शब्द का अर्थ
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पेच :
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पुं० [फा०] १. वह स्थिति जिसमें कोई चीज किसी दिशा में सीधी रेखा में न गई हो, बल्कि जिसमें जगह-जगह कई तरह के घुमाव, चक्कर, मोड़ या लपेट हों। जैसे—तुम सीधा रास्ता छोड़ कर ऐसे रास्ते चलना चाहते हो जिमसें सौ तरह के पेच हैं। २. उक्त के आधार पर चालबाज़ी या चालाकी की कोई ऐसी बात जिसमें निकल भागने, पीछे हटने, मुकरने आदि के लिए और दूसरों को धोखे में रखने के लिए बहुत-कुछ अवकाश हो। घुमाव-फिराव या हेर-फेर की स्थिति। क्रि० प्र०—डालना। ३. ऐसी स्थिति जिसमें आगे बढ़ने के लिए कोई सरल या सीधा मार्ग न हो, बल्कि जगह-जगह कठिनाइयाँ घुमाव-फिराव, चक्कर या फेर पड़ते हों। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. चारों ओर लपेटी जानेवाली चीज का प्रत्येक फेरा या लपेट। जैसे—पगड़ी का पेच, पटके या कमरबंद का पेच। ५. गुड्डी या पतंग लड़ाने के समय की वह स्थिति जिसमें दो या अधिक गुड्डियों या पतंगों की डोरें या नखें चक्कर काटती या एक दूसरी को घेरती हुई आपस में उलझ या फँस जाती हैं; और एक डोर या नख की रगड़ से दूसरी डोर या नख के कट जाने की संभावना होती है। मुहा०—पेच काटना=दूसरे की गुड्डी या पतंग की डोर में अपनी डोर फँसा कर उसकी डोर काटना। गुड्टडी या पतंग काटना। पेंच लड़ाना=दूसरे की पतंग काटने के लिए उसकी डोर या नख में अपनी डोर या नख फँसाना। ६. उक्त के आधार पर, गुड्डी या पतंग लड़ाने में हर बार की ऐसी स्थिति जिसमें एक की डोर या नख दूसरे की डोर या नख में उलझाई या फँसाई जाती हो। जैसे—आओ, एक पेंच तुमसे भी हो जाय। क्रि० प्र०—लड़ाना। ७. कुश्ती में वह विशेष शारीरिक क्रिया या युक्ति जिससे प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने में सहायता मिलती है। दाँव। क्रि० प्र०—लगाना। ८. कौशल या चालाकी से भरी हुई कोई ऐसी तरकीब या युक्ति जिसका प्रतिपक्षी को सहज में पता न चले और जिससे बच निकलना उसके लिए कठिन हो। दौ०—दाँव-पेच। (देखें)। ९. एक प्रकार का चक्करदार आभूषण जो टोपी या पगड़ी में सामने की ओर खोंसा या लगाया जाता है। सिरपेच। १॰. कानों में पहना जानेवाला उक्त प्रकार का एक आभूषण या गहना। गोश-पेच। ११. एक विशिष्ट प्रकार का काँटा या कील जिसके आगे वाले आधे भाग में गड़ारीदार चक्कर बने होते हैं और जो ऊपर से ठोंककर नहीं, बल्कि दाहिनी ओर घुमाते हुए जड़ी या अंदर धँसाई जाती है। (स्क्रू) क्रि० प्र०—कसना।—खोलना।—जड़ना।—निकलना। पद—पेच-कश। १२. यंत्र का कोई ऐसा विशिष्ट अंग या पुरजा जिसे घुमाने, चलाने, दबाने या हिलाने से वह यंत्र अथवा उसका कोई अंश चलता या रुकता हो। क्रि० प्र०—घुमाना।—चलाना।—दबाना। मुहा०—पेच घुमाना=ऐसी युक्ति करना जिससे किसी के कार्य या विचार की दिशा बदल जाय। तरकीब से किसी का मन फेरना या एक ओर से हटाकर दूसरी ओर लगाना। (किसी का) पेच हाथ में होना=किसी के विचारों को परिवर्तन करने की शक्ति होना। प्रवृत्ति आदि बदलने में समर्थ होना। जैसे—उनकी चिंता छोड़ दो, उनका पेच तो हमारे हाथ में है। (अर्थात् हम जब जिधर चाहेगें, तब उधर उन्हें प्रवृत्त कर सकेंगे)। १३. किसी प्रकार का कल या यंत्र। (मशीन) जैसे—कपास ओटने या तेल पेरने का पेच। १४. मृदंग आदि के किसी परन या ताल के बोल में से कोई एक टुकड़ा निकाल कर उसके स्थान पर ठीक उतना ही बड़ा कोई दूसरा टुकड़ा बैठाने या लगाने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—लगाना। १५. पेट में होनेवाली पेचिश। मरोड़ |
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पेच-कश :
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पुं० [फा०] १. बढ़इयों, लोहारों आदि का एक औजार जिससे वे पेच कसते, जड़ते अथवा निकालते हैं। यह आगे से चपटा और कुछ नुकीला होता है जिसके पिछले भाग में मुठिया लगी रहती है। यही मुठिया से पेच अन्तर धँसता और बाहर निकलता है। २. लोहे का बना हुआ घुमावदार पेचदार उपकरण जिसकी सहायता से बोतलों का काग बाहर निकाला जाता है। |
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पेचक :
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पुं० [सं०√पच् (पकाना)+वुन्—अक, एत्व] [स्त्री० पेचिका] १. उल्लू पक्षी। २. जूँ नाम का कीड़ा। ३. बादल। मेघ। ४. खाट। चारपाई। ५. हाथी की दुम। स्त्री० [फा०] १. कपड़े सीने के लिए बटे हुए तागे की गोली या गुच्छी। २. ऐसी रचना जो घूमती हुई सीधी ऊपर या नीचे चली गई हो। ३. चित्र-कला में फूल-पत्तियाँ आदि का उक्त प्रकार का अंकन। डंडा-मुर्री (स्पिरल)। |
