डग। (डि०)।
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वीखना  : स० [सं० वीक्षण] देखना। (राज०)।
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वीचि  : स्त्री० [सं०√वे+डीचि] १. लहर। तरंग। २. बीच की खाली जगह। अवकाश। ३. चमक। दीप्ति। ४. सुख। ५. किरण।
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वीचिमाली (लिन्)  : पुं० [सं०] समुद्र।
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वीची  : स्त्री० [सं० वीचि+ङीष्] तरंग। लहर।
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वीज  : पुं० [सं० वि√जन् (उत्पन्न होनेवाला)+ड, दीर्घ, वि√ईज् (गमन)+अच्] १. मूल कारण। असल वजह। २. वनस्पति आदि की वह गुठली या दाना जिससे उस जाति की और वनस्पतियाँ उत्पन्न होती है। बीज। बीआ। ३. वीर्य। शुक्र। ४. अंकुर। ५. फल। ६. आधार। ७. निधि। खजाना। ८. तेज। ९. तत्त्व। १॰. मज्जा। ११. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार के मंत्र जो बड़े-बड़े मंत्रों के मूल तत्त्व के रूप में माने जाते हैं। प्रत्येक देवी या देवता के लिए मंत्र अलग-अलग होते हैं। १२. दे० ‘बीज-गणित’। स्त्री० बिजली। (विद्युत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वीज-कर  : पुं० [सं० वीज√कृ (करना)+अच्] उड़द की दाल जो बहुत पुष्टकारी मानी जाती है।
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वीज-गणित  : पुं० [सं० तृ० त०] गणित की वह शाखा जिसमें सांकेतिक अक्षरों की सहायता से राशियाँ निकाली जाती है और गणना की जाती है।
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वीज-मार्गी  : पुं० [सं० वीज√मार्ग (खोजना)+णिनि; वीजमार्गिन्] एक प्रकार के वैष्णव जो निर्गुण के उपासक होते हैं, और देवी-देवताओं का पूजन नहीं करते।
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वीजक  : पुं० [सं० बीज+कन, वीज√कै+क] १. बीज। बीआ। २. विजयमार या पियासाल नामक वृक्ष। ३. बिजौरा। नीबू। ४. सफेद सहिजन। ५. दे० ‘बीजक’।
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वीजकृत  : वि० [सं०वीज√कृ+क्विप्] शक्र बढ़ाने तथा पुष्ट करनेवाला (पदार्थ)।
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वीजकोश  : पुं० [सं०ष०त०] १. फलों पौधों आदि का वह अंग जिसके अन्दर बीज रहते हैं। २. कमलगट्टा। ३. सिंघाड़ा।
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वीजधान्य  : पुं० [सं० मध्यम० स०] धनियाँ।
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वीजन  : पुं० [सं० वि√ईज् (गमन)+ल्युट—अन] १. पंखा झलना। हवा करना। २. पंखा। चँवर। ३. चादर। ४. चकोर पक्षी। ५. लोध।
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वीजपुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह पुरुष जिससे किसी वंश की परम्परा चली हो।
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वीजपूर  : पुं० [सं० ब० स०] १. बिजौरा नीबू २. चकोतरा। ३. गलगल।
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वीजलि  : स्त्री०=बिजली (डि०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वीजसार  : पुं० [सं० ब० स०] बायबिडंग।
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वीजसू  : स्त्री० [सं० वीज√सू (उत्पन्न करना)+क्विप्] पृथ्वी। वि०=दूजा। (दूसरा)। पुं० [अं०] पार-पत्र पर लिखा जानेवाला वह लेख जिसके आधार परविदेशी यात्री को किसी दूसरे देश में प्रवेश और घूमने-फिरने का अधिकार प्राप्त होता है। द्रष्टांक (वीजा)।
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वीजाध्यक्ष  : पुं० [सं० वीज-अध्यक्ष] शिव।
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वीजित  : भू० कृ० [सं० वीज+इतच्] १. बोया हुआ। २. पंखा झलकर ठंडा किया हुआ। ३. सींचा हुआ।
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वीजी  : वि० [सं० वीज+इनि] जिसमें वीज हों। बीजोंवाला। पुं० १. पिता। बाप। २. चौराई का साग।
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वीजोदक  : पुं० [सं० वीज+उदक, उपमि० स०] आकाश से गिरनेवाला ओला। बिनौरी।
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वीज्य  : वि० [सं० वि√ईज्+यत्, बीज+यत् वा] १. जो बोया जा सकता हो। बोया जाने के योग्य। २. जो अच्छे बीज से उत्पन्न हुआ हो। ३. कुलीन।
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वीझण  : पुं० [सं० व्यंजन] बिजन पंखा। (राज०)।
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वीझना  : स० [सं० व्यंजना] पंखा झलना।
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वीटक  : पुं० [सं० वीट+कन्] [स्त्री० अल्पा० वीटिका] पान का बीड़ा।
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वीटा  : स्त्री० [सं० वि√इट्+क+टाप्] प्राचीन काल में एक प्रकार का खेल जो लकड़ी के डंडे से खेला जाता था।
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वीटिका  : स्त्री० [सं० वि√इट्+इन्, वीटि+कन्+टाप्] पान कर छोटा बीड़ा।
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वीटी  : स्त्री० [सं० वीटि+ङीष्] १. पान का बीड़ा। २. गाँठ विशेषतः पहने हुए कपड़ें में लगाई जानेवाली गाँठ।
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वीटुली  : स्त्री० [सं० वेष्ट] एक प्रकार की पगड़ी। (राज०)।
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वीण  : स्त्री०=वीणा।
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वीणा  : स्त्री० [सं०√वी+न+टाप्] १. एक तरह का प्राचीन भारतीय बाजा जो सितार, सरोद आदि का मूल रूप है और सब बाजों में श्रेष्ठ माना जाता है। २. साधकों और सिद्धों की परिभाषा में जीव की काया या शरीर। ३. विद्युत। बिजली।
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वीणा-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] वीणा का वह लंबोतरा अंश जो दोनों तुबों या सिरों के बीच पड़ता है।
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वीणा-पाणि  : स्त्री० [सं० ब० स०] सरस्वती। पुं० नारद।
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वीणा-प्रसेव  : पुं० [सं०] वीणा की वह गट्टी जिसे आगे-पीछे करने से तार से निकलनेवाला स्वर तीव्र मंद होता है।
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वीणा-वादिनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] सरस्वती।
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वीणा-हस्त  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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वीणाधारी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वीणावती  : स्त्री० [सं० वीणा+मतुप्, म-व+ङीष्] सरस्वती।
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वीणी  : पुं० [सं० वीणा+इनि] वह जो वीणा-वादन में कुशल हो।
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वीत  : वि० [सं०√वी+क्त,वि√इ+क्त] १. गया या बीता हुआ। २. स्वतंत्र किया हुआ। ३. जो अलग या पृथक् हो गया हो। ४. ओझल। ५. युद्ध करने के लिए उपयुक्त। ६. किसी काम या बात से मुक्त या रहित। जैसे—वीतचिन्त, वीतराग। पुं० १. ऐसी चीज जो पुरानी होने के कारण काम आने के योग्य न रह गई हो। विशेष—प्राचीन भारत में बुड्ढे घोड़े, हाथी, सैनिक आदि वीत कहे जाते थे। २. अनुमान के दो भेदों में से एक।
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वीत-मल  : वि० [सं०] १. मल से रहित निर्मल। २. निष्पाप।
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वीतक  : पुं० [सं० वीत+कन्] १. कपूर और चन्दन का चूर्ण रखने का पात्र। २. घिरी हुई जमीन। बाड़ा।
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वीतराग  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जिसने सांसारिक आसक्ति का परित्याग कर दिया हो। वह जो निस्पृह हो गया हो। राग-रहित। ३. गौतम बुद्ध। ३. जैनों के एक प्रधान देवता।
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वीतंस  : पुं० [वि√तंस् (भूषित करना)+घञ्] वह (जाल या पिजरा) जिसमें पशु-पक्षी फँसाये या रखे जाते हैं।
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वीतसूत्र  : पुं० [सं०] यज्ञोपवीत। √ जनेऊ।
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वीतहव्य  : पुं० [सं० ब० स०] वह जो यज्ञ में आहुति या हव्य देता हो।
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वीतहोत्र  : पुं० वीतिहोत्र।
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वीति  : स्त्री० [सं०√वी+क्तिन्] १. गति। चाल। २. चमक। दीप्ति। ३. खाने पीने की क्रिया। ४. गर्भ धारण करना। ५. यज्ञ। पुं० [√वी+क्तिच्] घोड़ा।
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वीतिहोत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. याज्ञिक।
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वीथी  : स्त्री० [सं०√विथ्+इन+ङीष्] १. पंक्ति। कतार। २. मार्ग। रास्ता। सड़क। ३. बाजार। हाट। ४. आकाश में सूर्य के भ्रमण करने का मार्ग। ५. आकाश में नक्षत्रों के रहने के स्थानों के कुछ विशिष्ट भाग जो वीथी या सड़क के रूप में माने गए हैं। जैसे—नागवीथी, गजवीथी, गो-वीथी आदि। ६. दृश्य काव्य या रूपक के २७ भेदों में से एक जो एक ही अंक का और श्रृंगार रस प्रधान होता है। इसमें एक से तीन तक पात्र होते हैं। प्राचीन काल में ऐसे रूपक अलग भी खेले जाते थे और दूसरे नाटकों के साथ भी।
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वींद  : पुं० [सं० वीरेन्द्र] बहुत बड़ा वीर। (डि०)।
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वीध्र  : पुं० [सं० वि√इन्ध् (दीप्त होना)+क्रन्] १. आकाश। २. अग्नि। ३. वायु।
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वीनाह  : पुं० [सं० वि√नह् (रोकना)+घञ्, दीर्घ] वह जंगल या ढकना जो कुएँ के ऊपर लगाया जाता है।
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वीपा  : स्त्री० [सं० वीप+टाप्] बिजली।
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वीप्सा  : स्त्री० [सं० वि√आप् (व्याप्त होना)+सन्, इत्व, अ+टाप्] १. व्याप्ति। २. कार्य की निरंतरता सूचित करने के लिए होनेवाली शब्द की आवृत्ति। जैसे—खडे़-खड़े या चलते-चलते। ३. एक प्रकार का शब्दालंकार जिसमें आदर, घृणा, विस्मय, शोक, हर्ष आदि के प्रसंगों में उपयुक्त शब्दों की पुनरावृत्ति होती है। यथा-रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि-हँसि उठै साँसें भरि, आँसू भरि कहत दई दई।—देव।
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वीभत्स  : पुं० [सं०] [भू० कृ० वीभत्सित]=बीभत्सा।
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वीर  : पुं० [सं० वीर] १. प्रायः समस्त पदों के अंत में, किसी काम या बात में औरों से बहुत आगे बढ़ा हुआ या बहादुर। २. भाई के लिए प्रयुक्त होनेवाला संबोधन। ३. वह जो टोने, टोटके, यंत्र-मंत्र आदि का बहुत बड़ा ज्ञाता हो। ४. ऐसी प्रेतात्मा जिसे किसी ने वश में किया हो। स्त्री० [सं० वीरा] १. स्त्रियों में प्रचलित सखी या सहेली के लिए संबोधन। २. कान में पहनने का बिरिया नामक गहना। स्त्री० [सं० वृत्ति ?] चरागाह में पशुओं को चराने का वह महसूल जो पशुओं की संख्या के अनुसार लिया जाता था। पुं०=चरागाह। स्त्री०=बीड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वीर  : पुं० [सं०√अज्+रक्, वी-आदेश√वीर्+अच्, वा] [भाव० वीरता] १. वह जो यथेष्ठ साहसी और बलवान हो। बहादुर। शूर। २. योद्धा। सिपाही। सैनिक। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में श्रृंगार आदि नौ रसों में से एक रस जिसमें उत्साह,वीरता,साहस आदि गुणों का रस-पूर्ण परिपाक होता है। ४. वह जो किसी विकट परिस्थिति में भी आगे बढ़कर अच्छी तरह और साहसपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करे। ५. वह जो किसी काम में और लोगों में से बहुत बढ़कर हो। जैसे—दानवीर, धर्मवीर। वह जो किसी काम या बात में बहुत चतुर या होशियार हो। जैसे—वाग्गीर। ६. स्त्री की दृष्टि में उसका पति। ७. पुत्र। बेटा। ८. भाई के लिए बहन का एक प्रकार का संबोधन। ९. तांत्रिकों की परिभाषा में साधना के तीन प्रकारों या भावों में से एक जिसमें खूब मद्यपान करके और उन्मत्त होकर मनुष्य भैंसे या भेड़-बकरी का बलिदान किया जाता है। विशेष—कहा गया है कि दिन के पहले दस दंडों में पशु भाव से बीच के १॰ दंडों में वीर भाव से और अंतिम १॰ दंडों में दिव्य भाव से साधना करनी चाहिए। कुछ लोगों के मत से १६ वर्ष की अवस्था तक पशु भाव से फिर ५॰ वर्ष की अवस्था तक वीर भाव से और उसके बाद दिव्य भाव से साधना करनी चाहिए। १॰. तांत्रिकों की परिभाषा में वह साधक जो उक्त प्रकार के वीर-भाव से साधना करता हो। ११. वज्रयानी सिद्धों की परिभाषा में वह साधक जो वज्र-प्रज्ञोपाय योग के द्वारा महाराग में विराग का दमन करता हो। १२. साहित्य में एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३१ मात्राएँ और १६ मात्राओं पर यति या विराम होता है। आल्हा नामक गीत वस्तुतः इसी छंद में होता है। १३. विष्णु। १४. जैनों के जिन देव १५. यज्ञ की अग्नि। १६. सींगिया विष। १७. काली मिर्च। १८. पुष्करमूल। १९. काँजी। २॰. उशीर। खस। २१. आलूबुखारा। २२. पीली कटसरैया। २३. चौलाई का साग। २४. वाराही कन्द। गेंठी। २५. लताकरंज। २६. अर्जुन नामक वृक्ष। २७. कनेर। २८. काकोली। २९. सिंदूर। ३॰ शालपर्णी। सरिवन। ३१. लोहा। ३२. नरकट। ३३. नरसल। ३४. भिलावँ। ३५. कुश। 3६. ऋषभक नामक ओषधि। 3७. तोरी। तुरई।
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वीर-कर्मा (र्मन्)  : वि० [सं०] वीरोचित कार्य करनेवाला।
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वीर-काम  : वि० [सं०] वह जिसे पुत्र की कामना हो। पुत्र की इच्छा रखनेवाला।
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वीर-केशरी (रिन्)  : पुं० [सं० स० त०] वह जो वीरों में सिंह हो।
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वीर-गाथा  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसी कवित्वमयी गाथा जिसमें किसी वीर के वीरतापूर्ण कृत्यों का वर्णन होता है।
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वीर-चक्र  : पुं० [सं०] एक तरह का पदक जो भारत शासन द्वारा बहुत वीरतापूर्ण कार्य करने पर सैनिकों को दिया जाता है।
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वीर-पान  : पुं० [सं० ष० त०] एक तरह का पेय (विशेषतः मादक पेय) जो युद्ध क्षेत्र में जाते समय या युद्ध में योद्धा पीते थे।
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वीर-पूजा  : स्त्री० [सं०] मानस समाज में प्रचलित वह भावना जिसके फलस्वरूप उन लोगों के प्रति विशेष भक्ति और श्रद्धा प्रकट की जाती है जो असाधारण रूप से अपनी वीरता का परिचय देते हैं (हीरो वर्शिप)।
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वीर-प्रसू  : वि० [सं०] वह (स्त्री) जो वीर संतान उत्पन्न करे।
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वीर-भुक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] आधुनिक वीरभूमि का प्राचीन नाम।
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वीर-मंगल  : पुं० [सं०] हाथी।
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वीर-मत्स्य  : पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक प्राचीन जाति।
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वीर-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग जहाँ वीर योद्धा मरने के बाद जाते हैं।
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वीर-मुद्रिका  : स्त्री० [सं०] पहनने का एक तरह का पुरानी चाल का छल्ला।
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वीर-रज  : पुं० [सं० वीररजस्] सिंदूर।
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वीर-राघव  : पुं० [सं० कर्म० स०] रामचन्द्र।
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वीर-रात्रि  : स्त्री० [सं०] गुप्त काल के गुंडों की परिभाषा में वह रात जिसमें गुंडे कोई बहुत बड़ी दुर्घटना या दुस्साहस का काम कर गुजरते थे।
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वीर-रेणु  : पुं० [सं० ब० स०] भीमसेन।
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वीर-ललित  : वि० [सं०] वीरों का सा पर साथ ही कोमल (स्वभाव)।
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वीर-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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वीर-वसंत  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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वीर-वह  : पुं० [सं०] १. वह रथ जो घोड़ों द्वारा खींचा जाय। २. रथ।
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वीर-व्रत  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा व्यक्ति जो अपने व्रत पर अडिग रहता हो। २. निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला।
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वीर-शयन  : पुं० [सं०] वीरशय्या।
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वीर-शय्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] वीरों के सोने का स्थान अर्थात् रणभूमि। लड़ाई का मैदान।
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वीर-शैव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] शैवों का एक सम्प्रदाय।
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वीरक  : पुं० [सं० वीर+कन्] १. साधारण वीर या योद्धा। २. नायक। ३. एक तरह का पौधा। ४. पुराणानुसार चाक्षुप मन्वंतर के एक मनु। ५. सफेद कनेर।
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वीरकाव्य  : पुं० [सं०] ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर बना हुआ वह काव्य जिसमें किसी वीर व्यक्ति के युद्ध संबंधी बड़े-बड़े कार्यों का उल्लेख या वर्णन होता है। (हिन्दी में ऐसे काव्य प्रायः रासों के नाम से प्रसिद्ध हैं)।
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वीरकुक्षि  : वि० [सं० ब० स०] (स्त्री) जो वीर पुत्र प्रसव करती हो।
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वीरगति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. युद्ध क्षेत्र में मारे जाने पर योद्धाओं को प्राप्त होनेवाली शुभ-गति। २. इन्द्रपुरी।
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वीरज  : वि० [सं०] वीर से उत्पन्न। वि०=विरज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वीरण  : पुं० [सं० वि√ईर् (गमनादि)+ल्युट-अन] १. कुश, दर्भ, काँस, दूब आदि की जाति के तृण। २. उशीर। खस। ३. एक प्राचीन ऋषि। ४. एक प्रजापति।
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वीरणी  : स्त्री० [सं० वीरण+ङीष्] १. तिरछी चितवन। २. नीची भूमि। ३. वीरण की पुत्री और चाक्षुष की माता।
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वीरता  : स्त्री० [सं० वीर+तल्+टाप्] १. वीर होने की अवस्था धर्म या भाव। २. वीर का कोई वीरतापूर्ण या साहसिक कार्य।
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वीरधन्वा (वन्)  : पुं० [सं०] कामदेव।
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वीरंधर  : पुं० [सं० वीर√धृ (रखना)+खच्, मुम्] १. जंगली पशुओं को मारने या उनसे बचने के लिए की जानेवाली लड़ाई। २. मोर।
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वीरपट्ट  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का सैनिक पहनावा।
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वीरपत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वह जो किसी वीर की पत्नी हो। २. वैदिक काल की एक नदी।
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वीरपुष्पी  : स्त्री० [सं०] १. महाबला। सहदेई। २. सिंदूरपुष्पी। लटकन।
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वीरबाहु  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. रावण का एक पुत्र। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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वीरभद्र  : पुं० [सं०] १. श्रेष्ठ वीर। २. शिव की जटा से उत्पन्न एक वीर जिसने दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दिया था। ३. अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा। ४. खस।
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वीरवती  : स्त्री [सं० वीर+मतुप्, म-व+ङीष्] १. ऐसी स्त्री जिसका पति और पुत्र दोनों जीवित या सुखी हों। २. मांसरोहिणी लता।
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वीरशाक  : पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] बथुआ (साग)।
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वीरसू  : वि० [सं०] वीरप्रसू (दे०)।
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वीरस्थ  : वि० [सं०] बलि चढ़ाया जानेवाला (पशु)।
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वीरस्थान  : पुं० [सं० ष० त०] १. स्वर्ग जहाँ वीर लोग मरने पर जाते हैं। २. तांत्रिक साधकों का वीरासन।
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वीरहा  : पुं० [सं० वीरहन्] १. ऐसा अग्निहोत्री ब्राह्मण जिसकी अग्निहोत्रीवाली अग्नि आलस्य आदि के कारण बुझ गई हो। २. विष्णु। वि० वीरों को मारनेवाला।
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वीरहोत्र  : पुं० [सं०] विध्य पर्वत पर स्थित एक प्राचीन प्रदेश।
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वीरा  : स्त्री० [सं० वीर+टाप्] १. ऐसी स्त्री जिसके पति और पुत्र हों। २. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नदी। ३. मदिरा। शराब। ४. ब्राह्मी बूटी। ५. मुरामांसी। ६. क्षीर काकोली। ७. भुइँ आँवला। ८. केला। ९. एलुआ। १॰. बिदारी कन्द। ११. काकोली। १२. घीकुआँर १३. शतावर।
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वीराचार  : पुं० [सं०] वाममार्गियों का एक विशिष्ट प्रकार का आचार या साधना-पद्धति जिसमें मद्य को शक्ति और मांस को शिव मानकर शव-साधन किया जाता है।
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वीराचारी (रिन्)  : पुं० [सं० वीराचारिन] [स्त्री० वीराचारिणी] वीराचार के अनुसार साधना करनेवाला वाम-मार्गी।
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वीरांतक  : वि० [सं० ष० त०] वीरों को नष्ट करनेवाला। वीरों का नाशक। पुं० अर्जुन (वृक्ष)।
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वीरान  : वि० [सं० विरिण (ऊसर)+से फा०] १. (प्रदेश) जिसमें बस्ती न हों। निर्जन। २. लाक्षणिक अर्थ में शोभा-विहीन।
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वीराना  : पुं० [फा० वीरानः] निर्जन प्रदेश।
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वीरानी  : स्त्री० [फा०] वीरान होने की अवस्था या भाव।
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वीराशंसन  : पुं० [सं० वीर+आ√शंस् (कहना)+फिच्+ल्युट-व] ऐसी युद्ध भूमि जो बहुत ही भीषण और भयानक जान पड़ती हो।
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वीरासन  : पुं० [सं० वीर+आसन्] १. योग साधन में एक विशिष्ट प्रकार का आसन या मुद्रा। २. मध्ययुगीन भारत में राजदरबारों में बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन या मुद्रा जिसमें दाहिना घुटना मोड़कर पैर चूतड़ के नीचे रखा जाता था और बायाँ मुड़ा हुआ घुटना सामने खड़े बल में रहता था।
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वीरिणी  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी स्त्री जिसका पति और पुत्र दोनों जीवित तथा सुखी हों। २. वीरण प्रजापति की कन्या जो दक्ष को ब्याही थी। ३. एक प्राचीन नदी।
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वीरुध  : पुं० [सं० वि√रुध्+क्विन्] १. वृक्ष और वनस्पति आदि। २. ओषधि के काम में आनेवाली वनस्पति।
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वीरुधा  : स्त्री० [सं० वीरुध्+टाप्] दवा के रूप में काम आनेवाली वनस्पति। ओषधि।
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वीरेंद्र  : पुं० [सं० वीर+इन्द्र, ष० त०] वीरों में प्रधान या बहुत बड़ा वीर।
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वीरेश  : पुं० [सं० वीर+ईश, ष० त०] १. शिव महादेव। २. वीरेन्द्र।
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वीरेश्वर  : पुं० [सं० वीर+ईश्वर, ष० त०] शिव। महादेव।
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वीर्य  : पुं० [सं०√वीर्+यत्] १. शरीर की सात धातुओं में से एक जिसका निर्माण सबके अन्त में होता है, और जिसके कारण शरीर में बल और कांति आती है। वह स्त्री प्रसंग के समय अथवा रोग आदि के कारण यों ही मूतेंद्रिय से निकलता है। इसे चरम धातु और शुक्र भी कहते हैं। २. पराक्रम। वीरता। ३. ताकत शक्ति। जैसे—बाहुवीर्य=बाहों या हाथों की शक्ति, वाचि वीर्य=बोलने की शक्ति। ४. वैद्यक के अनुसार किसी पदार्थ का वह सार भाग जिसके कारण उस पदार्थ में शक्ति रहती है। किसी धातु का मूल तत्त्व। ५. अन्न, फल आदि का बीज जो बोया जाता है।
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वीर्यकृत  : वि० [सं०] १. जो बल या वीर्य उत्पन्न करता हो। बलकारक। २. बलवान्। शक्तिशाली।
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वीर्यज  : वि० [सं०] वीर्य से उत्पन्न। पुं० पुत्र।
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वीर्यधन  : पुं० [सं०] प्लक्ष द्वीप में रहनेवाले क्षत्रियों का एक वर्ग।
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वीर्यवत्  : वि० [सं० वीर्य+मतुप्, म—व] वीर्यवान्।
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वीर्यशुल्क  : पुं० [सं०] ऐसा काम या बात जिसे पूरा करने पर ही किसी से या किसी का विवाह होना सम्भव हो। विवाह करने के लिए होनेवाली शर्त।
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वीर्या  : स्त्री० [सं० वीर्य+टाप्] १. शक्ति। २. पुंस्त्व।
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वीर्यातराय  : पुं० [सं० ब० स०] पाप-कर्म जिसका उदय होने से जीवन हृष्ट-पुष्ट होते हुए भी शक्ति-विहीन हो जाता है (जैन)।
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वीर्याधान  : पुं० [सं० ष० त०] वीर्य धारण करना या कराना। गर्भाधान।
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वीर्यान्वित  : वि० [सं० तृ० त०] शक्तिशाली।
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वीसा  : पुं० [अं०] दे० ‘वीजा’।
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वुजूद  : पुं० [अं०]=वजूद।
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वुसूल  : वि० पुं०=वसूल।
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वुसूली  : वि० स्त्री०=वसूली।
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वृक  : पुं० [सं०] [स्त्री० वृकी] १. भेड़ियां। २. गीदड़। ३. कौआ। ४. चोर। ५. वज्र। ६. क्षत्रिय। ७. अगस्त वृक्ष।
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वृकदेवा  : स्त्री० [सं० वृकदेव+टाप्] कृष्ण की माता देवकी।
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वृकधूप  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. एक तरह का सुगंधित धूप। २. तारपीन।
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वृकायु  : पुं० [सं० ब० स०] १. जंगली कुत्ता। २. चोर।
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वृकोदर  : पुं० [सं० ब० स०] १. भीमसेन का एक नाम। २. ब्रह्मा।
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वृक्क  : पुं० [सं० वृक्क] पशु पक्षियों और स्तनपायी जीवों के पेट के अन्दर का एक अंग जो दो बड़ी ग्रन्थियों या गुल्मों के रूप में होता है। और जिसके अन्दर द्वारा मूत्र शरीर के बाहर निकलता है। गुरदा (किड्नी)।
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वृक्क शोध  : पुं० [सं०] एक घातक रोग जिसमें वृक्क या गुरदे सूज जाते हैं। (नेफ़ाइटिस)।
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वृक्का  : स्त्री० [सं० वृक्त+टाप्] हृदय।
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वृक्ष  : पुं० [सं०√व्रश्च् (छेदने)स, कित्] १. मोटे तथा कठोर तनेवाली वनस्पतियों का एक वर्ग। पेड़। दरख्त। २. दे० ‘वंश वृक्ष’।
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वृक्ष-कुक्कुट  : पुं० [सं०] जंगली कुत्ता।
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वृक्ष-दोहद  : पुं० [सं०] १. कुछ वृक्षों का कृत्रिम उपायों या विशिष्ट प्रक्रियाओं से असमय से ही खिलने लगना या खिलाया जाना। २. भारतीय साहित्य में कवि प्रसिद्धि (देखें) के अन्तर्गत एक प्रकार की मान्यता और उसका वर्णन। जैसे—सुंदरी युवतियों के पैर की ठोकर से अशोक में फूल लगना और खिलना, उनके नाचने से कचनार में फूल आना, उनके गाने से आम में मंजरियाँ लगना, उनके आलिंगन से कुरवक का खिलना, उनके मुस्कराने से चम्पा का और देखने मात्र से चिलक का खिलना आदि। (दे० कवि-प्रसिद्धि और कवि-समय)।
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वृक्ष-धूप  : पुं० [सं०] चीड़ (पेड़)।
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वृक्ष-निर्यास  : पुं० [सं० ष० त०] वृक्ष के तने शाखा आदि में से निकलने वाला तरल द्रव्य। निर्यास।
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वृक्ष-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं०] वृक्ष लगाना। वृक्षारोपण।
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वृक्ष-भक्षा  : स्त्री० [सं० वृक्ष√भक्ष्+अच्+टाप्] बाँदा नामक वनस्पति।
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वृक्ष-मूलिका  : वि० [सं०] वृक्ष के मूल में होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला।
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वृक्ष-रोपक  : वि० [सं०] वृक्ष-रोपण करनेवाला।
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वृक्ष-रोपण  : पुं० [सं०] सामूहिक रूप से वृक्ष लगाने की क्रिया या भाव। पौधों आदि को इस, उद्देश्य से कहीं प्रतिष्ठित करना कि वे आगे चलकर बड़े पेड़ों का रूप धारण करें।
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वृक्ष-वासी  : वि० [सं० वृक्षवासिन्] [स्त्री० वृक्षवासिनी] जो वृक्षों पर रहता हो अथवा प्राकृतिक रूप से वृक्षों पर रहने के लिए उपयुक्त हो। (आरबोरियल)।
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वृक्ष-संकट  : पुं० [सं० ब० स०] वह पतला रास्ता जो घने पड़ों के बीच से दूर तक चला गया हो।
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वृक्ष-स्नेह  : पुं० [सं० ष० त०] वृक्ष निर्यास (दे०)।
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वृक्षक  : पुं० [सं० वृक्ष+कन्] १. वृक्ष। पेड़। २. छोटा पेड़।
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वृक्षधर  : पुं० [सं० वृक्ष√चर्+ट] बंदर।
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वृक्षनाथ  : पुं० [सं० स० त०] वृक्षों में श्रेष्ठ बड़। बरगद।
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वृक्षम्ल  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स०] १. इमली। २. चुक नाम की खटाई। ३. अमड़ा। ४. अमर बेल।
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वृक्षराज  : स्त्री० [सं० ष० त०] परजाता। पारिजात।
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वृक्षरुहा  : स्त्री० [सं० वृक्ष√रूह्+क+टाप्] १. परगाछा नाम का पौधा। २. रुद्रवती। ३. अमरबेल। ४. जंतुका लता। ५. बिदारी कंद। ६. कंथी नामक पौधा।
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वृक्षादन  : पुं० [सं० वृक्ष√अद् (खाना)+ल्युट-अन] १. कुल्हाडी। २. अश्वत्थ। पीपल। ३. पयाल या चिरौजी का पेड़। ४. मधुमक्खियों का छत्ता।
