शब्द का अर्थ
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मात :
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वि० [अ] १. जो मर गया हो। मरा हुआ। २. हारा हुआ। पराजित। स्त्री० १. शतरंज के खेल में वह स्थिति जब कोई पक्ष बादशाह की मिलनेवाली शह को न बचा सकता हो और उस प्रकार उसकी हार हो जाती है। मुहावरा—मात करना= (क) शतरंज के खेल में विपक्षी को हराना। (ख) किसी युग, कार्य या बात में किसी से बढ़-चढ़कर होना। मात खाना= (क) शतरंज के खेल में हार होना। (ख) पराजित होना। २. पराजय। वि० [सं० मत्त] मतवाला। उदाहरण—मात निमत सब गरजहिं बाँधे।—जायसी। स्त्री०=माता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
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मातंग :
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पुं० [सं० मतंग+अण्] १. हाथी। २. चांडाल। ३. किरात आदि किसी असभ्य जाति का व्यक्ति। ४. एक ऋषि। ५. अश्वत्थ पीपल। ६. संवर्त्तक मेघ। |
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मातंगी :
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स्त्री० [सं० मांतग+ङीष्] १. पार्वती। २. वसिष्ठ की पत्नी। ३. चांडाल जाति की स्त्री। ४. दस महाविद्याओं में से एक। (तंत्र)। |
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मातदिल :
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वि० [अ० माउतदिल] १. (पदार्थ) जिसका गुण या तासीर न तो अधिक गरम हो और न अधिक ठंढ़ी। समशीतोष्ण। २. जिसमें कोई बात आवश्यकता से अधिक या कम न हो। मध्यम प्रकृति का। संतुलित। |
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मातना :
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अ० [सं० मत्त] १. मस्त या मत्त होना। २. नशे मे चूर होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मातबर :
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वि० [अ० मोतबर] [भाव० मातबरी] जिसका एतबार किया जा सके। विश्वसनीय। विश्वस्त। |
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मातबरी :
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स्त्री० [अ० मोतबरी] मातबर अर्थात् विश्वसनीय होने की अवस्था या भाव। विश्वसनीयता। |
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मातम :
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पुं० [फा०] १. मृतक का शोक। मृत्युशोक। २. मृत्युशोक के कारण होनेवाला रोना-पीटना। ३. किसी बहुत बड़ी या अशुभ घटना का दुःख या शोक। क्रि० प्र०—मनाना। |
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मातम-पुर्सी :
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स्त्री० [फा०] मृतक के संबंधियों के यहाँ जाकर प्रकट की जानेवाली सहानुभूति। |
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मातमी :
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वि० [फा०] १. मातम संबंधी। २. शोकसूचक। जैसे—मातमी पोशाक। ३. मातम के रूप में होनेवाला। ४. मातम करनेवाला। |
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मातमुख :
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वि० [डिं] मूर्ख। |
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मातरि-पुरुष :
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पुं० [सं० स० त० विभक्ति का अलुक] वह जो अपनी मां के सामने अपनी वीरता का बखान करे, पर बाहर कुछ भी न कर सके। |
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मातरिश्वा :
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पुं० [सं०] १. पवन। वायु। २. एक प्रकार की अग्नि। |
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मातलि :
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पुं० [सं० मतल+इञ्] इंद्र का सारथी। |
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मातहत :
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वि० [अ] [भाव० मातहती] जो किसी के अधीन हो। पुं० अधीनस्थ। कर्मचारी। |
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मातहतदार :
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पुं० [अ+फा०] जमीन का वह मालिक जो दूसरे बड़े मालिक के अधीन हो। |
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मातहती :
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स्त्री० [अ] मातहत होने की अवस्था या भाव। |
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माता (तृ) :
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स्त्री० [स०√मान् (पूजा)+तृच्, नि, न-लोप] १. जन्म देनेवाली स्त्री। जननी माँ। २. आदरणीय, पूज्य या बड़ी स्त्री। ३. प्राचीन भारत में वेश्याओं की दृष्टि से वब वृद्धा स्त्री जो उनका पालन-पोषण करती थी और नाच-गाना आदि सिखाकर उनसे पेशा कराती थी। खाला। ४. चेचक या शीतला नामक रोग। ५. गौ। ६. जमीन। भूमि। ७. विभूति। ८. लक्ष्मी। ९. इंद्रवारुणी। १॰. जटामासी। वि० [सं० मत्त] [स्त्री० माती] मदमस्त। मतवाला। |
