शब्द का अर्थ
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क्रतु :
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पुं० [सं०√कृ+कतु] १. यज्ञ। २. अश्वमेज्ञ यज्ञ। ३. विष्णु। ४. ब्रह्मा के मानस पुत्र एक प्रजापति। ५. जीव। ६. इंद्रिय। ७. संकल्प या निश्चय। ८. मनोरथ। अभिलाषा। ९. योग्यता। १॰. प्रेरणा। ११. प्रज्ञा या विवेक। १२. आषाढ़ महीना। १३. प्लक्ष द्वीप की एक नदी। १४. एक विश्वे देव। १५. कृष्ण के एक पुत्र। |
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क्रतु-द्रुह :
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पुं० [सं० क्रतु√द्रुह (द्वेष करना)+क, उप० स०] असुर। |
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क्रतु-ध्वंसी (सिन्) :
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पुं० [सं० क्रतु+√ध्वसं(नष्ट करना)+णिच्+णिनि, उप० स०] शिव, जिन्होनें दक्ष प्रजापति का यज्ञ-ध्वंस कर दिया था। |
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क्रतु-पति :
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पुं० [ष० त०] १. यज्ञ करनेवाला यजमान। २. विष्णु। |
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क्रतु-पशु :
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पुं० [ष० त०] घोडा। |
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क्रतु-पुरुष :
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पुं० =यज्ञपुरुष। |
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क्रतु-यष्टि :
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स्त्री० [उपमित० स०] एक प्रकार की चिड़िया। |
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क्रतु-राज :
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पुं० [ष० त०] १. ऐसा यज्ञ जो सब यज्ञों में श्रेष्ठ माना जाय। २. राजसूय यज्ञ। ३. अश्वमेघ यज्ञ। |
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क्रतु-स्थला :
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स्त्री० [ब० स० टाप्] यजुर्वेद में उल्लिखित एक अप्सरा। |
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क्रतुभुक् (ज्) :
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पुं० [सं० क्रतु√भुज् (खाना)+क्विप्, उप० स०] १. यज्ञ में देवताओं को अर्पण किया जानेवाला पदार्थ। २. देवता। |
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क्रतुमय :
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पुं० [सं० क्रतु+मयट्] यज्ञों का प्रेमी और प्रायः या सदा यज्ञ करता रहनेवाला। व्यक्ति। उदाहरण—मनु वह क्रतुमय पुरुष वही मुख संध्या की लालिमा पिये।—कामायनी। |
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क्रतुविक्रयी (यिन्) :
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पुं० [सं० क्रतु-वि√क्री (बेचना)+णिनि] यज्ञ करने से प्राप्त होने वाले पुण्य या फल बेचनेवाला व्यक्ति। |
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