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वृक्षायुर्वेद  : पुं० [सं० ष० त०] वह शास्त्र जिसमें वृक्षों के रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन होता है।
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वृक्षालय  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जिसने किसी वृक्ष पर अपना घर (घोंसला) बनाया हो। २. पक्षी। चिड़िया।
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वृक्षावास  : पुं० [सं० ब० स०] तपस्वी, साँप या कोई अन्य प्राणी जो वृक्ष की कोटर में रहता हो।
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वृक्षोत्थ  : वि० [सं० वृक्ष+उद्√स्था (ठहरना)+क] वृक्ष पर उत्पन्न होनेवाला।
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वृक्षोत्पल  : पुं० [सं० ष० त०] कनियारी या कनकम्पा नामक पेड़।
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वृक्षौका (कस्)  : पुं० [सं० ब० स०] वनमानुष।
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वृक्ष्य  : पुं० [सं० वृक्ष+यत्] पेड़ का फल। वि० वृक्ष-संबंधी। पुं० फल, फूल पत्ती आदि जो वृक्ष में लगते हैं।
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वृज  : पुं० [सं०√वृज् (त्याग करना)+अच्] व्रज।
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वृजन  : पुं० [सं०√वृज् (त्याग करना)+ल्युट-अन] १. केश विशेषतः कुंचित केश। २. बल। शक्ति। ३. युद्ध। लड़ाई। ४.े निपटारा। निराकरण। ५. दुष्कर्म। पाप। ६. दुश्मन। शत्रु। ७. शरीर के बाल। वि० १. टेढ़ा। वक्र। २. कुटिल। ३. नश्वर।
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वृजन्य  : वि० [सं० कर्म० स०] बहुत ही सीधा-साधा। परम साधु (व्यक्ति)।
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वृजि  : स्त्री० [सं०√वृज् (त्याग करना)+इनि] १. व्रज भूमि। २. बिहार का तिरहुत या मिथिला प्रदेश जहाँ पहले विदेह लिच्छवी आदि रहते थे।
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वृजिन  : पुं० [सं०√वृज् (त्याग करना)+इनच्, कित्] १. पाप। गुनाह। २. कष्ट। दुःख। ३. शरीर पर की खाल। त्वचा। ४. रक्त। लहू। ५. शरीर। ६. शरीर पर के बाल। वि० १. टेढ़ा। वक्र। २. पापी।
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वृज्य  : वि० [सं०√वृज (त्याग करना)+यत्] जो घुमाया या मोड़ा जा सके।
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वृंत  : पुं० [सं०√वृ (आच्छादन)+क्त, नि, मुम्] १. स्तन का अगला भाग। २. डंठल। ३. घड़ा रखने की तिपाई। ४. कच्चा और छोटा फल। ५. वह पतला डंठल जिस पर पत्ती या फूल लगा रहता है। पर्णवृत्त (पेटिओल)।
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वृत्त  : वि० [सं०√वृ (वरण करना)+क्त] १. जो किसी काम के लिए नियुक्त किया गया हो। मुकर्रर किया हुआ। २. ढका हुआ। ३. प्रार्थित। ४. स्वीकृत। ५. गोलाकार। पुं०=व्रत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वृत्त  : वि० [सं०√वृत्त (व्यवहार करना)+क्त] १. जो अस्तित्व में आ चुका हो। २. जो घटित हो चुका हो। ३. मृत। ४. गोल। पुं० १. धर्म या वेद-शास्त्र के अनुकूल आचरण या व्यवहार। २. वृत्तान्त। हाल। ३. चरित्र। ४. वर्णिक छंद। (दे०) ५. वह क्षेत्र जो चारों ओर से किसी ऐसी रेखा से घिरा हो जिसका प्रत्येक बिंदु उस क्षेत्र के मध्य बिंदु से समान अन्तर पर हो। गोल। मंडल। ६. ज्यामिति में उक्त प्रकार की रेखा जो किसी क्षेत्र को घेरती हो। (सर्किल अन्तिम दोनों अर्थों में) ७. स्तन का अग्र भाग। ८. गुंडा नाम की घास। ९. सफेद ज्वार। १॰. अंजीर। सतिवन। ११. कछुआ। १२. वृत्ति। १३. वृत्तासुर।
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वृत्त-खंड  : पुं० [सं० ष० त०] ज्यामिति में किसी वृत्त का वह अंश या खंड जो चाप तथा दो अर्द्ध व्यासों से घिरा हो। (सेक्टर)
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वृत्त-गंधि  : स्त्री० [सं०] साहित्य में ऐसा गद्य जिसमें अनुप्रासों की अधिकता होती है तथा जो पद्य का सा आनन्द देता है।
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वृत्त-चित्र  : पुं० [सं०] आजकल सिनेमा का वह चित्र जिसमें किसी विशिष्ट कार्य या घटना के मुख्य-मुख्य अंग-उपांग अथवा ब्योरे की और बातें लोगों की जानकारी या ज्ञानवृद्धि के लिए दिखाई जाती है। (डाक्यूमेंन्टरी फिल्म) जैसे—दुर्गापुर के लोहे के कारखाने या राष्ट्रपति की जापान यात्रा का वृत्त-चित्र।
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वृत्त-चेष्टा  : स्त्री० [सं०] १. स्वभाव। प्रकृति। मिजाज। २. चाल-ढाल।
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वृत्त-पत्र  : पुं० [सं०] १. वह पंजी जिसमें दैनिक कार्यो, घटनाओं आदि का संक्षिप्त उल्लेख हो। २. किसी संस्था या सभा के निश्चर्यों कार्यों आदि के विवरण अथवा तत्संबंधी लेख आदि प्रकाशित करनेवाला सामयिक पत्र। (जर्नल)। २. पुत्रदानी नाम की लता।
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वृत्त-फल  : पुं० [सं०] १. कोई गोलाकार फल। २. काली या गोल मिर्च। ३. अनार। ४. बेर। ५. कपित्थ। कैथ। ६. लाल चिचड़ा। ७. करंज। ८. तरबूज। ९. खरबूजा।
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वृत्तक  : पुं० [सं० वृत्त+कन्] १. ऐसा गद्य जिसमें कोमल तथा मधुर अक्षरों और छोटे-छोटे समासों का व्यवहार किया गया हो। २. छंद।
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वृत्तपर्णी  : स्त्री० [सं० वृत्तपर्ण+ङीष्] १. पाठा। पाढ़ा। २. बड़ी शंखपुष्पी।
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वृत्तपुष्प  : पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. कदंब। ३. भू-कदंब। ४. जल-बेंत। ५. सेवती। ६. मोतिया। ७. चमेली।
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वृत्तपुष्पा  : स्त्री० [सं० वृत्तपुष्प+टाप्] १. नागदमनी। २. सेवती।
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वृत्तफला  : स्त्री० [सं० वृत्तफल+टाप्] १. बैंगन। भंटा। २. आँवला।
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वृत्तबंध  : पुं० [सं०] छंदोबद्ध रचना।
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वृत्तवान् (वत्)  : वि० [सं० वृत्त+मतुप्, म-व] जिसका आचरण उत्तम हो। सदाचारी।
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वृत्तशाली (लिन्)  : वि० [सं०]=वृत्तवान्।
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वृत्ता  : स्त्री० [सं० वृत्त+टाप्] १. झिंझरीट नाम का क्षुप। २. रेणुका नामक वनस्पति। ३. प्रियंगु। ४. मांस-रोहिणी। ५. सफेद सेम। ६. नाग दमनी।
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वृंत्ताक  : पुं० [सं०√वृन्त+अक् (प्राप्त होना)+अण्] १. बैंगन। २. पोई का साग।
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वृंत्ताकी  : स्त्री० [सं० वृन्ताक+ङीष्] बैगन। भंटा।
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वृत्तांत  : पुं० [सं०] १. किसी घटना, वस्तु, विषय स्थिति आदि की जानकारी करने के उद्देश्य से उससे संबद्ध कही या बतलाई जानेवाली बातें या किया जानेवाला वर्णन। २. समाचार। हाल।
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वृत्तानुवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं०+वृत्त+अनु√वृत्त (व्यवहार करना)+णिनि] वृत्तवान्। (दे०)
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वृत्तानुसारी (रिन्)  : वि० [सं० वृत्त+अनु√सृ (गमन आदि)+णिनि] शुभ आचरण करनेवाला।
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वृत्तार्ध  : पुं० [सं० ष० त०] वृत्त का आधा भाग जो व्यास तथा चाप से घिरा होता है।
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वृत्ति  : स्त्री० [सं०√वृ (वरण करना)+क्तिन्] १. वह जिसने कोई चीज घेरी या ढकी जाय। २. नियुक्ति। ३. छिपाना। गोपन।
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वृत्ति  : स्त्री० [सं०√वृत्त+क्तिन्] १. चक्कर खाना। घूमना। २. किसी वृत्त या गोल की परिधि। वृत्त। ३. वर्तमान होने की अवस्था, दशा या भाव। ४. चित्त, मन आदि का कोई व्यापार। जैसे—चित्तवृत्ति। ५. उक्त के आधार पर योग में चित्त की विशिष्ट अवस्थाएँ जो पाँच प्रकार की मानी गई है। यथा-क्षिप्त, मूढ विक्षिप्त, एकाग्र और विरुद्ध। ६. कोई ऐसी क्रिया गति जिसके फलस्वरूप कुछ होता हो। कार्य। व्यापार। ६. कोई काम करने का ढंग या प्रकार। ७. आचरण और व्यवहार तथा इनसे संबंध रखनेवाला शास्त्र। आचार-शास्त्र। ८. वह कार्य या व्यापार जिसके द्वारा किसी की जीविका चलती हो। जीवन निर्वाह का साधन। धंधा। पेशा। जैसे—आकाश, वृत्ति, यजमानी वृत्ति, वेश्यावृत्ति, सेवावृत्ति आदि। ९. जीविका निर्वाह भरण पोषण आदि के लिए नियमित रूप से मिलनेवाला धन। जैसे— छात्रवृत्ति। १॰. किसी ग्रन्थ विशेषतः सूत्रग्रन्थ का अर्थ और आशय स्पष्ट करनेवाली संक्षिप्त परन्तु गंभीर टीका या व्याख्या। जैसे—अष्टाध्यायी की कोशिका वृत्ति। ११. शब्दों की अभिधा, लक्षणा और व्यंजना नाम की अर्थ-बोधक शक्तियाँ। शब्द-शक्ति। १२. व्याकरण में ऐसी गूढ़ वाक्य-रचना जिसकी व्याख्या करनी पड़ती हो। १३. नाटको में आशय और भाव प्रकट करने की एक विशिष्ट शैली जिसे कुछ आचार्य काव्य की रीतियों के अन्तर्गत और कुछ शब्दालंकार के अन्तर्गत मानते हैं। विशेष—प्राचीन आचार्य कायिक और मानसिक चेष्टाओं को ही वृत्ति मानते थे, परन्तु परवर्ती आचार्यों ने इसे विकसित और विस्तृत करके इन्हें काव्यगत रीतियों के समकक्ष कर दिया था, और इनके ये चार भेद कर दिये थे-कौशिकी, आरभटी, भारती और सात्वती तथा अलग-अलग रसों के लिए इनका अलग-अलग विधान कर दिया गया था। नाटको में भिन्न-भिन्न रसों के साथ अलग-अलग वृत्तियों का संबंध होने के कारण प्रत्येक रस के लिए अनुकूल और उपर्युक्त वर्ण रचना को भी ‘वृत्ति’ कहने लगे थे, जिससे वृत्यनुप्रास पद बना है। परवर्ती आचार्यों ने इन वृत्तियों का नाटकों के सिवा काव्य में भी आरोप किया था, और इनके उपनागरिका, कोमला, परुषा आदि भेद निरूपित किये थे। नाट्यशास्त्र की प्रवृत्ति, और वृत्ति के लिए दे० प्रवृत्त ६ का विशेष। १५. वृत्तान्त। हाल। १६. प्रकृति। स्वभाव। १७. प्राचीन काल का एक प्रकार का संहारक अस्त्र।
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वृत्ति-कर  : पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो कोई पेशा या वृत्ति करनेवाले लोगों पर लगता है। पेशे पर लगनेवाला कर (प्रोफेशन टैक्स)।
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वृत्ति-विरोध  : पुं० [सं० स० त] भारतीय साहित्य में रतना का एक दष जो उस समय माना जाता है जब वृत्तियों (विशेष दे० वृत्ति ५ और ६) के नियमों का ठीक तरह से पालन नहीं होता। जैसे—श्रृंगार रस के वर्णन में परुष वर्णों का प्रयोग करना वृत्ति-विरोध है।
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वृत्तिकार  : पुं० [सं० वृत्ति√कृ+घञ्] वह जिसने वार्तिक लिखा हो। व्याख्या ग्रन्थ लिखनेवाला।
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वृत्तीय  : वि० [सं०] १. वृत्ति संबंधी। वृत्ति का। २. जो वृत्त के रूप में हो। गोलाकार।
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वृत्य  : वि० [सं०√वृत्+क्यप्] १. जो घेरा जाने को हो। २. जिसकी वृत्ति लगने को हो।
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वृत्यनुप्रास  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का शब्दालंकार जो उस समय माना है जब किसी चरण या पद में वृत्ति के अनुकूल वर्णों की आवृत्ति होती है। यह अनुप्रास का एक भेद है। विशेष—वृत्तियाँ तीन है-उपनागिरा या वैदर्भी गौड़ी और कोमला या पांचाली। इस प्रकार वृत्यनुप्रास के भी तीन भेद किये गये है-उपनागिरा, वृत्यनुप्रास, परुषानुप्रास और कोमला वृत्यनुप्रास।
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वृत्र  : पुं० [सं०√वृत्त+रक्त्] १. अन्धकार। अँधेरा। २. बादल। मेघ। दुश्मन। शत्रु। ३. एक असुर जो त्वष्टा का पुत्र था तथा जिसका वध इन्द्र ने किया था।
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वृत्रघ्न  : पुं० [सं० वृत्र√हन् (मारना)+क] १. वृत्र नामक असुर को मारनेवाले इन्द्र। २. वैदिक काल का गंगा तटपर का एक देश।
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वृत्रघ्नी  : स्त्री० [सं० वृत्रघ्न+ङीष्] एक नदी (पुराण)। पुं०=वृत्रघ्न।
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वृत्रत्व  : पुं० [सं० वृत्र+त्व] १. वृत्र का धर्म या भाव। २. दुश्मनी। शत्रुता।
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वृत्रनाशन  : पुं० [सं० द्वि० त०] वृत्र नाशक असुर को मारनेवाले इन्द्र।
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वृत्रशंकु  : पुं० [सं०] एक प्रकार का खंभा। (वैदिक)
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वृत्रहा  : पुं० [सं० वृत्र√हन्+क्विप्] वृत्रासुर को मारनेवाले इन्द्र।
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वृत्रारि  : पुं० [सं० ष० त०] इंद्र।
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वृत्रासुर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] वृत्र नामक असुर। दे० ‘वृत्र’।
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वृथा  : वि० [सं०√वृ (वरण करना)+थाल्] जिसका कोई उपयोग या प्रायोजन न हो। व्यर्थ। फजूस। अव्य० १. बिना किसी आवश्यकता या प्रायोजन के। २. मूर्खता या भूल से।
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वृथा-मांस  : पुं० [सं०] ऐसा मांस जिसका व्यवहार या सेवन न किया जा सकता हो। निषिद्ध मांस।
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वृथात्व  : पुं० [सं० वृथा+त्वल्] वृथा होने की अवस्था या भाव।
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वृंद  : वि० [सं०√वृ (आच्छादन)+दन्,नुम्, गुणाभाव] बहुसंख्यक। पुं० १. समूह। २. सौ करोड़ की संख्या। ३. फलित ज्योतिष में एक प्रकार का मुहुर्त। ४. ढेर। राशि। ५. गुच्छा। ६. गले में होनेवाला अर्बुद।
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वृंदवाद्य  : पुं० [सं०] दे० ‘वाद्यर्वृद’।
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वृंदसंगीत  : पुं० [सं०] समवेतगान। सहगान। गाना।
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वृंदा  : स्त्री० [सं० वृंद+टाप्] राधिका का एक नाम।
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वृंदाक  : पुं० [सं० वृन्दा+कन्] परगाछ या बाँदा नामक वनस्पति।
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वृंदार  : पुं० [सं० वृन्द√ऋ (गमन)+अण्] देवता।
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वृंदारक  : पुं० [सं० वृन्द+आरकन्] देवता या श्रेष्ठ व्यक्ति।
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वृंदारण्य  : पुं० [सं० ष० त०] वृन्दावन।
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वृंदावन  : पुं० [सं० ष० त०] १. मथुरा के समीप स्थित एक वन। २. उक्त वन में बसी हुई एक आधुनिक बस्ती जो प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। ३. वह चबूतरा जिसमें तुलसी के पौधे हों।
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वृंदावनेश्वर  : पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।
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वृंदावनेश्वरी  : सं० [वृंदावनेश्वर+ङीष्] राधिका।
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वृंदी  : वि० [सं० वृन्द+इनि] जो समूहों में बँटा हो।
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वृद्ध  : वि० [सं०] [स्त्री० वृद्धा, भाव० वृद्धि] १. बढ़ा हुआ। २. अच्छी या पूरी तरह से बढ़ा हुआ। ३. गुण, विद्या आदि के विचार से औरों की अपेक्षा बहुत अधिक चतुर, विद्वान या बहुत श्रेष्ठ। जैसे—तर्क व्याकरण आदि शास्त्रों के अध्ययन से वृद्ध होना। ४. जो अपनी युवा विशेषतः प्रौढ़ावस्था पार कर चुका हो। बुड्ढा। ५. पुराना। ६. जो खूब सोमपान करता हो। जिसकी उमर सोमपान करने में ही बीती हो। पुं० [√वृधु+क्त] [भाव० वृद्धता, वृद्धत्व] १. वह जो अपनी औषध आयु से अधिक पार कर चुका हो। बुड्ढा। मनुष्यों में साधारणतः ६॰ वर्ष या उससे अधिक अवस्थावाला व्यक्ति। ३. पंडित। विद्वान। ४. वह जो योग्यता आदि के विचार से औरों की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा सम्मानित हो। (एल्डर)। ५. वृद्धावस्था। बुढ़ापा। ६. शैलज नामक गन्ध द्रव्य।
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वृद्ध-काक  : पुं० [सं० कर्म० स०] द्रोण काक। पहाड़ी कौवा।
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वृद्ध-केशव  : पुं० [सं०] सूर्य की प्रतिभा (पुराण)।
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वृद्ध-गंगा  : स्त्री० [सं०] हिमालय की एक छोटी नदी।
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वृद्ध-धूप  : पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. सरल का पेड़।
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वृद्ध-नाभि  : पुं० [सं०] जिसकी तोंद निकली या बढ़ी हुई हो।
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वृद्ध-पराशर  : पुं० [सं०] प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार।
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वृद्ध-प्रपितामह  : पुं० [सं०] [स्त्री० वृद्ध, प्रतितामही] दादा का दादा। परदादा का पिता।
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वृद्ध-युवती  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. कुटनी। २. धाय। दाई।
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वृद्धता  : स्त्री० [सं० वृद्ध+तल्+टाप्] वृद्ध होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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वृद्धत्व  : पुं० [सं० वृद्ध+त्वल्]=वृद्धता।
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वृद्धश्रवा (वस्)  : पुं० [सं० वृद्ध (बृहस्पति)√धृ (सुनना)+असुन, ब० स०] इंद्र।
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वृद्धश्रावक  : पुं० [सं० ष० त०] कापालिक।
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वृद्धा  : स्त्री० [सं० वृद्ध+टाप्] वह स्त्री जो अवस्था में वृद्ध हो गई हो। बुड्ढी। वि० बुढ़िया।
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वृद्धांगुलि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] अँगूठा।
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वृद्धाचल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] दक्षिण भारत का एक तीर्थ।
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वृद्धांत  : वि० [सं० ष० त० कर्म० स०] सम्मान या प्रतिष्ठा के योग्य।
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वृद्धावस्था  : स्त्री० [सं०] वृद्ध होने की अवस्था,धर्म या भाव। बुढ़ापा।
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वृद्धि  : स्त्री० [सं०√वृध् (बढ़ना)+क्तिन्] १. वृद्ध होने की अवस्था या भाव। २. गुण, मान मात्रा, संख्या आदि में अधिकता होना जो उन्नति, प्रकति विकास आदि का सूचक होता है। जैसे—वेतन, संतान आदि की वृद्धि। ३. उक्त के आधार पर होनेवाली अधिकता जो उन्नति, प्रगति, विकास आदि की सूचक होती है। ४. विशेषतः वृत्ति वेतन, आदि में होनेवाली अधिकता (इन्क्रीमेंट) ५. अभ्युदय। समृद्धि। ६. ब्याज। सूद। ७. राजनीति में कृषि, वाणिज्य दुर्ग, सेतु, कुंजरबंधन, कन्याकर, वलादान और सैन्यसन्निवेश इन आठों वर्गों का उपचय। वर्द्धन। स्फाति। ८. वह अशौच जो घर मे संतान उत्पन्न होने पर सगे-संबंधियों को होता है। ९. एक प्रकार की लता जो अष्ट वर्गों के अन्तर्गत मानी गई है। १॰. फलित ज्योतिष में विषकंभ आदि २७ योगों के अन्तर्गत ग्यारहवाँ योग।
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वृद्धि-कर्म  : पुं० [सं० ष० त०]=वृद्धि श्राद्ध।
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वृद्धि-जीवक  : पुं० [सं० तृ० त०] वह जो वृद्धि या ब्याज से अपना निर्वाह करता हो। सूद से अपना निर्वाह करनेवाला। महाजन।
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वृद्धि-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] चिकित्सा के काम आनेवाला एक तरह का शल्य। (सुश्रुत)
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वृद्धि-सानु  : पुं० [सं०] १. पुरुष। आदमी। २. कर्म। कार्य। ३. पत्ता।
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वृद्धिक  : पुं० [सं०] लिखाई में एक प्रकार का चिन्ह जो इस बात का सूचक होता है कि लिखाई या छपाई में यहाँ कोई पद या शब्द भूल से बढ़ा दिया गया है। यह इस प्रकार लिखा जाता है— ^
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वृद्धिका  : स्त्री० [सं० वृद्धि+कन्+टाप्] १. ऋद्धि नाम की ओषधि। २. सफेद अपराजिता। ३. अर्कपुष्पी।
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वृद्धिद  : वि० [सं० वृद्धि√दा+क] वृद्धि देनेवाला। पुं० १. जीवक नामक क्षुप। २. शूकरकन्द।
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वृद्धियोग  : पुं० [सं० मध्यम० स०] फलित ज्योतिष के २७ योगों में से एक योग।
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वृद्धिश्राद्ध  : पुं० [सं० च० त०] नांदीमुख नामक श्राद्ध जो मांगलिक अवसरों पर होता है।
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वृध्य  : वि० [सं०√वृध् (भढ़ना)+क्यप्] १. वृद्धों में होनेवाला। वृद्ध-संबंधी। २. जिसकी वृद्धि हो सकती हो।
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वृन्न  : पुं०=वर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वृश  : पुं० [सं०√वृ (वरण करना)+शक्] १. अड़ूसा। २. चूहा। ३. अदरक। पुं०=वृष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वृश्चन  : पुं० [सं०√व्रश्च (काटना)+ल्युट-अन, व्र-वृ] वृश्चिक। बिच्छू।
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वृश्चिक  : पुं० [सं०√व्रश्च (काटना)+किकन्, व्र-वृ] १. मकड़ी की तरह का पर उससे बड़ा एक तरह का जंतु जिसका डंक बहुत अधिक जहरीला होता है। २. ज्योतिष में बारह राशियों में से आठवी राशि जिसके तारे बिच्छू का सा आकार बनाते हैं (स्कार्पिओ) ३. अगहन मास जिसमें प्रायः सूर्योदय के समय वृश्चिक राशि का उदय होता है। ४. वृश्चिककाली या बिच्छू नाम की लता। ५. गोबर में उत्पन्न होनेवाला क्रीड़ा। शूक कीट। ६. मदन वृक्ष। मैनफल। ७. गदह-पूरना। पुनर्नवा।
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वृश्चिकर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] मूसाकानी।
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वृश्चिका  : स्त्री० [सं०] १. बिछुआ या बिच्छू नाम की घास। २. सफेद गदहपूरना। ३. पिठवन।
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वृश्चिकाली  : स्त्री० [सं० ब० स०] बिच्छू नाम की लता। जिसकी जड़ का प्रयोग ओषधि के रूप में होता है।
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वृश्चिकेश  : पुं० [सं० ष० त०] वृश्चिक राशि के अधिष्ठाता देवता, बुध (ग्रह)।
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वृश्चिपत्री  : स्त्री० [सं० वृश्चिपत्र+ङीष्, ष० त०] १. वृश्चिकाली। २. मेढ़ासिंगी।
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वृष  : पुं० [सं०√वृष (सींचना)+क] १. साँड़। २. कामशास्त्र के अनुसार चार प्रकार के पुरुषों में से एक जो शंखिनी जाति की स्त्री के लिए उपयुक्त कहा गया है। ३. स्त्री का पति। स्वामी। ४. धर्म जिसके चार पैर माने जाते हैं और जो इसी कारण साँड़ के रूप में माना जाता है। ५. पुराणानुसार ग्यारहवें मन्वन्तर के इंद्र का नाम। ६. श्रीकृष्ण का एक नाम। ७. दुश्मन। शत्रु। ८. गेहूँ। ९. चूहा। १॰. अडूसा। ११. ऋषभक नामक ओषधि। १२. धमासा।
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वृष केतन  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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वृष-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का चक्र जिसमें एक बैल बनाकर उसके भिन्न-भिन्न अंगों में नक्षत्रों आदि के नाम लिखते हैं और तब उसके द्वारा खेती संबंधी शुभाशु फल आदि निकालते हैं।
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वृष-नाशन  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार श्रीकृष्ण का एक नाम २. वाय-विडंग।
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वृषक  : पुं० [सं०] १. साँड़। २. एक प्रकार का साँप। ३. चूहा। ४. गेहूँ। ५. भिलावाँ। ६. अडूसा। ७. ऋषबक नामक ओषधि।
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वृषकर्णी  : स्त्री० [सं०] १. सुदर्शन नाम की लता। २. एक प्रकार का विधारा।
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वृषका  : स्त्री० [सं० वृषक+टाप्] एक नदी (पुराण)।
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वृषकेतु  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव या महादेव जिनकी ध्वजा पर बैल का चिन्ह माना जाता है। २. लाल गदहपुरना।
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वृषक्रतु  : पुं० [सं० मध्यम० स० ब० स० वा] वर्षा करनेवाले इंद्र।
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वृषगण  : पुं० [सं० ष० त०] वैदिक ऋषियों का एक गण।
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वृषण  : पुं० [सं०√वृष (उत्पन्न करना)+क्यु—अन] १. इन्द्र। २. कर्ण। ३. विष्णु। ४. पीड़ा के कारण होनेवाली बेहोशी। ५. अंडकोश। ६. साँड़। ७. घोड़ा। ८. पेड़। वृक्ष।
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वृषण-कच्छू  : स्त्री० [सं ष० त०]१. एक रोग जिसमें पसीने, मैल आदि के कारण अंङकोष के आसपास फुन्सियां निकल आती हैं। २. उक्त रोग में निकलने वाली फुन्सियाँ।
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वृषणाश्व  : पुं० [सं० बं० सं० या ष० त०] १. एक प्रसिद्ध वैदिक राजा। २. इन्द्र के घोड़े का नाम।
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वृषदर्भ  : पुं० [सं० बं० सं०] १. श्रीकृष्ण का एक नाम। २. राजशिवि का एक पुत्र।
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वृषदेवा  : स्त्री० [सं० बं० सं०] वायु पुराण के अनुसार वसुदेव की एक स्त्री।
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वृषध्वज  : पुं० [सं० बं० सं०] शिव। महादेव। २. गणेश। ३. पुण्यशील व्यक्ति। पुण्यत्मा ४. पुराणानुसार एक पर्वत।
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वृषध्वजा  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का नाम।
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वृषपति  : पुं० [सं० षं० तं०] १. शिव महादेव। २. नपुंसक
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वृषपर्णी  : स्त्री० [सं०] १. मूसकानि। आखुकर्णी २. दंती। ३. सुदर्शन लता।
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वृषपर्व्वा  : पुं० [सं० ब० स०, वृषपर्व्वन्] १. शिव। महादेव २. विष्णू। ३. एक असुर या दैत्य जिसने दैत्य गुरु शुक्राचार्य की सहायता से बहुत दिनो तक देवताओ के साथ युद्ध ठान रखा था। ४. भँगरा। ५. कसेरु। ६. एक प्रकार का तृण।
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वृषप्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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वृषभ  : पुं० [सं०√वृष+अभच्, कित् ] १. बैल या साँड़। २. कामशास्त्र के अनुसार वह श्रेष्ठ पुरुष जो शंखिनी स्त्री के लिए उपयुक्त हो। ३. सूर्य की एक वीथी। ४. एक प्राचीन तीर्थ। ५. साहित्य में वैदर्भी। ६. रीति का एक भेद। कान का विवर। ७. ऋषभ नामक ओषधि
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वृषभ-केतु  : पुं० [सं० ब० स०] शिव का एक नाम।
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वृषभ-गति  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव। महादेव। २. ऐसी सवारी जिसे बैल खीचतें हों
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वृषभ-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव जिनकी ध्वजा पर वृषभ की मूर्ति बनीं होती है।
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वृषभ-वीथी  : स्त्री० [सं०] सू्र्य की एक वीथी।
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वृषभत्व  : पुं० [सं० वृषभ+त्वल् ] वृषभ होने की अवस्था, धर्म या भाव। वृषभता।
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वृषभधुज  : पुं०=वृषभध्वज (शिव)।
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वृषभा  : स्त्री० [सं० वृषभ+टाप्] पुराणानुसार एक प्राचीन नदी।
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वृषभांक  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव। शिव।
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वृषभाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णू।
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वृषभानु  : पुं० [सं०] राधिका जी के पिता (पुराण)।
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वृषभानु-नंदिनी  : [सं० ष० त०] राधिका जी।
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वृषभानुजा  : स्त्री [सं० वृषाभनु√जन्+ड+टाप् ] राधिका जी।
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वृषभासा  : स्त्री० [सं०] इन्द्रपुरी।
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वृषभी  : स्त्री० [सं० वृषभ+डीष्] १. विधवा स्त्री। २. केवाँच। कौंछ।
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वृषरवि  : पुं०=वृषभानु।
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वृषल  : वि० [सं०√वृष्+कलच्] [भाव० वृषलता] १. जिसे धर्म आदि का कुछ भी ज्ञान न हो, फलतः कुकर्मी और पापी। २. शूद्र। ३. बदचलनी या शूद्रता के कारण जातिच्युत किया हुआ ब्राहम्ण या क्षत्री। ४. घोड़ा। ५. चन्द्रगुप्त का एक नाम।
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वृषली  : स्त्री० [सं०] १. बारह विर्षीय कुमारी कन्या विशेषतः ऐसी कन्या जिसे मासिक धर्म होने लगा हो। २. रजस्वला स्त्री। ३. शूद पत्नी। ४. बाँझ स्त्री अथवा मरा हुआ पुत्र जनमनेवाली स्त्री।
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वृषलीपति  : पुं० [सं० ष० त०] वह पुरुष जिसने ऐसी कन्या से विवाह किया हो जो पहले से ही राजवस्ला हो चुकी हो।
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वृषवासी (सिन)  : पुं० [सं०] केरल स्थित वृष पर्वत पर रहने वाले अर्थात शिव जी।
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वृषवाहन  : पुं० [सं० ष० त०] शिव। महादेव।
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वृषशत्रु  : पुं० [सं०] विष्णु।
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वृषस्कंध  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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वृषा  : स्त्री० [सं० वृष+टाप् ] १. गौ। २. मूसाकानि। आखुकर्णी। ३. केवांच। कौंछ। ४. दंती। ५. असगंध। ६. मालकंगनी।
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वृषाकापि  : पुं० [सं० ब० स०, दीर्घ] १. शिव। २. विष्णू। ३. इन्द्र। ४. सूर्य। ५. अग्नि
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वृषाकृति  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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वृषाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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वृषाणक  : पुं० [सं० वृषाण+कन्] १. शिव। महादेव। २. शिव का एक अनुचर
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वृषाणि (णिन)  : पुं० [वृषण+इनि] ऋषभ नामक औषधि।
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वृषादित्य  : पुं० [सं० ष० त०] वृष राशि के अर्थात वृष राशि के ज्येष्ठ मास की संक्राति का सू्र्य जिसका ताप बहुत अधिक होता है।