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मातामह :
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पुं० [सं० मातृ+डामहच्] [स्त्री० मातामहो] किसी कीमाता का पिता। नाना। |
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मातिल-सूत :
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पुं० [सं० ब० स०] इंद्र। |
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मातु :
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स्त्री०=माता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मातुल :
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पु० [सं० मातृ+डुलच्] [स्त्री० मातुला, मातुलानी] १. माता का भाई मामा। २. धतूरा। ३. एक प्रकार का धान। ४. एक प्रकार का साँप। ५. मदन नामक वृक्ष। |
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मातुला :
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स्त्री०=मातुलानी। |
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मातुलानी :
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स्त्री० [सं० मातुल+ङीष्+आनुक्] १. मामा की स्त्री। मामी। २. भाँग। |
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मातुली :
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स्त्री० [सं० मातुल+ङीष्] १. मामा की पत्नी। मामी। २. भाँग। |
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मातुलुंग :
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पुं० [सं० मातुल√गम्+खच्, मुम्, पृषो० सिद्धि] बिजौरा नींबू। |
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मातुलेय :
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पुं० [सं० मातुली+ठक्-एय] [स्त्री० मातुलेयी] मामा का लडका। ममेरा भाई। |
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मातृ :
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स्त्री० [सं० दे० ‘माता’] जननी। माता। |
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मातृ-गण :
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पुं० [ष० त०] सात अथवा आठ मातृकाओं का गण या वर्ग। |
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मातृ-चक्र :
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पुं० [ष० त०] मातृकाओं का समूह। |
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मातृ-तंत्र :
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पुं० [ष० त०] कुछ प्राचीन जातियों में वह सामाजिक व्यवस्था जिसमें गृह की स्वामिनी माता मानी जाती थी और वह घरेलू व्यवस्था भी करती थी। (मैट्रिआर्की)। |
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मातृ-तीर्थ :
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पुं० [मध्य० स०] हथेली में छोटी उँगली के मूल का उभरा हुआ स्थान। (ज्योतिषी) |
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मातृ-देश :
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पुं० [सं० ष० त०] १. मृतभूमि। २. विशेषतः विदेशों में जाकर बसे हुए लोगों की दृष्टि से उनके पूर्वजों की मातृभूमि। |
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मातृ-नंदन :
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पुं० [सं० ष० त०] १. कार्तिकेय। २. महाकरंज। |
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मातृ-पूजा :
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स्त्री० [ष० त०] विवाह के दिन से पहले छोटे-छोटे मीठे पुए बनाकर पितरों का किया जानेवाला पूजन। |
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मातृ-प्रणाली :
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स्त्री०=मातृ-तंत्र। |
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मातृ-बंधु :
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पुं० [ष० त०] माता के संबंध का अथवा मातृपक्ष का कोई आत्मीय। |
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मातृ-भाषा :
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स्त्री० [ष० त०] १. किसी व्यक्ति की दृष्टि से उसकी माँ द्वारा बोली जानेवाली भाषा जिसे वह माँ की गोद में ही सीखने लगता है। २. किसी व्यक्ति की दृष्टि से वह भाषा जो उसकी राष्ट्रीयता के अन्य लोग बोलते हों। |
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मातृ-भूमि :