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पेचकी :
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स्त्री० [सं० पेचक+ङीष्] उल्लू की मादा। |
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पेचताब :
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पुं० [फा०] १. ऐसा क्रोध जो विवशता आदि के कारण प्रकट या सार्थक न किया जा सके, और जो उसी लिए अंदर ही अंदर रोककर चुप रह जाना पड़े। क्रि० वि०—खाना। २. उक्त के फल-स्वरूप मन में होनेवाली बेचैनी या विकलता। |
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पेचदार :
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वि० [फा०] १. जिसमें किसी तरह का पेच या चक्कर बना या लगा रहता हो। पेचवाला। २. (काम या बात) जिसमें बहुत से पेच अर्थात् घुमाव-फिराव, चक्कर या झंझटें हों। पेचीला। ३. (बात) जिससे सत्यता और सरलता के बदले घुमाव-फिराव या हेर-फेर बहुत हों; और इसी लिए जिसमें से निकल भागने या जिसे उलट-पुलट कर दूसरा अर्थ निकालने और लोगों को धोखे में रखने के लिए यथेष्ट अवकाश हो। पुं० एक प्रकार का कसीदे का काम जिसमें सीधी रेखा के इधर-उधर जगह-जगह फंदे भी लगाये जाते हैं। |
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पेचना :
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स० [फा० पेच] दो चीजों के बीच में उसी प्रकार की कोई तीसरी चीज इस प्रकार बैठाना या लगाना कि साधारणतः वह ऊपर से दिखाई न पडें। इस प्रकार लगाना कि पता न लगे। |
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पेचनी :
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स्त्री० [हिं० पेंच] कसीदे में, किसी सीधी रेखा के दोंनों ओर किया हुआ ऐसा काम जो देखने में बेल या श्रृंखला की तरह जान पड़े। |
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पेचवान :
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पुं० [फा०] १. वह बड़ी और लंबी सटक जो फरशी या हुक्के में लगाई जाती है। २. वह बड़ा हुक्का जिसमें उक्त प्रकार की सटक लगी हो। विशेष—ऐसा हुक्का प्रायः कुछ दूरी पर रखकर पीया जाता है। |
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पेचा :
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पुं० [सं० पेचक] [स्त्री० पेची] उल्लू पक्षी। पुं० [फा० पेच] उड़ती हुई पतंगों की नगों या डोरों का एक दूसरी को काटने के उद्देश्य से परस्पर उलझना। पेच। क्रि० प्र०—लड़ना। |
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पेचिका :
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स्त्री० [सं० पेचक+टाप्, इत्व] उल्लू पक्षी की मादा। |
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पेचिश :
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स्त्री० [फा०] १. एक उदर रोग जिसमें आँतों में घाव हो जाते हैं जिससे पेट में ऐंठन होने लगती है और बार-बार ऐसा पाखाना होने लगता है जिसमें सफेद रंग का लसीला गाढा पदार्थ मिला रहता है। २. उक्त रोग में पेट में होनेवाली ऐंठन या मरोड़। क्रि० प्र०—पड़ना। |
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पेचीदगी :
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स्त्री० [फा०] १. पेचीदा अर्थात् पेचीले होने की अवस्था या भाव। घुमावदार होने की अवस्था या भाव। २. बहुत ही उलझी हुई स्थिति या ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेवाली बात या उलझन। |
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पेचीदा :
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वि० [फा० पेचीदः] पचीला (दे०) |
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पेचीला :
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वि० [हिं० पेच+ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पचीली] १. जिसमें बहुत से पेच हों। घुमाव-फिराववाला। २. (काम या बात) जो इतना अधिक कठिन और जटिल हो कि उसे सामान्यतः न समझा जा सके। |
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पेचीलापन :
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पुं० [हिं० पेचीला+पन (प्रत्य०)] पेचीले होने की अवस्था, गुण या भाव। |
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