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वृषान्तक  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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वृषायण  : पुं० [सं० वृष+कक्, क-आयन, णत्व, ब० स०] १. शिव महादेव। गौरैया पछी।
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वृषायणी  : स्त्री० [सं० ब० स०] गंगाका एक नाम।
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वृषाश्रित  : स्त्री० [सं० तृ० त०] गंगा।
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वृषाश्व  : पु० [सं० ब० स०] १. एक जन्तु जिनकी बोली बहुत कर्कश होती है। २ वह लकड़ी जिससे नगाड़े पर आघात किया जाता है।
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वृषासुर  : पुं० [सं० मध्यम स०] भस्मासुर दैत्य का एक नाम।
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वृषी (षिन)  : पु० [सं०] मोर।
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वृषीत्सर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार एक प्रकार का धार्मिक कृत्य जिसमें लोग अपने मृत पिता आदि के नाम पर साँड़ पर चक्र दाग कर उसे यों ही घूमने के लिए छोड़ देते हैं। ऐसे साँड़ों से किसी प्रकार का काम नहीं लिया जाता है।
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वृषेन्द्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. साँड। बैल।
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वृषोदर  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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वृष्टि  : स्त्री० [सं०√वृष्+क्तिन्] १. आकाश से जल की वर्षा होने की अवस्था या भाव। पानी बरसना। २. वर्षा का जल। ३. वर्षा की तरह बहुत सी छोटी छोटी चीजें ऊपर से गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—सुमन वृष्टि। ४. किसी क्रिया का कुछ समय तक लगातार होना। जैसे—कुवाच्यों की वृष्टि।
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वृष्टि-जीवन  : वि० [सं०] जिसका जीवन वर्षा पर निर्भर हो। पुं० १. चातक। २. ऐसा प्रदेश या क्षेत्र जिसकी फसल बहुत कुछ वर्षा पर ही आश्रित हो।
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वृष्टि-वैकृत  : पुं० [सं० ष० त०] बृहत्संहिता के अनुसार बहुत अधिक वृष्टि होने या बिलकुल वृष्टि न होना, जो उपद्रव, संकट आदि का सूचक माना जाता है। ऐसी विकृत या खराबी जो वर्षा की अधिकता अथवा कमी के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हो।
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वृष्टिमान  : पुं० [सं०] वृष्टि-मापक।
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वृष्टिमापक  : पुं० [सं०] नल के आकार का एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि कितनी मात्रा में वृष्टि हुई।
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वृष्णि  : पुं० [सं०√वृष (सींचना)+नि,कित्] [वि० वार्ष्णेय] १. मेघ। बादल। २. इन्द्र। ३. अग्नि। ४. शिव। ५. विष्णु। ६. वायु। ७. ज्योति। ८. गौ। ९. यादव वंश। १॰. उक्त वंश में उत्पन्न होनेवाले श्रीकृष्ण। ११. मेढ़ा। पशु। १२. साँड़। वि० १. प्रचंड। उग्र। तेज। २. नीच। ३. क्रोधी। ४. नास्तिक।
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वृष्णिक गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] श्रीकृष्ण।
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वृष्ण्य  : पुं० [सं० वृष्ण+यत्] वीर्य।
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वृष्य  : वि० [सं०√वृष्+क्यप्, यत्, वा] १. (पदार्थ) जिससे वीर्य और बल बढ़ता है। २. (पदार्थ) जिसके सेवन से मन में आनन्द उत्पन्न होता हो। पुं० १. ईख। ऊख। २. उड़द की दाल। ३. आँवला। ४. ऋषभ नामक ओषधि। ५. कमल की नाल।
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वृष्या  : स्त्री० [सं० वृष्य+टाप्] १. अष्ट वर्ग की ऋद्धि नामक ओषधि। २. शतावर। ३. आँवला। ४. बिदारीकन्द। ५. अतिबला। ककही। ६. बड़ी दंती। ७. केवाँच। कौंछ।
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वृंहण  : वि० [सं०√वृंह (वृद्धि करना)+ल्यु-अन] पुष्ट करनेवाला। पुं० १. वह पदार्थ जो पुष्टिकारक हो। बलवर्द्धक द्रव्य। २. एक प्रकार का धूम्रपान। ३. मुनक्का।
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वृहती  : स्त्री०=बृहती।
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वृहत्  : वि० [सं०] आकार-प्रकार मान-परिमाण आदि में जो बहुत बड़ा हो। जैसे—वृहत् कोश।
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वृहत्कंद  : पुं० [सं० कर्म० स० ब० स०] १. विष्णुकंद। २. गाजर।
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वृहत्काम  : पुं० [सं०] भीम।
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वृहत्कुक्षि  : पुं० [सं० ब० स०] जिसका पेट निकला या बढ़ा हुआ हो।
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वृहत्ताल  : पुं० [सं० कर्म० स०] श्रीताल (वृक्ष)।
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वृहत्तृण  : पुं० [सं० ब० स० कर्म० स० वा] बाँस।
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वृहत्त्वक्  : पुं० [सं० ब० स०] सप्तवर्ष या सतिवन नामक वृक्ष।
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वृहत्त्वच  : पुं० [सं० ब० स०] नीम का पेड़।
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वृहत्पंचमूल  : पुं० [सं० पंचमूल, द्विग, स० बृहत्, पंचमल, कर्म० स० ] बेल। सोनापाठा, गंभारी, पाँडर और गनियारी इन पाँचों का समूह। (वैद्यक)।
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वृहत्पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १, हाथीकंद। २. पठानी लोध। ३. बथुआ नामक साग।
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वृहत्पत्रा  : स्त्री० [सं० वृहत्पत्र+टाप्] १. त्रिपर्णी कंद। २. कासमर्द।
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वृहत्पर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] पठानी लोध।
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वृहत्पाद  : पुं० [सं० ब० स०] वट का वृक्ष। बरगद।
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वृहत्पीलू  : पुं० [सं० कर्म० स०] पहाड़ी अखरोट, महापील।
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वृहत्पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. केला। २. सफेद कुम्हड़ा। पेठा।
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वृहत्फल  : पुं० [सं० ब० स०] १. कुम्हड़ा। २. कटहल। ३. जामुन। ४. चिचड़ा।
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वृहत्फला  : स्त्री० [सं० वृहत्फल+टाप्] १. कद्दू। लौकी। २. कड़वा कद्दू। ३. महेंन्द्रवारुणी। ४. जामुन। ५. सफेद कुम्हड़ा। पेठा।
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वृहदंग  : पुं० [सं० ब० स०] हाथी।
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वृहदगृह  : पुं० [सं० ब० स०] विध्य पर्वत के पश्चिम में मालव के पास का एक प्राचीन देश।
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वृहदबला  : स्त्री० [सं० ब० स० कर्म० स०] १. पीत पुष्पा। सहदेई। २. पठानी लोध। ३. लजालू।
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वृहदवल्कल  : पुं० [सं०] १. पठानी लोध। २. सप्तपर्ण। छतिवन।
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वृहदवारुणी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] महेन्द्रवारुणी। इनारू।
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वृहदेला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] बड़ी इलायची।
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वृहद्दंती  : स्त्री० [सं० सब० स० कर्म० स०] बड़ी दंती। द्रवंती।
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वृहद्दल  : पुं० [सं० ब० स०] १. पठानी लोध। २. सप्तवर्ण। छतिवन। ३. लाल लहसुन। ४. श्रीताल या हिंसताल नामक वृक्ष। ५. लजालू।
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वृहद्दला  : स्त्री० [सं० वृहद्दल+टाप्] लाजवती। लजालू।
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वृहद्धान्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] ज्वार।
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वृहद्भानु  : पुं० [सं० ब० स०] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. चित्रक। चीता।
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वृहद्रथ  : पुं० [सं० ब० स०] १. इन्द्र। २. यज्ञ-पात्र। ३. सामवेद का एक अंग या अंश। ४. एक तरह का मंत्र।
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वृहद्रथा  : स्त्री० [सं० वृहत्-रथ+टाप्] एक प्राचीन नदी।
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वृहन्नल  : पुं० [सं० ब० स०] १. अर्जुन। २. बाहु। बाँह। ३. नरसल का बड़ा पेड़।
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वृहन्नला  : स्त्री० [सं० वृहन्नल+टाप्] स्त्री वेष में अर्जुन का उस समय का नाम जब वह अज्ञातवास के समय राजा विराट् के यहाँ अंतपुर में नाच-गाना सिखलाते थे।
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वृहस्पति  : पुं० [सं० ष० त०]=बृहस्पति।
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वृही  : पुं० [सं०√वृह् (वृद्धि करना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] साठी धान।
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वे  : सर्व० [हिं० वह] हिं० वह का बहुवचन। विशेष—विभक्ति लगाने पर वे का रूप उन तथा उन्हीं हो जाता है। जैसे—(क) उनमें बहुत से सफल कलाकार हैं। (ख) उन्होंने ये सब खेत दिखलाये थे।
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वेंकट  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत में स्थित एक पहाड़ की चोटी जिस पर विष्णु का मंदिर है।
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वेकट  : पुं० [सं०√वे+कटच्] १. युवक। जवान। २. विदूषक। ३. जौहरी। ४. भाकुर मछली।
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वेंकटाचल  : पुं० [सं० मध्यम० स०]=वेंकट पर्वत।
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वेंकटेश, वेकेंटश्वर  : पुं० [सं०] वेंकट पर्वत पर स्थापित विष्णु की मूर्ति का नाम।
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वेक्षण  : पुं० [सं० अव√ईक्ष् (देखना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह ढूँढ़ना या देखना। २. देखना।
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वेग  : पुं० [सं० विञ् (चलना आदि)+घञ्] १. मन में होनेवाली प्रबल प्रवृत्ति। मनोवेग। २. गति या चाल में होनेवाला जोर या तेजी। जैसे—नदी का वेग अब कुछ कम होने लगा है। ३. किसी प्रकार की क्रिया के सम्पादन में समय के विचार से होनेवाली तेजी या शीघ्रता। ४. शरीर की वह आन्तरिक वृत्ति या शक्ति जो प्राणियों को मल, मूत्र आदि का त्याग करने में प्रवृत्त करती है। ५. जल्दी। शीघ्रता। ६. कोई काम करने की दृढ़ प्रतिज्ञा या पक्का निश्चय। ७. उद्यम। उद्योग। ८. बढ़ती। वृद्धि। ९. आनन्द। प्रसन्नता। १॰. वीर्य। शुक्र। ११. न्याय के अनुसार चौबीस गुणों में से एक गुण जो आकाश, जल, तेज, वायु और मन में पाया जाता है। १२. ला इन्द्रायन। १३. महाज्योतिष्मती। १४. दे० ‘संवेग’।
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वेग-धारण  : पुं० [सं०] ऐसी क्रिया को रोकना जो वेगवती हो। विशेषतः मल-मूत्र रोकना जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक होता है।
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वेग-नाशन  : पुं० [सं०] जिसके कारण शरीर से निकलनेवाला मल आदि रुकता है।
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वेग-निरोध  : पुं० [सं० ष० त०] १. वेग का काम करना या घटाना। २. दे० ‘वेगधारा’।
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वेग-वाहिनी  : स्त्री० [सं०] १. गंगा। २. पुराणानुसार एक प्राचीन नदी। ३. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वेग-विधात  : पुं० [सं०] वेग-धारा।
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वेगग  : वि० [सं०] [स्त्री० वेगगा] १. बहुत तेज चलनेवाला। २. बहुत तेज बहनेवाला।
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वेगमापक  : पुं० [सं०] ऐसा यंत्र जो किसी गतिमान वस्तु की गति का वेग मापता हो। जैसे—नदी की धारा का वेग-मापक यंत्र।
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वेगवती  : वि० [सं० वेग+मतुप, म-व,+ङीष्] जिसका वेग अत्यधिक हो। स्त्री० दक्षिण भारत की एक नदी।
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वेगवान्  : वि० [सं० वेग+मतुप्] वेग-पूर्वक चलनेवाला। तेज चलनेवाला। पुं० विष्णु।
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वेगसर  : पुं० [सं०] १. तेज चलनेवाला घोड़ा। २. खच्चर।
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वेगा  : स्त्री० [सं० वेग+टाप्] बड़ी मालकंगनी। महाज्योतिष्मती।
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वेगित  : भू० कृ० [सं० वेग+इतच्] १. वेग से युक्त किया हुआ। २. क्षुब्ध (समुद्र)।
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वेगिनी  : स्त्री० [सं० वेग+इनि+ङीष्] नदी।
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वेगी (गिन्)  : वि० [सं० वेग+इनि] १. जिसका वेग तीव्र या अत्यधिक हो। वेगवान्। पुं० बाज पक्षी।
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वेगीय  : वि० [सं० वेग+छ, छ-ईय] १. वेग संबंधी। वेग का। २. वेग के फलस्वरूप होनेवाला।
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वेजभू  : पुं० [सं० ब० स०] देवताओं का एक गण। (महा०)
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वेट्  : पुं० [सं०√वेट् (शब्द करना)+क्विप्] यज्ञ में प्रयुक्त होनेवाला स्वाहा की तरह का एक शब्द।
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वेट्ट चंदन  : पुं० [सं० मध्यम० स०] मलयागिरि चंदन।
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वेड  : पुं० [सं०√विड्+अच्] एक तरह का चंदन।
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वेड़ा  : स्त्री०=बेड़ा (नावों का समूह)।
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वेढमिका  : स्त्री० [सं० वेढग+कन्+टाप्, इत्व] वह कचौरी जिसमें उरद की पीठी भरी हुई हो। बेढ़ई।
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वेण  : पुं० [सं०√वेण् (गमन)+अच्] १. एक प्राचीन वर्णशंकर जाति जो मुख्य रूप से गाने-बजाने का काम करती थी। २. राजा पृथु के पिता का नाम।
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वेण-यव  : पुं० [सं०] वेणु-बीज।
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वेणवी (विन्)  : वि० [सं० वेणु+इनि] जिसके पास वेणु हो। पुं० शिव।
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वेणा  : स्त्री० [सं० वेण+टाप्] १. एक प्राचीन नदी जिसे पर्णसा भी कहते हैं। २. उशीर। खस।
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वेणि  : स्त्री० [सं०√वी (गमन)+नि, णत्व] बालों की लटकती हुई चोटी। २. चोटी गूँधने की क्रिया। ३. जल-प्रवाह। ४. संगम। ५. देवदाली। बंदाल।
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वेणिक  : पुं० [सं० वेणि+कन्] १. एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी।
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वेणिका  : स्त्री० [सं० वेणिक+टाप्] स्त्रियों की वेणी।
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वेणिनी  : स्त्री० [सं० वेण+इनि+ङीष्] स्त्री जिसकी गुँथी हुई चोटी लटक रही हो।
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वेणी  : स्त्री० [सं० वेण+ङीष्] १. स्त्रियों के बालों की गूँथी हुई चोटी। कवरी। २. पानी का बहाव। ३. भीड़-भाड़। ४. देवदाली। ५. एक प्राचीन नदी। ६. भेड़। ७. देवताड़।
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वेणीदान  : पुं० [सं० ष० त०] किसी तीर्थ-स्थान विशेषतः प्रयाग में केश मुड़वाने का एक कृत्य या संस्कार।
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वेणीर  : पुं० [सं० वेण+ईन्] १. नीम का पेड़। २. रीठा।
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वेणु  : पुं० [सं०√अज् (गमन)+णु, अज-वी (वे)] १. बाँस। २. बाँस की बनी हुई वंशी। मुरली। ३. दे० वेणु। वि० वेणुकीय।
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वेणु-बीज  : पुं० [सं०] बाँस के फूल में होनेवाला दाने जो ज्वार आदि के साथ पीसकर खाये जाते हैं। बाँस का चावल।
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वेणु-मुद्रा  : स्त्री० [सं०] तान्त्रिकों की एक प्रकार की मुद्रा।
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वेणु-वन  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा वन जिसमें बाँसों के बहुत अधिक झुरमुट हों।
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वेणुक  : पुं० [सं० वेणु+कन्] १. वह लकड़ी या छड़ी जिससे गौ, बैल आदि हाँकते हैं। २. अंकुश। ३. बाँसुरी। ४. इलायची।
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वेणुका  : स्त्री० [सं० वेणु+कन्+टाप्] १. बाँसुरी। २. हाथी को चलाने का प्राचीन काल का एक प्रकार का दंड जिसमें बाँस का दस्ता लगा होता था। २. जहरीले फलवाला एक प्रकार का वृक्ष।
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वेणुकार  : पुं० [सं० वेणु√कृ (करना)+अण्, उप० स०] वह व्यक्ति जिसका पेशा बाँसुरी बनाना हो।
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वेणुकीय  : वि० [सं० वेणुक+छ, छ-ईय] वेणु-संबंधी। वेणु का।
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वेणुज  : वि० [सं० वेणु√जन्+ड] जो वेणु अर्थात् बाँस से उत्पन्न हो। पुं० १. बाँस के फूल में होनेवाला दाने जो चावल कहलाते है और जो पीसकर ज्वार आदि के आटे के साथ खाये जाते हैं। बाँस का चावल। २. गोल मिर्च।
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वेणुज-मुक्ता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] बाँस में होनेवाला एक प्रकार का गोलदाना जो प्रायः मोती कहलाता है।
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वेणुप  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद (महाभारत) २. उक्त जनपद का निवासी।
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वेणुपुर  : पुं० [सं०] आधुनिक बेलगाँव का पुराना नाम।
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वेणुमती  : स्त्री० [सं० वेणु+मतुप्+ङीष्] पश्चिमोत्तर प्रदेश की एक नदी। (पुराण)
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वेणुमान  : पुं० [सं० वेणुमम्] १. एक पौराणिक पर्व। २. एक पौराणिक कुल या वंश।
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वेण्य  : स्त्री० [सं० वेणु+यत्] पुराणानुसार विध्यं पर्वत से निकली हुई एक नदी।
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वेण्वा  : स्त्री० [सं० वेणु+अच्+टाप्] पुराणानुसार पारिपत्र पर्वत की एक नदी।
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वेण्वा-तट  : पुं० [सं० ष० त०] वेण्वा नदी के तट पर स्थित एक प्रदेश (महा) २. उक्त देश का निवासी।
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वेत  : पुं०=बेंत।
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वेतन  : पुं० [सं०√वी (गमन)+तनन्] १. वह धन जो किसी को कोई काम करने के बदले में दिया जाय। पारिश्रमिक। उजरत। २. वह धन जो निश्चित रूप से निरंतर काम करते रहने पर बराबर नियत समय पर मिलता रहता है। तनख्वाह। (पे)। जैसे—मासिक या साप्ताहिक वेतन। ३. जीविका निर्वाह का साधन। ४. चाँदी। रजत।
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वेतन-भोगी (गिन्)  : पुं० [सं०] वह जो वेतन पर किसी के यहाँ नौकरी करता हो।
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वेतस  : पुं० [सं०] १. बेंत। २. जल-बेंत। ३. बड़वानल।
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वेतस-पत्रक  : पुं० [सं०] एक तरह का शल्य। (सुश्रुत)
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वेतसक  : पुं० [सं० वेतस+कन्] एक प्राचीन जनपद। (महाभारत)
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वेताल  : पुं० [सं०√अज्+विच्, वी√तल्+घञ्, कर्म० स०] १. द्वारपाल। संतरी। २. शिव के एक गणाधिप। ३. पुराणानुसार एक तरह की भूत-योनि या प्रेतात्माओं का वह वर्ग जिसका निवास-स्थान श्मशाम माना गया है। ४. उक्त योनि के भूत जो साधारण भूतों के प्रधान माने गए हैं। ५. ऐसा शव जिस पर भूतों ने अधिकार कर लिया हो। ६. छप्पय के छठे भेद का नाम जिसमें ६५ गुरु और २२ लघु कुल ८७ वर्ण या १५२ मात्राएँ अथवा ६५ गुरु और १८ लघु कुल ८३ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती है।
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वेताला  : स्त्री० [सं० वेताल+टाप्] दुर्गा।
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वेत्ता  : वि० [सं०√विद् (जानना)+तृच्] समस्त पदों के अन्त में, अच्छा या पूर्ण ज्ञाता। जैसे—तत्त्ववेत्ता, शास्त्रवेत्ता।
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वेत्र  : पुं० [सं०√वी+त्र] १. बेंत। २. द्वारपाल के पास रहनेवाला डंडा।
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वेत्र-गंगा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] हिमालय से निकली हुई एक नदी।
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वेत्रक  : पुं० [सं० वेत्र+कन्] रामसर। सरपत।
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वेत्रकार  : पुं० [सं० वेत्र√कृ (करना)+अण्] वह जो बेंत के सामान बनाता हो।
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वेत्रकूट  : पुं० [सं० मध्यम० स०] पुराणानुसार हिमालय की एक चोटी।
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वेत्रधर  : पुं० [सं० वेत्र√धृ (रखना)+अच्, ष० त०] १. द्वारपाल। संतरी। २. चोबदार। ३. लठैत।
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वेत्रवती  : स्त्री० [सं० वेत्र+मतुप, म—व,+ङीष्] वेतवा नदी।
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वेत्रहा (हन्)  : पुं० [सं० वेत्र√हन् (मारना)+क्विप्] इंद्र।
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वेत्रासन  : पुं० [सं० ष० त०] बेंत का बुना हुआ आसन।
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वेत्रासुर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक असुर जिसका वध इन्द्र ने किया था।
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वेत्रिक  : पुं० [सं० वेत्र+ठक्-इक] १. एक जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी। ३. चोबदार।
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वेत्री  : पुं० [सं० वेत्र+इनि, वेत्रिन्] १. द्वारपाल। संतरी। २. चोबदार।
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वेद  : पुं० [सं०] १. वह जो जाना गया हो। ज्ञान। २. धार्मिक ज्ञान। तत्त्वज्ञान। ३. भारतीय आर्यों के आद्य प्रधान ग्रन्थ जो हिन्दुओं के सर्व प्रधान है। विशेष—आरंभ में ऋग्वेद और सामवेद ही तीन वेद थे। जिनके कारण वेदत्रयी पद बना था। पर बाद में चौथा अथर्ववेद भी इनमें सम्मिलित हो गया था, और अब उनकी संख्या चार हो गई है। ये संसार के सबसे अधिक प्राचीन धर्मग्रंथ है प्रत्येक पद के दो मुख्य विभाग है। (क) मंत्र अथवा संहिता और (ख) ब्राह्मण भाग। हिन्दू इन्हें अ-पौरुषेय मानते हैं, अर्थात् ये मनुष्यों द्वारा रचित नहीं है, बल्कि स्वयं ब्रह्मा के मुख से निकले हैं। स्मृतियों से इनका पार्थक्य जलताने के लिए इन्हें श्रुति भी कहते हैं। जिसका आशय यह है कि वेदो में कही हुई बातें लोग परम्परा से सुनते चले आये थे, जो बाद में लिपिबद्ध करके ग्रंथ रूप में संकलित की गई थी। आधुनिक विद्वानों के मत से इनकी रचना लगभग ६॰॰॰ वर्ष पूर्व हुई होगी। ४. विष्णु का एक नाम। ५. यज्ञों को भिन्न-भिन्न अंग या कृत्य। यज्ञांग। ६. छंद। ७. धन-संपत्ति।
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वेद-गंगा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] दक्षिण भारत की एक नदी जो कोल्हापुर के पास से निकलकर कृष्णा नदी में मिलती है।
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वेद-जननी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सावित्री जो वेद की माता कही गई है।
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वेद-दीप  : पुं० [सं० ष० त०] महीघर का किया हुआ शुक्ल यजुर्वेद का भाष्य।
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वेद-मंत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स० या ष० त०] १. वेदों में आए हुए मंत्र। २. पुराणानुसार एक प्राचीन जनपद। ३. उक्त जनपद का निवासी। ४. मूलमंत्र (दे०)।
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वेद-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. गायत्री। सावित्री। दुर्गा। २. सरस्वती।
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वेद-मूर्ति  : पु० [सं० ष० त०] १. वेदों का बहुत बड़ा ज्ञाता। २. सूर्य।
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वेद-यज्ञ  : पुं० [मध्यम० स०] वेद पढ़ना। वेदाध्ययन।
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वेद-वदन  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्मा। २. व्याकरण।
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वेद-वाक्य  : पुं० [सं०] ऐसा वाक्य या कथन जिसकी सत्यता असंदिग्ध हो। वेद में आए हुए वाक्य के समान मान्य कोई अन्य वाक्य या कथन।
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वेद-वाहन  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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वेद-व्यास  : पुं० [सं० वेद+वि√अस् (होना)+अण्] एक प्राचीन मुनि जिन्होंने वेदों का वर्तमान रूप में संकलन किया था। ये सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न पराशर के पुत्र थे। व्यास।
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वेद-व्रत  : पुं० [सं० ब० स०] वह जो वेदों का अध्ययन करता हो।
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वेद-स्वरूपी  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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वेदक  : वि० [सं० वेद+कन्] वेदन अर्थात् ज्ञान करानेवाला।
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वेदकर्ता (र्त्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] १. वेद या वेदों का रचयिता। २. सूर्य। ३. शिव। ४. विष्णु। ५. वर पक्ष के वे लोग जो विवाह कृत्य सम्पन्न हो जाने पर वधू के घर पहुँचकर उसे और वर को आर्शीवाद देते तथा मंगल-कामना प्रकट करते हैं।
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वेदकार  : पुं० [सं०] वेद या वेदों का रचयिता।
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वेदगर्भ  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्रह्मा। २. ब्राह्मण।
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वेदगर्भा  : स्त्री० [सं० वेदगर्भ+टाप्] १. सरस्वती नदी। २. रेखा नदी।
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वेदगुप्त  : पुं० [सं० ब० स०] श्रीकृष्ण का एक नाम।
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वेदगुह्य  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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वेदज्ञ  : पुं० [सं० वेद√ज्ञा (जानना)+क] १. वेदों का ज्ञाता। वेद जाननेवाला। २. ब्रह्म-ज्ञानी।
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वेदत्व  : पुं० [सं० वेद+त्व] वेद का धर्म या भाव।
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वेदन  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+ल्युट-अन] १. ज्ञान। २. अनुभूति। ३. संवेदन। ४. कष्ट। पीड़ा। वेदना। ५. धन-संपत्ति। ६. विवाह। ७. शूद्र स्त्री का उच्च वर्ग के पुरुष के साथ होनेवाला विवाह।
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वेदना  : स्त्री० [सं० वेदन+टाप्] १. बहुत तीव्र मानसिक या शारीरिक कष्ट। विशेषतः प्रसव के समय स्त्रियों को होने वाला कष्ट। २. तीव्र मानसिक दुःख। व्यथा।
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वेदनी  : स्त्री० [सं०√वेदन+ङीष्] त्वचा।
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वेदनीय  : वि० [सं०√विद् (जानना)+अनीयर्] १. जो वेदन के लिए उपयुक्त हो अथवा जिसका वेदन हो सके। २. जानने के लिए उपयुक्त। ३. वेदना या कष्ट उत्पन्न करनेवाला।
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वेदबीज  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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वेदवती  : स्त्री० [सं०] १. सीता का पूर्वजन्म का नाम। उस जन्म में ये राजा कुशध्वज की पुत्री थी। २. एक प्राचीन नदी।
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वेदवादी (दिन्)  : पुं० [सं०] वेदों का ज्ञाता।
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वेदवाह  : पुं० [सं० वेद√वह् (ढोना)+घञ्] वह जो वेदों का ज्ञाता हो।
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वेदशिर  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का अस्त्र (पुराण) २. पुराणानुसार मार्कडेय का एक पुत्र जो मूर्द्धन्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। कहते है कि भार्गव लोगों का मूल पुरुष यही था।
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वेदसार  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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वेदांग  : पुं० [सं० ष० त०] वेद के अंगों में हर एक। २. वेद के छः अंग। ३. सूर्य।
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वेदाग्रमी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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वेदांत  : पुं० [सं० वेद+अंग] १. वेदों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का निरूपण और विवेचन करनेवावाला शास्त्र। २. भारतीय चः दर्शनों में से अंतिम दर्शन जो उपनिषदों की शिक्षा और सिद्धान्तों पर आश्रित है और जिसमें वेदों का अंतिम य चरम उद्देश्य निरूपित होता है और जिसे उत्तर-मीमांसा भी कहते हैं। विशेष—इस दर्शन का मुख्य सिद्धान्त यह है कि सारी सृष्टि एकमात्र ब्रह्म से उद्भुत है, और वह इस ब्रह्म इस सृष्टि के प्रत्य़ेक अणु-परमाणु तक में व्याप्त है। इस दर्शन में मुख्यतः ब्रह्म और जगत् तथा ब्रह्मा और जीव के पारस्परिक संबंधों का निरूपण है। अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, सोहंअस्मि आदि इसके मुख्य सिद्धान्त है। लोक में जो अद्वैत की भावना भूत या माया के प्रति तिरस्कार आदि के भाव प्रचलित है वे अधिकतर इसी वेदातं की शिक्षा के फल हैं।
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वेदांत  : पुं० [सं०] व्यास कृत ब्रह्मसूत्र।
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वेदांती (तिन्)  : पुं० [सं० वेदान्त+इनि] वेदांत का पूर्ण ज्ञाता। ब्रह्मवादी।
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वेदात्म  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. सूर्य।
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वेदादि  : पुं० [सं० ष० त०] प्रणव या ओंकार का मंत्र।
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वेदाधिदेव  : पुं० [सं० ष० त०] ब्राह्मण।