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स्त्री० [ष० त०] वह स्थान या देश जिसमें किसी का जन्म हुआ हो और इसीलिए जो उसे माता के समान प्रिय समझता हो। |
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मातृ-मंडल :
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पुं० [ष० त०] दोनों आँखों के बीच का स्थान। |
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मातृ-माता (तृ) :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. माता की माता। नानी। २. दुर्गा। |
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मातृ-मुख :
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वि० [ब० स०] हर काम या बात में माता का मुँह ताकनेवाला अर्थात् जड़मति। मूर्ख। |
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मातृ-यज्ञ :
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पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का यज्ञ जो मातृकाओं के उद्देश्य से किया जाता है। |
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मातृ-रिष्ट :
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पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक दोष जिसके कारण प्रसव के उपरान्त माता पर संकट आता या उसके प्राण जाने का भय होता है। |
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मातृ-वत्सल :
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पुं० [सं० ष० त०] कार्तिकेय। |
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मातृ-शासित :
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वि० [सं० तृ० त०] माता के शासन मे ही ठीक तरह से रहनेवाला, अर्थात् मूर्ख। |
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मातृ-ष्वसा (सृ) :
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स्त्री० [सं० ष० त०] मौसी। माँ की बहन। |
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मातृ-सत्रा :
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स्त्री० [सं०] =मातृतंत्र। |
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मातृ-सपत्नी :
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स्त्री० [सं० ष० त०] सौतेली माता। विमाता। |
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मातृ-स्तन्य :
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पुं० [सं० ष० त०] माँ का दूध। |
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मातृ-हत्या :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. माँ को मार डालना। (मैट्रिसाइड)। २. माँ को मार डालने से लगनेवाला पाप। |
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मातृक :
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वि० [सं० समास में] १. माता-सबंधी। माता का। २. माता के पक्ष से प्राप्त होनेवाला (अधिकार, व्यवहार आदि) ‘पितृक’ का विरुद्धार्थक (मैट्रिआर्कल)। पुं० १. मामा। २. ननिहाल। वि० सं० ‘मात्रिक’ का अशुद्ध रूप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मातृक-च्छिद :
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पुं० [सं० मातृ-क=शिर, ष० त०, मातृक√छिद् (काटना)+क, तुक्] परशुराम। |
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मातृक-प्रणाली :
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स्त्री० दे० ‘मातृ-तंत्र’। |
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मातृका :
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पुं० [सं० मातृ+कन्+टाप्] १. जननी। माता। २. गौ। ३. दूध पिलानेवाली दाई। धाय। ४. सौतेली माँ। उपमाता। ५. तांत्रिकों की एक प्रकार की देवियाँ जिनकी संख्या मात कही गयी है। ६. वर्णमाला की बारहखड़ी। ७. ठोढ़ी पर की आठ विशिष्ट नसें। ८. वह स्त्री जो लड़कियों, दाइयों आदि के कामों को देख-रेख करती हो। (मेट्रन)। |
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मातृका-क्रम :
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पुं० दे० ‘अक्षर क्रम’। |
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मातृत्व :
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पुं० [सं० मातृ+त्व] मातृ या माता अर्थात् संतानवती होने की अवस्था पद या भाव। (मैटर्निटी)। |
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मातृपक्ष :
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पुं० [सं० ष० त०] किसी की माता के पूर्वजों का कुल या पक्ष। ननिहाल। |
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मातृष्वसेय :
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पुं० [सं० मातृष्वस्+ढक्, एय] [स्त्री० मातृष्वसेयी] मौसेरा भाई। |
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मात्र :