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वेदाधिप  : पुं० [सं० ष० त०] वेदों के अधिपतिग्रह। विशेष—ऋग्वेद के अधिपति, बृहस्पति यजुर्वेद के शुक्र सामवेद के मंगल अथर्ववेद के बुध।
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वेदाध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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वेदि  : स्त्री०=वेदी।
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वेदिका  : स्त्री० [सं० वेदिक+टाप्]=छोटी वेदी।
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वेदित  : भू० कृ० [सं०√विद् (जानना)+क्त] १. निवेदित। २. वेद द्वारा कथित या जतलाया हुआ। २. देखा हुआ।
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वेदितव्य  : वि० [सं०√विद् (जानना)+तव्यत्] बात का विषय जो जाना जा सके।
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वेदित्व  : पुं० [सं० वेदि+त्व] विदित होने का भाव। ज्ञान।
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वेदी (दिन्)  : वि० [सं०] १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. पंडित। विद्वान। ३. विवाद करनेवाला। पुं० १. ब्रह्मा। २. आचार्य। ३. एक प्राचीन तीर्थ (महाभारत)। स्त्री० १. यज्ञ कार्य के लिए साफ करके तैयार की हुई भूमि। वेदी। २. मांगलिक या शुभ कार्य के लिए तैयार किया हुआ चौकोर स्थान और उसके ऊपर का मंडप। ३. सरस्वती। ४. ऐसी अंगूठी जिस पर किसी का नाम अंकित हो। ५. पूजन आदि के समय उंगली की एक प्रकार की मुद्रा। ६. अंबष्ठा नामक वनस्पति।
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वेदीश  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा।
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वेदुक  : वि० [सं०√विद् (जानना)+उकञ्] १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. प्राप्त करनेवाला। ३. मिला हुआ। प्राप्त।
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वेदेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा।
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वेदोक्त  : भू० कृ० [सं० स० त०] वेदों में कहा हुआ।
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वेदोपकरण  : पुं० [सं० ष० त०] वेदांग।
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वेदोपनिषद्  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक उपनिषद् का नाम।
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वेद्य  : वि० [सं०√विद् (जानना)+ण्यत्] १. (बात या विषय) जो जानने या समझने के योग्य हो। २. कहे जाने के योग्य। ३. प्रशंसनीय। ४. प्राप्त किये जाने के योग्य।
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वेद्यत्व  : पुं० [सं० वेद्य+त्व] ज्ञान। जानकारी।
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वेद्वव्य  : वि० [सं०√विध् (छेदना)+तव्यम्] वेधे या छेदे जाने के योग्य।
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वेद्वा  : वि० [सं०√विध् (छेदना)+तृच्] १. वेधने या छेदनेवाला। २. वेध करनेवाला।
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वेध  : पुं० [सं०√विध् (छेदना)+घञ्] १. किसी चीज में नुकीली चीज धँसाना। बेधना। २. यंत्रों आदि की सहायता से आकाशस्थ ग्रहों नक्षत्रों आदि की गति,स्थिति आदि का पता लगाने की क्रिया। पद—वेधशाला। ३. ज्योतिष के ग्रहों का किसी ऐसे स्थान में पहुँचना जहाँ से उनका किसी दूसरे ग्रह में सामना होता हो। जैसे—युतवेध, पताकी वेध। ४. गंभीरता। गहराई। ५. ब्रह्मा। ६. विष्णु। ७. शिव। ८. सूर्य। ९. दक्ष आदि प्रजापति। १॰. पंडित। विद्वान। ११. सफेद मदार।
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वेधक  : पुं० [सं०√विध् (भेदना)+ण्वुल-अक] १. वेध करनेवाला। २. वेधन करने या बेधनेवाला। पुं० १. वह जो मणियों आदि को बेचकर अपनी जीविका चलाता हो। २. कपूर। ३. धनिया। ४. अमलबेंत।
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वेधनी  : पुं० [सं० वेधन+ङीष्] १. वह उपकरण जिससे मोती आदि वेधे जाते हैं। २. अंकुश।
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वेधनीय  : वि० [सं०√विध् (छेदना)+अनीयर्] जिसका वेध या बेधन हो सके या होने को हो।
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वेधशाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह प्रयोगशाला जिसमें ग्रह, नक्षत्रों आदि की गति का पर्यवेक्षण किया जाता है। (आबज़र्वेटरी)
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वेधस  : पुं० [सं० वि√धा+अस्, वेधस्+अच्] हथेली में अँगूठे की जड़ के पास का स्थान। अंगुष्ठमूल। ब्रह्मतीर्थ। विशेष—आचमन के लिए इसी गड्ढे में जल देने का विधान है।
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वेधा (धस्)  : पुं० [सं० वि√धा+अस्, बेधादेश] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. सूर्य। ५. दक्ष आदि प्रजापति। ६. आक। मदार।
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वेधालय  : पुं० [सं० ष० त०]=वेधशाला।
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वेधित  : भू० कृ० [सं०√विध् (छेदना)+णिच्+क्त] १. जिसका वेधन या भेदन किया गया हो। २. (ग्रह या नक्षत्र) जिसका ठीक-ठीक पर्यवेक्षण किया जा चुका हो।
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वेधिनी  : स्त्री० [सं०√विधन्+ङीष्] जोंक। वि० सं० ‘वेधी’ का स्त्री०।
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वेधी (धिन्)  : पुं० [सं०] १. वेधन या भेदन करनेवाला। २. ग्रह-नक्षत्रों आदि की गति का पर्यवेक्षण करनेवाला।
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वेध्य  : वि० [सं०√विध् (छेदना)+ण्यत्] जिसमें वेध किया जाय। जिसका वेध हो सके या होने को हो।
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वेन  : पुं० [सं०√अज् (गमन)+न,अज-वी] वेण (दे०)।
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वेन्य  : पुं० [सं० वेन+यत्] सुन्दर। मनोहर। पुं० वेण।
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वेपथु  : पुं० [सं० वेप् (काँपना)+अधुच्] १. काँपने की क्रिया। कँप-कँपी। २. कंप (साहित्यिक अनुभाव)।
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वेपन  : पुं० [सं०√वेप् (काँपना)+ल्युट-अन] १. काँपना। कंप। २. बात रोग।
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वेर  : पुं० [सं० अज+रन, अज=वी] १. शरीर। देह। बदन। २. केसर।
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वेल  : पुं० [सं०] १. उपवन। २. कुंज। ३. बौद्धों के अनुसार एक बहुत बड़ी संख्या। स्त्री०=वेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वेलना  : अ० [सं० वेल्] १. हिलना। २. काँपना। ३. विकल होना।
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वेला  : स्त्री० [सं०] १. मर्यादा। सीमा। २. समुद्र का तट। ३. तरंग। लहर। ४. किसी काम या बात का नियमित या निश्चित समय। जैसे—भोजन की वेला, मृत्यु की वेला,सन्ध्या की वेला आदि। ५. समय का एक विभाग जो दिन और रात का चौबीसवाँ भाग होता है। कुछ लोग दिनमान के आठवें भाग की भी वेला मानते हैं। ६. वाणी। ७. अवकाश। अवसर। ८. आसक्ति। राग। ९. भोजन। १॰. रोग। बीमारी। वि० [हिं० उरला] इस ओर या पार का। इधर का। उदाहरण—सुर नर मुनिजन ये सब वैले तीर।—कबीर।
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वेला-जल  : पुं० [सं०] चंद्रमा के आकर्षण से ऊपर उठनेवाला समुद्र का ज्वार जल (टाइडल वाटर्स)।
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वेला-ज्वर  : पुं० [सं०] मृत्यु के समय होनेवाला ताप या ज्वर।
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वेलाद्रि  : पुं० [सं० स० त०] ऐसा पर्वत जो समुद्र के किनारे स्थित हो।
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वेलाधिप  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में दिनमान के आठवें भाग या वेला के अधिपति देवता।
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वेलार्ख  : पुं० [?] वाण का फूल। (डि०)। उदाहरण—वेलार्थ अणी झूठि द्रिठि बंग्धै।—प्रिथीराज।
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वेलावित्त  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन काल के एक प्रकार के कर्मचारी (राजतरंगिणी)।
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वेलिका  : स्त्री० [सं० वेला+कन्+टाप्, इत्व] १. नदी के किनारे का स्थान। २. ताम्रलिप्त का एक नाम।
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वेल्लन  : पुं० [सं०√वेल्ल (चलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० वेल्लित] १. गमन। २. कंप। कंपन। ३. जमीन पर घोड़ों के लोटने की क्रिया या भाव। ४. झुकना। ५. लिपटना।
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वेल्ली  : स्त्री० [सं० वेल्लि+ङीष्] बेल लता।
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वेवि  : वि०=विवि (दो)। उदा०—बेवि सरोरुह उपर देखल।—विद्यापति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वेश  : पुं० [सं०√विश् (प्रवेश करना)+घञ्] १. अन्दर जाने या पहुँचने की क्रिया या भाव। प्रवेश। २. प्रवेश का द्वार, मार्ग या साधन। ३. रहने का स्थान, घर या मकान। ४. वेश्या का घर। ५. पहनने के कपड़े आदि। पोशाक। ६. कुछ खास तरह के ऐसे कपडे जिन्हें पहनने पर कोई विशिष्ट रूप प्राप्त होता है। भेस। (डिस्गाइज) जैसे—अभिनेता कभी राजा का कभी सेवक का वेश धारण करता है। ७. परिश्रम या सेवा के बदले में मिलनेवाला धन। पारिश्रमिक। ८. खेमा। तंबू।
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वेश-युवती  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या। रंडी।
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वेश-रथ्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश-वीथी।
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वेश-वधू  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या। रंडी।
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वेश-वनिता  : स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
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वेश-वार  : पुं० [सं० ष० त०] १. वेश्या का घर। २. धनिया, मिर्च लौंग आदि मसाले।
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वेश-वीथी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह गली या बाजार जिसमें वेश्याएँ रहती हों।
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वेश-स्त्री०  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या रंडी।
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वेशक  : वि० [सं० वेश+कन्] प्रवेश करनेवाला। पुं० घर। मकान।
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वेशकार  : पुं० [सं०] १. वह जो पुतलियाँ बनाता और उनका श्रृंगार करता हो। २. पहनने के अनेक प्रकार के वस्त्र बनानेवाला। (आउट-फ़िटर)।
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वेशंत  : पुं० [सं०] १. पानी का गड्ढा। २. अग्नि। आग।
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वेशता  : पुं० [सं० वेश+तल्+टाप्] वेश का धर्म या भाव। वेशत्व।
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वेशत्व  : पुं० [सं० वेश+त्व]=वेशता।
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वेशधर  : पुं० [सं०] १. वह व्यक्ति जिसने किसी दूसरे का वेश धारण किया हो। २. वह जिसने किसी को छलने के लिए अपना वे बदल लिया हो। ३. जैनियों का एक सम्प्रदाय।
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वेशन  : पुं० [सं०] प्रवेश करना।
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वेशनी  : स्त्री० [सं०√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन+ङीष्] ड्योढ़ी। पौरी।
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वेशमस्त्री  : स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
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वेशर  : पुं० [सं० वेश+रक्] खच्चर।
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वेशवास  : पुं० [सं० ष० त०] वेश्या का कोठा। वेश्यालय।
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वेशांत  : पुं० [सं०√विश् (प्रवेश करना)+अ-अन्त, ष० त० ब० स०] छोटा तालाब।
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वेशिक  : पुं० [सं० वेश+ठक्-इक] हस्त-शिल्प। दस्तकारी।
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वेशी (शिन्)  : वि० [सं०√विश् (प्रेवश करना)+णिनि] प्रेवश करनेवाला।
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वेश्म  : पुं० [सं०√विश्+मनिन्] घर। मकान।
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वेश्मा  : पुं० [सं०] १. वेश्या के रहने का मकान। रंडी का घर। २. वेश्या की वृत्ति। रंडी का पेशा।
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वेश्मांत  : पुं० [सं०] अन्तःपुर। जनानाखाना।
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वेश्या  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी स्त्री जो धन लेकर लोगों के साथ संभोग कराने का व्यवसाय करती हो। गणिका। २. आज-कल ऐसी स्त्री जो उक्त प्रकार का व्यवसाय करने के सिवाय लोगों को रिझाने के लिए नाचगाने का भी काम करती हो तवायफ।
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वेश्या-पत्तन  : पुं० [सं०] वह बाजार जहाँ वेश्याएँ रहती हों। चकला।
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वेश्या-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वेश्या बनकर अर्थात् धन लेकर पर-पुरुषों से संभोग कराना। कसब कमाना। २. गुण, शक्ति का वह परम घृणित और निदनीय उपयोग जो केवल स्वार्थ साधन के लिए बहुत बुरी तरह से किया या कराया जाय। (प्रॉस्टीट्यूशन)
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वेश्यांगना  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ऐसी स्त्री जो वेश्यावृत्ति करती हो।
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वेश्याचार्य  : पुं० [सं०] रंडियो का दलाल। भडुआ।
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वेश्यालय  : पुं० [सं० ष० त०] वेश्या या वेश्याओं के रहने की जगह।
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वेष  : पुं० [सं०√वेष्+अच्] १. पहने हुए कपड़े आदि। वेश। २. रंग-मंच में पीछे का वह स्थान जहाँ नट लोग वे रचना करते हैं। नेपथ्य। ३. वेश्या का घर। रंडी का मकान। ४. काम करना या चलाना।
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वेष-भूषा  : स्त्री० [सं०] १. वे कपड़े जो किसी विशिष्ट देश, जाति, संप्रदाय आदि लोग करते हैं। २. शरीर की सजावट के लिए पहने हुए कपड़े आदि।
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वेषकार  : पुं० [सं०] वह कपड़ा जो किसी चीज पर उसे सुरक्षित रखने के लिए लपेटा जाता है। बेठन।
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वेषण  : पुं० [सं०√वेष् (व्याप्त होना)+ल्युट-अन] १. वेष बनाने की क्रिया या भाव। २. परिचर्या। सेवा। ३. कासमर्द्द। ४. धनिया। ५. सेवा।
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वेषधारी  : वि०=वेशधारी।
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वेषवार  : पुं० बेसवार।
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वेष्ट  : पुं० [सं०√वेष्ट (लपेटना)+घञ्] १. वृक्ष का किसी प्रकार का निर्यास। २. गोद। ३. धूपसरल नामक पेड़। ४. सुश्रुत के अनुसार मुँह में होनेवाला एक प्रकार का रोग। ५. ब्रह्म। ६. आकाश। ७. पगड़ी।
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वेष्टक  : वि० [सं०√वेष्ट्+ण्वुल्-अक] चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. छाल। वल्कल। ३. कुम्हड़ा। ४. उष्णीय। पगड़ी। ४. चहार-दीवारी। परकोटा। ५. दे० वेष्ट।
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वेष्टन  : पुं० [सं०√वेष्ट+ल्युट-अन] १. कोई चीज किसी दूसरी चीज के चारों ओर लपेटना। २. इस प्रकार लपेटी जानेवाली चीज। ३. पगड़ी। ४. मुकुट। ५. कान का छेद।
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वेष्टनक  : पुं० [सं० वेष्टन√कै (प्रकाश करना)+क] कामशास्त्र में एक प्रकार का रतिबंध।
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वेष्टव्य  : वि० [सं०√वेष्ट (लपेटना)+तव्यत्] घेरे या लपेटे जाने के योग्य।
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वेष्टसार  : पुं० [सं० ब० स०] १. श्रीवेष्ट। गंधबिरोजा। २. धूपसरल नामक वृक्ष।
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वेष्टित  : भू० कृ० [सं०√वेष्ट (लपेटना)+क्त] १. चारों ओर से घिरा या घेरा हुआ। २. कपड़े, रस्सी आदि से लिपटा या लपेटा हुआ। ३. रुका या रोका हुआ। रुद्ध। पुं० १. पगड़ी। २. एक प्रकार का रतिबंध। ३. नृत्य की एक मुद्रा।
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वेस  : स्त्री०=वयस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वेसन्नर  : पुं० [सं० वैश्वानर] आग। (डिं०)
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वेसर  : पुं० [सं० वेस√रा (लेना)+क] खच्चर।
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वेसवार  : पुं० [सं० वेस√वृ (निवास करना)+अस्] १. जीरा, धनिया, लौंग मिर्च आदि पीसकर बनाया हुआ मसाला। २. एक प्रकार का पकाया हुआ मांस।
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वेसासना  : स० [सं० विश्वास] विश्वास करना। (डिं०) उदाहरण—ब्रिध पणै मति कोई बेसायौ।—प्रिथीराज।
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वेह  : पुं० [?] मंगल कलश (डि०)।
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वै  : अव्य० एक निश्चय बोधक अव्यय। वि० [सं० द्वि] दो। प्रत्यय [सं० वा] १. भी। जैसे—कढुवै (कुछ भी) २. ही। जैसे—भुत वै (भूत ही)।
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वैकक्ष  : पुं० [सं० वि√कक्ष् (व्याप्त होना)+अण्] १. वह माला जो जनेऊ की तरह शरीर पर धारण की जाय। २. उक्त प्रकार से माला पहनने का ढंग।
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वैकक्ष्यक  : पुं० [सं० वैकक्ष+यत्+कन्] एक प्रकार का हार जो कन्धे और पेट पर जनेऊ की तरह पहना जाता था।
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वैकटिक  : पुं० [सं० विकट+ठक्-इक] जौहरी। वि० विकट।
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वैकट्य  : पुं० [सं० विकट+ष्यञ्]=विकटता।
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वैकथिक  : वि० [सं० विकथ+ठक्-इक] डींग हाँकनेवाला। शेखीबाज।
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वैकर्ण  : पुं० [सं० विकर्ण+अण्] १. वैदिक काल का एक जनपद। २. वात्स्य मुनि का दूसरा नाम।
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वैकर्णायन  : पुं० [सं० वैकर्ण+फक्-आयन] वह जो वैकर्ण या वात्स्य मुनि के वंश में उत्पन्न हुआ हो।
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वैकर्तन  : पुं० [सं०] १. सूर्य के एक पुत्र का नाम। २. कर्ण का एक नाम। वि० १. सूर्य-सम्बन्धी। २. जो सूर्यवंश में उत्पन्न हुआ हो। पद—वैकर्तन कुल=सूर्यवंश।
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वैकर्म  : पुं० [सं० विकर्म+अण्] बुरा कर्म। दुष्कर्म।
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वैकल्प  : पुं० [सं० विकल्प+अण्] १. ऐसी स्थिति जिसमें किसी को दो या अधिक चीजों में से कोई एक चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। २. इस प्रकार चुनी हुई वस्तु।
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वैकल्पिक  : वि० [सं० विकल्प+ठक्-इक] १. जो विकल्प के रूप में हो। २. जिसके विषय में विकल्प का उपयोग या प्रयोग किया जाने को हो अथवा किया जा सकता हो। जिसके चुनाव में अपनी इच्छा या रुचि का प्रयोग किया जा सकता हो। (आप्शनल) ३. संदिग्ध। ४. किसी एक ही अंग या पक्ष से संबंध रखनेवाला।
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वैकल्य  : पुं० [सं० विकल+ष्यञ्] १. विकल होने की अवस्था या भाव। विकलता। २. उत्तेजना। ३. बल या शक्ति से हीन होना। निर्बलता। ४. कमी। न्यूनता। ५. भ्रम उत्पन्न करनेवाली त्रुटि या दोष। जैसे—श, ष, और स अथवा व और ब के उच्चारण में वैकल्प जनित सादृश्य है। ६. कातरता। ७. अंग-हीनता। ८. अभाव। वि० अधूरा। अपूर्ण।
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वैकारिक  : वि० [सं० विकार+ठक्] १. विकार। युक्त। २. विकार संबंधी। २. किसी प्रकार के विकार के फलस्वरूप होनेवाला। पुं०=विकार।
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वैकारिकी  : स्त्री० [सं० वैकारिक से] आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की वह शाखा जिसमें इस बात का विचार या विवेचन होता है कि शरीर में किस प्रकार के विकार होने से कौन-कौन से अथवा कैसे-कैसे रोग उत्पन्न होते हैं (पैथालोजी)।
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वैकार्य  : पुं० [सं० विकाल+ष्यञ्] विकार का भाव या धर्म। वि० जिसमें विकार होता या हो सकता हो।
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वैकाल  : पुं० [सं० विकाल+अण्] १. दिन का तीसरा पहर। २. शाम। सन्ध्या।
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वैकालिक  : वि० [सं० विकाल+ठक्—इक] १. विकाल-संबंधी। २ सन्ध्या का। सान्ध्य।
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वैकासिक  : वि० [सं०] १. विकास संबंधी। २. विकास के रूप में होनेवाला।
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वैकुंठ  : पुं० [सं०] [वि० वैकुठीय] १. विष्णु का एक नाम। २. वह स्वर्गीय लोक जिसमें विष्णु निवास करते हैं। ३. स्वर्ग। ४. इन्द्र। ५. सफेद पत्तोंवाली तुलसी। ६. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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वैकृत  : वि० [सं० विकृत+अण्] [भाव० वैकृति] १. जो विकार के कारण उत्पन्न हुआ हो। २. दुस्साध्य। ३. विकारी। परिवर्तनशील। पुं० १. विकार। खराबी। २. वीभत्स रस या उसका कोई आलंबन।
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वैकृत-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह ज्वर जो प्रस्तुत ऋतु के अनुकूल न हो, बल्कि किसी और ऋतु के अनुकूल हो।
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वैकृतिक  : वि० [सं० विकृति+ठक्] १. विकृति से संबंध रखने या उसके कारण उत्पन्न होनेवाला। २. नैमित्तिक।
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वैकृत्य  : पुं० [सं० विकृत+ष्यञ्] १. विकार। २. परिवर्तन। ३. दुःखावस्था। ४. बीभत्स काम या बात।
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वैक्रम  : वि० [सं० विक्रम+अण्] विक्रम-संबंधी।
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वैक्रमीय  : वि० [सं० विक्रम+अण्-ईय] विक्रम संबंधी। जैसे—वैक्रमीय संवत्।
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वैक्रांत  : पुं० [सं० विक्रांति+अण्] चुन्नी नामक मणि।
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वैक्रिय  : वि० [सं० विक्रिय+अण्] जो बिकने को हो। बेचे जाने के योग्य। विक्रेय।
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वैक्लव्य  : पुं० [सं० विक्लव+ष्यञ्] १. विकलता। व्याकुलता। २. पीढ़ा। ३. शोक। ४. अस्त-व्यस्तता।
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वैखरी  : स्त्री० [सं० वि+ख√रा (लेना)+क+अण्+ङीष्] १. मुँह से उच्चरित होनेवाला शब्द। २. बोलने की शक्ति। ३. सरस्वती। वाग्देवी।
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वैखानस  : पुं० [सं० विखन+ड+असुन्+अण्] १. जो वानप्रस्थ आश्रम में प्रवृत्त हो चुका हो। २. एक प्रकार के संन्यासी जो वनों में रहते हैं। ३. कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा। ४. भागवत के दो स्कंधों में से एक।
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वैखानसीय  : स्त्री० [सं० वैखानस+छ-ईय] एक उपनिषद् का नाम।
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वैगन  : पुं० [अं०] मालगाड़ी का डब्बा जिसमें माल भेजा जाता है।
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वैगलेय  : पुं० [सं० विगला+ढक्-एय] भूतों का एक गण (पुराण)।
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वैगुण्य  : पुं० [सं० विगुण+ष्यञ्] १. विगुण होने की अवस्था या भाव। विगुणता। २. दोष। ३. नीचता। ४. अपराध।
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वैग्रहिक  : पुं० [सं० विग्रह+ठक्-इक] विग्रह या शरीर संबंधी। शारीरिक।
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वैघटिक  : पुं० [सं० विघट+ठक्-इक] जौहरी।
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वैघात्य  : वि० [सं० वि√हन् (मारना)+णिच्-ण्यत्] जिसका घात किया जा सके या हो सके।
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वैचक्षण्य  : पुं० [सं० विचक्षण+ष्यञ्] विचक्षणता।
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वैचारिकी  : स्त्री०=विचारधारा (आइडियालोजी)।
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वैचित्त्य  : पुं० [सं० विचित्ति+ष्यञ्] १. चित्त की भ्रांति। भ्रम। २. अन्यमनस्कता।
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वैचित्र  : पुं० [सं० विचित्त+अण्] १. विचित्रता। विलक्षणता। २. भेद। फरक। ३. सुन्दरता।
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वैचित्र्य  : पुं० [सं० विचित्र+ष्यञ्] विचित्रता।
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वैचित्र्यवीर्य  : पुं० [सं०] विचित्रवीर्य की संतान-धृतराष्ट्र, पांडु, विदुर आदि।
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वैच्युति  : स्त्री० [सं० वैच्युत+इति] १. विच्युत होने की अवस्था या भाव। विच्युति। २. पतन।
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वैजनन  : पुं० [सं० विजनन+अण्] गर्भ का अन्तिम मास।
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वैजन्य  : पुं० [सं० विजन+ष्यञ्] १. विजनता। एकांत। २. इन्द्र की पुरी का नाम।
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वैजयंत  : पुं० [सं०] १. इंद्र। २. घर। मकान। ३. अग्निमंध।
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वैजयंतिक  : पुं० [सं० वैजयन्त+ठक्-इक] वह जो पताका या झंडा उठाकर चलता हो। (हेरल्ड)।
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वैजयंती  : स्त्री० [सं०] १. पताका। झंडा। २. जयंती नामक पौधा। ३. घुटनों तक लंबी मोतियों की पंचरंगी माला।
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वैजयिक  : वि० [सं० विजय+ठञ्-इक] १. विजय संबंधी। २. विजय के फलस्वरूप मिलने या होनेवाला।
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वैजात्य  : पुं० [सं० विजाति+ण्य] १. विजातीय होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. विलक्षणता। ३. बदचलनी। लंपटता।
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वैजिक  : पुं० [सं० वीज+ठक्-इक] १. आत्मा २. कारण। हेतु। वि० १. बीज-संबंधी। २. वीर्य संबंधी। ३. बिजली संबंधी।
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वैज्ञानिक  : वि० [सं० विज्ञान++ठक्] १. विज्ञान संबंधी। २. ठीक रीति या सिलसिले से होनेवाला। पु० विज्ञान का ज्ञाता। विज्ञान-वेत्ता।
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वैडाल-व्रत  : पुं० [सं० उपमि० स०] [वि० वैडाल-व्रती] पाप और कुकर्म करते हुए भी ऊपर से साधु बने रहने का ढोंग।
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वैण  : वि० [सं० वेणु+अण्, उ-लोप] वेणु संबंधी। बाँस का। पुं० बाँस की खमाचियों आदि से चटाइयाँ टोकरियाँ आदि बनानेवाला कारीगर।
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वैणव  : पुं० [सं० वेणु+अण्] १. बाँस का फल। २. बाँस का वह डंडा जो यज्ञोपवीत के समय धारण किया जाता है। ३. वेणु। बाँसुरी। वि० वेणु-संबंधी। वेणु का।
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वैणविक  : पुं० [सं० वैणव+ठक्-इक] वह जो वेणु बजाता हो। वंशी बजानेवाला।
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वैणवी (विन्)  : पुं० [सं० वैणव+इनि] १. वह जो वेणु बजाता हो। २. शिव।
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वैणिक  : पुं० [सं० वीणा+ठक्-इक] वह जो वीणा बजाता हो। बीनकार। वि० वीणासंबंधी। वीणा का।
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वैणुक  : पुं० [सं० वेणु√कै (प्रकाश करना)+क+अण्] वह जो वेणु बजाने में चतुर हो। वंशी बजानेवाला। २. हाथी चलाने का अंकुश।
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वैण्य  : पुं० [सं० वेणु+ष्यञ्] राजा वेणु के पुत्र का एक नाम।
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वैतंडिक  : पुं० [सं० वितंड+ठक्-इक] वितण्डा खड़ा करनेवाला। बहुत बड़ा झगड़ालू व्यक्ति।
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वैतत्य  : पुं० [सं० वितत+ष्यञ्]=वितति (विस्तार)।
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वैतथ्य  : पुं० [सं० वितथ+ष्यञ्] १. वितथ होने की अवस्था या भाव। २. विफलता।
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वैतनिक  : वि० [सं० वेतन+ठक्-इक] १. वेतन संबंधी। वेतन का। २. जिसे किसी पद पर काम करने के फलस्वरूप वेतन मिलता हो। जैसे—वैतनिक मंत्री। पुं० नौकर। भृत्य।
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वैतरणी  : स्त्री० [सं० वितरण+अण्+ङीष्] १. उड़ीसा की एक नदी का नाम जो बहुत पवित्र मानी जाती है। २. पुराणानुसार परलोक की एक नदी जिसे (यह शरीर छोड़ने पर) जीवात्मा को पार करना पड़ता है।
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वैतंसिक  : पुं० [सं० वितंस+ठक्—इक] कसाई।
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वैतस्त  : वि० [सं० वितस्ता+अण्] १. वितस्ता। नदी संबंधी। २. वितस्ता नदी से प्राप्त।
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वैतानिक  : वि० [सं० वितान+ठक्-इक] १. यज्ञ-संबंधी। २. पवित्र।
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वैताल  : पुं० [सं० वेताल+अण्] स्तुत पाठक। वैतालिक। वि० वेताल सम्बन्धी। वेताल का।
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वैतालिक  : पुं० [सं० वेताल+ठक्-इक] १. प्राचीन काल का वह स्तुति पाठक जो प्रातःकाल राजाओं को उनकी स्तुति करके जगाया करता था। स्तुति पाठक। २. ऐन्द्रजालिक। जादूगर।
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वैताली (लिन्)  : पुं० [सं० वैताल+इनि] कार्तिकेय का एक अनुचर।
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वैतालीय  : वि० [सं० वेताल+छ—ईय] वेताल संबंधी। पुं० १. एक प्रकार का विषम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरणों में चौदह-चौदह और दूसरे और चरणों में सोलह-सोलह मात्राएँ होती है।
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वैतुष्ण्य  : पुं० [सं० वितृष्ण+ष्यञ्] वितृष्ण होने की अवस्था या भाव।
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वैत्तिक  : वि० [सं०] वित्त-संबंधी।
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वैद  : पुं०=वैद्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वैदक  : पुं०=वैद्यक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वैदग्ध (दग्ध्य)  : पुं० [सं० विदग्ध+अण्, विदग्ध+ष्यञ्] १. विदग्ध या पूर्ण पंडित होने की अवस्था,धर्म या भाव। पांडित्य। विद्वान। २. कार्य कुशलता। दक्षता। पटुता। ३. चातुरी। चालाकी। ४. रसिकता। ५. शोभा। श्री। ६. हाव-भाव।
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वैदंभ  : पुं० [सं० विदंभ+अण्] शिव का एक नाम।
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वैदर्भ  : वि० [सं० विदर्भ+अण्] १. विदर्भ देश का। २. विदर्भ देश में उत्पन्न। ३. बात-चीत करने में चतुर। पुं० १. विदर्भ का राजा या शासक। २. दमयंती के पिता भीमसेन। ३. रुक्मिणी के पिता भीष्मक। ४. वाकचातुरी। ५. मसूड़ा फूलने का रोग।
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वैदर्भक  : पुं० [सं० विदर्भ+अण्+कन्] विदर्भ का निवासी।
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वैदर्भी  : स्त्री० [सं० विदर्भ+अण्+ङीष्] १. संस्कृत साहित्य में साहित्यिक रचना का वह विशिष्ट प्रकार या शैली जो मुख्यतः विदर्भ और उसके आस-पास के देशों में प्रचलित थी, और जो प्रायः सभी गुणों से युक्त सुकुमार वृत्तिवाली तथा सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। करुणा श्रृंगार आदि रसों के लिए यह विशेष उपयुक्त मानी गई है। २. अगस्त्य ऋषि की पत्नी। ३. दमयन्ती। ४. रुक्मिणी।
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वैदांतिक  : वि० [सं० वेदान्त+ठक्—इक] वेदांत जाननेवाला। वेदांती।
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वैदारिक  : पुं० [सं० विदार+ठक्-इक] सन्निपात ज्वर का एक भेद।
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वैदिक  : वि० [सं० वेद+ठक्-इक] १. वेद-संबंधी। वेद का। जैसे—वैदिक काल, वैदिक कर्म। २. जो वेदों में कहा गया हो। पुं० १. वह जो वेदों में बतलाये हुए कर्मकांड का अनुष्ठान करता हो। वेद में कहे हुए कृत्य करनेवाला। २. वह जो वेदों का अच्छा ज्ञाता या पंडित हो।
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वैदिक-धर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] आर्यो का वह धर्म जो वेदों के युग में प्रचलित था। (इसमें प्रकृति की उपासना पितरों का पूजन, यज्ञकर्म, तपस्या आदि बातें मुख्य थी, और जादू-टोने या मंत्र-तंत्र का भी कुछ प्रचलन था)।
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वैदिक-युग  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह युग या समय जब वेदों की रचना हुई थी और वैदिक धर्म प्रचलित था।
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वैदिश  : वि० [सं० विदिशा+अण्] १. विदिशा सम्बन्धी। विदिशा का। २. विदिशा में होनेवाला। पुं० विदिशा का निवासी।
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वैदिश्य  : पुं० [विदिशा+ष्यञ्] विदिशा के पास का एक प्राचीन नगर।
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वैदुरिक  : पुं० [सं० विदुर+ठक्-इक] १. विदुर का भाव। २. विदुर का मत या सिद्धान्त।
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वैदुष  : पुं० [सं० विद्वस्+अण्] विद्वान। पंडित।
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वैदुष्य  : पुं० [सं० विद्वस्+ष्य़ञ्] विद्वत्ता। पांडित्य।
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वैदूर्य  : पुं० [सं०] १. हरे रग के रत्नों का एक वर्ग। (बेरिल)। २. लहसुनिया नामक रत्न। (लैपिस लेजूली)।
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वैदेशिक  : वि० [सं० विदेश+ठक्-इक] १. विदेश में होनेवाला। २. विदेशों से संबंध रखनेवाला। पुं० विदेशी व्यक्ति।
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वैदेश्य  : वि०=वैदेशिक।
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वैदेहक  : पु० [सं० वैदेह+कन्] १. वणिक। व्यापारी। २. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति।
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वैदेही  : स्त्री० [सं० विदेह+अण्+ङीष्] १. विदेह राजा जनक की कन्या, सीता। २. वैदेह जाति की स्त्री। ३. पिप्पली। ४. रोचना।
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वैद्य  : पुं० [सं० विद्या+अण्] १. पंडित। विद्वान। २. आयुर्वेद का ज्ञाता। ३. आयुर्वेद द्वारा निर्दिष्ट चिकित्सा पद्धति के अनुसार चिकित्सा करनेवाला। ४. एक जाति जो प्रायः बंगाल में पाई जाती है। इस जाति के लोग अपने आपको अंबष्ठसंतान कहते हैं। ४. वासक। अडूसा। वि० वेद संबंधी। वेद का।
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वैद्यक  : पुं० [सं० वैद्य+कन्] वह शास्त्र जिसमें रोगों के निदान और चिकित्सा का विवेचन हो। आयुर्वेद।
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वैद्याधर  : वि० [सं० विद्याधर+अण्] विद्याधर-सम्बन्धी।
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वैद्युत्  : वि० [सं० विद्युत+अण्] विद्युत-सम्बन्धी। बिजली की।
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वैद्रुम  : वि० [सं० विद्रुम+अण्] विद्रुम-सम्बन्धी। मूँगे का।
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वैध  : वि० [सं० विधि+अण्] विधि-सम्मत। २. विधि की दृष्टि में ठीक। विधि के अनुकूल।
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वैधता  : स्त्री० [सं०] वैध होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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वैधर्मिक  : वि० [सं० विधर्मी+कन्+अण्] १. ध्रर्म-विरुद्ध। २. विधर्मियों जैसा।
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वैधर्म्य  : पुं० [सं० विधर्म+ष्यञ्] १. विधर्मी होने की अवस्था या भाव। २. नास्तिकता। ३. वह जो अपने धर्म के अतिरिक्त अन्यान्य धर्मों के सिद्धान्तों का भी अच्छा ज्ञाता हो।
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वैधव  : पुं० [सं० विधु+अण्] विधु अर्थात् चन्द्रमा के पुत्र, बुध। वि० विधु-सम्बन्धी। विधु का।
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वैधवेय  : वि० [सं० विधवा+ढक्—एय] विधवा के गर्भ से उत्पन्न।
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वैधव्य  : पुं० [सं० विधवा+ष्यञ्] विधवा होने की अवस्था, या भाव। रँड़ापा।
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वैधस  : पुं० [सं० वेधस्+अण्] राजा हरिशचन्द्र जो राजा वेधस के पुत्र थे। वि० वेधस संबंधी। वेधस का।
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वैधात्र  : पुं० [सं० विधातृ+अण्] सनत्कुमार जो विधाता पुत्र माने जाते हैं।
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वैधात्री  : स्त्री० [सं० वैधात्र+ङीष्] ब्राह्मी (जड़ी)।
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वैधिक  : वि० [सं० विधि+ठक्-इक] वैध। विधि-सम्मत।
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वैधी  : स्त्री० [सं० विधि+अण्+ङीष्] ऐसी भक्ति जो शास्त्रों में बतलाई हुई विधि के अनुसार या अनुरूप हो। जैसे—कीर्तन, भजन आदि।
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वैधूर्य  : पुं० [सं० विधुर+ष्यञ्] १. विधुर होने की अवस्था या भाव। २. हताश या कातर होने की अवस्था या भाव। ३. भ्रम। धोखा। ४. सन्देह। ५. कंप।
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वैधृति  : पुं० [सं० ब० स० पृषो० सिद्धि] १. ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों में से एक जो अशुभ कहा गया है। २. पुराणानुसार विधृति के पुत्र एक देवता।
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वैधेय  : वि० [सं० विधि+ढक्-एय या विधेय+अण्] १. विधि संबंधी। विधि का। २. संबंधी। रिश्तेदार। ३. मूर्ख। बेवकूफ।
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वैध्य  : वि० [सं० विध्य+अण्] १. विंध्य पर्वत पर होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. विध्यवासी।
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वैनतक  : पुं० [सं० विनता+अण्, अकच्] एक प्रकार का यज्ञ पात्र जिसमें घी रखा जाता था।
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वैनतेय  : वि० [सं० विनता+ढक्-एय] विनता सम्बन्धी। विनता का। पुं० १. विनता की संतान। २. गरुड़। ३. अरुण।
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वैनतेयी  : स्त्री० [सं० वैनतेय+ङीष्] एक वैदिक शाखा।
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वैनत्य  : वि० [सं० विनत+ष्यञ्] विनीत। विनम्र।
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वैनयिक  : पुं० [सं० विनय+ठक्—इक] १. विनय २. निवेदन। प्रार्थना। ३. वह जो शास्त्रों आदि का अध्ययन करता हो। ४. युद्ध रथ। वि० १. विनय संबंधी। २. विनय अर्थात् नीतिपूर्ण आचरण करनेवाला।
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वैनायक  : वि० [सं० विनायक+अण्] विनायक या गणेश संबंधी। विनायक का। पुं० पुराणा-नुसार भूतों का एक गुण।
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वैनायिक  : पुं० [सं० विनाय+ठक्-इक] बौद्ध धर्म का अनुयायी। बौद्ध।
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वैनाशिक  : पुं० [सं० विनाश+ठक्-इक] १. फलित ज्योतिष में जन्म नक्षत्र से तेरहवाँ नक्षत्र। २. जन्म नक्षत्र से सातवाँ दसवाँ और अठारहवाँ नक्षत्र। ये तीनों नक्षत्र अशुभ समझे जाते हैं और निधन तारा कहलाते हैं। इन नक्षत्रों में यात्रा करना वर्जित है। ३. बौद्ध। वि० १. विनाश सम्बन्धी। विनाश का। २. परतन्त्र। पराधीन।
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वैनीतक  : पुं० [सं० विनीत√कै (प्रकाश करना)+क+अण्] १. एक तरह की बड़ी पालकी। विनीतक। २. वाहन का साधन अर्थात् कहार, घोड़ा आदि।
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वैन्य  : पुं० [सं० वेन+ण्य] वेन के पुत्र, पृथु।
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वैपथक  : वि० [सं० विपथ+कन्+अग्] १. विपथ संबंधी। विरथ का। २. विपथ पर चलनेवाला।
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वैपरीत्य  : पुं० [सं० विपरीत+ष्यञ्] विपरीतता।
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वैपार  : पुं०=व्यापार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वैपारी  : पुं०=व्यापारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वैपित्र  : वि० [सं० विपितृ+अण्] (संबंध के विचार से ऐसे भाई या बहनें) जो एक ही माता के गर्भ से परन्तु विभिन्न पिताओं के वीर्य से उत्पन्न हुए हों।
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वैपुल्य  : पुं० [सं० विपुल+ष्यञ्] विपुलता।
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वैफल्य  : पुं० [सं० विफल+ष्यञ्] १. विफलता। २. साहित्य में रचना का एक दोष जो उस समय माना जाता है जब रचना में शब्दालंकार मात्र होता है पर चमत्कार का अभाव होता है।
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वैबांधिक  : पुं० [सं० विवोधिक+ठक्—इक] १. रात को पहरा देनेवाला व्यक्ति। २. जगानेवाला व्यक्ति। विशेषतः स्तुति पाठ द्वारा राजा को जगानेवाला व्यक्ति।
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वैबुध  : वि० [सं० विबुध+अण्] विबुध अर्थात् देवता-संबंधी।
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वैभव  : पुं० [सं० विभु+अण्] १. विभव अर्थात् धनी होने की अवस्था या भाव। २. धन-दौलत। ऐश्वर्य। ३. बड़प्पन। महत्ता। ४. शान-शौकत। ५. शक्ति। सामर्थ्य।
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वैभवशाली  : वि० [सं०] १. (व्यक्ति) जिसके पास बहुत अधिक धन संपत्ति हो। विभववाला। २. अत्यधिक समर्थ।
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वैभविक  : वि० [सं० वैभव+ठक्-इक] १. वैभव संबंधी। २. वैभवशाली।
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वैभातिक  : वि० [सं० विभात+ठक्-इक] विभात अर्थात् प्रभात संबंधी।
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वैभार  : पुं० [सं०] राजगृह के पास का एक पर्वत।
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वैभावर  : वि० [सं० विभावरी+अण्] विभावरी अर्थात् रात-संबंधी।
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वैभाषिक  : वि० [सं० विभाषा+ठक्-इक] १. विभाषा में होनेवाला। विभाषा संबंधी। २. वैकल्पिक। ३. बौद्धों के विभाषा नामक संप्रदाय से संबंध रखनेवाला अथवा उसका अनुयायी।
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वैभाष्य  : पुं० [सं० विभाषा+ष्यञ्] किसी मूल या सूत्रग्रन्थ का विस्तृत भाष्य।
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वैभूतिक  : वि० [सं० विभूति+ठक्—इन] १. विभूति संबंधी। विभूति का। २. विभूति के फलस्वरूप होनेवाला। ३. प्रचुर।
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वैभोज  : पुं० [सं० विभोज+अण्] एक प्राचीन जाति जिसका मूल पुरुष् द्रुह्यु माना गया है (महाभारत)।
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वैभ्राज्य  : पुं० [सं० विभ्राज्य+अण्] १. देवताओं का उद्यान या बाग। २. पुराणानुसार मेरु के पश्चिम में सुपार्श्व पर्वत पर का एक जंगल। २. स्वर्ग के अन्तर्गत एक लोक।
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वैमत्य  : पुं० [सं० विमति+ण्य] १. विमति अर्थात् मतभेद की अवस्था या भाव। फूट। २. मतों का न मिलना। ३. मतों में होनेवाला अंतर या फरक।
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वैमनस्य  : पुं० [सं० विमनस्+ष्यञ्] १. विमनस् या अन्यमनस्क होने की अवस्था या भाव। २. दुश्मनी। वैर। शत्रुता। ३. मानसिक। शैथिल्य। उदासी।
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वैमल्य  : पुं० [सं० विमल+ष्य़ञ्]=विमलता।
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वैमात्र  : वि० [सं० विमातृ+अण्] [स्त्री० वैमात्रा] (संबंध के विचार से ऐसे भाई या बहनें) जो विभिन्न माताओं के गर्भ से उत्पन्न, परन्तु एक ही पिता की संतान हों।
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वैमात्रक  : पुं० [सं० वैमात्र+कन्] [स्त्री० वैमात्री] सौतेला भाई।
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वैमात्रेय  : वि० [सं० विमातृ+ढक्-एय] [स्त्री० वैमात्रेयी] १. विमातृ संबंधी। विमाता का। २. विमाता या सौतेली माँ की तरह का। (स्टेप मदरली)। जैसे—किसी के साथ किया जानेवाला वैमात्रेय व्यवहार।
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वैमानिक  : वि० [सं० विमान+ठक्-इक] १. विमान संबंधी। २. विमान में उत्पन्न। पुं० १. वह जो विमान पर सवार हो। २. हवाई जहाज चलानेवाला। (पायलट)।
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वैमानिकी  : स्त्री० [सं० वैमानिक+ङीष्] विमान पर हवाई जहाज चलाने की क्रिया, विद्या या शास्त्र। (एयरोनाटिक्स)।
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वैमुध  : पुं० [सं० विमुध+अण्] इंद्र।
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वैमुरुय  : पुं० [सं० विमृख+ष्यञ्] १. विमुखता। २. विरक्ति। घृणा। ३. पलायन।
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वैमूढ़क  : पुं० [सं०] नृत्य का वह प्रकार जिसमें स्त्रियों का वेश धारण करके पुरुष नाचते हैं।
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वैमूल्य  : पुं० [सं० विमूल्य+अण्] मूल्य की भिन्नता।
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वैयक्तिक  : वि० [सं० व्यक्ति+कन्+अण्] १. किसी विशिष्ट व्यक्ति अथवा उसके अधिकार, गुण, स्वभाव आदि से संबंध रखनेवाला (पर्सनल)। २. जो पारिवारिक सामूहिक या सार्वजनिक कार्यक्षेत्र के अंतर्गत आता हो। बल्कि जिस पर एक ही व्यक्ति का विधिक अधिकार हो (प्राइवेट)।
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वैयक्तिक बंध  : पुं० [सं०] वह बंध या प्रतिज्ञापत्र जिसके अनुसार लेखक या हस्ताक्षरकर्ता अपने आप को कोई काम करने या कोई प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए वद्ध करता है (पर्सनल बाण्ड)।
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वैयक्तिक विधि  : स्त्री० [सं०] आधुनिक राजकीय विधानों में देशव्यापी विधियों या कानूनों से भिन्न वह विधि या कानून जिसका प्रयोग किसी क्षेत्र के विशिष्ट निवासी या निवासियों के संबंध में कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में होता है। (पर्सनल ला)।
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वैयग्र  : पुं० [सं०]=व्यग्रता।
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वैयर्थ्य  : पुं० [सं० व्यर्थ+ष्यञ्] व्यर्थ होने की अवस्था या भाव। व्यर्थता।
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वैयसन  : वि० [सं० व्यसन+अण्] व्यसन संबंधी। व्यसन का।
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वैयाकरण  : वि० [सं० व्याकरण+अण्] व्याकरण संबंधी। व्याकरण का। पुं० १. वह जिसे व्याकरण-शास्त्र का पूर्ण ज्ञान हो। व्याकरण का ज्ञाता। २. व्याकरण शास्त्र की रचना करनेवाला।
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वैयाघ्र  : पुं० [सं० व्याघ्र+अण्] १. व्याघ्र संबंधी। २. व्याघ्र की तरह का। ३. जिस पर व्याघ्र की खाल मढ़ी गई हो। पुं० पुरानी चाल का एक तरह का रथ जिस पर बाघ की खाल मढ़ी होती थी।
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वैयास  : वि० [सं० व्यास+अण्] व्यास-संबंधी। व्यास का।
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वैयासकि  : पुं० [सं० व्यास+इञ्, अकङ-आदेश,ऐच] वह जो व्यास का वंशज हो। पुं० व्यास द्वारा रचित।
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वैर  : पुं० [सं० वीर+अण्] शत्रुता का वह उत्कृष्ट या तीव्र रूप जो प्रायः जाग्रत रहता और बहुत कुछ स्थायी या स्वाभाविक होता है। विशेष—‘वैर’ या ‘शत्रुता’ का अंतर जानने के लिए देखें ‘शत्रुता’ का विशेष।
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वैर-शुद्धि  : स्त्री० [सं०] वैरी से उसके लिए किये गए अपकार का बदला लेने के लिए उसका कोई अपकार करना। वैर का बदला चुकाना।
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वैरक्त  : पुं० [सं० विरक्त+अण्] विरक्त होने की अवस्था या भाव। विरक्तता।
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वैरता  : स्त्री० [सं० वैर+तल्+टाप्] वैर का भाव। पूर्ण शत्रुता।
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वैरल्य  : पुं० [सं० विरल+ष्यञ्] १. विरलता। २. एकांत स्थान।
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वैरस्य  : पुं० [सं० विरस+ष्यञ्] १. विरक्त होने का भाव। विरसता। २. अनिच्छा।
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वैराग  : पुं०=वैराग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वैरागिक  : वि० [सं० विराग+ठञ्-इक] १. विराग संबंधी। २. विराग उत्पन्न करनेवाला।
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वैरागी  : वि० [सं० वैराग्य+इनि] जिसके मन में विराग उत्पन्न हुआ हो। जिसका मन संसार की ओर से हट गया हो। विरक्त। जैसे—बंदा वीर वैरागी। पुं० उदासीन वैष्णवों का एक संप्रदाय।
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वैराग्य  : पुं० [सं० विराग+ष्यञ्] १. वह अवस्था जिसमें मन में किसी के प्रति राग-भाव नहीं होता। २. मन की वह वृत्ति जिसके कारण संसार की विषय-वासना तुच्छ प्रतीत होती है और व्यक्ति संसार की झंझटें तोड़कर एकांत में रहता है और ईश्वर का भजन करता है। विरक्ति।
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वैराज  : पुं० [सं० विराज+अण] १. विराट् पुरुष। परमात्मा। २. एक मनु का नाम। ३. पुराणानुसार सत्ताइसवें कल्प का नाम। ४. पितरों का एक वर्ग। ५. वैराग्य। (दे०)।
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वैराजक  : पुं० [सं० वैराज+कन्, अथवा वि√राज् (सुशोभित होना)+ण्वुल्-अक+अण्] उन्नीसवाँ कल्प (पुरा०)।
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वैराज्य  : पुं० [सं० विराज+ष्यञ्] १. ऐसी शासन-प्रणाली जिसमें दो प्रभु-सत्ताएँ किसी राष्ट्र का शासन सूत्र सँभाले रहती हैं। २. ऐसा देश जिसमें उक्त प्रकार की शासन-प्रणाली प्रचलित हो।
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वैराट  : वि० [सं० विराट+अण्] १. विराट संबंधी। विराट का। २. लंबा-चौड़ा। विस्तृत। पुं० १. महाभारत का विराट पर्व। २. बीरबहूटी। इन्द्रगोप।
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वैराटक  : पुं० [सं० वैराट+कन्] शरीर के किसी अंग में होनेवाली जहरीली गाँठ या गिलटी। (सुश्रुत)
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वैरि  : पुं० [सं० वैर+इनि] वैरी शत्रु। दुश्मन।
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वैरिंचि  : वि० [सं० विरिच+इञ्] विरिंचि या ब्रह्मा-संबंधी। ब्रह्मा का।
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वैरिंच्य  : पुं० [सं० विरिंच+ष्यञ्] ब्रह्मा की संतान सनक सनन्दन आदि ऋषि।
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वैरी  : पुं० [सं० वैरिन्] वह जिसके साथ वैर-भाव हो। दुश्मन।
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वैरूपाक्ष  : पुं० [सं० विरूपाक्ष+अण्] विरूपाक्ष के गोत्र या वंश में उत्पन्न।
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वैरूप्य  : पुं० [सं० विरूप+ष्यञ्] विरूप होने की अवस्था या भाव। विरूपता। २. विकृति। ३. बेढंगापन।
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वैरेचन  : वि० [सं० विरेचन+अण्] विरेचन-संबंधी। विरेचन का।
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वैरोचन  : वि० [सं० विरोचन+अण्] १. विरोचन से उत्पन्न। २. सूर्यवंश में उत्पन्न। पुं० १. बुद्ध का एक नाम। २. राजा बलि का एक नाम। ३. सूर्य का एक नाम। ४. सूर्य का एक पुत्र। ४. अग्नि का एक पुत्र।
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वैरोचनि  : पुं० [सं० विरोचन+इञ्] १. बुद्ध का एक नाम। २. राजा बलि का एक नाम। ३. सूर्य का एक पुत्र।
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वैरोद्धार  : पुं० [सं० ष० त०]=वैर-शुद्धि।
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वैरोधक, वैरोधिक  : वि० [सं०] अनुकूल न पडनेवाला अथवा विरोधी सिद्ध होनेवाला।
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वैल-स्थान  : पुं० [सं० विलस्थान+अण्] वह स्थान जहाँ मुरदे गाड़े जाते हैं। कब्रिस्तान।
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वैलक्षण्य  : पुं० [सं० विलक्षण+ष्यञ्] १. विलक्षण होने की अवस्था या भाव। विलक्षणता। २. ऐसा गुण या धर्म जिसके कारण कोई चीज विलक्षण प्रतीत होती हो।
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वैलक्ष्य  : पुं० [सं० विलक्ष+ष्यञ्] १. लज्जा। शर्म। २. आश्चर्य। ताज्जुब। ३. स्वभाव की विलक्षणता।
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वैलिंग्य  : पुं० [सं० वेलिंग+ष्यञ्] लिंग अर्थात् परिचायक चिन्ह से रहित होने की अवस्था या भाव। लिंगहीनता।
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वैलोम्य  : पुं० [सं० विलोम+ष्यञ्]=विलोमता।
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वैवक्षिक  : वि० [सं०] १. विवक्षा संबंधी। २. विवक्षा-जन्य।
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वैवधिक  : पुं० [सं० विवध+ठक्—इक] १. फेरी लगानेवाला व्यापारी। २. अनाज या गल्ले का व्यापारी। ३. दूत। ४. मजदूर।
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वैवर्ण  : पुं० [सं० विवर्ण+अञ्] १. विवर्ण होने की अवस्था या भाव। २. लावण्य या सौन्दर्य का अभाव। ३. मलिनता। ४. वैवर्ण्य (दे०)।
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वैवर्णिक  : पुं० [सं० विवर्ण+ठक्—इक] वह जो जाति-च्युत कर दिया गया या अपने वर्ण से निकाल दिया गया हो।
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वैवर्ण्य  : पुं० [सं० विवर्ण+ष्यञ्] १. विवर्णता। २. साहित्य में एक सात्त्विक भाव जो उस समय माना जाता है जब क्रोध, भय, मोह, लज्जा, रोग, शीत या हर्ष के कारण किसी के मुँह का रंग उड़ने लगता है। ३. मलिनता। ४. जाति से च्युत होने की अवस्था या भाव।
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वैवर्त  : पुं० [सं० विवर्त्त+अण्] चक्र या पहिए की तरह घूमना।
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वैवश्य  : पुं० [सं० विवश+ष्यञ्] १. विवश होने की अवस्था या भाव। विवशता। २. कमजोरी। दुर्बलता।
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वैवस्वत  : पुं० [सं० विवस्वत+अण्] १. सूर्य के एक पुत्र का नाम। २. एक रुद्र का नाम। ३. शनैश्चर। ४. पुराणानुसार (क) वर्तमान मन्वंतर और (ख) उसके मनु का नाम। ५. कलियुग के अधिष्ठाता सातवें मनु। वि० १. सूर्य संबंधी। २. मनु-संबंधी। ३. यम-संबंधी।
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वैवस्वती  : स्त्री० [सं० वैवस्वत+ङीष्] १. दक्षिण दिशा। २. यमुना। ३. यम की बहन।
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वैवाह  : वि० [सं० विवाह+अण्] विवाह संबंधी। विवाह का।
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वैवाहिक  : वि० [सं० विवाह+ठक्—इक] १. विवाह संबंधी। विवाह का (मैरिटल) २. विवाह के फलस्वरूप होनेवाला। पुं० १. विवाह। २. विवाह के फलस्वरूप होनेवाला संबंध। ३. श्वसुर।
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वैवाह्य  : वि० [सं० विवाह+ष्यञ्] १. विवाह संबंधी। विवाह का। २. जो विवाह के योग्य हो या जिसका विवाह होने को हो। पुं० विवाह संबंधी कृत्य।
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वैवृत्त  : पुं० [सं० विवृत्त+अण्] उदात्त आदि स्वरों का क्रम।
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वैशद्य  : पुं० [सं० विशद+ष्यञ्] १. विशद होने का भाव। विशदता। २. निर्मलता।
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वैशंपायन  : पुं० [सं० विशम्प+फञ्-आयन] एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम जो वेदव्यास के शिष्य थे। कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास की आज्ञा से इन्होंने जन्मेजय को महाभारत की कथा सुनाई थी।
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वैशली  : स्त्री०=वैशाली।
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वैशल्य  : पुं० [सं० विशल्य+अण्] बहुत बड़े कष्ट या वेदना से होनेवाली मुक्ति।
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वैशाख  : पुं० [सं० विशाखा+अण्] १. भारतीय वर्ष के बारह महीनों में से एक जो चांद्र गणना से दूसरा और सौर गणना के अनुसार पहला महीना होता है। इस मास की पूर्णिमा विशाखा नक्षत्र में पड़ती हैं, इसलिए इसे वैशाख कहते हैं। २. एक प्रकार का वह ग्रह जिसका प्रभाव घोड़ों पर पड़ता है, और जिसके कारण उसका शरीर भारी हो जाता है और वह काँपने लगता है। ३. बाण चलाने की एक प्रकार की मुद्रा। ४. मथानी का डंडा। ५. लाल गदहपूरना।
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वैशाखी  : स्त्री० [सं० विशाखा+अण्+ङीष्] १. ऐसी पूर्णिमा जो विशाखा नक्षत्र से युक्त हो। वैशाख मास की पूर्णिमा। २. सौर मास की संक्रान्ति के दिन होनेवाला उत्सव। ३. पुराणानुसार वसुदेव की एक पत्नी। ४. लाल गदहपूरना।
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वैशारद  : वि० [सं० विशारद+अण्] विशारद।
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वैशारद्य  : पुं० [सं० विशारद+ष्यञ्] विशारद या पंडित होने की अवस्था, कर्म या भाव। विशारदता।
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वैशाली  : स्त्री० [सं०] आधुनिक मुजफ्फरपुर (बिहार) में स्थित एक प्राचीन नगरी जिसे विशाल नामक राजा ने बसाया था तथा जो महावीर वर्द्धमान की जन्मभूमि है। आज-कल वह वसाढ़ नाम से प्रसिद्ध है।
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वैशालीय  : पुं० [सं० विशाला+छण्—ईय] जैन धर्म के प्रवर्त्तक महावीर का एक नाम।
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वैशालेय  : पुं० [सं० विशाल+ढक्-एय] १. विशाल का वंशज। २. तक्षक।
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वैशिक  : पुं० [सं० वेश+ठक्-इक] तीन प्रकार के नायकों में से वह नायक जो वेश्याओं के साथ भोग-विलास, करता हो। वेश्यागामी नायक। वि० १. वेश्यावृत्ति से संबंध रखनेवाला। २. वेश्या-संबंधी। वेश का।
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वैशिष्ठ्य  : पुं० [सं०] विशिष्ठता।
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वैशेषिक  : पुं० [सं० विशेष+ठक्—इक] १. छः दर्शनों में से एक जो महर्षि कणादकृत है और जिसमें पदार्थों के स्वरूप आदि का विचार तथा द्रव्यों का निरूपण है। पदार्थ विद्या। २. उक्त दर्शन का अनुयायी।
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वैशेष्य  : पुं० [सं०विशेष+ष्यञ्] विशेष का भाव। विशेषता।
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वैश्मिक  : वि० [सं० वेश्म+ठक्-इक] वेश्म अर्थात् घर या मकान में रहनेवाला।
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वैश्य  : पुं० [सं०√विश्+क्विप्+ष्यञ्] हिन्दुओं में तीसरे वर्ण का व्यक्ति जिसका मुख्य कर्म व्यापार तथा खेती कहा गया है।
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वैश्यता  : स्त्री० [सं० वैश्म+तल्+टाप्] वैश्य का धर्म या भाव। वैश्यत्व।
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वैश्यभद्रा  : स्त्री० [सं० द्व० स०] बौद्धों की वैश्या और भद्रा नाम की दो देवियाँ।
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वैश्या  : स्त्री० [सं० वैश्य+टाप्] १. वैश्य जाति की स्त्री। २. हल्दी।
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वैश्रंभक  : पुं० [सं० विश्रंभक+अण्] देवताओं का एक उद्यान। (पुराण)
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वैश्रंभक  : पुं० [सं० विश्रवण+अण्] १. कुबेर। २. शिव।
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वैश्रवणालय  : पुं० [सं० ष० त०] १. कुबेर के रहने का स्थान। २. बड का पेड़। वट वृक्ष।
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वैश्लेषिक  : वि० [सं०] १. विश्लेषण संबंधी। २. विश्लेषण के फलस्वरूप ज्ञात होनेवाला। (एनैलिटिकल)
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वैश्व  : वि० [सं० विश्व+अण्] विश्वदेव संबंधी। विश्वदेव का। पुं० उत्तराषाढ़ा। नक्षत्र।
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वैश्वजनीन  : वि०=विश्वजनीन।
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वैश्वदेव  : पुं० [सं० विश्वदेव+अण्] विश्वदेव को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया जानेवाला यज्ञ।
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वैश्वदेवत  : पुं० [सं० विश्वदेवता+अण्] उत्तराषाढ़ा नक्षत्र जिसके अधिष्ठाता विश्वदेव माने जाते हैं।
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वैश्वयुग  : पुं० [सं० विश्व-युग, ष० त०+अण्] फलित ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति के शोमकृत, शुभकृत क्रोधी, विश्वावसु और पराभाव नामक पाँच सवत्सरों का युग या समूह।
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वैश्वरूप  : वि० [सं० विश्वरूप+अण्] १. बहुत से रूपोंवाला। २. विभिन्न प्रकार का।
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वैश्वानर  : पुं० [सं० विश्वानर+अण्] १. अग्नि। २. परमात्मा। ३. चेतन। ४. चित्र। ५. चित्रक। चीता।
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वैश्वानर-मार्ग  : पुं० [सं०] चन्द्रवीथी का एक भाग।
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वैश्वामित्र, वैश्वामित्रक  : वि० [सं० विश्वामित्र+अण्+कन्] विश्वामित्र संबंधी।
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वैश्वासिक  : वि० [सं० विश्वास+ठक्-इक]=विश्वास संबंधी।
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वैषम्य  : पुं० [सं० विषम+ष्यञ्] विषम होने की अवस्था या भाव।
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वैषयिक  : वि० [सं० विषय+ठक्-इक] १. विषय वासना संबंधी। विषय का। २. विषय वासना में लिप्त रहनेवाला। विषयी।
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वैषवत  : पुं० [सं० विषवत्+अण्] विषुव संक्रांति। वि० विषवत्-सम्बन्धी।