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अव्य० [सं०√मा (मान)+त्रण्] इस, इन या इतने से अधिक दूसरा नही। जैसे—(क) मात्र एक रुपया मुझे मिला है। (ख) मात्र १५ आदमी वहाँ पहुँचे। (ग) सब चुप रहे, मात्र बोलनेवाले अधिकारी गण थे। |
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मात्रक :
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पुं० [सं० मात्र+कन्] १. वह निश्चित मात्रा या मान जिसे एक मानकर उसी के हिसाब से या मेल से अन्य चीजों की संख्या निर्धारित की जाय। इकाई। (यूनिट)। २. किसी समूह की कोई एक वस्तु या अंग। ३. वह जिसकी भिन्न या स्वतन्त्र सत्ता हो। (यूनिट)। |
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मात्रा :
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स्त्री० [सं० मात्र+टाप्] १. लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई दूरी, विस्तार संख्या आदि जानने या निश्चित करने का परिमाण या साधन। २. कोई ऐसा मानक उपकरण या साधन जिससे कोई चीज तौली या नापी-जोखी जाती हो। परिमाण या माप जानने का साधन। ३. किसी वस्तु का ठीक आयतन, तौल या नाप। परिमाण। ४. किसी पूरी या समूची इकाई का उतना अंश या भाग जितना अपेक्षित, आवश्यक या प्रस्तुत हो। जैसे—(क) वहां सभी पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में रखे थे। (ख) दाल में नमक कुछ अधिक मात्रा में पड़ गया है। ४. औषधि आदि का उतना अंश या परिमाण जितना एक बार में खाया जाता हो या खाया जाना अपेक्ष्य हो या उचित हो। ६. किसी चीज का नियत या निश्चित छोटा भाग। ७. उतना काल या समय जितना एक ह्रस्व अक्षर का उच्चारण करने में लगता है। ८. उच्चारण, संगीत आदि में काल का उतना अंश जितना किसी विशिष्ट ध्वनि के उच्चारण में लगता है। ९. बारह खड़ी लिखने में वह स्तर-चिन्ह जो किसी अक्षर के ऊपर नीचे या आगे-पीछे लगता है। जैसे—ह्रस्व इ की मात्रा और दीर्घ ऊ का मात्रा। १॰. संगीत में उतना काल जितना एक स्वर के उच्चारण में लगता है। ११. संगीत मे ताल का नियत या निश्चित विभाग। जैसे—तीन मात्राओं का ताल, चार मात्राओं का ताल। १२. इंद्रिय, जिसके द्वारा विषयों का ज्ञान होता है। १३. अंग। अवयव। १४. किस वस्तु का बहुत छोटा कण या अणु। १५. आवृत्ति रूप। १६. बल। शक्ति। १७. राजाओं के वैभव के सूचक घोड़े, हाथी आदि परिच्छद। १८. कान में पहनने का एक प्रकार का घोडा। |
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मात्रा-वृत्त :
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पुं० [मध्य० स०] मात्रिक छन्द। |
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मात्रा-स्पर्श :
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पुं० [ष० त०] विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग। |
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मात्रासम :
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पुं० [स० त०+कन्] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ और अन्त में गुरु होता है। |
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मात्रिक :
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वि० [सं० मात्रा+ठक्-इक] १. मात्रा-संबंधी। २. किसी एक इकाई से सम्बन्ध रखनेवाला। एकात्मक। (युनिटरी)। ३. जिसमें मात्राओं की गणना या विचार होता है। जैसे—मात्रिक छन्द। |
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मात्रिक-छंद :
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पुं० [सं० कर्म० स०] वह छंद जिसके चरणों की गठन मात्राओं का ध्यान रखकर की गयी हो। |
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मात्सर :
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वि० [सं० मत्सर+अण्] मत्सरयुक्त। |
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मात्सर्य :
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पुं० [सं० मत्सर+ष्यञ्] मत्सर का भाव। ईर्ष्या। डाह। |
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मात्स्य :
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वि० [सं० मत्स्य+अण्] मछली-संबंधी। मछली का। पुं० एक प्राचीन ऋषि। |
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मात्स्य-न्याय :
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पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसी स्थिति जिसमें बड़ा या शक्तिशाली छोटे या दुर्बल को उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। |
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मात्स्यिक :
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पुं० [सं० मतस्य+ठक्-इक] मछली मारनेवाला। मछुआ। वि० मत्स्य या मछली से सम्बन्ध रखनेवाला। |
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