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वैषिक  : वि० [सं० विष+ठक्-इक] १. विष संबंधी। २. विष के संयोग से उत्पन्न होनेवाला। विषजन्य (टाँक्सिक)। जैसे—रक्त में होनेवाला वैषिक विकार।
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वैष्किर  : पुं० [सं० विष्किर+अण्] ऐसा पशु या पक्षी जो चारों ओर घूम-फिरकर आहार प्राप्त करता हो।
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वैष्णव  : वि० [सं० विष्ण+अण्] [स्त्री० वैष्णवी] १. विष्णु संबंधी। जैसे—वैष्णव विचार। २. विष्णु का उपासक। पुं० १. हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध धार्मिक संप्रदाय। इसमें विष्णु की उपासना करते हुए अपेक्षाकृत विशेष आचार-विचार में रहना पड़ता है। २. उक्त के आधार पर सात्त्विक वृत्तिवाला और निरामिषभोजी व्यक्ति। ३. विष्णु पुराण। ४. यज्ञ कुण्ड की भस्म। वि० विष्णु-संबंधी। विष्णु का।
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वैष्णवत्व  : पुं० [सं० वैष्णव+त्व] वैष्णव होने की अवस्था या भाव। वैष्णवता।
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वैष्णवाचार  : पुं० [सं० ष० त०] १. वैष्णव का आचार-विचार। २. मांस आदि असात्विक पदार्थ का सेवन न करना।
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वैष्णवी  : स्त्री० [सं० वैष्णव+ङीष्] १. विष्णु की शक्ति। २. दुर्गा। ३. गंगा। ४. तुलसी। ५. पृथ्वी। ६. श्रवण नक्षत्र। ७. अपराजिता या कोयल नाम की लता। ८. शतावर।
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वैष्णव्य  : वि० [सं० वैष्णव+यत्, या ष्यञ्] विष्णु-संबंधी। विष्णु का।
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वैसंदर  : पुं० [सं० वैश्वानर] अग्नि। आग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वैसर्गिक  : वि० [सं० विसर्ग+ठञ्-इक] १. विसर्ग संबंधी। २. जो विसर्जन करने या त्यागे जाने के योग्य हो। त्याज्य।
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वैसर्जन  : पुं० [सं० विसर्जन+अण्] १. विसर्जन करने या उत्सर्ग करने की क्रिया। २. विसर्जित किया हुआ। पदार्थ। ३. यज्ञ की बलि।
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वैसर्प  : पुं० [सं० विसर्प+अण्] विसर्प नामक रोग।
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वैसा  : वि० [हिं०] १. किसी के अनुरूप या उसके अनुकरण पर किया जाने या होनेवाला। उसी तरह का। २. ऐसा। जैसा—वैसा काम करो कि लोग तुम्हें पुरस्कृत करें। अव्य० उस प्रकार।
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वैसादृश्य  : पुं० [सं० विसदृश+ष्यञ्] विसदृश या असमान होने का भाव। असमानता। विषमता।
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वैसे  : अ० [हिं० वैसा] उस प्रकार से। उस तरह से।
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वैस्तारिक  : वि० [सं० विस्तार+ठक्—इक] १. विस्तार संबंधी। विस्तार का। २. विस्तृत।
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वैस्वर्य  : पुं० [सं० विस्वर+ष्यञ्] १. विस्वर होने की अवस्था या भाव। २. उद्वेग, पीड़ा आदि के कारण होनेवाला स्वर-भंग। स्वर का विकृत होना। ३. गला बैठना।
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वैहंग  : वि० [सं० विहंग+अण्] विहंग-संबंधी। पक्षी का।
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वैहायस  : वि० [सं० विहायस्+अण्] १. आकाश में विचरण करनेवाला। २. आकाशस्थ। ३. वायु संबंधी। पुं० देवता।
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वैहार  : पुं० [सं० विहार+अण्] मगध में राजगृह के पास का एक प्राचीन पर्वत।
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वैहारिक  : वि० [सं० विहार+ठक्-इक] १. विहार संबंधी। विहार का। २. विहार के लिए काम में आनेवाला।
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वैहार्य  : वि० [सं० वि√हृ (हरना)+ण्यत्,+अण्] जिससे हँसी-मजाक किया जाता हो। पुं० साला।
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वैहासिक  : पुं० [सं० विहास+ठक्-इक] ऐसा व्यक्ति जो लोगों को बहुत अधिक हँसाता हो।
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वोट  : पुं० [अं०] चुनाव में किसी उम्मेदवार को मतदाता द्वारा दिया जानेवाला मत। स्त्री० ओट उदाहरण—बदन चंद पट वोट जरावै।—नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वोटर  : पुं० [अं०] वह जिसे चुनाव में मत देने का अधिकार प्राप्त हो। मतदाता।
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वोटिंग  : स्त्री० [अं०] चुनाव के समय मत दिये या लिये जाने का काम।
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वोड़ना  : स०=ओड़ना (पसारना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वोड्र  : पुं० [सं० वा+उड्र] १. गोह नामक जंतु। गोनस सर्प। २. एक प्रकार की मछली।
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वोढ़ु  : पुं० [सं०] ऐसी स्त्री का पुत्र जो मायके में रहती हो।
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वोद  : वि० [सं०] ओदा। गीला।
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वोदर  : पुं०=उदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वोरव  : पुं०=बोरो (धान)।
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वोल्ट  : पुं० [अं०] दे० ‘ऊर्ज’ (विद्युत का)।
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वोल्टेज  : पुं० [अं०] दे० ‘ऊर्ज-मान’।
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वोल्लाह  : [सं०] पुं० ऐसा घोड़ा जिसकी दुम और अयाल के बाल पीले रंग के हों।
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वोहित्य  : पुं० [सं० वोहित+यत्] बड़ी नाव। जहाज।
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व्यंकुश  : वि० [सं० वि+अंकुश] निरंकुश।
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व्यक्त  : भू० कृ० [सं० वि√अञ्ज+क्त] १. जिसका व्यंजन हुआ हो। जो प्रकट किया या सामने लाया गया हो। २. साफ। स्पष्ट।
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व्यक्त राशि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] अंकगणित में ऐसी राशि या अंग जो व्यक्त किया या बतला दिया गया हो। ज्ञात राशि।
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व्यक्त रूप  : पुं० [सं०] विष्णु।
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व्यक्त-दृष्टांत  : वि० [सं०] प्रत्यक्षदर्शी।
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व्यक्तता  : स्त्री० [सं० व्यक्त+तल्+टाप्] व्यक्त होने की अवस्था या भाव।
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व्यक्ताक्षेप  : पुं० [सं०] साहित्य में आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें पहले अपनी ही कही हुई कोई बात काटकर दोबारा उसे और जोरदार रूप में कहते हैं। जैसे—वह सीधा क्या है, बल्कि यों कहना चाहिए कि मूर्ख है।
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व्यक्ति  : स्त्री० [सं० वि√अञ्ञ् (व्याप्त होना)+क्तिन्] १. (समस्त पदों के अंत में) व्यक्त, जाहिर या स्पष्ट करने की क्रिया या भाव। जैसे—अभिव्यक्ति। २. भूत-मात्र। ३. पदार्थ। वस्तु। ४. प्रकाश। पुं० १. वह जिसका कोई अलग और स्वतंत्र रूप या सत्ता हो। समष्टि का कोई अंग। २. मनुष्य या किसी और जो किसी शरीरधारी का सारा शरीर जिसकी पृथक् सत्ता मानी जाती है और समूह या समाज का अंग माना जाता है। समष्टि का विपर्याय। व्यष्टि। ३. आदमी। मनुष्य।
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व्यक्तिक  : वि० [सं०] किसी एक ही व्यक्ति से संबंध रखनेवाला दूसरे सभी व्यक्तियों से पृथक् या भिन्न। (इण्डिवीजुअल)
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व्यक्तिकरण  : पुं० [सं० व्यक्त+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] व्यक्त करने की क्रिया या भाव।
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व्यक्तित्व  : पुं० [सं० व्यक्ति+त्वल्] १. व्यक्त होने की अवस्था या भाव। (इण्डिविजुएल्टी)। २. किसी व्यक्ति की निजी विशिष्ट क्षमताएँ गुण, प्रवृत्तियाँ आदि जो उसके उद्देश्यों, कार्यों, व्यवहारों आदि में प्रकट होती हैं और जिनसे उस व्यक्ति का सामाजिक स्वरूप स्थिर होता है। (पर्सनैलिटी)। विशेष—मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व दो भागों में विभक्त रहता है—एक आन्तर, दूसरा बाह्म। आन्तर व्यक्तित्व मूलतः नैसर्गिक या प्राकृतिक होता है और आध्यात्मिक, दैविक तथा दैहिक शक्तियों का सम्मिलित रूप होता है। यह मनुष्य के अन्दर रहनेवाली समस्त प्रकट तथा प्रच्छन्न प्रवृत्तियों और शक्तियों का प्रतीक होता है। बाह्य व्यक्तित्व इसी का प्रत्याभास मात्र होता है, फिर भी लोक के लिए वही गोचर या दृश्य होता है। इससे यह सूचित होता है कि कोई व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रवृत्तियों और शक्तियों को कहाँ तक कार्यान्वित तथा विकसित करने में समर्थ है या हो सका है।
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व्यक्तिवाद  : पुं० [सं० व्यक्ति√वद+घञ्] [वि० व्यक्तिवादी] १. यह मत या सिद्धान्त कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ढंग से चलना और रहना चाहिए, दूसरों के सुख, दुःख आदि का ध्यान नहीं रखना चाहिए। २. आर्थिक क्षेत्र में यह सिद्धान्त कि सब प्रकार के काम-धन्धों में सब लोगों को स्वतंत्र रहना चाहिए, शासन अथवा समाज का उन पर कोई नियन्त्रण नहीं रहना चाहिए, और उन्हें अपनी इच्छा से मिलकर अपना संगठन स्थापित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। ३. आधुनिक राजनीति में, यह सिद्धान्त कि सृष्टि व्यक्तियों के कल्याण के लिए ही हुई है, व्यक्तियों की सृष्टि राज्य या शासन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए नहीं हुई है (इंडिविजुएअलिज्म)।
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व्यक्तिवादी  : वि० [सं०] व्यक्तिवाद संबंधी। पुं० वह जो व्यक्तिवाद के सिद्धान्तों का अनुयायी और समर्थक हो। (इंडिविजुअलिज़्म)।
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व्यक्तीकृत  : भू० कृ० [सं० व्यक्त+च्वि√कृ (करना)+क्त] व्यक्त किया हुआ।
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व्यक्तीभूत  : वि० [सं० व्यक्त+च्वि√भू (होना)क्त]=व्यक्तीकृत।
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व्यंग  : वि० [सं० वि+अंग] [भाव० व्यंगता, व्यंगत्व] १. अंग रहित। २. जिसका कोई अंग खंडित हो अथवा न हो। विकलांग। ३. लँगड़ा। ४. अव्यवस्थित। पुं० १. मुँह पर काली फुन्सियाँ निकलने का एक रोग। २. मेढ़क। पुं०=व्यंग्य।
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व्यंगिता  : स्त्री० [सं० व्यंगि+तल्+टाप्] १. विकलांगता। २. पंगुता।
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व्यंगी  : वि० [सं० व्यंग+इनि] विकलांग।
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व्यंगुल  : पुं० [सं० ब० स०] अंगुल का साठवाँ भाग (नाप)।
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व्यंग्य  : पुं० [सं० व्यंग+यत्] १. शब्द की व्यंजना शक्ति (दे०) द्वारा निकलनेवाला अर्थ। २. किसी को चिढ़ाने, दुःखी करने या नीचा दिखाने के लिए कही जानेवाली ऐसी बात जो स्पष्ट शब्दों में न होने पर भी अथवा विपरीत रूप की होने पर भी उक्त प्रकार का अभिप्राय या आशय प्रकट करती हो। (आईरनी)
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व्यंग्य-गीति  : स्त्री० [सं०] ऐसा गीत या पद्यात्मक रचना जिसका मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति या उसकी कृति पर व्यंग्य करके उसकी हँसी उड़ाना हो। (सैटायर)।
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व्यंग्य-चित्र  : पुं० [मध्यम० स०] ऐसा उपहासात्मक तथा सांकेतिक चित्र जिसका मुख्य उद्देश्य किसी घटना, बात, व्यक्ति आदि की हँसी उड़ाना होता है (कार्टून)।
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व्यंग्य-विदग्धा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में नायिका की वह सखी जो व्यंग्य-पूर्ण बात कहकर उसे जतलाती हो कि मैंने तुम्हारा सब हाल जान लिया है।
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व्यंग्यार्थ  : पुं० [कर्म० स०] व्यंजना शक्ति के द्वारा प्राप्त अर्थ। सांकेतार्थ (सा०)।
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व्यग्र  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० व्यग्रता] १. जो चिंतित तथा बेचैन हो। २. डरा हुआ। भीत। ३. काम में लगा हुआ। व्यस्त। ४. उद्यमी। उद्योगी। ४. आसक्त। ५. हठी।
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व्यग्रता  : स्त्री० [सं० व्यग्र+तल्+टाप्] १. व्यग्र होने की अवस्था या भाव। २. वह बात जिससे सूचित होता है कि व्यक्ति व्यग्र है। पुं० विष्णु।
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व्यंजक  : वि० [सं०] व्यंजन अर्थात् व्यक्त करनेवाला। पुं० १. ऐसा शब्द जो व्यंजना द्वारा अर्थ प्रकट करता हो। २. आन्तरिक भाव व्यक्त करनेवाली चेष्टा।
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व्यंजन  : पुं० [सं०] १. व्यक्त या प्रकट करने अथवा होने की क्रिया या भाव। व्यंजना। २. तरकारी, साग आदि जो दाल, चावल, रोटी आदि के साथ खाई जाती है। ३. साधारण बोल-चाल में सभी तरह के पकाये हुए भोजन। ४. वर्णमाला का कोई ऐसा वर्ण जिसका उच्चारण किसी और वर्ण विशेषतः स्वर की सहायता के बिना संभव न हो। देवनागरी वर्णमाला में ‘क’ से ‘ह’ तक वर्णों का समूह। ५. चिन्ह्र। निशान। ६. अंग। अवयव। ७. मूँछ। ८. दिन। ९. उपस्थ।
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व्यजन  : पुं० [सं० वि√अज्+ल्युट] [भू० कृ० व्यजित, वि√अव+क्त] १. पंखे आदि से हवा करने की क्रिया या भाव। २. पंखा। ३. आजकल कमरे निवास-स्थान आदि में खिड़कियों झरोखों आदि के द्वारा की जानेवाली ऐसी व्यवस्था जिससे घिरी और छाई हुई जगह में बराबर हवा आती जाती रहे। संवातन। हवादारी (वेन्टिलेशन)। ४. किसी प्रश्न या बात की ओर जन-साधारण या उससे संबद्ध लोगों का ध्यान खींचना।
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व्यंजन संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] संस्कृत व्याकरण के अनुसार समीपस्थ व्यंजनों का मिलना अथवा मिलकर नया रूप धारण करना।
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व्यंजन-हारिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] पुराणानुसार एक प्रकार की अमंगलकरिणी शक्ति जो विवाहिता लड़कियों के बनाये हुए खाद्य पदार्थ उठा ले जाती है।
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व्यंजनकार  : पुं० [सं० व्यंजन√कृ+घञ्] तरह-तरह के व्यंजन अर्थात् पकवान बनानेवाला।
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व्यंजना  : स्त्री० [सं० व्यंजन+टाप्] १. प्रकट करने की क्रिया भाव या शक्ति। २. शब्द की तीन प्रकार की शक्तियों या वृत्तियों में से एक जिससे शब्द या शब्द-समूह के वाच्यार्थ अथवा लक्ष्यार्थ से भिन्न किसी और ही अर्थ का बोध होता है। शब्द की वह शक्ति जिसके द्वारा साधारण अर्थ को छोड़कर कोई विशेष अर्थ प्रकट होता है।
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व्यजनिक  : पुं० [सं० व्यंजन+ठक्-इक] [स्त्री० व्यंजनिका] वह नौकर या सेवक जिसका मुख्य काम स्वामी को पंखा हाँकना होता था।
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व्यजनी (निन्)  : पुं० [सं० व्यंजन+इनि] ऐसा पशु जिसकी पूँछ चँवर बनाने के काम आती है।
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व्यंजित  : भू० कृ० [सं० वि√अंज् (गमनादि)+णिच्+क्त] जिसकी व्यंजना या अभिव्यक्ति हुई हो।
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व्यज्य  : वि० पुं०=व्यंग्य।
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व्यतिकर  : वि० [सं० वि-अति√कृ (करना)+अण्] व्यति करनेवाला। पुं० १. मिलन। संयोग। २. सम्पर्क। लगाव। ३. घटना। ४. अवसर। ५. संकट। ६. अन्योन्य आश्रित सम्बन्ध। ७. विनिमय। ८. विपरीतता। ९. अन्त या नाश। १॰. व्यसन।
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व्यतिकार  : पुं० [सं० व्यति√कृ (करना)+अण्] १. व्यसन। २. विनाश। ३. मिलावट। मिश्रण। ४. व्याप्ति। ५. लगाव। संबंध। ६. झुडं। समूह।
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व्यतिक्रम  : पुं० [सं०वि-अति√क्रम् (चलना)+घञ्] १. किसी क्रम से होनेवाली बाधा या रुकावट। २. क्रम-विपर्यय। ३. उल्लंघन।
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व्यतिक्रमण  : पुं० [सं०] १. क्रम में उलट-फेर होना। २. क्रम-भंग करना।
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व्यतिक्रांत  : भू० कृ० [सं० व्यति√क्रम्+क्त] [भाव० व्यतिक्रांति] १. जिसके क्रम में बाधा खड़ी हुई या की गई हो। २. जिसका उल्लंघन हुआ हो। ३. भंग किया हुआ। भग्न। ४. बिताया या बीता हुआ।
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व्यतिचार  : पुं० [सं० वि-अति√चन् (चलना)+घञ्] १. पाप कर्म करना। २. दूषित आचरण करना। ३. एवं। दोष।
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व्यतिपात  : पुं० [सं० वि-अति√पत् (गिरना)+घञ्] १. बहुत बड़ा उत्पात। भारी उपद्रव या खराबी। २. दे० ‘व्यतीपात’।
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व्यतिरिक्त  : वि० [सं० वि-अति√रिच् (विरेचन)+क्त] [भाव० व्यतिरिक्तता] १. भिन्न। अलग। २. बढ़ा हुआ। क्रि० वि० अतिरिक्त। सिवा।
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व्यतिरेक  : पुं० [सं० वि-अति√रिच्+घञ्] १. अभाव। २. अन्तर। भेद। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. अतिक्रमण। ४. जो चीजों की ऐसी तुलना जो उनके परस्पर विरोधी गुणों को आधार बनाकर की गई हो। ५. साहित्य में एक अर्थालंकार जो उस समय माना जाता है जब उपमान की अपेक्षा उपमेय का गुण विशेष के कारण उत्कर्ष बताया जाता है।
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व्यतिरेकी (किन्)  : वि० [सं० वि-अति√रिच्+धिनुण] वह जो किसी का अतिक्रमण करता हो। भिन्नता या भेद उत्पन्न करनेवाला।
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व्यतिव्यस्त  : वि० [सं० वि अतिवि√अस् (होना)+क्त] अस्त-व्यस्त।
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व्यतिहार  : पुं० [सं० विजे-अति√हृ+घञ्] १. दो चीजों को अपने स्थान से हटाकर एक के स्थान पर दूसरी रखना। २. इस प्रकार स्थान आदि का होनेवाला परिवर्तन (इन्टरचेंज) ३. किसी प्रकार का परिवर्तन। ४. अदला-बदली। विनिमय। ५. गाली गलौच। ६. मार-पीट।
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व्यतीकार  : पुं० [सं० वि-अति√कृ (करना)+घञ्-दीर्घ] १. व्यसन। २. विनाश। ३. मिलावट। मिश्रण। ४. भिड़ंत।
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व्यतीत  : भू० कृ० [सं० वि-अति√इ (गमन)+क्त] १. गुजरा या बीता हुआ। २. मरा हुआ। मृत। ३. जो कहीं से चला गया हो। प्रस्थित। ४. परित्यक्त। ५. उपेक्षित।
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व्यतीतना  : अ० [सं० व्यतीत] व्यतीत होना। बीतना। गुजरना। स० व्यतीत करना। गुजारना। बिताना।
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व्यतीपात  : पुं० [सं० वि-अति√पत् (गिरना)+घञ्] १. बहुत बड़ा प्राकृतिक उत्पात। २. ज्योतिष में एक योग जिसमें यात्रा करना निषिद्ध माना गया है। ३. अपमान।
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व्यतीहार  : पुं० [सं० वि-अति√हृ (हरण करना)+घञ्+दीर्घ] १. विनिमय। अदला-बदली। २. परिवर्तन। ३. गाली गलौच और मार-पीट।
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व्यत्यय  : पुं०=१. व्यतिक्रम। २. विचलन।
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व्यत्ययक  : पुं० [सं०] लिखाई आदि में एक प्रकार का चिन्ह जो इस बात का सूचक होता है कि लिखने या छापने में यहाँ इस शब्द के अक्षर कुछ आगे-पीछे हो गये हैं।
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व्यथक  : वि० [सं०√व्यथ् (भय देना)+णिच्+ण्वुल-अक] व्यथित करनेवाला।
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व्यथन  : पुं० [सं०√व्यथ् (भय होना)+ल्युट-अन] व्यथा। वि०=व्यथक।
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व्यथा  : स्त्री० [सं०] उग्र मानसिक या शारीरिक पीड़ा।
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व्यथित  : भू० कृ० [सं०√व्यथ् (भय देना)+क्त] व्यथा ग्रस्त।
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व्यथी (थिन्)  : वि० [सं० व्यथा+इनि] व्यथा से ग्रस्त या युक्त।
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व्यथ्य  : वि० [सं० व्यथा+यत्] १. जिसे व्यथा दी जा सके। २. व्यथा उत्पन्न करनेवाला।
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व्यंद  : पुं०=विंदु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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व्यधन  : पुं० [सं०√व्यध् (ताड़ना देना)+ल्युट-अन] वेधन। वि० वेध्य।
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व्यपगत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० व्यपगति] १. जो कहीं चला गया हो। व्यथित। २. लुप्त। ३. वंचित। ४. रहित।
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व्यपगति  : स्त्री० [सं०] १. प्रस्थान। २. लोप। ३. राहित्य।
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व्यपगम  : पुं० [सं० वि-अप√गम् (जाना)+अप्] १. प्रस्थान। २. लोप। ३. बीतना। (समय)
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व्यपगमन  : पुं० [सं० वि-अप√गम्+ल्युट-अन] व्यपगति।
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व्यपदिष्ट  : भू० कृ० [सं० वि-अप√दिश् (आज्ञा देना)+क्त] १. निर्दिष्ट। २. सूचित। ३. जो ठगा गया हो। ४. रहित या वंचित किया हुआ। ५. निन्दित।
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व्यपदेश  : पुं० [सं० वि-अप√दिस् (कहना)+घञ्] १. विनाश। बरबादी। २. त्याग।
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व्यपनयन  : पुं० [सं० वि-अप√नी (ढोना)+अप्] [भू० कृ० व्यपनीत] छोड़ देना। त्याग।
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व्यपरोपण  : पुं० [सं० वि-अप√रुह् (चढ़ना)+णिच्+ल्युट-अन, ह-प] [वि० व्यपरोपित] १. झुकाना। २. काटना। ३. दूर करना। हटाना।
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व्यपवर्ग  : पुं० [सं० ब० स०] १. अलग होना। २. छोड़ना। त्यागना।
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व्यपवर्जन  : पुं० [सं० वि-अप√वर्ज (छोड़ना)+ल्युट-अन] [वि० व्यपवर्जित] १. छोड़ना। त्याग। २. निवारण। ३. देना। दान।
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व्यपेक्षा  : स्त्री० [सं० वि-अप√ई (देखना)+अङ्+टाप्] १. आकांक्षा। इच्छा। चाह। २. अनुरोध। आग्रह।
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व्यपोह  : पुं० [सं० वि-अप√ऊह् (वितर्क करना)+घञ्] विनाश। बरबादी।
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व्यभिचार  : पुं० [सं०] १. बहुत ही निकृष्ट आचरण। २. ऐसी स्थिति जिसमें हर जगह चोरी, छिनारी, घूस, पक्षपात आदि का बोलबाला हो। ३. स्त्री का पर-पुरुष से अथवा पुरुष का पर-स्त्री से होनेवाला अनुचित संबंध। छिनाला। जिना (एडल्टरी)। ४. नियमों का अपवाद। ५. एक तर्क छोड़कर दूसरे तर्क का सहारा लेना। ६ न्याय में ऐसा हेतु जिसका साध्य न हो।
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व्यभिचारी  : वि० [सं० वि-अभि√चर् (चलना)+णिनि] १. व्यभिचार संबंधी। २. व्यभिचार करनेवाला। ३. (शब्द) जिसके अनेक अर्थ हों। ४. अस्थिर। पुं० साहित्य में संचारी भाव। (दे०)
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व्यभ्र  : वि० [सं० मध्यम० स०] अभ्र या मेघ से रहित। अर्थात् स्वच्छ तथा निर्मल। (आकाश)
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व्यय  : पुं० [सं० वि√इ+अच्] १. उपभोग आदि में आने के कारण किस चीज का क्षीण या लुप्त होना। २. भोग, निर्माण आदि में धन का खर्च होना। ३. किसी मद विशेष में होनेवाला धन का खर्च। जैसे—डाक व्यय। यात्रा व्यय। ४. समय का बीतना। ५. नाश। ६. त्याग। ७. दान। ८. फलित ज्योतिष में लग्न से ग्यारहवाँ स्थान जिसके आधार पर व्यय पक्ष का विचार किया जाता है। ८. बृहस्पति की गति या भार के विचार से एक वर्ष या संवत्सर का नाम।
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व्ययक  : वि० [सं० वि√इण् (गमनादि)+ण्वुल—अक] जो व्यय करता हो। व्यय करनेवाला।
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व्ययमान  : वि० [सं० ब० स०] अपव्ययी। बहुत अधिक व्यय करनेवाला।
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व्ययशील  : वि० [सं०] अधिक व्यय करनेवाला।
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व्ययिक  : वि० [सं० व्यय से] १. व्यय संबंधी। व्यय का। जैसे—आय-व्ययिक। २. व्यय के फलस्वरूप होनेवाला।
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व्ययित  : भू० कृ० [सं०√व्यय (खर्च करना)+क्त] जो या जिसका व्यय हो चुका हो। व्यय किया हुआ।
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व्ययी (यिन्)  : पुं० [सं० व्यय+इनि] बहुत अधिक खर्च करनेवाला। व्ययशील।
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व्यर्थ  : वि० [सं० वि-अर्थ, प्रा० ब०] [भाव० व्यर्थता] १. अर्थ से रहित। अर्थ हीन। २. धन हीन। ३. जो उपयोग में न आने को हो। ४. जिसकी कुछ भी आवश्यकता न हो। ५. जो लाभप्रद न हो। निरर्थक। अव्य० बिना किसी आयोजन के।
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व्यर्थक  : वि० [सं० व्यर्थ+कन्] निरर्थक।
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व्यर्थता  : स्त्री० [सं० व्यर्थ+तल्+टाप्] व्यर्थ होने की अवस्था या भाव।
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व्यर्थन  : पुं० [सं०] १. व्यर्थ सिद्ध करना। महत्व, प्रयोजन आदि नष्ट करना। २. आज्ञा, निर्णय आदि को रद्द करना। (नलिफिकेशन)
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व्यलीक  : पुं० [सं० वि√अल् (पूरा होना)+कीकन्] १. ऐसा अपराध जो काम के आवेग के कारण किया जाय। २. किसी प्रकार का अपराध। कसूर। ३. डाँट-डपट। फटकार। ४. कष्ट। दुःख। ५. विट। ६. विलक्षणता। ७. शोकोच्छवास। ८. झगड़ा। ९. झंझट। बखेड़ा। १॰. ओलती। वि० १. जो अच्छा न लगे। अप्रिय। २. कष्टदायक। ३. अपरिचित। ४. अद्भुत। विलक्षण।
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व्यवकलन  : पुं० [सं० वि+अव√कल् (शब्द करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्ययकलित] १. बड़ी राशि में से छोटी राशि घटाना। (गणित) २. घटाव। ३. जुदाई। पार्थक्य।
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व्यवकीर्ण  : वि० [सं० वि+अव√कृ (करना)+क्त] १. घटाया हुआ। २. अलग या जुदा किया हुआ।
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व्यवच्छिन  : भू० कृ० [सं० वि+अव√छिद् (अलग करना)+क्त] १. काट कर अलग या जुदा किया हुआ। २. विभक्त। ३. निर्धारित। निश्चित।
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व्यवच्छेद  : पुं० [सं० वि+अव√छिद्+घञ्] १. पार्थक्य। अलगाव। २. खंड। विभाग। हिस्सा। ३. ठहराव। विराम। ४. छुटकारा। निवृत्ति। ५. अस्त्र या शस्त्र चलाना। ६. विशेषता दिखलाना या बतलाना।
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व्यवच्छेदक  : वि० [सं० वि+अव√छिद्+ण्वुल-अक] व्यवच्छेद करनेवाला।
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व्यवच्छेदन  : पुं० [सं० वि+अव√छिद्+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्यवछिन्न] १. व्यवच्छेदन करने की क्रिया या भाव। २. आज-कल किसी मृत शरीर के अंगो-उपांगों आदि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके सब अंश अलग करके देखना (डिस्सेकशन)।
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व्यवदात  : वि० [सं० वि+अव√दै (शोधन करना)+क्त] १. निर्मल। साफ। २. चमकीला।
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व्यवदान  : पुं० [सं० वि-अव√दो (खंड करना)+ल्युट-अन] १. किसी पदार्थ को शुद्ध और साफ करने का नियम या भाव। संस्कार। सफाई। उज्जवल करने या चमकाने की क्रिया या भाव।
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व्यवधा  : स्त्री० [सं० वि-अव√धा (रखना)+अङ्+टाप्] व्यवधान। परदा।
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व्यवधाता (तृ)  : वि० [सं०√वि+अव√धा (रखना)+तृच्] १. पृथक् करनेवाला। २. बीच में पड़कर आड़ करनेवाला।
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व्यवधान  : पुं० [सं० वि+अव√धा+ल्युट-अन] १. जुदा या अलग होना। २. वह चीज या बात जो किसी चीज को दो हिस्सों में बाँटती या खंडित करती हो। ३. बीच में आड़ करनेवाली चीज। ओट। परदा। ४. बीच में पड़नेवाला अवकाश। ५. अंत। समाप्ति।
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व्यवधायक  : वि० [सं० वि+अव√धा+ण्वुल्-अक] [स्त्री० व्यवधायिका] १. आड़ या ओट करनेवाला। २. छिपाने या ढकनेवाला।
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व्यवधारण  : पुं० [सं० वि+अव√धा (रखना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह अवधारण या निश्चय करना।
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व्यवधि  : पुं० [सं०]=व्यवधान।
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व्यवसर्ग  : पुं० [सं० वि+अव√सृज् (छोड़ना)+घञ्] १. विभाजन। २. छुटकारा। मुक्ति।
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व्यवसाय  : पुं० [सं० वि+अव√सो (पतला करना)+घञ्] १. ऐसा कार्य जिसके द्वारा किसी की जीविका का निर्वाह होता हो। जीविका निर्वाह का साधन। पेशा। (प्रोफ़ेशन)। २. रोजगार। व्यापार। ३. कार्य-धन्धा। उद्यम। ४. उद्योग। प्रयत्न। ५. कार्य का संपादन। ६. निश्चय। ७. इच्छा या विकार। ८. अभिप्राय। मतलब। ९. विष्णु। १॰. शिव।
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व्यवसाय-संघ  : पुं० [सं०] किसी व्यवसाय पेशे या वर्ग के श्रमिकों का वह संघटन जो मालिकों या व्यवस्थापकों से अपने उचित अधिकार प्राप्त करने के लिए बनता है। (ट्रेड यूनियन)
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व्यवसायी (यिन्)  : पुं० [सं० व्यवसाय+इनि] १. वह व्यक्ति जो किसी व्यवसाय में लगा हुआ हो। २. वह व्यक्ति जो एक या अनेक व्यवसाय करता हो। वि० व्यसाय में लगे हुए व्यक्ति से संबंध रखनेवाला।
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व्यवसित  : भू० कृ० [सं० वि+अव√सो (पतला करना)+क्त] १. जिसका अनुष्ठान किया गया हो। व्यवसाय के रूप में किया हुआ। २. कुछ करने के लिए उद्यत या तत्पर। ३. निश्चित।
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व्यवसिति  : स्त्री० [सं० वि+अव√सो+क्तिन्]=व्यवसाय।
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व्यवस्था  : स्त्री० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+अङ्+टाप्] १. ठीक अवस्था। अच्छी हालत। २. क्रम, ढंग आदि के विचार से उपयुक्त स्थिति में होना। चीजों का ठिकाने पर तथा सजा-सँवार कर रखा होना। ३. वह कार्य या योजना जिसके फलस्वरूप हर काम ठीक-ठिकाने से किया या अपनी देख-रेख में कराया जाता है। इन्तजाम। प्रबंध (मैंनेजमेंट)। ४. आज-कल विधिक और वैधानिक क्षेत्रों में, किसी निम्नस्थ अधिकारी के निर्णय के विरुद्ध बड़े अधिकारी का दिया हुआ आदेश या किया हुआ निर्णय। मुहावरा—व्यवस्था देना=पंडितों आदि का यह बतलाना कि अमुक विषय में शास्त्रों का क्या मत अथवा आज्ञा है। किसी विषय में शास्त्रों का विधान बतलाना। ५. कार्य, कर्तव्य आदि का निर्वाह करना (डिस्पोजीशन)। ७. नियम, विधि आदि में कुछ विशिष्ट उद्देश्य से निकाली जानेवाली गुंजाइश या रास्ता (प्राविजन)।
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व्यवस्था-पत्र  : पुं० [सं० मध्यम स०] ऐसा पत्र जिस पर कोई शास्त्रीय व्यवस्था लिखी हो। शास्त्रीय व्यवस्था का ज्ञापक पत्र।
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व्यवस्थाता  : वि० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+तृच्, व्यवस्थातृ] १. वह जो व्यवस्था करता हो। व्यवस्था या इंतजाम करनेवाला। ३. शास्त्रीय व्यवस्था देनेवाला।
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व्यवस्थान  : पुं० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+ल्युट—अन] १. उपस्थित या व्यवस्थित होना। २. व्यवस्था। प्रबंध। ३. विष्णु।
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व्यवस्थापक  : पुं० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+णिच्+ण्वुल-अक, पुक्] [स्त्री० व्यवस्थापिका] १. वह जो यह बतलाता हो कि अमुक विषय में शास्त्रों का क्या मत है। व्यवस्था देनेवाला। २. वह अधिकारी जो संस्था आदि के कार्यों का प्रबंध करता हो (मैनेजर)।
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व्यवस्थापन  : पुं० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+णिच्+ल्युट-अन, पुक्] १. व्यवस्था करने की क्रिया या भाव। २. किसी विषय में शास्त्रीय व्यवस्था देना या बतलाना।
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व्यवस्थापनीय  : वि० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+णिच्+अनीयर, पुक्] व्यवस्थापन के योग्य।
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व्यवस्थापिका सभा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] विधान सभा (दे०)।
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व्यवस्थापित  : भू० कृ० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+णिच्+क्त, पुक्] १. जिसके संबंध में किसी प्रकार का व्यवस्थापन हुआ हो। २. निर्धारित। ३. नियमित। ४. व्यवस्थित।
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व्यवस्थाप्य  : वि० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+णिच्+यत्, पुक्] व्यवस्थापन के योग्य। व्यवस्थापनीय।
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व्यवस्थित  : भू० कृ० [सं० वि+अव√स्था (ठहरना)+क्त] १. जिसकी ठीक व्यवस्था की गई हो। २. जो ठीक क्रम या सिलसिले से चल रहा हो।
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व्यवस्थिति  : स्त्री० [सं० वि+अव√स्था+क्तिन्] १. व्यवस्थापन। २. व्यवस्था।
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व्यवहरण  : पुं० [सं० वि-अव√हृ (हरना)+ल्युट-अन] १. अभियोगों आदि का नियमानुसार हीने वाला विचार। २. मुकदमें की सुनवाई या पेशी। व्यवहार।
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व्यवहर्ता  : पुं० [सं० वि+अव√हृ (हरण करना)+तृच्] न्यायकर्ता। न्यायाधिकारी।
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व्यवहार  : पुं० [सं० वि+अव√हृ+घञ्] १. क्रिया। काम। २. निर्णय, विचार आदि कार्यान्वित करना। ३. दूसरों से किया जानेवाला बरताव। ४. वस्तु आदि का किया जानेवाला उपभोग या भोग। काम में लाना। ५. रूपये-पैसे लेन-देन आदि का काम। महाजनी। ६. मुकदमा। ७. किसी मुकदमे से संबंध रखनेवाली उसकी सारी प्रक्रिया। ८. न्याय। ९. शर्त। १॰. स्थिति।
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व्यवहार-दर्शन  : पुं० [सं०] दे० ‘आचार-शास्त्र’।
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व्यवहार-निरीक्षक  : पुं० [सं० ष० त०] वह अधिकारी जो सरकार की ओर से मुकदमे की पैरवी करता हो (कोर्टइन्स्पेक्टर)।
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व्यवहार-पाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. व्यवहार के पूर्वपक्ष उत्तर, क्रिया पाद और निर्णय इन चारों का समूह। २. उक्त चारों में से कोई एक जो व्यवहार का एक पाद या अंश माना जाता है।
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व्यवहार-मातृका  : स्त्री० [सं० ष० त०] न्यायालय के दृष्टिकोण तथा विधि के अनुसार होनेवाली कार्रवाई। (स्मृति)
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व्यवहार-विधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह शास्त्र जिसमें अपराधों का विवेचन तथा अपराधियों को समुचित दण्ड की व्यवस्था होती है। धर्मशास्त्र।
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व्यवहार-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘व्यवहार-विधि’।
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व्यवहार-सिद्धि  : [सं० ष० त०] व्यवहार शासत्र के अनुसार अभियोगों का निर्णय करना।
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व्यवहारक  : पुं० [सं० व्यवहार+कन्] १. वह जिसकी जीविका व्यवहार से चलती हो। २. वह जो न्याय या वकालत आदि करता हो। ३. वह जो व्यवहारों के लिए उचित उमर तक पहुँच चुका हो। वयस्क। बालिंग है।
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व्यवहारजीवी (विन्)  : पुं० [सं० व्यवहार√जीव् (जीवित होना)+णिनि] वह जो व्यवहार अर्थात् मुकदमेबाजी या वकालत आदि के द्वारा अपनी जीविका चलाता हो।
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व्यवहारज्ञ  : पुं० [सं० व्यवहार√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो व्यवहार शास्त्र का ज्ञाता हो। २. वयस्क। बालिग।
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व्यवहारतः  : अव्य० [सं० व्यवहार+तस्] १. व्यवहार अर्थात् बरताव के विचार से। २. प्रायोगिक दृष्टि से जिस रूप में होना चाहिए, ठीक उसी रूप में।
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व्यवहारत्व  : पुं० [सं० व्यवहार+त्व] व्यवहार का धर्म या भाव।
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व्यवहारांग  : पुं० [सं० ष० त०] व्यवहार के ये दो अंग दीवानी कानून और फौजदारी कानून।
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व्यवहारासन  : पुं० [सं० ष० त० च० त० वा] वह आसन जिस पर बैठकर न्यायाधीश मुकदमें सुनते तथा अपना निर्णय सुनाते हैं।
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व्यवहारास्पद  : पुं० [सं०] वह निवेदन जो वादी अपने अभियोग के संबंध से राजा अथवा न्यायकर्ता के सम्मुख करता हो। नालिश। फरियाद।
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व्यवहारिक  : वि० [सं० व्यवहार+ठक्-इक] १. जो व्यवहार के लिए उपयुक्त या ठीक हो। व्यवहार योग्य। २. जो साधारणतः व्यवहार या उपयोग में आता हो। व्यावहारिक।
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व्यवहारिक जीव  : पुं० [सं० कर्म० स०] वेदांत के अनुसार विज्ञानमय कोश जो ज्ञानेन्द्रिय के साथ बुद्धि के संयुक्त होने पर प्रस्तुत होता है।
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व्यवहारिका  : स्त्री० [सं० व्यवहारिक+टाप्] संसार में रहकर उसके सब व्यवहार या कार्य करना। दुनियादारी।
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व्यवहारी (रिन्)  : वि० [सं० व्यवहार+इनि] १. व्यवहार करनेवाला। २. व्यवसाय में लगा हुआ। ३. (आचरण आदि) जिसका सामान्यतः उपयोग किया जाता है। ४. मुकदमा लड़नेवाला।
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व्यवहार्य  : वि [सं० वि+अव√हृ (हरण करना)+ण्यत्] जो व्यवहार में आने के योग्य हो। जिसका व्यवहार हो सके।
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व्यवहित  : वि० [सं० वि+अव√हा (छोड़ना)+क्त] छोड़ा हुआ।
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व्यवहृत  : भू० कृ० [सं० वि+अव√हृ (हरण करना)+क्त] जो व्यवहार में आ चुका हो। व्यवहार में लाया हुआ। पुं० व्यापार।
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व्यवहृति  : स्त्री० [सं० वि+अव√हृ (हरण करना)+क्तिन्] १. व्यापार या रोजगार में होनेवाला नफा। २. व्यवसाय। व्यापार। रोजगार। ३. काम करने का कौशल। होशियारी।
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व्यवाय  : पुं० [सं० वि+अव√इण् (गमन)+घञ्] १. तेज। २. बुद्धि। ३. नतीजा। परिणाम। ४. आड़। ओट। ५. बाधा। विघ्न। ६. स्त्री-प्रसंग। संभोग।
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व्यवायी  : वि० [सं० वि+अव√इण्+णिनि] १. आड़ या ओट करनेवाला। २. कामुक। पुं० ऐसी चीज जो शरीर में पहुँचकर पहले सब नाड़ियों में फैल जाय और तब पचे। जैसे—भाँग या अफीम।
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व्यंशुक  : वि० [सं० ब० स०] वस्त्रहीन। नग्न। नंगा।
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व्यष्टि  : पुं० [सं० वि√अश्+क्तिन्] समष्टि का अंग या सदस्य व्यक्ति।
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व्यंसक  : पुं० [सं० वि√अंस्+ण्वुल्-अक] धूर्त। चालाक।
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व्यंसन  : पुं० [सं० वि√अंस् (समाघात करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्यंसित] ठगने या धोखा देने की क्रिया।
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व्यसन  : पुं० [सं० वि√अस् (होना)+ल्युट-अन] १. विपत्ति। आफत। संकट। २. कष्ट। तकलीफ। दुःख। ३. पतन। ४. विनाश। ५. अमांगलिक या अशुभ बात। ६. ऐसा कार्य या प्रयत्न जिसका कोई फल न हो। निरर्थक काम या बात। ७. किसी काम या बात के समय होनेवाली ऐसी तीव्र प्रवृत्ति या रुचि जिसके फलस्वरूप मनुष्य प्रायः सदा उसी काम में लगा रहता हो। जैसे—लिखने-पढऩे का व्यसन। ८. भोगविलास या विषय-वासना के संबंध में दूषित मनोविकारों के कारण होनेवाली ऐसी आसक्ति जिसके बिना रहना कठिन हो या जिससे जल्दी छुटकारा न हो सकता हो। बुरी आदत या लत। जैसे—जुए, मद्यपान या वेश्यागमन का दुर्व्यसन। ९. अशक्तता या असमर्थता। १॰. दुर्भाग्य।
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व्यसनार्त  : वि० [सं० तृ० त०] जिसे किसी प्रकार का दैवी या मानवी कष्ट पहुँचा हो।
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व्यसनिता  : स्त्री० [सं० व्यसनिन्+तल्+टाप्] १. व्यसनी होने की अवस्था या भाव। २. व्यसन।
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व्यसनी (निन्)  : वि० [सं० व्यसन+इनि] जिसे किसी बुरी काम की लत पड़ गई हो।
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व्यसनोत्सव  : पुं० [सं० ष० त०] वाम-मार्गियों का बहुत से लोगों को मिला कर मद्यपान करना।
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व्यस्त  : वि० [सं० वि√अस्+क्त] १. घबराया हुआ। व्याकुल। २. इस प्रकार काम में लगा हुआ कि दूसरी ओर ध्यान न दे सकता हो। ३. किसी के अन्दर फैला हुआ। व्याप्त। ४. फेंका हुआ। ५. जो ठीक क्रम में न हो। अव्यवस्थित। ६. अलग। पृथक्।
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व्यस्त गतागत  : पुं० [सं०] एक प्रकार का चित्र काव्य जिसमें अक्षरों या वर्णों की स्थापना ऐसे कौशल से की जाती है कि यदि उसे सीधा अर्थात् आरंभ की ओर से पढ़े तो एक अर्थ निकलता है, पर यदि उलटा अर्थात् अंत की ओर से पढ़े तो कुछ दूसरा ही अर्थ निकलता है (केशव)। उदाहरण—सैनन माधव ज्यों सर के सब रेख सुदेस सुबेस सबे...।
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व्यस्त-पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. समास रहित पद। ‘समस्त’ पद का विपर्याय। २. अव्यवस्थित या गड़बड़ कथन। (न्यायालय)
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व्यस्तक  : वि० [सं० व्यस्त+कन्] जिसमें हड्डी न हो। बिना हड्डी का।
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व्यह्न  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक से अधिक दिनों में होनेवाला।
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व्याकरण  : पुं० [सं० वि+आ√कृ (करना)+ल्युट—अन] १. वह शास्त्र जिसमें बोलचाल तथा साहित्य में प्रयुक्त होनेवाली भाषा। स्वरूप, उसके गठन उसके अवयवों उनके प्रकारों और पारस्परिक संबंधों तथा उसके रचना विधान और रूप परिवर्तन का विचार होता है। २. बोल-चाल में ऐसी पुस्तकें जिसमें भाषा संबंधी नियमों का संकलन होता है। ३. अनन्तर। भेद। ४. व्याख्या। ५. निर्माण। रचना। ६. धनुष की टंकार। ७. भविष्यवाणी। (बौद्ध)
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व्याकर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० वि०+आ√कृ (करना)+तृच्] परमेश्वर।
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व्याकर्षण  : पुं० [सं० वि+आ√कृष्+ल्युण-अन] [भू० कृ० आकृष्ट]=आकर्षण।
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व्याकार  : पुं० [सं० वि+आ√कृ (करना)+अण्] १. विकृत आकार। २. रूप-परिवर्तन। ३. व्याख्या।
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व्याकीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि+आ√कृ (बिखेरना)+क्त] १. चारों ओर अच्छी तरह फैलाया हुआ। २. क्षुब्ध।
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व्याकुंचन  : पुं० [सं० वि+आ√कुञ्च्+ल्युट—अन] [भू० कृ० व्याकुंचित] १. आकुंचन। सिकोड़ना। २. टेढ़ा करना। मोड़ना।
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व्याकुल  : वि० [सं०] [भाव० व्याकुलता] १. उत्सुकता। परेशानी, भय आदि के फलस्वरूप जिसके मन में घबराहट हो। बेचैन। २. जिसे कोई विशेष उत्कंठा या कामना न हो। ३. कातर। ४. काम में लाया हुआ। व्यस्त। ५. काँपता या हिलता हुआ।
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व्याकुलता  : स्त्री० [सं० व्याकुल+तल्+टाप्] १. व्याकुल होने की अवस्था या भाव। विकलता। घबराहट। २. कातरता।
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व्याकृत  : भू० कृ० [सं० वि+आ√कृ (करना)+क्त] १. पृथक्-पृथक् किया हुआ। २. प्रकट किया हुआ। ३. जिसकी व्याख्या की गई हो। ४. रूपांतरित। परिवर्तित। ५. विकृत। ६. विश्लिष्ट।
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व्याकृति  : स्त्री० [सं० वि+आ√कृ+क्तिन्] १. प्रकाश में लाने का काम। प्रकाशन। २. व्याख्या करने की क्रिया या भाव। ३. रूप में परिवर्तन करना। ४. विश्लेषण। ५. पृथक्करण।
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व्याकोष  : पुं० [सं० वि+आ√कुश्+अच्] फूलों आदि का खिलना वि० खिला हुआ।
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व्याकोष  : पुं० [सं० वि+आ√कुष् (विकास करना)+अच्] १. विकास। २. खिलना। वि० १. विकसित। २. खिला हुआ।
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व्याक्रोश  : पुं० [सं० वि+आ√क्रुश् (निन्दा करना)+घञ्] १. किसी को क्रोधपूर्वक दी जानेवाली गाली। फटकार। २. चिल्लाहट।
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व्याक्षेप  : पुं० [सं० वि+आ√क्षिप् (फेंकना)+घञ्] १. विलंब। देर। २. घबराहट। विकलता। ३. बाधा। विघ्न। ४. परदा। ५. व्यवधान।
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व्याख्या  : स्त्री० [सं० वि+आ√ख्या√अङ्+टाप्] [भू० कृ० व्याख्यात] १. किसी कठिन या दुरूह उक्ति,पद वाक्य या विषय को अधिक बोधगम्य सरल या सुगम रूप से समझाने के लिए कही जानेवाली बात या किया जानेवाला विवेचन। किसी जटिल वाक्य आदि के अर्थ का स्पष्टीकरण। टीका। (एक्सप्लेनेशन)। २. किसी वाक्य, कथन आदि का अपनी बुद्धि या अपने दृष्टिकोण से लगाया जाने वाला अर्थ। अनुवचन। अर्थयन। (इन्टरप्रेटेशन)। ३. किसी विषय का कुछ विस्तार से किया हुआ वर्णन।
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व्याख्यागम्य  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसकी व्याख्या हो सकती हो। २. जो व्याख्या होने पर ही समझ में आ सकता हो। पुं० वादी के अभियोग का ठीक-ठीक उत्तर न देकर इधर-उधर की बातें कहना।
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व्याख्यात  : भू० कृ० [सं० वि+आ√ख्या (प्रकाशित करना)+क्त] १. जिसकी व्याख्या हुई हो या की गई हो। २. जिसकी टीका हो चुकी हो। ३. वर्णित।
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व्याख्यातव्य  : वि० [सं० वि+आ√ख्या+तव्यम्] जिसकी व्याख्या करने की आवश्यकता हो।
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व्याख्याता (तृ)  : पुं० [सं० वि+आ√ख्या+तृच] १. वह जो किसी विषय की व्याख्या करता हो। व्याख्या करनेवाला। २. वह जो व्याख्यान देता या भाषण करता हो।
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व्याख्यान  : पुं० [सं० वि+आ√ख्या+ल्युट-अन] १. किसी गूढ़ या गंभीर बात की व्याख्या करने की क्रिया या भाव। २. ऐसा ग्रंथ जिसमें किसी धार्मिक या लौकिक विषय के किसी कठिन ग्रन्थ या गूढ़ विषय की व्याख्या की गई हो। ३. किसी गूढ विषय के संबंध में विस्तार-पूर्वक कही जानेवाली बातें। भाषण। वक्तृता। (लेक्चर)
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व्याख्यानशाला  : स्त्री [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार के व्याख्यान आदि होते हों।
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व्याख्येय  : वि० [सं० वि+आ√ख्या+यत्] जिसकी व्याख्या होने को हो अथवा होना उचित हो।
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व्याघट्टन  : पुं० [सं० वि+आ√घट्ट (रगड़ना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्याघट्टित] १. अच्छी तरह रगड़ना। संघर्षण। २. मथना।
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व्याघात  : पुं० [सं० वि√आ√हन् (मारना)+घञ्, न-त] १. क्रम, सिलसिले आदि में पड़नेवाली बाधा। २. किसी प्रकार का होनेवाला आघात या लगनेवाला धक्का। ३. विशेषतः अधिकार या स्वत्व पर होनेवाला आघात (इन्फ्रिजमेंट) ४. किसी कार्य या प्रयत्न में होनेवाला विषाद। ५. सत्ताइस योगों में से तेरहवाँ योग जिसमें शुभ कार्य करना वर्जित है। ६. काव्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें एक ही उपाय के द्वारा अथवा एक ही साधन के द्वारा दो विरोधी कार्यों के होने का वर्णन होता है।
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व्याघाती (तिन्)  : वि० [सं०] १. व्याघात करनेवाला। २. विघ्नकारक।
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व्याघ्र  : पुं० [सं० वि+आ√घ्रा (सूंघना)+क] १. बाघ। शेर। २. लाल रेंड़। ३. करंज।
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व्याघ्र ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] १. पुराणानुसार एक प्राचीन देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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व्याघ्रचर्म  : पुं० [सं० ष० त०] बाघ की खाल।
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व्याघ्रता  : स्त्री० [सं० व्याघ्र+तल्+टाप्] व्याघ्र का धर्म या भाव।
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व्याघ्रनख  : पुं० [सं० ब० स०] १. बघनखा। २. नख नामक ग्रन्थ-द्रव्य। ३. थूहड़। ४. एक प्रकार का कंद।
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व्याघ्रनखी  : स्त्री० [सं०] नख या नखी नामक गंध द्रव्य।
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व्याघ्रपद  : पुं० [सं०] १. वशिष्ठ गोत्र के एक प्राचीन ऋषि जो ऋग्वेद के कई मंत्रों के द्रष्टा थे। २. एक प्रकार का गुल्म।
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व्याघ्रमुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. बिल्ली। २. पुराणानुसार एक देश का निवासी। २. एक पौराणिक पर्वत।
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व्याघ्रवक्ता  : पुं० [सं०] १. शिव। २. बिल्ली।
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व्याघ्रिणी  : स्त्री० [सं० व्य़ाघ्र+इनि+ङीष्] बौद्धों की एक देवी।
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व्याघ्री  : स्त्री० [सं० व्याघ्र+ङीष्] १. मादा व्याघ्र। २. एक प्रकार की कौड़ी। ३. नख नामक गन्ध द्रव्य।
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व्याज  : पुं० [सं० वि√अज् (गमनादि)+घञ्] १. मन में कोई बात रख कर ऊपर से कुछ और करना या कहना। छल। कपट। फरेब। धोखा। जैसे—व्याज-निन्दा, व्याज-स्तुति। आदि। २. बाधा। विघ्न। ३. देर। विलंब। पुं०=व्याज। (सूद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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व्याज-निंदा  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. छल या बहाने से की जानेवाली किसी की निंदा। २. साहित्य में एक अलंकार जो उस समय माना जाता है जब किसी एक की निंदा इस प्रकार की जाती है कि उससे किसी दूसरे की निंदा प्रतीत होने लगती है।
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व्याज-स्तुति  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. ऐसी स्तुति जो व्याज या किसी बहाने से की जाय और ऊपर से देखने में स्तुति न जान पडे़ फिर भी उसकी स्तुति की हो। २. साहित्य में एक अलंकार जो उस समय माना जाता है जब कोई कथन अभिधा शक्ति की दृष्टि से निंदा सूचक होता है परन्तु जिसका वाक्यार्थ वस्तुतः स्तुतिपरक होता है।
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व्याजोक्ति  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. वह कथन जिसमें किसी प्रकार का व्याज अर्थात् छल हो। कपट-भरी बात। २. साहित्य में एक अर्थालंकार जो उस समय माना जाता है जब कोई ऐसी बात छिपाने का प्रयत्न किया जाता है जिसका रहस्य वस्तुतः खुल चुका हो।
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व्याड  : पुं० [सं० वि+आ√अड् (गमन)+घञ्] १. सांप। २. बाघ। ३. इन्द्र। वि० धूर्त। चालबाज।
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व्याडि  : पुं० [सं० व्याड+इनि] एक प्राचीन वैयाकरण।
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व्यादान  : पुं० [सं० वि+आ√दा (देना)+ल्युट-अन, कर्म० स०] १. फैलाव। विस्तार। २. उद्घाटन। खोलना। ३. निर्देश। ४. वितरण।
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व्यादिष्ट  : भू० कृ० [सं० वि+आ√दिश् (कहना)+क्त] १. जो पहले कहा या बतलाया जा चुका हो। २. वितरित। ३. निर्दिष्ट।
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व्यादेश  : पुं० [सं० वि+आ√दिश् (कहना)+घञ्] [भू० कृ० व्यादिष्ट] विधिक क्षेत्र में किसी व्यक्ति को कोई काम करने विशेषतः न करने के लिए दिया हुआ ऐसा आदेश जिसका पालन न करना न्यायालय का अपमान समझा जाता हो और फलतः दंडनीय हो। (इंजंक्शन)
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व्याध  : पुं० [सं०√व्यध् (मारना)+ण] १. वह व्यक्ति जो शिकार से जीविका उपार्जित करता हो। पक्षियों आदि को जाल में फँसानेवाला बहेलिया। २. प्राचीन भारत में उक्त प्रकार के काम करनेवाली एक जाति। ३. शबर नामक प्राचीन जाति। वि० दुष्ट। पाजी।
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व्याधा  : पुं०=व्याध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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व्याधि  : स्त्री० [सं० वि+आ√धा (रखना)+कि] १. किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट। २. रोग। बीमारी। (डिसीज)। ३. आपत्ति। विपत्ति। संकट। विशेष—साहित्य में इसे तेंतीस संचारी भावों के अंतर्गत रखा गया है, जो मन या शरीर की अवस्था को इसका आधार माना गया है। यथा-मानस मंदिर में सती, पति की प्रतिमा थाप। जलती सी उस विरह में बनी आरती आप।—मैथिलीशरण। ४. कुट नामक ओषधि।
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व्याधिकी  : स्त्री० दे० ‘रोग-विज्ञान’।
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व्याधित  : भू० कृ० [सं० व्याध+इतच्] व्याधिग्रस्त। पुं० रोग। बीमारी।
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व्याधिध्न  : वि० [सं० व्याधि√हन्+क] व्याधि नष्ट करनेवाला।
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व्याधिहर  : वि० [सं०] व्याधि दूर करनेवाला।
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व्याधी (धिन्)  : वि० [सं० व्याधि+कन्] जिसे कोई व्याधि हो। व्याधि से युक्त। स्त्री०=व्याधि।
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व्याध्य  : वि० [सं० व्याधि+ष्यञ्] व्याध-संबंधी। व्याधि का। पुं० शिव।
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व्यान  : पुं० [सं० वि√आ√अन्+अच्] शरीर में रहनेवाली पाँच वायुओं में से एक जो सारे शरीर में संचार करनेवाली कही गई है। सारे शरीर में इसी द्वारा रस पहुँचता है, पसीना निकलता और खून चलता है तथा अन्य शारीरिक क्रियाएँ होती है।
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व्यानद्ध  : वि० [सं० वि+आ√नह् (बाँधना)+क्त] १. किसी के साथ अच्छी तरह से बँधा हुआ। २. परम्परा से संबद्ध।
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व्यापक  : वि० [सं० वि√आप् (प्राप्त होना)+ण्वुल्-अक] १. चारों ओर फैला हुआ। २. छाया हुआ। ३. घेरने या ढकनेवाला। ४. जिसके कार्यक्षेत्र या पेटे में बहुत सी बातें आती हों। (काम्प्रिहेन्सिव)। ५. सामान्य।
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व्यापक-न्यास  : पुं० [सं० कर्म० स०] तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार का अंगन्यास जिसमें किसी देवता का मूलमंत्र पढ़ते हुए सिर से पैर तक वास करते हैं।
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व्यापत्ति  : स्त्री० [सं० वि√आप् (प्राप्त होना)+क्तिन्] १. मृत्यु। मौत। २. नाश। बरबादी। ३. हानि। ४. किसी अक्षर का लोप या उसकी जगह दूसरे अक्षर का आना (व्याकरण)।
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व्यापन  : पुं० [सं० वि√आप् (प्राप्त होना)+ल्युट-अन] [वि० व्याप्य, भू० कृ० व्याप्त] १. किसी के अन्दर पहुँचकर चारों ओर फैलाना। २. ऊपर आकर अथवा चारों ओर से घेरना। ३. व्यापक रूप से सामान्य सिद्ध करना।
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व्यापना  : अ० [सं० व्यापन] १. चारों ओर फैलना। व्याप्त होना। २. किसी में समाना।
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व्यापन्न  : भू० कृ० [सं० वि+आ√पद् (स्थान)+क्त] १. विपत्ति या आफत में फँसा हुआ। २. मृत।
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व्यापादन  : पुं० [सं० वि+आ√पद्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्यापादित] [वि० व्यापादक-व्यापादनीय] १. किसी को कष्ट पहुँचाने का उपाय सोचना। २. मार डालना। हत्या करना। नष्ट करना।
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व्यापार  : पुं० [सं०] १. कार्य, आचरण, प्रयोग आदि के रूप में की जानेवाली कोई बात। किया जानेवाला या किया हुआ कोई काम (ऐक्शन)। जैसे—नाटक का मुख्य तत्त्व व्यापार है। २. क्रियात्मक रूप धारण करने का भाव। काम करना (ऑपरेशन)। ३. वह जो आचरण व्यवहार, प्रयोग आदि के रूप में किया जाय। (कान्डक्ट)। जैसे—जीवन व्यापार। ४. चीजें खरीदकर बेचने का काम। रोजगार (ट्रेड बिजिनेस)। ५. न्याय के अनुसार विषय के साथ होनेवाला इंद्रियों का संयोग। ६. मदद। सहायता।
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व्यापार चिन्ह  : पुं० [सं० ष० त०] वह विशिष्ट चिन्ह जो व्यापारी अपने विशिष्ट उत्पादनों आदि पर अंकित करते हैं। (ट्रेड मार्क)
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व्यापार-कर  : पुं० [सं०] वह कर जो व्यापारियों पर कोई विशिष्ट व्यापार या रोजगार करने के संबंध में लगता है। (ट्रेड टैक्स)
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व्यापार-तुला  : स्त्री० [सं०] आजकल देशों और राष्ट्रों के पारस्परिक व्यापार और विनिमय के क्षेत्र में वह स्थिति जिससे यह सूचित होता है कि एक देश ने दूसरे देश से कितना माल मँगाया और कितना भेजा। (ट्रेड बैलेन्स) विशेष—यदि माल मँगाया गया हो कम और भेजा गया हो अधिक तो व्यापार-तुला पक्ष में मानी जाती है, और इसकी विपरीत दिशा में विपक्ष में रहती है।
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व्यापार-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] बडे-बड़े व्यापारियों की वह संस्था जिसका मुख्य उद्देश्य व्यापार बढ़ाना तथा व्यापारियों के हितों की रक्षा करना होता है।
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व्यापारक  : वि० [सं० व्यापार+कन्] व्यापार करनेवाला।
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व्यापारण  : पुं० [सं० व्यापार√नी (ढोना)+ड] १. आज्ञा देना। २. किसी काम पर किसी को नियुक्त करना। काम में लगाना।
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व्यापाराना  : वि० [सं० व्यापार+हिं० आना] १. व्यापार संबंधी। व्यापार के नियमों के अनुसार होनेवाला। जैसे—व्यापाराना भाव।
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व्यापारिक  : वि० [सं० व्यापार+ठक्-इक] व्यापार या रोजगार संबंधी। व्यापार का।
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व्यापारित  : भू० कृ० [सं० व्यापार+इतच्] १. व्यापार या काम में लगाया हुआ। २. किसी स्थान पर रखा या जमाया हुआ।
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व्यापारी  : पुं० [सं० व्यापार-इनि] १. व्यापार करनेवाला व्यक्ति। २. व्यापार के द्वारा जीविका निर्वाह करनेवाला व्यक्ति।
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व्यापी  : वि० [सं० वि√आप् (प्राप्त होना)+णिनि] १. व्याप्त होनेवाला। २. सर्वत्र फैलनेवाला। ३. आच्छादक। पुं० विष्णु का एक नाम।
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व्याप्त  : भू० कृ० [सं० वि√आप् (प्राप्त होना)+क्त] १. जो किसी के अन्दर पूरी तरह से फैला या समाया हुआ हो। २. जिसमें कुछ फैला या समाया हुआ हो। ३. सब ओर से घिरा या ढका हुआ।
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व्याप्ति  : स्त्री० [सं० वि+आप्+वितन्] [वि० व्याप्त, व्याप्य] १. किसी वस्तु या स्थान के सब अंगों या भागों में फैले हुए या व्याप्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। (परवेज़न)। २. साधारणतः सभी अवस्थाओं में व्याप्त होने का भाव (जेनैरलिटी)। ३. न्याय शास्त्र में किसी एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का पूर्ण रूप से मिला या फैला हुआ होना। ४. विकृति विज्ञान में किसी रोग की समाप्ति (देखें) के बाद की वह अवस्था जिसमें वह रोग शरीर में रहता है। जैसे—इस रोग की व्याप्ति काल १॰ दिन तक है। ५. आठ प्रकार के ऐश्वर्यों में से एक प्रकार का ऐश्वर्य। ६. ऐसा तत्त्व, नियम या सिद्धान्त जो सब जगह समान रूप से प्रयुक्त हो सकता अथवा होता हो। ७. फैलाव। विस्तार। ८. पूर्णता। ९. प्राप्ति।
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व्याप्तित्व  : पुं० [सं० व्याप्ति+त्व] व्याप्ति का धर्म या भाव।
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व्याप्य  : वि० [सं० वि√आप् (व्याप्त होना)+ण्यत्] १. जिसे अधिक व्यापक बनाया जा सकता हो या बनाया जाने को हो। २. जो व्याप्त हो सकता हो। पुं० कार्य पूरा करने का साधन या हेतु।
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व्याभंग  : पुं० [सं०] विज्ञान में वह स्थिति जिसमें प्रकाश की रेखा किसी अपारदर्शक पदार्थ का कोना छूती हुई निकलती है और उसमें के रंगों की रेखाएँ अलग-अलग दिखाई देती है। (डि-फ्रैक्शन)
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व्याम  : पुं० [सं० वि√अम्+घञ्] १. उतनी दूरी या लम्बाई जितनी दोनों हाथ अलग-बगल खूब फैला देने पर एक हाथ की उँगलियों के सिरे से दूसरे हाथ की उँगलियों के सिरे तक होती है।
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व्यामिश्र  : पुं० [सं० वि+आ√मिश्र्+अच्] दो प्रकार के पदार्थों या कार्यों को एक में मिलाने की क्रिया। वि० १. किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ। २. अनेक प्रकारों से युक्त। ३. क्षुब्ध। ४. अन्यमस्क। ५. संदिग्ध।
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व्यामोह  : पुं० [सं० वि+आ√मुह् (मुग्ध होना)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला मोह। २. ऐसी मानसिक अवस्था जिसमें घबराहट के कारण मनुष्य अपना कर्त्तव्य स्थिर करने में असमर्थ हो।
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व्यायाम  : पुं० [सं० वि+आ√यम्+घञ्] १. कोई ऐसी क्रिया या व्यापार जिसमें शरीर अथवा उसके किसी एक या अनेक अंगों को किसी असामान्य स्थिति में अथवा विभिन्न स्थितियों में इस उद्देश्य से लाया जाता है जिससे शरीर पुष्ट हो तथा रक्त का संचार ठीक प्रकार से होता रहे। कसरत (एक्सरसाइज)। २. पौरुष। ३. परिश्रम। ४. क्लांति। थकावट। ५. रति-क्रिया। के उपरांत होनेवाली थकावट। ६. अभ्यास।
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व्यायामिक  : वि० [सं० व्यायाम+ठक्-इक] १. व्यायाम संबंधी। व्यायाम का। २. व्यायाम के फलस्वरूप होनेवाला।
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व्यायामी (मिन्)  : पुं० [सं० व्यायाम+इनि] १. वह जो व्यायाम करता हो। कसरत करनेवाला। कसरती। २. परिश्रमी। मेहनती। ३. व्यायाम से पुष्ट (शरीर)।
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व्यायोग  : पुं० [सं० वि+आ√वुज्+घञ्] साहित्य में दस प्रकार के रूपकों में से एक प्रकार का रूपक या दृश्य काव्य। इसके पात्रों में स्त्रियाँ कम और पुरुष अधिक होते हैं। इसमें गर्भ, विमर्ष और संधि नहीं होती।
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व्यार्त  : वि० [सं० तृ० त०] विशेष रूप से आर्त्त।
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व्याल  : पुं० [सं० वि+आ√अल्+अच्] १. साँप। २. चीता। बाघ। शेर या ऐसा ही और कोई हिंसक जंतु। ३. वह सिखाया हुआ चीता जिसकी सहायता से दूसरे पशुओं का शिकार किया जाता है। ४. दुष्ट हाथी। ५. राजा। ६. विष्णु। ७. एक प्रकार का दंडक छंद। वि० १. दुष्ट। पाजी। २. अपकार करनेवाला।
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व्याल-मृग  : पुं० [सं०] बाघ। शेर।
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व्यालक  : पुं० [सं० व्याल+कन्] १. दुष्ट या पाजी हाथी। २. हिंसक जन्तु।
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व्यालग्राही (हिन्)  : पुं० [सं०] सँपेरा।
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व्यालग्रीव  : पुं० [सं०] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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व्यालता  : स्त्री० [सं० व्याल+तल्+टाप्] व्याल का धर्म या भाव।
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व्यालि  : पुं० [सं० वि+आ√अड् (उद्यम करना)+इण्, ड-ल] व्यालि नामक प्राचीन ऋषि और वैयाकरण।
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व्यालिक  : पुं० [सं० व्याल+ठन्-इक] सँपेरा।
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व्याली  : पुं० [सं० व्याल+इनि] शिव।
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व्यालीढ़  : पुं० [सं० वि+आ√लिह् (आस्वाद लेना)+क्त] साँप का ऐसा दंश जिसमें केवल एक या दो दाँत कुछ-कुछ लगे हों और घाव में से खून न बहा हो।
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व्यालुप्त  : पुं० [सं० वि+आ√लुप् (जुदा करना)] साँप का ऐसा दंश जिसमें दो दांत भरपूर बैठे हों और घाव में से खून भी निकला हो।
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व्यालू  : पुं०=ब्यालू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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व्यावरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० व्यावृत, कर्त्ता, व्यावर्तक] १. चारों ओर से घेरना। २. किसी शक्ति के फलस्वरूप आकार, रूप आदि का विकृत होना (कन्टोर्शन)।
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व्यावर्त  : वि० [सं० वि+आ√वृत्त (वर्तमान)+अच्] आगे की ओर निकली हुई नाभि। २. चकवँड़। चक्रमर्द।
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व्यावर्तक  : वि० [सं० वि+आ√वृत्त (वर्तमान रहना)+णिच्+ण्वुल-अक] १. चारों ओर से घूमनेवाला। २. पीछे लौटनेवाला।
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व्यावर्तन  : पुं० [सं० वि+आ√वृत्त (वर्तमान रहना)+णिच्+ल्युट-अन] १. चारों ओर घूमना। २. पीछे की ओर लौटना। ३. घुमाव। ४. मोड़।
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व्यावसायिक  : वि० [सं० कर्म० स०] व्यवसाय या पेशे से संबंध रखनेवाला।
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व्यावहारिक  : वि० [सं० व्यापार+ठक्-इक] १. व्यवहार (बरताव या मुकदमे) संबंधी। २. जिसे व्यवहार में लाया जा सकता हो। ३. जो व्यवहार में आ सकता हो। ४. (व्यक्ति) जो व्यवहारशील हो। अच्छा बरताव करनेवाला।
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व्यावहारिक-कला  : स्त्री० [सं०] ललित कला से भिन्न वे कलाएँ जो प्रयोग या प्रयोग में आनेवाली वस्तुओं की रचना से संबंध रखती है। (ऐप्लाएड आर्टस्) जैसे—कपड़े, मिट्टी के बरतन, मेज, कुर्सियाँ आदि बनाने की कला।
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व्यावहारिक-विज्ञान  : पुं० [सं०] ऐसा विज्ञान जिसकी सब बातें प्रयोग या परीक्षा के द्वारा ठीक सिद्ध की जा सकती हो। (एक्सपेरिमेन्टल साइन्स)।
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व्यावहार्य  : वि० [सं० व्यवहार+ष्यञ्] जो व्यवहार या कार्य में आने के योग्य हो।
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व्याविध  : वि० [सं० वि+आ√विध्+क] विभिन्न प्रकार का। तरह तरह का।
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व्यावृत्त  : वि० [सं० वि√आ+वृत्त+क्त] १. छूटा हुआ। निवृत्त। २. मना किया हुआ। निषेधित। ३. टूटा हुआ। खंडित। ४. अलग या पृथक् किया हुआ। ५. विभक्त।
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व्यावृत्ति  : स्त्री० [सं० वि+आ√वृत्त+क्तिन्] १. मुँह मोड़ना। २. घेरना। ३. पीछे की ओर लुढ़कना। ४. (नेत्रादि) घुमाना। ५. प्रशंसा। स्तुति। ६. निषेध। मनाही। ७. बाधा। विघ्न। ८. निराकरण। ९. नियोग। १॰. बचाकर रखा हुआ धन।
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व्यास  : पुं० [सं० वि√अस्+घञ्] १. पराशर के पुत्र कृष्ण द्वैपायन जिन्होंने वेदों का संकलन, विभाग और संपादन किया था। कहा जाता है कि अठारहों, पुराणों, महाभारत, भागवत और वेदांत आदि की रचना भी इन्होंने ही की थी। २. कथावाचक (ब्राह्मण)। ३. किसी वृत्त में की वह सीधी रेखा जो उसके केन्द्र से होकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक सीधा जाती हो। ४. फैलाव।
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व्यास-गद्दी  : स्त्री० [सं०+हिं०] ऊँची चौकी या आसन जिस पर बैठकर पंडित या व्यास कथा-वार्ता कहते हैं। व्यास पीठ।
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व्यास-गीता  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक उपनिषद् का नाम।
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व्यास-पीठ  : पुं० [सं० ष० त०] वह ऊँचा आसन जिस पर बैठकर व्यास लोग पौराणिक कथाएँ कहते हैं। व्यास की गद्दी।
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व्यास-वन  : पुं० [सं०] एक प्राचीन वन या जंगल।
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व्यास-सूत्र  : पुं० [सं०] वेदांत सूत्र।
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व्यासकूट  : पुं० [सं० ष० त०] १. महाभारत में आए हुए वेदव्यास के कूट श्लोक। २. वह कूट श्लोक जो सीता हरण होने पर रामचन्द्र जी ने माल्यवान् पर्वत पर कहे थे और जिनसे उन्हें कुछ शांति मिली थी।
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व्यासक्त  : वि० [सं० वि+आ√सञ्ज् (संग रहना)+क्त] बहुत अधिक आसक्त।
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व्यासक्ति  : स्त्री० [सं० वि+आ√सञ्ज्+क्तिन्] विशेष रूप से होनेवाली आसक्ति।
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व्यासंग  : पुं० [सं०वि+आ√सञ्ज (साथ रहना)+घञ्] १. घनिष्ठ संपर्क। २. आसक्ति। ३. मनोयोग। ४. जोड़। योग। ५. पार्थक्य।
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व्यासंगी (गिन्)  : वि० [सं० व्यासंग+इनि] मनोयोगपूर्वक कार्य में लगा रहनेवाला।
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व्यासता  : स्त्री० [सं० व्यास+तल्+टाप्] व्यास होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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व्यासत्व  : पुं० [सं० व्यास+त्व]=व्यासता।
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व्यासारण्य  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्यास-वन नामक प्राचीन वन।
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व्यासार्द्ध  : पुं० [सं० ष० त०] ज्यामिति में वृत्त के केन्द्र से उसकी परिधि तक खींची जानेवाली सीधी रेखा जो मान में व्यास की आधी होती है।
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व्यासासन  : पुं० [सं० ष० त०] व्यास गद्दी। व्यास पीठ।
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व्यासिद्ध  : वि० [सं० वि+आ√सिध् (मांगल्यप्रद)+क्त] दे० ‘प्रारक्षित’।
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व्यासीय  : वि० [सं० व्यास+छ-ईय] व्यास का।
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व्यासेध  : पुं० [सं० वि+आ√सिध् (मांगल्यप्रद)+घञ्] दे० ‘प्रारर्क्षण’।
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व्याहत  : वि० [सं० वि+आ√हन् (मारना)+क्त] १. मना किया हुआ। निवारित। निषिद्ध। २. निरर्थक। व्यर्थ। पुं० साहित्य में एक प्रकार का अर्थदोष जो उस दशा में माना जाता है जब पहले कोई बात कहकर उसी के साथ तुरन्त कोई ऐसी दूसरी असंगत या विरोधी बात कही जाय जो ठीक न बैठती हो। यथा—चंद्रमुखी के बदन-सम दिनकर कह्यो न जाइ।
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व्याहति  : स्त्री० [सं० वि+आ√हन् (मारना)+क्तिन्] बाधा। विघ्न।
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व्याहरण  : पुं० [सं० वि+आ√हृ+ल्युट—अन] [भू० कृ० व्याहृत] १. उक्ति। कथन। २. कहानी। किस्सा।
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व्याहार  : पुं० [सं० वि+आ√हृ (हरण करना)+घञ] १. वाक्य। जुमला। २. प्रश्न करना। पूछना।
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व्याहृत  : भू० कृ० [सं० वि+आ√हृ (हरण करना)+क्त] १. कहा हुआ। कथित। २. खाया हुआ। भुक्त।
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व्याहृति  : स्त्री० [सं० वि+आ√हृ (हरण करना)+क्तिन्] १. उक्ति। कथन। २. भूः भुवः आदि सप्त लोकात्मक मंत्र।
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व्युच्छिति  : स्त्री० [सं०]=व्युच्छेद।
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व्युच्छिन्न  : भू० कृ० [सं० वि+उत√छिद् (फाड़ना)+क्त] १. उन्मूलित। २. विनष्ट।
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व्युच्छेद  : पुं० [सं० वि+उत्√छिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह किया हुआ उच्छेद। २. विनाश। बरबादी।
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व्युति  : स्त्री० [सं०] बुनने अथवा सीने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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व्युत्क्रम  : पुं० [सं० वि+उत्√क्रम्+घञ्] १. व्यतिक्रम। २. मृत्यु। २. अपराध।
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व्युत्क्रमण  : पुं० [सं० वि+उत्√क्रम् (चलना)++ल्युट-अन] उल्लंघन करने की क्रिया या भाव।
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व्युत्थान  : पुं० [सं० वि+उत्√स्था (ठहरना)+ल्युट-अन] १. खड़े होना। २. किसी के विरुद्ध खड़े होना। ३. एक प्रकार का नृत्य। ४. समाधि। ५. योग के अनुसार चित्त की क्षिप्त मूढ़ और विक्षिप्त ये तीनों अवस्थाएँ या चित्तभूमियाँ जिनमें योग का साधन नहीं हो सकता। इन भूमियों में चित्त बहुत चंचल रहता है।
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व्युत्थिक  : भू० कृ० [सं० वि+उत्+स्था (ठहरना)+क्त] जो किसी के विरुद्ध खड़ा हुआ हो। जो किसी का विरोध कर रहा हो।
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व्युत्पत्ति  : स्त्री० [सं० वि√उत्√पद्+क्तिन्] १. किसी चीज का मूल उदगम या उत्पत्ति का स्थान। २. किसी शब्द का वह मूल रूप जिससे निकल या बिगड़कर उसका प्रस्तुत रूप बना हो। (डेरिवेशन)। ३. व्याकरण कोश आदि में किसी शब्द की मौलिक रचना आदि का विवरण। जैसे—व्यूह की व्युत्पत्ति है—वि√ऊह्+घञ्। ४. किसी विज्ञान या शास्त्र का अच्छा ज्ञान। बहुत सी बातों की जानकारी। बहुज्ञता। जैसे—दर्शनशास्त्र में उनकी अच्छी व्युत्पत्ति है।
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व्युत्पत्तिक  : वि० [सं०] १. व्युत्पत्ति से सम्बन्ध रखनेवाला। २. व्युत्पत्ति के रूप में होनेवाला (डेरिवेटिव)।
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व्युत्पन्न  : भू० कृ० [सं० वि+उत्√पद्+क्त] १. जिसकी उत्पत्ति हुई हो। उत्पन्न। २. (शब्द) जिसकी उत्पत्ति ज्ञात हो।
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व्युत्पादक  : वि० [सं० वि+उत्√पद्+ण्वुल्—अक] उत्पन्न करनेवाला। उत्पादक।
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व्युत्पादन  : पुं० [सं० वि+उत्√पद् (स्थान आदि)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्युत्पादित] १. उत्पन्न करना। २. व्युत्पत्ति।
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व्युत्पाद्य  : वि० [सं० वि+उत्√पद्+णिच्+यत्] १. जिसके मूलरूप की व्याख्या की जा सके। २. जिसकी व्युत्पत्ति बतलाई जा सके।
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व्युत्सर्ग  : पुं० [सं० वि+उत्√सृज् (छोड़ना)+घञ्] १. त्याग। विरक्ति। २. शरीर के मोह का त्याग (जैन)।
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व्युपदेश  : पुं० [सं० वि+उप√दिश् (आदेश करना)+घञ्] १. उपदेश। २. बहाना। ३. छद्म। छल।
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व्युपरम  : पुं० [सं० ब० स०] १. शांति। २. निवृत्ति। ३. स्थिति। ४. बाधा। ५. विराम। ६. अन्त।
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व्युपशम  : पुं० [सं० ब० स०] अशांति।
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व्युष  : स्त्री० [सं० वि√उष् (दाह करना आदि)+क] प्रातःकाल। सवेरा।
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व्युष्ट  : पुं० [सं० वि+उष्+क्त] १. प्रभात। तड़का। २. दिन। ३. फल। भू० कृ० १. जला हुआ। २. चमकीला। ३. स्पष्ट।
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व्युष्टि  : स्त्री० [सं० वि√उष्+क्तिन्] १. फल। २. समृद्धि। ३. प्रशंसा। स्तुति। ४. उजाला। प्रकाश। ५. प्रभात। तड़का। ६. जलन। दाह। ७. इच्छा। कामना।
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व्यूक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी।
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व्यूढ़  : भू० कृ० [सं० वि√वह् (ढोना)+क्त] [स्त्री० व्यूढ़ा] १. व्याहा हुआ। विवाहित। २. मोटा। ३. अच्छा। बढ़िया। ४. तुल्य। समान। ५. दृढ़। पक्का। मजबूत। ६. फैला हुआ। विस्तृत। ७. विकसित। ८. व्यूह के रूप में आया या लाया हुआ।
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व्यूढ़ापति  : पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो अपनी विवाहित पत्नी की रति या संभोग से संतुष्ट रहता हो और पर-स्त्री की कामना न करता हो।
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व्यूढ़ि  : स्त्री० [सं० वि√वह् (ढोना)+क्तिन्] १. ठीक-ठीक क्रम। विन्यास। २. पंक्ति। व्यह।
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व्यूत  : भू० कृ० [सं० वि√वेञ् (बुनना)+क्त] चुना या सिया हुआ।
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व्यूति  : स्त्री० [सं० वि√वेञ्] बुनने या सीने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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व्यूह  : पुं० [सं० वि√ऊह् (वितर्क करना)+घञ्] १. समूह। जमघट। २. निर्माण। रचना। ३. तर्क। ४. देह। शरीर। ५. परिणाम। नतीजा। ६. फौज। सेना। ७. युद्ध में सुदृढ़ रक्षा पंक्ति बनाने के उद्देश्य से सैनिकों का किसी विशेष क्रम से खड़ा होना। ८. अंश। भाग। योजना।
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व्यूहन  : पुं० [सं० वि√ऊह्+ल्युट-अन] व्यूह रचने की क्रिया या भाव। २. रचना। विस्थापन।
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व्यूहित  : भू० कृ० [सं० वि√ऊह्+क्त] व्यूह के रूप में किया या लगाया हुआ।
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व्योम  : पुं० [सं०√व्ये+मनिन्, व्योमन्, नि० सि०] १. आकाश। अंतरिक्ष। आसमान। २. जल। पानी। ३. बादल। मेघ। ४. शरीररस्थ वायु। ५. अभ्रक। ६. कल्याण। मंगल। ७. विष्णु। ८. एक प्रजापति।
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व्योम गंगा  : स्त्री०=आकाश गंगा।
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व्योम-धूम  : पुं० [सं० ष० त०] बादल।
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व्योम-पुढम  : पुं० [सं०] अस्तित्वहीन अथवा कल्पित वस्तु। आकाश-कुसुम।
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व्योम-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] १. आकाश। आसमान। २. झंडा। ध्वजा।
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व्योम-मृग  : पुं० [सं० ष० त०] चंद्रमा के दस घोड़ों में से एक।
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व्योम-सरिता  : स्त्री० [सं० ष० त०]=आकाश गंगा।
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व्योमक  : पुं० [सं० व्योमन्+कन्] एक तरह का आभूषण। (बौद्ध)
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व्योमकेश  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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व्योमग  : वि० [सं० व्योमन्√गम्+ड] १. आकाशचारी। २. स्वर्गीय।
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व्योमगमनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. इंद्रजाल का वह भेद जिसके द्वारा मनुष्य हवा में उड़ता हुआ दिखाई पड़ता है।
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व्योमचर  : वि० [सं० व्योमचर√चर्+अच्] वह जो आकाश में विचरण करता हो। आकाशचारी। पुं० १. देवता। २. पक्षी।
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व्योमचारी  : वि० पुं०=व्योमचर।
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व्योमपाद  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु का एक नाम।
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व्योमयान  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. आकाश में चलनेवाला यान। आकाश यान (स्पेस शिप)। ३. हवाई जहाज।
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व्योमवल्ली  : स्त्री० [सं० ष० त०] आकाशवल्ली। अमरबेल।
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व्योमस्थली  : स्त्री० [सं० ष० त०] पृथ्वी। जमीन।
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व्योमाभ  : पुं० [सं०] गौतम बुद्ध का एक नाम।
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व्योमी (मिन्)  : पुं० [स० व्योमन्+इनि] चन्द्रमा के दस घोड़ों में से एक।
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व्योमोदक  : पुं० [सं० ष० त०] वर्षा का जल। बरसात का पानी।
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व्योम्निक  : वि० [सं० व्योमन्+ठक्-इक] व्योम संबंधी। व्योम या आकाश का।
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व्रज  : पुं० [सं०√व्रज (जाना)+क] १. जाने या चलने की क्रिया। व्रजन। गमन। २. झुंड। समूह। ३. गोकुल मथुरा, वृन्दावन के आसपास के प्रदेश का नाम।
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व्रज-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] व्रज और उसके आसपास का प्रदेश।
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व्रजक  : वि० [सं०√व्रज (गमनादि)+ण्वुल-अक] भ्रमण करनेवाला। पुं० संन्यासी।
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व्रजन  : पुं० [सं०√व्रज्+ल्युट-अन] चलना या जाना। गमन।
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व्रजनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] व्रज के स्वामी श्रीकृष्ण।
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व्रजभाषा  : स्त्री० [सं० ष० त०] व्रज प्रदेश में बोली जानेवाली भाषा। ग्यारहवीं शताब्दी से इसमें निरंतर रचनाएँ प्रस्तुत हो रही है।
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व्रजमोहन  : पुं० [सं० व्रज√मुह्+णिच्+ल्युट-अन, ष० त०] श्रीकृष्ण।
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व्रजराज  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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व्रजवल्लभ  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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व्रजांगन  : पुं० [सं० ष० त०] गोष्ठ।
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व्रजांगना  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. व्रज की स्त्री। २. गोपी (श्रीकृष्ण के विचार से)।
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व्रजित  : भू० कृ० [सं०√व्रज+क्त] गया हुआ। प्रस्थित। पुं० १. गमन। २. भ्रमण।
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व्रजी  : स्त्री० [सं० व्रज] व्रजभाषा (व्रज की बोली)।
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व्रजेंद्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. नंदराय। २. श्रीकृष्ण।
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व्रजेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।
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व्रज्य  : वि० [सं०√व्रज (गमनादि)+क्यप्] व्रजन संबंधी।
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व्रज्या  : स्त्री० [सं० व्रज्य+टाप्] १. घूमना-फिरना टहलना, या चलना। पर्यटन। २. गमन। जाना। ३. आक्रमण। चढ़ाई। ४. पगदंडी। ५. ढेर या समूह बनाना। ६. दल। जत्था।
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व्रण  : पुं० [सं०√ब्रण (अंग चूर्ण करना)+अच्] १. किसी प्रकार के प्राकृतिक विकार से होनेवाला घाव। २. क्षत। घाव। ३. छिद्र। छेद। ४. दोष।
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व्रण-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह गाँठ जो फोड़ें के ऊपर पड़ती है।
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व्रण-रोपिणी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की छोटी पीली लंबी हर्रे। रोहिणी।
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व्रण-शोथ  : पुं० [सं० ष० त०] फोड़े, घाव आदि में होनेवाली सूजन।
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व्रणन  : पुं० [सं०√व्रण्+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्रणित] छेद करना। छेदना।
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व्रणारि  : पुं० [सं० ष० त०] १. बोल नामक गंधद्रव्य। २. अगस्त वृक्ष।
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व्रणित  : भू० कृ० [सं० व्रण+इतच्] १. जिसे घाव लगा हो। आहत। २. जिसे व्रण हुआ हो। ३. जो छेदा या बेधा गया हो।
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व्रणिल  : वि० [सं० व्रण+इलच्] व्रणी।
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व्रणी (णिन्)  : पुं० [सं० व्रण+इनि] १. जिसे व्रण हुआ हो। २. जिसके हृदय पर गहरी चोट लगी हो।
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व्रणीय  : वि० [सं० व्रण+छ-ईय] १. व्रण-संबंधी। २. व्रण के फलस्वरूप होनेवाला।
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व्रण्य  : वि० [सं०√व्रण् (अंगचूर्ण करना)+क्यप्] जो व्रण अच्छा करने के लिए गुणकारी हो।
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व्रत  : पुं० [सं०√वृ+अतच्] १. धार्मिक या नैतिक पवित्रता के निमित्त किया जानेवाला दृढ़ निश्चय या संकल्प। २. ऐसा दृढ़ निश्चय जिसमें किसी प्रकार का त्याग अपेक्षित हो। ३. पुण्य प्राप्ति या धार्मिक अनुष्ठान के लिए किया जानेवाला उपवास। जैसे—एकादशी का व्रत। ४. नियम। ५. आदेश।
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व्रत-चर्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] किसी प्रकार का व्रत करने या रखने का काम।
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व्रत-पक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] भाद्र मास का शुक्ल पक्ष।
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व्रत-भिक्षा  : स्त्री० [सं०] वह भिक्षा जिसे बालक को यज्ञोपवीत संस्कार के समय मांगने का विधान है।
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व्रत-संग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] वह दीक्षा जो यज्ञोपवीत के समय गुरु से ली जाती है।
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व्रत-स्नातक  : पुं० [सं० ष० त०+कन्] तीन प्रकार के ब्रह्मचारियों में से वह ब्रह्मचारी जिसने गुरु के यहाँ रहकर व्रत तो समाप्त कर लिया हो पर जो बिना वेद समाप्त किए ही घर लौट आया हो।
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व्रतचारिता  : स्त्री० [सं० व्रतचारिन्+तल्+टाप्] व्रतचारी होने की अवस्था,धर्म या भाव।
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व्रतचारी  : पुं० [सं० व्रतचारिन्] वह जो किसी प्रकार के व्रत का आचरण या अनुष्ठान करता हो। व्रत करनेवाला।
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व्रतती  : स्त्री० [सं० प्र√तन् (बिस्तार करना)+क्तिन्, पृषो, सिद्धि, प्र-व] १. विस्तार। फैलाव। २. लता।
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व्रतधर  : वि० [सं० व्रत√धृ+अच्] जिसने किसी प्रकार का व्रत धारण किया हो। व्रत करनेवाला।
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व्रतस्थ  : वि० [सं० व्रत√स्था (ठहरना)+क] जिसने किसी प्रकार का व्रत धारण किया हो। पुं० ब्रह्मचारी।
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व्रताचरण  : पुं० [सं०ष०त०] किसी प्रकार के व्रत का पालन।
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व्रतादेश  : पुं० [सं० ष० त०] १. व्रत का आदेश देना। २. यज्ञोपवीत संस्कार जिसमें बालक को व्रत दिया जाता है। ३. व्रतादेश।
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व्रतादेशन  : पुं० [सं० ष० त०]वेदी का वह प्रदेश जो उपनयन संस्कार के बाद ब्रह्मचारी को दिया जाता है।
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व्रतिक  : वि० [सं०व्रत+इनि+कन्०] १. जिसने किसी प्रकार का व्रत धारण किया हो। २. व्रत संबंधी। ३. व्रत के फलस्वरूप होनेवाला।
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व्रती  : पुं० [सं०व्रत+इनि,व्रतिनन्] [स्त्री०व्रतिनी] १. वह जिसने किसी प्रकार का व्रत धारण किया हो। जैसे— वेद-व्रती। २. यज्ञ करनेवाला यजमान। ३. ब्रह्मचारी।
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व्रतेश  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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व्रतोपनयन  : पुं० [सं० ष० त०] उपनयन संस्कार।
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व्रतोपायन  : पुं० [सं० ष० त०] कोई धार्मिक अनुष्ठान आरम्भ करना।
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व्रत्य  : वि० [सं० व्रत+यत्] १. वह जिसने कोई व्रत धारण किया हो। पुं० ब्रह्मचारी।
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व्रन  : पुं० १. =वर्ण। २. =व्रण।
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व्रश्चन  : पुं० [सं०√व्रश्च् (काटना)+ल्युट-अन] १. काटना या छेदना। २. सोना, चांदी आदि काटने की छेनी। ३. लकड़ी का बुरादा। ४. कुल्हाड़ी।
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व्राचड  : पुं० [अप्] १. प्राचीन अपभ्रंश भाषा का वह रूप जो प्रायः एक हजार बरस पहिले सिंध प्रदेश में प्रचलित था और जिससे आधुनिक सिंधी भाषा की उत्पत्ति मानी जाती है। (इसका साहित्य अभी तक नहीं मिला है।) २. पैशाची भाषा का एक भेद।
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व्राज  : पुं० [सं०√व्रज+घञ्] १. चलना या जाना। गमन। २. कुत्ता।
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व्राजिक  : पुं० [सं०व्रजि+कन्०] एक प्रकार का उपवास जिसमें केवल दूध पर रहा जाता है। (सन्यासी)।
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व्रात  : पुं० [सं०√वृ+अतच्, पृषो, सिद्धि] १. आदमी। मनुष्य। ३. जत्था। दल। ४. जीविका उपार्जन के लिए किया जानेवाला परिश्रम या प्रयत्न। ५. जातिच्युत ब्रह्मचारी की संतान।
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व्रात्य  : वि० [सं०व्रात+यत्] व्रत संबंधी। व्रत का। पुं० १. ऐसा आर्य या हिन्दू जिसके पूरे धार्मिक संस्कार न हुए हों। २. ऐसा ब्राह्मण क्षत्रिय या शूद्र जो वैदिक कृत्य न करता हो। ३. वर्णसंकर।
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व्रात्य-स्तोम  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो व्रात्य या संस्कारहीन लोग किया करते थे।
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व्रात्यता  : स्त्री० [सं० व्रात्य+तल्+टाप्] व्रात्य होने की अवस्था या भाव।
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व्रात्यत्व  : पुं० [सं० व्रात्य+त्व] =व्रात्यता।
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व्रिख  : पुं० १. =वृक्ष। २. =वृष।
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व्रिध  : वि०=वृद्धा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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व्रीड़  : पुं० [सं०√व्रीड् (लज्जा)+घञ्] लज्जा। शरम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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व्रीडन  : पुं० [सं०√वीड्+ल्युट-अन] १. लज्जा। २. नम्रता।
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व्रीडा  : स्त्री० [सं०√व्रीड्+अ+टाप्] लज्जा। शरम। विशेष—साहित्य में इसकी गिनती संचारी भावों में है।
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व्रीडित  : भू० कृ० [सं०√व्रीड् (लज्जा)+क्त,व्रीडा+इतच्] १. लज्जित। २. विनीत।
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व्रीहि  : पुं० [सं०√वृह्+इन, पृषो, सिद्धि] १. धान। चावल। २. धान का खेत। ३. अनाज। अन्न।
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व्रीहि-श्रेष्ठ  : पुं० [सं० स० त०] शालि धान्य।
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व्रीहिमुख  : पुं० [सं०] एक प्रकार का शल्य। (सुश्रुत)
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व्रीही  : पुं० [सं० व्रीही+इनि, व्रीहिन्] वह खेत जिसमें धान बोया गया हो। पुं०=व्रीहि।
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व्रीह्य पूप  : पुं० [सं० मध्यम० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का पूआ, जो चावल पीसकर बनाया जाता था।
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व्रैह  : वि० [सं० व्रीहि+अण्] १. व्रीहि अर्थात् चावल-संबंधी। २. चावल का बना हुआ।
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व्हिस्की  : स्त्री० दे० ‘ह्विस्की’।
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व्हेल  : स्त्री० [अं०] मछली की तरह का एक बहुत बड़ा और प्रसिद्ध स्तनपायी समुद्री जन्तु। ह्वेल।
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